Monday, April 25, 2016

आर एस एस की सोच में बदलाव की ज़रुरत है


शेष नारायण सिंह 




 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के यूनिफार्म में एक बार फिर बदलाव कर दिया गया है . १९२५  में जब आर एस एस की स्थापना हुयी थी तब से उनके कार्यकर्ताओं की यूनिफार्म का हिस्सा रहा खाकी निकर अब बदल दिया गया है . अब  आर एस एस के स्वयंसेवक फुल पैंट पहना करेगें . इसके  पहले भी दो एक बार  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  वालों ने अपने कार्यकर्ताओं की वर्दी में बदलाव  किया था. हालांकि खाकी निकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों की पहचान का हिस्सा शुरू से ही बना रहा था . दिलचस्प बात यह है कि कुछ टी वी चैनलों ने आर एस  एस की वर्दी में हुए बदलाव को  राष्ट्रीय महत्त्व की बात माना और निकर की फुल पैंट तक की  यात्रा को राष्ट्रीय बहस के मुद्दा बनाने की कोशिश की .  इस बात से इनकार नहीं किया जा  सकता कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में बड़े बदलाव की ज़रुरत है . उनके सदस्य अब पूरी तरह से सत्ता में हैं , कार्यपालिका,  विधायिका,  नौकरशाही, मीडिया हर जगह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  के स्वयंसेवक महत्वपूर्ण पदों पर बैठाए जा रहे हैं . मुझे निजी तौर पर इन नियुक्तियों के बारे में कोई एतराज़ नहीं है , बल्कि मैं मानता हूँ कि अपने बन्दों को अच्छे पदों पर नियुक्त करने की जो परम्परा १९७१ के बाद से कांग्रेस ने डाली थी उसकी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  वाले भी आगे बढ़ा रहे हैं .. उनको भी अपने चेलों को महत्वपूर्ण पदों पर भर्ती करने का उतना ही अधिकार है जितना कांग्रेसियों को था  या यू पी ए के पहले शासन काल में कम्युनिस्टों को था. बस मेरा सीमित तर्क यह है कि अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  देश की सत्ता का मालिक है , उसकी मातहत एक पार्टी केंद्र में स्पष्ट  बहुमत के साथ सत्ता में है और देश के हर विश्वविद्यालय में उनके सदस्य एबीवीपी की ज़रिये  कैम्पस की मुकामी राजनीति में सक्रिय हैं ,नौकरशाही में भी उनके सदस्यों की भरमार है इसलिए अब उनके किसी भी फैसले से देश की पूरी आबादी प्रभावित होगी . अभी पूरी दुनिया ने देखा कि किस तरह  से हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में में कैम्पस में अपनी राजनीति चमकाने के  के लिए  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों ने देश की कैसी तस्वीर पेश कर दी . इस से बचना होगा . आर एस एस के नागपुर स्थित मालिकों और दिल्ली में उनके संगठन की तरफ से राज कर रहे लोगों को हमेशा याद रखना होगा कि १२५ करोड़ देशवासियों की जनसँख्या में उनको केवल १७ करोड़ (171,657,549 ) के आस पास वोट ही मिले हैं. हमारी संवैधानिक व्यवस्था है कि उनको पूरे देश का नेतृत्व करना है. जाहिर है कि आर एस एस को अपनी निकर के साथ साथ अपनी सोच को भी एक ऐसी राजनीतिक पार्टी के रूप में बदलना होगा जिसको अब सत्ता पाने के लिए संघर्ष नहीं  करना है , अब सत्ता मिल चुकी है . जिन लोगों पर हुकूमत करने का उनको अधिकार मिला है उनमें ऐसे भी लोग हैं जो आर एस  एस को किसी भी कीमत पर सत्ता नहीं देना चाहते थे लेकिन अब उनको भी मौजूदा स्थिति को स्वीकार करना पडेगा. ऐसी स्थिति में आर एस एस की राजनीतिक समझदारी को पूरे देश के  लिए इन्क्लूसिव बनाना पडेगा .



संतोष की बात यह है कि मौजूदा सरकार और आर एस एस के नेता अब महात्मा गांधी को  अपना हीरो मानते हैं . अगर महात्मा की नीतियों को भी देश के मौजूदा शासक सामाजिक समरसता के लिए अपना लें तो देश और समाज के लिए बहुत अच्छा होगा. हालांकि यह काम बहुत मुश्किल होगा क्योंकि आज की सत्ताधारी पार्टी और उसके साथियों में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो महात्मा गांधी के हत्यारों को महान  बताते पाए जाते हैं . आर  एस एस को ऐसे लोगों पर लगाम  लगानी पड़ेगी . 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में प्रार्थना के लिए जा रहे  महात्मा जी को एक हत्यारे ने गोली मार दिया था और पूरा देश सन्न रह गया था। आज़ादी की लड़ाई में शामिल सभी राजनीतिक जमातें दुःख में  डूब गयी थी। जो जमातें आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्होंने गांधी जी की शहादत पर कोई आंसू नहीं बहाए। ऐसी ही एक जमात हिन्दू महासभा थी . हिन्दू महासभा के कई सदस्यों की साज़िश का ही नतीजा था जिसके कारण महात्मा गांधी की मृत्यु हुयी थी।  हिन्दू महासभा के सदस्यों पर ही  महात्मा गांधी की हत्या का मुक़दमा चला और उनमें से कुछ लोगों को फांसी हुयी, कुछ को आजीवन कारावास हुआ और कुछ तकनीकी आधार पर बच गए। नाथूराम गोडसे ने गोलियां चलायी थीं , उसे फांसी हुयी, उसके भाई गोपाल गोडसे को साज़िश में शामिल पाया गया लेकिन उसे आजीवन कारावास की सज़ा हुयी।  उस वक़्त के आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर को भी महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार  किया गया था  . सरदार पटेल उन दिनों देश के गृहमंत्री थे और उन्होंने  गोलवलकर से एक अंडरटेकिंग लेकर  कुछ शर्तें मनवा कर जेल से रिहा किया था . बाद के दिनों में आर एस एस ने हिन्दू महासभा से पूरी  तरह से किनारा  कर लिया था। बाद में जनसंघ की स्थापना हुयी और आर एस एस के प्रभाव वाली एक नयी राजनीतिक पार्टी की तैयार हो गयी। आर एस एस के प्रचारक दीन दयाल उपाध्याय  को नागपुर वालों ने जनसंघ का काम करने के लिए भेजा था। बाद में  वे जनसंघ के सबसे बड़े नेता हुए।  1977  तक आर एस एस और जनसंघ वालों ने महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की नीतियों की खूब जमकर आलोचना की और  गांधी-नेहरू की राजनीतिक  विरासत को ही देश में होने वाली हर परेशानी का कारण बताया . लेकिन 1980 में जब जनता पार्टी को तोड़कर जनसंघ वालों ने   भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की तो पता नहीं क्यों उन्होंने अपनी पार्टी के राजनीतिक उद्देश्यों में  गांधियन  सोशलिज्म को भी शामिल कर लिया। ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस  का कोई आदमी कभी शामिल नहीं हुआ था। नवगठित बीजेपी  को कम से कम  एक ऐसे महान व्यक्ति तलाश थी जिसने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया हो . हालांकि अपने पूरे जीवन भर महात्मा गांधी कांग्रेस के नेता रहे लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपनाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया .और अब आर एस एस और बीजेपी के लोग महात्मा गांधी को अपना पूर्वज मानते हैं . हो सकता है कुछ वर्षों बाद वे इतिहास की किताबों में यह भी लिखवा दें कि महात्मा गांधी ने १९२५ में आर एस एस  की स्थापना में भी सहयोग दिया था.  

अंग्रेज़ी  राज  के  बारे में महात्मा गांधी और आर एस एस में बहुत भारी मतभेद था। महात्मा गांधी अंग्रेजों को हर कीमत पर हटाना चाहते थे  जबकि आर एस एस ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे  अंग्रेजों को देश से भगाया अजा सके. 1925 से लेकर 1947 तक आर एस एस को अंग्रेजों के सहयोगी के रूप में देखा जाता है . शायद इसीलिये जब 1942 में भारत छोडो का नारा देने के बाद देश के सभी नेता जेलों में ठूंस दिए गए थे तो आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर सहित उनके सभी नेता जेलों के बाहर थे और  अपना सांस्कृतिक काम चला रहे थे .

महात्मा जी की ह्त्या के 30 साल बाद जब आर एस एस वाले जनता पार्टी के सदस्य बने तो उन्हें ऐलानियाँ महात्मा गांधी का विरोध करना बंद किया .महात्मा गांधी से अपनी करीबी और नाथूराम गोडसे से अपनी दूरी साबित करने के लिए आर एस एस ,जनसंघ और बीजेपी के नेताओं ने हमेशा से ही भारी मशक्क़त की है .  आडवानी समेत सभी बड़े नेताओं ने बार बार यह कहा था कि जब महात्मा गांधी की हत्या हुयी तो नाथूराम गोडसे आर एस एस का सदस्य नहीं था .यह बात तकनीकी आधार पर सही हो सकती है लेकिन गांधी जी  की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा  काट कर लौटे  नाथू राम गोडसे के भाई , गोपाल गोडसे ने सब गड़बड़ कर दी। उन्होंने अंग्रेज़ी पत्रिका " फ्रंटलाइन " को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया कि आडवानी  और बीजेपी के अन्य नेता उनसे दूरी  नहीं  बना सकते। . उसने कहा कि " हम सभी भाई आर एस एस में थे। नाथूराम,दत्तात्रेय . मैं और गोविन्द सभी आर एस एस में थे। आप कह सकते हैं  की हमारा पालन पोषण अपने घर में न होकर आर एस एस में हुआ। . वह हमारे लिए एक परिवार जैसा था।  . नाथूराम आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे।। उन्होंने अपने बयान में यह कहा था कि  उन्होंने आर एस एस छोड़ दिया था . ऐसा उन्होंने  इसलिए कहा क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आर एस एस वाले बहुत परेशानी  में पड़  गए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी आर एस एस छोड़ा नहीं था "


महात्मा गांधी को तो मौजूदा शासक वर्ग अपना बता चुका है . अब उनको चाहिए कि वे करीब २० करोड़ उन भारतीयों को भी अपना बना लें जिनका धर्मं इस्लाम है . यह देश मुसलामानों का भी है और हिन्दुओं का भी . हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने यह बात बहुत साफ़ तौर पर कह दी है .  क्योंकि १७ करोड़ लोगों के वोट लेकर बनी सरकार २० करोड़ लोगों को नज़रन्दाज़ नहीं कर सकती.

Wednesday, March 2, 2016

उर्दू को विदेशी भाषा बताना अज्ञानता है



शेष नारायण सिंह­­­



पिछले दिनों एक खबर आई थी कि दिल्ली की मेट्रो ट्रेन में एक आदमी उर्दू किताब पढ़ रहा था। जिसे देखकर पास ही खड़े कुछ लोगों ने उससे बात करनी शुरू कर दी। इन लोगों की आँखों में उस व्यक्ति के लिए नफरत साफ दिखाई दे रही थी। इतना ही नहींये लोग उसे देखकर कह रहे थे कि उर्दू पढनेवाले सभी पाकिस्तानी है। इन लोगों को पकिस्तान भेज देना चाहिए।’   ज़माना बदल गया है . इतनी बड़ी बात पर कहीं कोई हंगामा नहीं हुआ . उर्दू अखबारों के अलावा कहीं ज़िक्र तक नहीं हुआ . लेकिन आज से करीब तीस साल पहले था तक होता था . १९७८ में देश के गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कहीं कह दिया था कि उर्दू तो विदेशी भाषा है . उस वक़्त के अखबारों में इस बात की खूब चर्चा हुयी थी और कई सम्पादकीय लेखकों ने चौधरी साहेब को आगाह किया था कि उर्दू विदेशी तो कतई नहीं है , वह उनके अपने जन्मस्थान के आसपास के इलाकों  में ही पैदा हुयी और इसी खड़ी बोली के इलाके में परवान चढ़ी. उन दिनों राजनीति में  सरे फेहरिस्त ऐसे लोग होते थे जिनमें से ज़्यादातर आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो चुके थे . उन्होंने अपनी आँखों से देखा था कि उर्दू बोलने और लिखने वालों की भारत की जंगे- आज़ादी में कितनी बड़ी भूमिका हुआ करती थी . चौधरी चरण सिंह भी भले आदमी थे और उन्होंने अपनी  गलती को स्वीकार कर लिया और बात आई गयी हो गयी.

दिल्ली मेट्रो की घटना को अगर पैमाना माना जाए तो यह मानना पडेगा कि हालात बिगड़ चुके हैं , बहुत बिगड़ चुके हैं . दिल्ली के आसपास जन्मी  और पलीबढी उर्दू ज़बान को अब गैर ज़िम्मेदार लोगों की नज़र में खतरनाक  भाषा माना जाने लगा है . किसी भी  भाषा और उसमें लिखा साहित्य अगर खतरनाक माना जाने लगे तो यह समाज में मनमानी की ताकतों के बढ़ने का संकेत माना जाता है . इंदिरा गांधी ने जब इमरजेंसी लगाई थी तो किसी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस वाले उसके घर से या झोले से मार्क्सवादी साहित्य की बरामदगी दिखा देते थे . बस उसको खूंखार आतंकवादी मान लिया जाता था. १९८६ में जब से बाबरी मस्जिद के खिलाफ आन्दोलन शुरू हुआ तब से उर्दू को भी खतरनाक  घोषित करने की साज़िश पर काम चल रहा है . हालांकि सरकारी तौर  पर तो ऐसा  नहीं हुआ है लेकिन सड़कों पर जो लोग किसी को भी अपमानित करने के लिए घूम रहे हैं , उन ठगों के लिए उर्दू पाकिस्तानी हो चुकी है जबकि सच्चाई यह है कि उर्दू भारतीय भाषा है और पाकिस्तान ने उसको अपनी सरकारी भाषा के तौर पर स्वीकार कर लिया है .  भारतीय के रूप में हमें इस पर गर्व होना चाहिए कि हमारी भाषा किसी और देश की राजभाषा है . तकलीफ तब होती है जब ऐसे कुछ नेता मिलते हैं जो हिंदुत्व की राजनीति के अलंबरदारों की बात को काटना तो चाहते हैं लेकिन उनको मालूम ही नहीं है कि देश के इतिहास में उर्दू का योगदान कितना है . वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था। इस लेख उन उर्दू प्रेमियों को संबोधित है जो इस ज़बान के खिलाफ हो रहे हमलों से तकलीफ महसूस  करते हैं .

आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। इसके विकास में दोस्ती का पैगाम लेकर आये सूफी फकीरों की खानकाहों का भी बहुत ज़्यादा  योगदान है .सूफियों के दरवाज़ों पर अमीर गरीब सभी आते थे .सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। उनके चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दूमुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थेआने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।


हज़रत अमीर खुसरो की शायरी हमारी  बेहतरीन अदब और विरासत का हिस्सा है . उनसे महबूब-ए-इलाही, हज़रत निजामुद्दीन औलिया  ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।

जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीतसाहित्यवास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है। इस तरह दक्षिण में  भी उर्दू भाषा पूरी शान की भाषा बनी .  1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।वहां अबुलफजल भी थेतो फैजी भी थेअब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेवबाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावत की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी ही है .


उर्दू भारत की आज़ादी की लडाई के भी भाषा  है .कांग्रेस के अधिवेशन में 1916 में लखनऊ में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है  लेकिन उम्मीद बनाए रखने की ज़रूरत है क्योंकि इतनी संपन्न भाषा को राजनीति का कोई भी कारिन्दा दफ़न नहीं का सकता ,चाहे जितना ताक़तवर हो जाए . उर्दू भारत की भाषा है और इसको विदेशी कहना अपनी जहालत का परिचय देना ही है 

प्रधानमंत्री को अपनों से ही मिल रही है चुनौती


शेष नारायण सिंह

·        प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उड़ीसा की एक सभा में दुःख प्रकट किया कि उनके विरोधी उनकी सरकार गिराना चाहते हैं और इस काम में विरोधियों को उन गैर सरकारी संगठनों से मदद मिल रही है जिनको विदेशों से आर्थिक सहायता मिलती है . प्रथम दृष्टया यही लगता है कि उनका इशारा साफ़ साफ़ कांग्रेस की तरफ था क्योंकि कांग्रेस ने ही उनके हाथों २०१४ में सत्ता गंवाई थी . जहां तक गैर सरकारी संगठनों का सवाल है उनकी सरकार तीस्ता सीतलवाड जैसे लोगों के कुछ संगठनों पर कार्रवाई कर रही है सो शक की सुई उनकी तरफ गयी.  गौर से देखने पर समझ में आता है कि कांग्रेस के पास लोकसभा में कुल ४५  सीटें हैं, स्पष्ट बहुमत के साथ बनी हुयी सरकार को गिरा पाना कांग्रेस के बूते की बात नहीं है . विपक्ष की पार्टियों में वैसा एका भी नहीं है कि कांग्रेस को कुछ मजबूती मिल सके. नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के अलावा बाकी सभी नेताओं की पार्टियां कांग्रेस को नापसंद करती हैं . ऐसी हालत में  प्रधानमंत्री मोदी के उन विरोधियों की पड़ताल ने एक दिलचस्प मोड़ ले लिया कि वे कौन लोग हैं जो उनकी सरकार गिराना चाहते हैं . नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों में दिन भर चकरघिन्नी काटने वाले पत्रकारों की नज़र कुछ ऐसे तथ्यों की तरफ मुड़ गयी जो आम तौर पर असंभव माने जायेगें . पिछले एक महीने के राजनीतिक घटनाक्रम की अगर व्याख्या की जाए तो तस्वीर बिलकुल दूसरी उभरती है .  ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री के वे विरोधी जो उनकी सरकार गिराना चाहते हैं वे सत्ता के बाहर नहीं , अन्दर ही कहीं विद्यमान हैं . ठीक उसी  तरह से जैसे १९७८ में मोरारजी देसाई की सरकार गिराई गयी थी या १९८९ में राजीव गांधी को तीन चौथाई बहुमत वाली सरकार  का नेता होने के बावजूद  बहुत ही मजबूर सरकार का मुखिया बनना  पडा था.

जिन कारणों से प्रधानमंत्री की राजनीतिक अथारिटी कमज़ोर पड़ रही है उसमें उनका उन वर्गों में अलोकप्रिय होना है जिन वर्गों ने  उनको पूरे जोरशोर से मदद किया था . लोकसभा चुनाव २०१४ में प्रधानमंत्री का सबसे बड़ा सहयोगी नौजवानों का वह तबका था जो  देश को प्रगति के रास्ते पर ले जाना चाहता था. उस वर्ग को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी में वे संभावनाएं नज़र आई थीं .उन नौजवानों में एक बहुत बड़ा वर्ग छात्रों का था. पहली बार बीजेपी को जातपांत  के दायरे से ऊपर उठकर नौजवानों ने समर्थन दिया था . लेकिन आजकल छात्रों के बीच नरेंद्र मोदी के विरोध का माहौल बन गया  हैं . हालांकि उनके चाकर विश्लेषक यह बताने की कोशिश करेगें कि हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चल रहा विरोध बहुत ही छोटा है लेकिन उनको भी मालूम है  कि देश के हर विश्वविद्यालय में मौजूदा सरकार की वह साख नहीं है जो डेढ़ साल पहले हुआ करती थी . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की घटना का नतीजा तो यह हुआ है कि दुनिया भर के नामी शिक्षा केन्द्रों में भी सरकार की निंदा हो रही है . हार्वर्ड  विश्वविद्यालय जैसे केन्द्रों में भी सरकार के अकादमिक संस्थाओं को दबोचने के  रुख के खिलाफ प्रस्ताव पास किये गए हैं . अमरीकी और यूरोपीय विश्वविद्यालय में नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ बने माहौल का नतीजा यह होगा कि अगली बार की अमरीका यात्रा के दौरान उनको वह स्वागत नहीं मिलेगा जो पिछली यात्राओं में मिलता रहा है .
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की घटना को इतना  बड़ा बनाने वालों पर नज़र डालें तो साफ़ समझ में  जाएगा इस घटना को इतनाबड़ा बनाने में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का योगदान है . आम तौर पर माना जाता है कि खिल भारतीय विद्यार्थी परिषद बीजेपी का छात्र संगठन है लेकिन ऐसा नहीं है . अगर यह कहा जाए की बीजेपी एबीवीपी का राजनीतिक संगठन है तो ज्यादा सही होगा क्योंकि बीजेपी की पूर्ववर्ती  पार्टी , भारतीय जनसंघ  की स्थापना १९५१ में हिन्दू महासभा के नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने  की थी जबकि अखिल भारतीय विद्यार्थी की स्थापना मुंबई में ९ जुलाई १९४९ को चुकी थी और यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन था . आज एबीवीपी विश्व के सबसे बड़ा छात्र संगठन हैं।  अगर गौर से देखा जाए तो साफ़ समझ में आता है  कि हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयों की घटनाओं को बिगाड़ने में एबीवीपी की सबसे अहम् भूमिका है . ज़ाहिर है कि एबीवीपी को किसी विरोधी दल के नेता का आशीर्वाद नहीं मिला हुआ है . यह आर एस एस का एक बहुत ही मज़बूत संगठन है और देश के कई बहुत बड़े नेताओं ने एबीवीपी से ही अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की है . गृहमंत्री राजनाथ सिंह  और वित्त मंत्री अरुण जेटली एबीवीपी से ही आये हैं . दिल्ली विधान सभा के जिन सदस्य महोदय ने पटियाला हाउस कोर्ट में सारी हंगामा आयोजित किया वे भी एबीवीपी के  हैं . दिल्ली के विवादास्पद पुलिस कमिश्नर भीम सैन बस्सी  के बारे में पक्का पता तो  नहीं है लेकिन वे भी दिल्ली के श्रीराम कालेज आफ कामर्स के छात्र रहे हैं जहां एबीवीपी का भारी प्रभाव हुआ  करता था. यह लगभग तय है कि बंडारू दत्तात्रेय  , महेश  गिरी और स्मृति इरानी के कार्यों से हालात इस मुकाम पर न पंहुचते जहां पंहुचे हुए हैं और दिल्ली के विधायक ओ पी शर्मा अगर दिल्ली के पुलिस कमिश्नर बी एस बस्सी ने योगदान न किया होता. इनमें से कोई भी विपक्षी पार्टियों का नहीं है .
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उडीसा की सभा में कुछ  गैर सरकारी संगठनों को भी अपने खिलाफ हो रही साज़िश में ज़िम्मेदार बताया . प्रधानमंत्री को चाहिए कि इस बात की पूरी जांच करवाएं और देश को बाखबर करें . वैसे यह भी सच है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी एक गैर सरकारी सांस्कृतिक संगठन है और उनकी सरकार में मजुजूद बहुत सारी ताक़तवर लोगों के अपने निजी एन जी ओ हैं .

उनकी सरकार के इकबाल को कमज़ोर करने में पिछले कई  दिनों से जारी जाट आरक्षण के मामले में हरियाणा में चल रहे आन्दोलन का भी योगदान है . इस आन्दोलन का कोई नेता नहीं है . पता चला है कि  हरियाणा के कुछ  कांग्रेसी और बीजेपी के वे नेता जो मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे , इस आन्दोलन को हवा दे रहे हैं .इस आन्दोलन का कोई  नेता भी नहीं है इसलिए इसने विकराल रूप धारण कर लिया है . दिल्ली में जब निर्भया बलात्कार काण्ड का जघन्य अपराध हुआ था तब भी सडकों पर उतर आये नौजवानों का कोई नेता नहीं  था जिसके कारण उस वक़्त की मनमोहन सरकार की छवि बहुत खराब हुयी थी . उसी तरह इस बात की पूरी संभावना है कि  आरक्षण का यह आन्दोलन स्वतःस्फूर्त हो लेकिन सरकार की छवि को निश्चित रूप से कमज़ोर कर रहा  है . प्रधानमंत्री के लिए चिंता की बात यह भी हो सकती है कि जाट समुदाय के लोग उनकी सरकार से नाराज़ हो रहे हैं . सबको मालूम है कि उत्तर प्रदेश ,हरियाणा और राजस्थान में जाट बिरादरी के लोगों ने लोकसभा २०१४ में बीजेपी को लगभग १०० प्रतिशत समर्थन दिया था . ज़ाहिर है कि उनको भी बीजेपी के अन्दर के लोग ही भड़का रहे हैं , बाहरी कोई नहीं है .
ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री को राजनीतिक प्रबंधन के काम में फ़ौरन जुट जाना चाहिए क्योंकि स्पष्ट बहुमत की सरकार बनवा कर देश ने उनसे बहुत उम्मीदें लगा रखी हैं . राजनीतिक अस्थिरता से देश के विकास को धक्का लगता है इसलिए उसे हर कीमत पर काबू में रखना चाहिए .

Friday, October 2, 2015

महात्मा गांधी की किताब 'हिन्द स्वराज' का ऐतिहासिक सन्दर्भ




शेष नारायण सिंह

 हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश, मार्क्‍स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्‍स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्‍स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है . ज्योतिबा फुले की किताब ' गुलामगीरी' ने बहुत सारे दार्शनिकों और चिंतकों को प्रभावित किया है .


चालीस साल की उम्र में मोहनदास करमचंद गांधी ने 'हिंद स्वराज' की रचना की। 1909 में लिखे गए इस बीजक में भारत के भविष्य को संवारने के सारे मंत्र निहित हैं। अपनी रचना के सौ साल बाद भी यह उतना ही उपयोगी है जितना कि आजादी की लड़ाई के दौरान था। इसी किताब में महात्मा गांधी ने अपनी बाकी जिंदगी की योजना को सूत्र रूप में लिख दिया था। उनका उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का था। उन्होंने भूमिका में ही लिख दिया था कि अगर उनके विचार गलत साबित हों, तो उन्हें पकड़ कर रखना जरूरी नहीं है। लेकिन अगर वे सच साबित हों तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक आचरण करें। उनकी भावना थी कि ऐसा करना देश के भले के लिए होगा।
अपने प्रकाशन के समय से ही हिंद स्वराज की देश निर्माण और सामाजिक उत्थान के कार्यकर्ताओं के लिए एक बीजक की तरह इस्तेमाल हो रही है। इसमें बताए गए सिद्धांतों को विकसित करके ही 1920 और 1930 के स्वतंत्रता के आंदोलनों का संचालन किया गया। 1921 में यह सिद्घांत सफल नहीं हुए थे लेकिन 1930 में पूरी तरह सफल रहे। हिंद स्वराज के आलोचक भी बहुत सारे थे। उनमें सबसे आदरणीय नाम गोपाल कृष्ण गोखले का है। गोखले जी 1912 में जब दक्षिण अफ्रीका गए तो उन्होंने मूल गुजराती किताब का अंग्रेजी अनुवाद देखा था। उन्हें उसका मजमून इतना अनगढ़ लगा कि उन्होंने भविष्यवाणी की कि गांधी जी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही उस पुस्तक का नाश कर देंगे। महादेव भाई देसाई ने लिखा है कि गोखले जी की वह भविष्यवाणी सही नहीं निकली। 1921 में किताब फिर छपी और महात्मा गांधी ने पुस्तक के बारे में लिखा कि "वह द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है, पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। उसमें से मैंने सिर्फ एक शब्द रद्द किया है। उसे छोड़कर कुछ भी फेरबदल नहीं किया है। यह किताब 1909 में लिखी गई थी। इसमें जो मैंने मान्यता प्रकट की है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है।"
महादेव भाई देसाई ने किताब की 1938 की भूमिका में लिखा है कि '1938 में भी गांधी जी को कुछ जगहों पर भाषा बदलने के सिवा और कुछ फेरबदल करने जैसा नहीं लगा। हिंद स्वराज एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति की शुरुआती रचना है जिसे आगे चलकर भारत की आजादी को सुनिश्चित करना था और सत्य और अहिंसा जैसे दो औजार मानवता को देना था जो भविष्य की सभ्यताओं को संभाल सकेंगे। किताब की 1921 की प्रस्तावना में महात्मा गांधी ने साफ लिख दिया था कि 'ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करने के लिए मेरी कोशिशें चल रही हैं, मैं जानता हूं कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है।..... लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज की मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पालियामेंटरी ढंग का स्वराज्य पाना है।"
इसका मतलब यह हुआ कि 1921 तक महात्मा गांधी इस बात के लिए मन बना चुके थे कि भारत को संसदीय ढंग का स्वराज्य हासिल करना है। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि आजकल देश में एक नई तरह की तानाशाही सोच के कुछ राजनेता यह साबित करने के चक्कर में हैं कि महात्मा गांधी तो संसदीय जनतंत्र की अवधारणा के खिलाफ थे। इसमें दो राय नहीं कि 1909 वाली किताब में महात्मा गांधी ने ब्रिटेन की पार्लियामेंट की बांझ और बेसवा कहा था (हिंद स्वराज पृष्ठ 13)। लेकिन यह संदर्भ ब्रिटेन की पार्लियामेंट के उस वक्त के नकारापन के हवाले से कहा गया था। बाद के पृष्ठों में पार्लियामेंट के असली कर्तव्य के बारे में बात करके महात्मा जी ने बात को सही परिप्रेक्ष्य में रख दिया था और 1921 में तो साफ कह दिया था कि उनका प्रयास संसदीय लोकतंत्र की तर्ज पर आजादी हासिल करने का है। यहां महात्मा गांधी के 30 अप्रैल 1933 के हरिजन बंधु के अंक में लिखे गए लेख का उल्लेख करना जरूरी है। लिखा है, ''सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें सीखा भी हूं। उमर में भले ही मैं बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आतंरिक विकास होना बंद हो गया है।.... इसलिए जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो तो वह एक ही विषय पर लिखे हुए दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने।" इसका मतलब यह हुआ कि महात्मा जी ने अपने विचार में किसी सांचाबद्घ सोच को स्थान देने की सारी संभावनाओं को शुरू में ही समाप्त कर दिया था।
उन्होंने सुनिश्चित कर लिया था कि उनका दर्शन एक सतत विकासमान विचार है और उसे हमेशा मानवता के हित में संदर्भ के साथ विकसित किया जाता रहेगा।
महात्मा गांधी के पूरे दर्शन में दो बातें महत्वपूर्ण हैं। सत्य के प्रति आग्रह और अहिंसा में पूर्ण विश्वास। चौरी चौरा की हिंसक घटनाओं के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन को समाप्त कर दिया था। इस फैसले का विरोध हर स्तर पर हुआ लेकिन गांधी जी किसी भी कीमत पर अपने आंदोलन को हिंसक नहीं होने देना चाहते थें। उनका कहना था कि अनुचित साधन का इस्तेमाल करके जो कुछ भी हासिल होगा, वह सही नहीं है। महात्मा गांधी के दर्शन में साधन की पवित्रता को बहुत महत्व दिया गया है और यहां हिंद स्वराज का स्थाई भाव है। लिखते हैं कि अगर कोई यह कहता है कि साध्य और साधन के बीच में कोई संबंध नहीं है तो यह बहुत बड़ी भूल है। यह तो धतूरे का पौधा लगाकर मोगरे के फूल की इच्छा करने जैसा हुआ। हिंद स्वराज में लिखा है कि साधन बीज है और साध्य पेड़ है इसलिए जितना संबंध बीज और पेड़ के बीच में है, उतना ही साधन और साध्य के बीच में है। हिंद स्वराज में गांधी जी ने साधन की पवित्रता को बहुत ही विस्तार से समझाया है। उनका हर काम जीवन भर इसी बुनियादी सोच पर चलता रहा है और बिना खडूग, बिना ढाल भारत की आजादी को सुनिश्चित करने में सफल रहे।
हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने भारत की भावी राजनीति की बुनियाद के रूप में हिंदू और मुसलमान की एकता को स्थापित कर दिया था। उन्होंने साफ कह दिया कि, ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें तो उसे भी सपना ही समझिए।.... मुझे झगड़ा न करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? और मुसलमान को झगड़ा न करना हो, तो मैं क्या कर सकता हूं? हवा में हाथ उठाने वाले का हाथ उखड़ जाता है। सब अपने धर्म का स्वरूप समझकर उससे चिपके रहें और शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगड़े का मुंह हमेशा के लिए काला रहेगा।' (हिंद स्वराज, पृष्ठ 31 और 35) यानी अगर स्वार्थी तत्वों की बात न मानकर इस देश के हिंदू मुसलमान अपने धर्म की मूल भावनाओं को समझें और पालन करें तो आज भी देश में अमन चैन कायम रह सकता है और प्रगति का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
इस तरह हम देखते है कि आज से सौ से अधिक वर्ष पहले राजनीतिक और सामाजिक आचरण का जो बीजक महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज के रूप में लिखा था, वह आने वाली सभ्यताओं को अमन चैन की जिंदगी जीने की प्रेरणा देता रहेगा।

Friday, January 2, 2015

नौ ग्यारह के बाद सी आई ए ने मानवता को बार बार अपमानित किया



शेष नारायण सिंह  

 अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी ,सी आई ए को हमेशा से ही गैरकानूनी तरीके से अमरीकी मनमानी को लागू करने का हथियार माना जाता रहा है . तरह तरह की आपराधिक गतिविधियों में सी आई ए  को अक्सर शामिल पाया जाता है . दुनिया भर में कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों की हत्या के आरोप भी इस संगठन पर लगते रहे हैं . इसी क्रम में अमरीकी सेनेट की एक रिपोर्ट को देखा जा सकता है जिसमें लिखा है कि छब्बीस ग्यारह के आतंकी हमले के बाद अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी ने अपनी हिरासत में लिए गए लोगों से जिस तरह से पूछताछ की उस से लगता है की मानवता को हर क़दम पर अपमानित किया गया था. इसी हमले के बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने आतंकवाद को धार्मिक  आधार देने के अपने प्रयास को अमली जामा पहनाने की कोशिश शुरू कर दी थी. इस्लामिक  आतंकवाद , जेहादी आतंक आदि शब्द उसी दौर में ख़बरों की भाषा में घुस गए थे जो अब तक मौजूद हैं .इसी दौर में  अल कायदा के खिलाफ काम कारने के लिए सी आई ए को इतने अधिकार दे दिए गए की उसने पूरी दुनिया में अमरीकी विदेश विभाग के काम को रौंदना शुरू कर दिया और कई बार तो विदेश विभाग की मर्जी के खिलाफ भी सी आई ए ने काम किया है . यह सारी बात सी आई ए के बारे में अमरीकी सेनेट की ताज़ा रिपोर्ट में दर्ज है .
अमरीकी सेनेट की एक कमेटी की जांच रिपोर्ट आई है .करीब ६००० पृष्ठों की रिपोर्ट के केवल ६०० पृष्ठ ही जारी किये गए हैं लेकिन उनके आधार पर ही कहा जा सकता है कि सी आई ए ने मानवता के प्रति अपराध की  सारी सीमाएं पार कर ली थीं. रिपोर्ट में कैदियों से पूछ ताछ के अमानवीय तरीकों का उल्लेख किया गया है और यह बताया गया है कि  किस तरह से डाक्टरों की मर्जी के खिलाफ इस तरह की कारगुजारी की जाती थी. पूछ ताछ का सबसे खतरनाक तरीका वाटरबोर्डिंग का है . इसमें कैदी के मुंह पर कपड़ा लपेट कर उसे पीठ के बल लेटा दिया जाता है . मुंह पर पड़े कपडे पर पानी की बौछार डाली जाती है . उस व्यक्ति को लगता है कि वह पानी में डूब रहा है . नाक और मुंह से साँस लेना दूभर हो जाता है  और वह कई बार तो बेहोश भी हो जाता है . अगर सांस लेने में लगातार मुश्किल आती रही तो व्यक्ति के मर जाने का भी ख़तरा रहता है .संदिग्ध व्यक्तियों से पूछ ताछ का  जो दूसरा सबसे अमानवीय तरीका अपनाया गया वह उनको खाना खिलाने का था. गुदा के रास्ते खाना खिलाने का यह पैशाचिक काम भी पूरी तरह से राक्षसी प्रवृत्ति का नमूना है .सी आई ए ने जांच और प्रताड़ना के यह केंद्र पूरी दुनिया में अपने केन्द्रों पर बना रखा था. अमरीकी प्रभाव वाले जिन देशों में सी आई ए के औपचारिक दफ्तर हैंवहां इस तरह के जांच केंद्र बने हिये हैं . अफगानिस्तानथाईलैंड ,,रोमानिया ,लिथुआनिया और पोलैंड में  सी आई ए के आतंक के केंद्र बने हुए हैं .जिनको सरकारी भाषा में पूछताछ के केंद्र बताया जाता है .
छब्बीस ग्यारह के आतंकी हमले के बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश जूनियर लगभग बौखला गए थे . उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि अमरीका की सरकार आतंकवाद को ख़त्म कर देगी चाहे जो करना पड़े . सेनेट की कमेटी की रिपोर्ट से बाहर आयीं  सी आई ए की जांच की  यह तरकीबें उसी में से एक हैं .  सी आई  ए का यह तामझाम बुश जूनियर के राज में ही रहा सत्ता में आने पर ओबामा ने इसे ख़त्म कर दिया था. अमरीकी सेनेट की कमेटी की जो रिपोर्ट आयी है वह अमरीकी राष्ट्रपति भवन को आतंकवाद की मशीनरी के रूप में पेश करता है . अम्रीकी सरकार में जिम्मेवार पदों पर तैनात लोगों को भी व्हाईट हाउस के लोग अन्धकार में रख रहे थे . एक आतंरिक मेमो में अमरीकी राष्ट्रपति  भवन के एक आदेश का ज़िक्र किया गया है जिसमें लिखा है कि तत्कालीन विदेश मंत्री कालिन पावेल को इसके बारे में कुछ न बताया जाए क्योंकि अगर उनको पता चल गया तो हल्ला मचाएगें .
इस रिपोर्ट से इसी तरह की और भी बहुत सारी अजीबोगरीब जानकारी मिली है . एक जेल में सी आई ए के करीब ११९  कैदी  हिरासत में थे जिनमें से २६ ऐसे कैदी थे जिनको गलती से उठा लिया गया था लेकिन जब उठा लिया तो उनको बंद रखा गया क्योंकि बाहर जाकर वे सी आई ए की पोल न खोल दें .इस रिपोर्ट की ख़ास बात यह है कि मानवीय मूल्यों को पूरी तरह से दरकिनार कर देने के बाद भी सी आई ए को वह नतीजे नहीं मिले जिसकी उनको उम्मीद  थी. ओसामा बिन लादेन की खोज के  बारे में भी इस रिपोर्ट में दावे किये गए हैं लेकिन वहां भी सी आई ए के दावे पूरी तरह से गलत हैं . जांच के इन तरीकों से ओसामा बिन लादेन को तलाशने में कोई मदद नहीं मिली. हालांकि कमेटी की इस जांच को रिपब्लिकन पार्टी के सेनेट सदस्यों ने गलत बताया है लेकिन जानकार बताते हैं कि बुश जूनियर के राज की खामियों को उनकी पार्टी वाले आसानी से स्वीकार नहीं करते .
जबकि वर्तमान राष्ट्रपति ओबामा ने इस रिपोर्ट की तारीफ़ की है और कहा है कि अल कायदा को तबाह करने के अपने कार्यक्रम में सी आई ए को बड़ी सफलता मिली है लेकिन कैदियों के साथ हुए आचरण से अमरीकी मूल्यों की अनदेखी की है और उनके कारण अमरीका को दुनिया के  सामने शर्मिंदा होना पडेगा . इस  रिपोर्ट के आने के बाद सी आई ए ने भी एक जवाब दिया है . सी आई ए ने स्वीकार किया है कि उनसे गलती तो हुयी है लेकिन उनका इरादा सरकार को अँधेरे में रखने का नहीं है . अमरीकी प्रबुद्ध वार्ग इस बात का विश्वास नहीं कर रहा है क्योंकि पकडे जाने पर हर अपराधी अपने इरादों को पाक साफ़ बताता है . सी आई ए ने यह भी दावा किया है कि इस तरह से को जानकारी इकात्था की गयी ,सी आई ए को तबाह करने में उससे बहुत मदद मिली है . सी आई ए ने यह भी दावा किया कि तथाकथित इस्लामी आतंकवाद को ख़त्म करने में जांच के इन तरीकों से बहुत फ़ायदा मिला है  लेकिन सबको मालूम है कि यह बिलकुल गलत दावा है. पूरी दुनिया में सभ्य समाजों में किसी भी आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद का नाम देने की घोर निंदा हुयी है और सीरिया और इराक में इस्लामिक स्टेट के  संगठन के तहत जो आतंक चल रहा है वह अल कायदा की ही पैदावार है . यहाँ यह नोट करना भी दिलचस्प होगा कि अल कायदा और ओसामा बिन लादेन शुरुआती दौर में अमरीका की मदद से ही फलते फूलते रहे थे . मौजूदा रिपोर्ट में जो कुछ भी लिखा गया है उसमें से ज़्यादातर सी आई ए के अपने कर्मचारियों को लिखे गए पत्रों या आदेशों का उद्धरण है ,इसलिए याह नामुमकिन है की कोई भी इस रिपोर्ट पर गलत बयानी का आरोप लगा सके. मिसाल के तौर पर थाईलैंड के सी आई ए ठिकाने में कैद अल कायदा के अबू जुबैदा पर जब पूछ ताछ के दौरान अत्याचार शुरू हुआ तो वहां तैनात सी आई ए कर्मचारी रो पडा और यह बात उसने अपने बड़े अफसरों के पास लिख भेजा. उसकी बात को ज्यों का अत्यों रिपोर्ट में नक़ल कर दिया गया है .
इस रिपोर्ट से साफ़ हो गया है कि जो सी आई ए घोषित रूप से केवल इंटेलिजेंस इकठ्ठा करने की संस्था थी ,वह अब कैसे एक पुलिस संगठन के रूप में बदल चुकी है . इसके पहले  आन्या देशों के मामलों में जो भी दखलन्दाजी की जाती थी वह शुद्ध रूप से गुपचुप तरीकों से की जाती थी लेकिन अब अल कायदा के नाम पर वह खुले आम धर पकड़ करना ड्रोन हमले करना , लोगों को गिरफ्तार करना आदि कर रही है . छब्बीस ग्यारह के तुरंत बाद से ही राष्ट्रपति बुश जूनियर ने एक सेक्रेट आदेश पर दस्तखत कर दिया था जिसके अनुसार सी आई ए को " उन लोगों को पकड़ने और हिरासत में लेने का अधिकार दे दिया गया था अजो अमरीकी अवाम और उसके हितों के लिए ख़तरा बने हुए हों ." इस आदेश में पूछताछ करने का अधिकार नहीं दिया गया था .लगता है कि हस्बे मामूल सी आई ए ने बहुत सारे अधिकार लपक लिए  हैं .

Thursday, August 21, 2014

धर्मनिरपेक्षता की राजनीति पर संकट के बादल



शेष नारायण सिंह  

बीजेपी में हमारे एक मित्र हैं . उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा कि जब उनको किसी को  गाली देनी होती है तो वे उसे धर्मनिरपेक्ष कह देते हैं . मुझे अजीब लगा .वे भारत राष्ट्र को और  भारत के संविधान को अपनी नासमझी की ज़द में ले रहे थे क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है . संसद में उनकी पार्टी के एक नेता ने जिस तरह से धर्मनिरपेक्षता को समझाया उससे अब समझ में आ गया है कि यह मेरे उन मित्र की निजी राय नहीं है , यह उनकी पार्टी की राय है . उसके बाद बीजेपी/ आर एस एस के कुछ विचारक टाइप लोगों को टेलिविज़न पर बहस करते सुना और साफ़ देखा कि वे लोग  धर्मनिरपेक्ष आचरण में विश्वास करने वालों को ' सेकुलरिस्ट ' कह रहे थे और उस शब्द को अपमानजनक सन्दर्भ के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे . बात समझ में आ गयी कि अब यह लोग सब कुछ बदल डालेगें क्योंकि जब ३१ प्रतिशत वोटों के सहारे जीतकर आये हुए लोग आज़ादी की लड़ाई की विरासत को बदल डालने की मंसूबाबंदी कर रहे हो तो भारत को एक राष्ट्र के रूप में चौकन्ना हो जाने की ज़रुरत है .

भारत एक संविधान के अनुसार चलता है . यह बात प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बादनरेंद्र मोदी ने भी स्वीकार किया है और उस संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा है की भारतएक धर्मनिरपेक्ष देश है . प्रस्तावना में लिखा है कि ," हमभारत के लोगभारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्नसमाजवादीधर्म निरपेक्षलोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्यायविचारअभिव्यक्ति,विश्वासधर्म और उपासना की स्वतंत्रताप्रतिष्ठा और अवसर की समताप्राप्त करने के लिएतथा उन सब मेंव्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवम्बर १९४९ को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृतअधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं. ।" इस तरह के संविधान के हिसाब से देश को चलाने का संकल्प लेकर चल रहे देश की संसद में उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके से आये एक सदस्य ने जिस तरह की बातें  की और सरकार की तरफ से किसी भी ज़िम्मेदार  व्यक्ति ने उसको समझाया नहीं ,यह इस बात का सबूत है कि देश बहुत ही खतरनाक रास्ते पर चल पडा है . सबसे तकलीफ की बात यह है कि साम्प्रदायिकता के इन अलंबरदारों को सही तरीके से रोका नहीं गया . कांग्रेस में भी ऐसे लोग हैं जो राजीव गांधी और संजय गांधी युग की देन हैं और जो साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकार हैं . ऐसी सूरत में हिन्दू साम्प्रदायिकता का जवाब देने के लिए लोकसभा में वे लोग खड़े हो गए तो मुस्लिम साम्प्रदायिकता के  समर्थक हैं. इस देश में मौजूद एक बहुत बड़ी जमात धर्मनिरपेक्ष है और उस जमात को अपने राष्ट्र को उसी तरीके से चलाने का हक है जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान तय हो गया था. देश की सबसे बड़ी पार्टी आज बीजेपी  है लेकिन उन दिनों कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी . महात्मा गांधी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और मुहम्मद अली जिन्ना ने एडी चोटी का जोर लगा दिया कि कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी के रूप में प्रतिष्ठापित कर दें लेकिन नहीं कर पाए . महात्मा जी और उनके  उत्तराधिकारियो ने कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनाए रखा .आज देश में बीजेपी का राज  है लेकिन क्या बीजेपी धर्मनिरपेक्षता के संविधान  में बताये गए बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ जा सकती है . उसके कुछ नेता यह कहते देखे गए हैं की देश ने बीजेपी को अपनी मर्जी से राज करने के अधिकार दिया है लेकिन यह बात बीजेपी के हर नेता को साफ तौर पर पता होनी चाहिए की उनको सत्ता इसलिए मिली है कि वे नौजवानों को रोज़गार दें, भ्रष्टाचार खत्म करें और देश का विकास करें . उनके जनादेश में यह भी समाहित है कि वे यह सारे काम संविधान के दायरे में रहकर ही करें , उनको संविधान या आज़ादी की लड़ाई का ईथास बदलने का  मैंडेट नहीं मिला है .
ज़ाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है .
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए अति आवश्यक है।  आजादी की लड़ाई का उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है।  गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा गांधी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी शासकों को भारत के आम आदमी की ताक़त का अंदाज़ लग गया । आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने कांग्रेस से नाराज़ जिन्ना जैसे  लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। बाद में कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। आजकल आर एस एस और बीजेपी के बड़े नेता यह बताने की कोशिश करते हैं की सरदार पटेल हिन्दू राष्ट्रवादी थे . लेकिन यह सरासर गलत  है . भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 16दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)।
सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।सरदार अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और सरदार पटेल की बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, "इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं  . लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था। उसके बाद कांग्रेस में भी बहुत बड़े नेता ऐसे  हुए जो निजी बातचीत में  मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की नसीहत देते पाए जाते हैं . दर असल वंशवाद के चक्कर में कांग्रेस वह रही ही नहीं जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान रही थी . नेहरू युग में तो कांग्रेस ने कभी भी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से समझौता नहीं किया लेकिन   इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी अपने छोटे बेटे की राजनीतिक समझ को महत्त्व  देने लगी थीं . नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस भी हिंदूवादी पार्टी के रूप में पहचान बनाने की दिशा में  चल पडी . बाद में राजीव हांधी के युग में तो सब कुछ गड़बड़ हो गया .
कांग्रेस का राजीव गांधी युग पार्टी को एक कारपोरेट संस्था की तरह चलाने के लिए जाना जाएगा . इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी कहते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी  जानकारी नहीं थी। उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। सोनिया गांधी के राज में साम्प्रदायिक राजनीति के  सामने कांग्रेसी डरे सहमे नज़र आते थे . एक दिग्विजय सिंह हैं जो धर्मनिरपेक्षता  का झंडा अब भी बुलंद रखते  हैं लेकिन कुछ लोग कांग्रेस में भी एसे हैं जो दिग्विजय सिंह जैसे लोगों को हाशिये पर रखने पर आमादा हैं . कई बार तो लगता है कि बहुत सारे कांग्रेसी भी धर्मनिरपेक्षता  के खिलाफ काम कर रहे हैं . और जब आर एस एस और उसके मातहत संगठनों ने धर्म निरपेक्षता को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है तो  कांग्रेस पार्टी भी अगर उनके अरदब में आ गयी तो देश से धर्मनिरपेक्षता  की राजनीति की विदाई भी हो सकती है .

Tuesday, July 15, 2014

अमरीकी गलतियों के कारण पश्चिम एशिया में जंग के हालात


शेष नारायण सिंह

पश्चिम एशिया में अमरीकी विदेशनीति की धज्जियां उड़ रही हैं . करीब सौ साल पहले इसी सरज़मीन पर अमरीका ने एक बड़ी ताक़त बनने के सपने को शक्ल देना शुरू किया था और कोल्ड वार के बाद यह साबित हो गया था कि अमरीका ही दुनिया का सबसे ताक़तवर मुल्क है. सोवियत रूस टूट गया था और उसके साथ रहने वाले ज़्यादातर देशों ने अमरीका को साथी मान लिया था . लेकिन बाद में तस्वीर बदली. चीन ने अमरीका को चुनौती देने की तैयारी कर ली और आज चीन एक बड़ी ताक़त  है  अमरीका अपनी एशिया नीति में चीन की हैसियत को नज़रंदाज़ करने की हिम्मत नहीं कर सकता है. अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति बराक ओबामा की विदेशनीति में अमरीकी हितों के हवाले से हर उस मान्यता को दरकिनार करने के आरोप लग रहे हैं जिनके लिए कथित रूप से अमरीका अपने को दुनिया का  चौकीदार मानता रहा है . बराक ओबामा की विदेशनीति अब मानवाधिकारों या लोकतंत्रीय राजनीति की  संरक्षक के रूप में नहीं जानी जाती , अब वह पूरी तरह से अमरीकी हितों की बात करती है. यह भी सच है की राष्ट्रपति के रूप में बराक ओबामा ने मानवाधिकारों की बात बार बार की है , कुछ इलाकों में उनकी रक्षा भी की है लेकिन यह भी सच है कि पश्चिम एशिया और अरब दुनिया में अमरीकी नीतियों की मौकापरस्ती के चलते आज मानवाधिकारों और लोकतंत्र की मान्यताओं का सबसे ज़्यादा नुक्सान हो रहा है . अमरीकी नीतियों की लुकाछिपी का ही नतीजा है कि आज इजरायल और फिलिस्तीन के बीच एक खूनी संघर्ष की शुरुआत की इबारत लिखी जा रही है. वेस्ट बैंक में तीन इजरायली किशोर बच्चों के कथित अपहरण और हत्या के बाद इस इलाके में मारकाट शुरू हो गयी है . ताज़ा वारदात में फिलिस्तीनी डाक्टरों ने बताया कि कम से कम २३ लोगों की जान गयी है . बताया गया है की हमास और इस्लामिक जेहाद वालों के खिलाफ इजरायल ने अभियान छेड़ रखा है और उसी का नतीजा  है कि इस इलाके में शान्ति की संभावनाओं पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लग गया है . इजरायल ने झगड़े को बढाने के साफ़ संकेत दे दिए हैं . इजरायल में १५०० रिज़र्व सैनिकों को तैनात कर दिया है और अगर ज़रूरत पड़ी तो ४०,००० और रिजर्व  सैनिकों को तैनात कर दिया जाएगा . इजरायली सेना ने यह भी कहा  है कि उनके ठिकानों पर मिसाइलों से लगातार हमले हो रहे हैं.  गज़ा से करीब ८० मिसाइल दागे गए जो काफी अन्दर तक  पंहुचने में सफल रहे .
दुनिया जानती है कि इजरायल पश्चिम एशिया में अमरीकी मंसूबों का सबसे भरोसेमंद लठैत  है और उसकी सेवाओं के लिए अमरीका ने उसे इस खित्ते के इस्लामी  शासकों पर नाजिल कर रखा है .बराक ओबामा के दोस्त और दुश्मन , सभी अमरीकी राष्ट्रपति को विदेशनीति के ऐसे जानकार के रूप में पेश करते हैं जिसकी नज़र हमेशा सच्चाई पर  रहती  है. यहाँ सच्चाई का मतलब न्याय नहीं है . ओबामा की सच्चाई का मतलब यह है कि घोषित नीतियों से चाहे जितनी पलटी मारनी पड़े , लेकिन अमरीकी फायदे के अलावा और कोई  बात नहीं की जायेगी . अरब दुनिया की राजनीति में उनकी इस शख्सियत को आजकल बार  बार देखने  का मौक़ा लग रहा है . इसी जून के अंतिम सप्ताह में मिस्र के दौरे पर आये अमरीकी विदेश मंत्री जॉन केरी मिस्र के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति , अब्दुल फतह अल सीसी  के साथ  मुस्कराते हुए फोटो खिंचा रहे थे .अब्दुल फतह अल-सीसी को अमरीका तानाशाह कहता रहा है . अमरीकी हुकूमत की तरफ से उनकी एक ऐसे व्यक्ति के रूप में शिनाख्त की गयी थी जो मुस्लिम ब्रदरहुड में अपने विरोधियों को साज़िश करके मरवा  डालता है . यह व्यक्ति अल जजीरा के उन तीन पत्रकारों का गुनाहगार भी है जिनको जेल की सज़ा सुना दी गयी है . जॉन केरी फोटो खिंचाकर लौटे ही थे  कि पत्रकारों को सज़ा  का हुक्म हो गया . अमरीका ने मिस्र के इस कारनामे  की निंदा की लेकिन उसी दिन मिस्र को करीब ५८ करोड़ डालर की सैनिक सहायता भी मुहैया करवा दी. यह शुद्ध रूप से मतलबी विदेशनीति है क्योंकि अमरीका को इसमें अपना लाभ नज़र आता है .
बराक ओबामा अपने दूसरे कार्यकाल में पश्चिम एशिया में तरह तरह के अजूबे  करते रहे हैं . वियतनाम के बाद अमरीका ने अफगानिस्तान और इराक में सैनिक हस्तक्षेप बड़े पैमाने पर किया था . जब बुश बाप बेटों ने इराक और अफगानिस्तान में  सेना की धौंस मारने की कोशिश की थी तो उनके शुभचिंतकों ने उनको चेतावनी दी थी कि संभल कर रहना , कहीं वियतमान न हो जाए. खैर , अभी तक वियतनाम तो नहीं हुआ है लेकिन अभी दोनों ही देशों में अमरीकी गलतियों का सिलसिला ख़त्म भी तो नहीं हुआ  है .अफगानिस्तान में वर्षों का हामिद करज़ई का शासन ख़त्म होने को है . अमरीकी सुरक्षा के तहत वहां राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए हैं . दूसरे दौर की गिनती हो चुकी  है . पहले राउंड के बाद कोई फैसला नहीं  हो सका था . उसके बाद अब्दुल्ला अब्दुल्ला  और अशरफ गनी के बीच दूसरे राउंड का चुनाव हो चुका है . औपचारिक रूप से नतीजे घोषित नहीं हुए हैं लेकिन संकेत साफ़ आ चुके हैं  . आम तौर पर माना जा रहा है कि पख्तूनों के समर्थन से चुनाव लड़ रहे अशरफ गनी ने बेईमानी करके ताजिकों के समर्थन वाले अब्दुल्ला अब्दुल्ला को हरा दिया है  . इस बीच नतीजों के संकेत आने के बाद अब्दुल्ला के समर्थकों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है  कि आप अपने आपको निर्वाचित घोषित कर दीजिये . अगर ऐसा हुआ तो साफ़ माना जाएगा कि अफगानिस्तान के दो टुकड़े होने वाले हैं . अभी कोई नहीं जानत्ता कि अफगानिस्तान का राष्ट्रपति कौन होगा---- अब्दुल्ला या अशरफ गनी . या कहीं दोनों ही राष्ट्रपति न बन जाएँ . अमरीका की मनमानी नीतियों की  कृपा से ही आज अफगानिस्तान एक अशान्ति का क्षेत्र है . एक ऐसा क्षेत्र जहां अमरीका की कृपा से अल कायदा का जन्म हुआ , जहां पाकिस्तानी सेना ने तालिबान की स्थापना की और जिसके संघर्ष में शामिल  मुजाहिदीन ने आसपास के इलाकों में आतंक का माहौल  बना रखा है . आज इस अशांति से अमरीका को सबसे बड़ा खतरा  है . यह ख़तरा हमेशा से ही था लेकिन अमरीकी हुक्मरान को यह दिखता नहीं था .उनको लगता  था कि पश्चिम और दक्षिण एशिया की अशांति अमरीका नहीं पंहुचेगी लेकिन जब ११ सितम्बर को न्यूयार्क में हमला हो गया तब से अमरीकी विदेश नीति तरह तरह के कुलांचे भरती नज़र आ रही है .
अफगानिस्तान की तरह ही अमरीकी विदेशनीति ने इराक में अशान्ति का माहौल बना रखा है . अमरीका का हुक्म मानने से इनकार करने वाले तत्कालीन इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को सबक सिखाने के लिए अमरीका ने सामूहिक नरसंहार के  हथियारों की फर्जी बोगी के ज़रिये इराक पर हमला किया था . दिमाग से थोड़े कमज़ोर अमरीकी राष्ट्रपति बुश जूनियर और उनके साथी ब्रिटेन के राष्ट्रपति टोनी ब्लेयर ने इराक को तबाह करने की योजना बनाई थी . आज अमरीकी विदेशनीति वहीं दजला और फरात  नदियों के दोआब में बुरी तरह से पिट रही है . अमरीका की पश्चिम एशिया नीति में कभी भी कोई स्थिरता नहीं रही है लेकिन बेचारे बराक ओबामा की मुश्किल बहुत ही अजीब है . आजकल वे इराक में राज कर रहे प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी को नहीं संभाल पा रहे हैं . अमरीका अब उन पर भरोसा नहीं करता. लेकिन उनके लिए ३०० अमरीकी सैनिक सलाहकार भेज दिए गए . संकेत यह है कि अमरीका मलिकी के साथ है जबकि ऐसा नहीं है .इससे इराक के अल्पसंख्यक सुन्नी नेताओं में खासी नाराज़गी  है . ऐसा लगता है कि इस्लामिक स्टेट नाम के आतंकी संगठन के खिलाफ और किसी स्वीकार्य नेता को इराक में न तलाश पाने की कुंठा के चलते ओबामा अल मलिकी को ही समर्थन करने की सोच रहे हैं . इस  चक्कर में वे अपने परंपरागत दुश्मन इरान और सीरिया  के राष्ट्रपति बशर अल असद के साथ हाथ मिलाते नज़र आ  रहे हैं .अमरीका ने इरान से सैनिक सहयोग मांग लिया है जबकि बशर अल असद ने अमरीकी सलाह से इराक के अन्दर उन इलाकों पर लड़ाकू विमानों से बमबारी करवाई है जो इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के सुन्नी  लड़ाकों के कब्जे में है. अब दूसरा विरोधाभास देखिये . अमरीकी राष्ट्रपति ने अपनी संसद से ५० करोड़ डालर की सैनिक सहायता उन ज़िम्मेदार सुन्नी मिलिसिया के लिए माँगी है जो सीरिया में बशर अल असद की सरकार के खिलाफ लड़ रहे हैं.   देखा यह गया है  कि सीरिया और इरान के बारे में अमरीका बिलकुल कन्फ्यूज़न का शिकार है .इजरायल, साउदी अरब आदि के दबाव में वह इरान और लेबनान में एक आचरण करता  है जबकि इराक की ज़मीनी सच्चाई की रोशनी में वह शिया हुक्मरानों के करीब जाने की कोशिश  करता नज़र  आता  है . कोई भी साफ़ दिशा कहीं से भी नज़र नहीं आती है .
आजकल तो अमरीकी विदेशनीति के आयोजक और संचालक मुंगेरीलालों को एक और  हसीन सपना आ रहा है . वे इरान के साथ किसी ऐसे समझौते के सपने देख रहे हैं  जिसके बाद इरान के परमाणु कार्यक्रम को भी काबू में किया जा सकेगा . अगर ऐसा हुआ तो अमरीका और इरान के बाच ३५ साल से चली आ रही दुश्मनी ख़त्म हो जायेगी . अब इनको कौन बताये कि जो इरान हर तरह की अमरीकी पाबंदियों को झेलता रहा , अमरीका के हर तरह के दबाव को झेलता रहा और उन दिनों के अमरीकी  चेला सद्दाम हुसैन के हमले  झेलता रहा और अमरीका के सामने कभी नहीं झुका , वह इरान आज जबकि उसका पलड़ा भारी  है , वह अमरीका की मूर्खतापूर्ण विदेशनीति को डूबने से बचा सकता  है तो वह अपने परमाणु कार्यक्रम जो अमरीका की मर्जी से चलाने पर राजी हो जाएगा. अमरीकी विदेशनीति के संचालकों को यह नहीं दख रहा है कि  अगर इरान से बहुत अधिक दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की गयी तो इजरायल को कैसा लगेगा या कि साउदी अरब को कैसा लगेगा .
आज भी पश्चिम एशिया में अमरीका के सबसे करीबी दोस्तों में इजरायल के अलावा जार्डन, संयुक्त अरब अमीरात और तुर्की शामिल हैं . इसके अलावा क़तर , बहरीन, ओमान, लेबनान और कुवैत भी अमरीका के दोस्तों में शुमार किये जाते हैं . इस्लामिक स्टेट आफ इराक और सीरिया को काबू में करने के लिए अमरीका को साउदी अरब की मदद भी मिल सकती है क्योंकि वह भी आजकल अल कायदा से बहुत खफा है . ज़ाहिर है की अगर इन साथियों के इर्द गिर्द अमरीका कोई योजना बनाता है तो शायद इस्लामिक स्टेट आफ इराक और सीरिया को काबू में किया जा सके. इस मुहिम में उसको इरान और  सीरिया के राष्ट्पति की मदद भी मिल सकती है लेकिन अब वक़्त आ गया  है कि अमरीका अपनी उस आदत से बाज़ आ गए जिसमें सब कुछ उसकी मर्जी से ही होता रहा है . पश्चिम एशिया में आज अमरीका मुसीबत के  घेरे में है उसे समझदारी से काम लेना पडेगा .