Tuesday, June 10, 2014

संसदीय लोकतंत्र में सरकार से कम नहीं है विपक्ष की ज़िम्मेदारी





शेष नारायण सिंह 


कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा में गुलाम नबी आज़ाद को नेता और आनंद शर्मा को उपनेता तैनात कर दिया है .सबको मालूम है कि अगर राज्यसभा के साठ से भी अधिक कांग्रेसी सांसदों की राय ली गयी होती तो इन दोनों में से कोई न चुना जाता .ज़ाहिर है दिल्ली शहर के जनपथ और तुगलक लेन के साकिनों की मेहरबानी से यह हुआ है .इस तैनाती के साथ ही लगता है कि कांग्रेस ने  एक संगठन के रूप में अपनी जिजीविषा को भी तिलांजलि दे दी है. और एक संगठन के रूप में  संघर्षशील जनता के प्रतिनिधि के रूप में देश की राजनीति में बने रहने की इच्छा को अलविदा कह दिया है . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के अभियान के दौरान अक्सर कहा करते थे कि देश को कांग्रेसमुक्त भारत चाहिए .ऐसा लगता  है कि प्रधानमंत्री की उस इच्छा को पूरा करने में कांग्रेस का मौजूदा  नेतृत्व भी अपना योगदान कर रहा है . इन दो महानुभावों के बारे में इस तरह की टिप्पणी का मतलब यह कतई नहीं है कि यह बताया जाए कि किसी भी संघर्ष में इनकी कहीं कोई भूमिका नहीं है . यह भी बताना उद्देश्य नहीं  है कि पी वी नरसिम्हा राव समेत दिल्ली के ताक़तवर कांग्रेसियों के ख़ास शिष्य के रूप में गुलाम नबी आज़ाद ने लोकसभा में भी प्रवेश पा लिया था . यह भी बताने की ज़रुरत नहीं है कि अपने राज्य ,जम्मू कश्मीर की राजनीति में उनका केवल योगदान यह है कि दिल्ली दरबार के प्रतिनिधि के रूप में वहां  वे मुख्यमंत्री रहे हैं . जहां तक जनसमर्थन की बात है , वह वहां भी नहीं रहा  है क्योंकि इस बार के लोकसभा चुनाव में पराजित होकर आये हैं . यहाँ इस विषय पर चर्चा करना  भी ठीक नहीं होगा कि आनंद शर्मा का देश की राजनीति में सबसे बड़ा योगदान कभी इंदिरा गांधी और कभी राजीव गांधी का कृपापात्र बने रहने के सिवा कुछ नहीं है . यह भी कहने की ज़रुरत नहीं है कि युवक कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में आनंद शर्मा ने ही देश के कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले नौजवानों को दरबारगीरी की संस्कृति का महत्त्व समझाया था .
कांग्रेस पार्टी का कौन नेता हो या कौन डस्टबिन में फेंक दिया जाए यह उनका अपना मामला है  लेकिन कांग्रेस पार्टी देश की आज़ादी की लड़ाई की विरासत का निशान है ,यह बात किसी भी कांग्रेसी को नहीं भूलना चाहिए .समझ में नहीं  आता कि जब डॉ मनमोहन सिंह  पिछले दस साल से राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता थे तो उनको हटाने की क्या ज़रूरत थी. कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के इर्दगिर्द गणेश परिक्रमा करने वाले कांग्रेस नेताओं के समूह ने पिछले दस वर्षों से हमेशा यह कोशिश की है कि कांग्रेस या यू पी ए सरकार की हर सफलता के लिए सोनिया गांधी या राहुल गांधी की तारीफ़ की जाए और अगर कहीं कोई विफलता  हो तो उसका ठीकरा डॉ मनमोहन सिंह के सर मढ़ दिया जाए.  यहाँ यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि  डॉ मनमोहन सिंह दस वर्षों तक प्राक्सी प्रधानमंत्री ही रहे हैं. पहले कांग्रेस अध्यक्ष की बात पूरी तरह से मानी जाती थी ,बाद में पार्टी के उपाध्यक्ष जी नानसेंस आदि के संबोधनों से मनमोहन सरकार के फैसलों को विभूषित किया करते थे.. तो जब किसी प्राक्सी को ही राज्यसभा में नेता बनाया जाना था तो डॉ मनमोहन सिंह में क्या कमी थी.
कांग्रेस पार्टी के आलाकमान को शायद यह समझ में नहीं आ रहा है कि उनकी पार्टी किसी परिवार की पार्टी नहीं है . यहाँ आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका का ज़िक्र करके बात को ऐतिहासिक सन्दर्भ देने की भी मंशा नहीं है. बस यह याद दिला देना है की संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सरकारी पक्ष से कम नहीं होती, कई बार तो ज़्यादा  ही होती है . १९७१ में इंदिरा गांधी भारी बहुमत से जीतकर आयी थीं और  विपक्ष में संख्या के लिहाज़ से बहुत सांसद थे लेकिन उन सांसदों में  देशहित का भाव सर्वोच्च था . उन सब को मालूम था कि वे आने वाले समय में सरकार में नहीं शामिल होने वाले थे क्योंकि देश में कभी गैरकांग्रेसी सरकार ही नहीं बनी थी . उनको मालूम था कि उनकी राजनीति मूलरूप से सरकार पर नज़र रखने की राजनीति ही थी लेकिन उस दौर में  इंदिरा गांधी की कोई भी जनविरोधी नीति संसद में चुनौती से बच नहीं सकी. तत्कालीन प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी की मारुति फैकटरी  और उससे जुड़ी भ्रष्टाचार की गाथाएँ देश के बड़े भाग में लोगों को मालूम थीं . पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला की हर जानकारी जनता तक पंहुंच रही थी. यह यह समझ लेना ज़रूरी है कि उन दिनों २४ घंटे का टेलिविज़न नहीं था , मात्र कुछ अखबार थे जिनकी वजह से सारी जानकारी जनता तक पंहुचती थी.१९७७ में भी विपक्ष की भूमिका किसी से कम नहीं थी. इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयी थीं . कांग्रेस पार्टी के हौसले पस्त थे लेकिन कुछ ही दिनों में विपक्ष ने सरकार के हर काम को पब्लिक स्क्रूटिनी के दायरे में डाल दिया .सब ठीक हो गया और मोरारजी देसाई की सरकार में काम करने वाले भ्रष्ट मंत्रियों की ज़िंदगी दुश्वार हो गयी क्योंकि सरकार के हर काम पर कांग्रेसी विपक्ष की नज़र थी . राजीव गांधी भी जब लोकसभा में विपक्ष के नेता थे तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को माकूल विपक्ष मिला और जब राजा ने खुद ही यह साबित कर दिया कि राजकाज के मामले में वी पी सिंह बहुत ही लचर थे तो उनको हटाकर अस्थायी ही सही  , एक नया और राजनीतिज्ञ प्रधानमंत्री देश को दे दिया . जानकार बताते हैं की अगर उन दिनों चंद्र्शेखर जी को प्रधानमंत्री न बनाया गया  होता तो वी पी सिंह की सरकार की कमज़ोर राजनीतिक कुशलता के चलते, कश्मीर और पंजाब में आई एस आई  की कृपा से चल रहा आतंकवाद देश की अस्मिता पर भारी पड़ जाता .
 सबको मालूम है कि लोकसभा में बीजेपी का स्पष्ट बहुमत है और राज्यसभा में ही उनकी नीतियों की सही निगरानी  होगी .ऐसी स्थिति में  कांग्रेस आलाकमान ने अपनी पिछली टुकड़ी के वफादार टाइप नेताओं को राज्यसभा का चार्ज देकर देश के लोकतंत्र के साथ न्याय नहीं किया है .  जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव का संचालन किया है उसके कारण देश के संसदीय लोकतंत्र के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है .लगता है कि सब कुछ राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ बढ़ रहा है . ऐसी हालत  में मुख्य विपक्षी दल की तरफ से कमजोरी का संकेत देना राष्ट्रहित में नहीं है .

चीन से सम्बन्ध सुधारने की सकारात्मक पहल फिर शुरू , लेकिन रास्ते बहुत ही मुश्किल हैं



शेष नारायण सिंह 

चीन के विदेशमंत्री की नई दिल्ली यात्रा संपन्न हो गयी . जैसा कि सब को मालूम है कुछ खास हासिल नहीं हुआ. होना भी नहीं था क्योंकि दोनों देशों के आपसी रिश्तों में खटास इतनी ज़्यादा है कि मामूली बातचीत से कुछ हासिल होने वाला नहीं है .गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार चीन की यात्रा की थी और वे उसके विकास से बहुत प्रभावित बताये जाते हैं . लेकिन यह भी सच है कि दोनों देशों के बीच में विवादित मामलों का बहुत बड़ा पहाड़ भी है . यह उम्मीद करना कि विवादों पर चर्चा संभव हो पायेगी ,अभी बहुत जल्दबाजी होगी . लेकिन कभी एक दूसरे के दुशमन रहे दो देशों के बीच अगर बातचीत होती रहे तो कूटनीति की दुनिया में वह भी बहुत बड़ी  बात होती है . इस यात्रा में चीनी विदेशमंत्री मूल रूप से  इस उद्देश्य से  आ रहे हैं की दोनों देश इस बात का  ऐलान कर सकें कि नई हुकूमत में पहले से बेहतर तरीके से संवाद किया जायेगा, दोनों के बीच व्यापार के अवसर हैं,उनको सही परिप्रेक्ष्य में रखा जाएगा. इस यात्रा के नियोजकों को भी मालूम था कि  तिब्बत, पनबिजली योजनायें , ब्रह्मपुत्र विवाद आदि से सम्बंधित मुद्दों पर सांकेतिक भाषा में भी ज़िक्र नहीं होगा . लोकसभा चुनाव के दौरान अरुणाचल प्रदेश के बारे में दिए गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों का भूलकर भी ज़िक्र नहीं किया जाएगा .. प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में प्रवासी तिब्बत सरकार के प्रधानमंत्री लोबसांग सांगे एक सम्मानित अतिथि के रूप में शामिल हुए थे .  विदेश मंत्रालय के आला अधिकारियों को  मालूम है कि चीन ने इस बात का बुरा माना था . ज़ाहिर है इस विषय को भी बातचीत में शामिल नहीं किया गया  .
मूल रूप से इस यात्रा को पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध बनाने की दिशा में उठाया गया एक क़दम माना जा रहा  है . अपने पदग्रहण समारोह में दक्षेश देशों के शासकों को बुलाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी शुरुआत कर दी है . हमको मालूम है कि भारतीय जनता पार्टी की विदेशनीति में पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने की लालसा बहुत ही प्रमुख होती  है . जब अटल बिहारी वाजपेयी १९७७ में विदेशमंत्री बने तो उन्होंने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने को अपनी प्राथमिकता बताया . सांकृतिक आदानप्रदान शुरू हुआ . भारत से पान के पत्तों का निर्यात शुरू हुआ , बहुत बड़े पैमाने पर बांस का भी  निर्यात किया गया . इमरजेंसी ख़त्म होने पर जब जेल से रिहा हुए तो अपने पहले  ही सार्वजनिक भाषण में अटल बिहारी  वाजपयी ने  फैज़ अहमद फैज़ की शायरी को अपना बड़ा संबल बताया और कहा कि फैज़ का वह शेर  " कूए यार से निकले तो सूए दार चले " उन्हें जेल में बहुत अच्छा लगता था . नतीजा यह हुआ कि फैज़ भी आये और इकबाल बानो भी आयीं , मुन्नी बेगम भी आयीं . लेकिन उसी दौर में भारत की लाख विरोध के बावजूद भी तत्कालीन पाकिस्तानी तानाशाह जनरल ज़िया उल हक  ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फांसी दे दी, और भारत से दुश्मनी की फौजी संस्कृति की शुरुआत कर दी . उसी दौर में यह हाफ़िज़ सईद उनका धार्मिक सलाहकार तैनात हुआ था और हम जानते हैं कि एक हाफ़िज़ सईद ने दोनों देशो के बीच दुश्मनी का जो माहौल तैयार किया है उससे इस इलाके में शान्ति को सबसे बड़ा खतरा  है . दोबारा जब अटल जी प्रधानमंत्री के रूप में
सत्ता में आये तो पाकिस्तान से रिश्ते   सुधारने के लिए बस पर बैठकर लाहौर गए और सबको मालूम है कि शान्ति की बात तो दूर वहां पाकिस्तानी फौजें कारगिल में भारत के खिलाफ हमला कर चुकी थीं. वह तो हमारी फौजों ने इज्ज़त बचा ली वरना कारगिल में भारी मुश्किल पैदा हो चुकी थी . पाकिस्तान से दोस्ती बढाने के लिए नरेंद्र मोदी ने ज़रूरी पहल तो कर दी है लेकिन सबको पता है कि वहां के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की हैसियत पाकिस्तानी भारत नीति में लगभग नगण्य होती है . सारे फैसले फौज और आई एस आई करती है .
इस पृष्ठभूमि  में चीन से सकारात्मक संवाद की शुरुआत अच्छी बात है लेकिन रास्ता बहुत बड़े बीहड़ों से होकर गुज़रता है .इसलिए संवाद का लक्ष्य ही हासिल हो जाए तो बहुत अच्छा माना जायेगा लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शुरू में ब्रितानी साम्राज्यवाद और बाद में अमरीकी साम्राज्यवाद का शिकार रहे इस इलाके में विदेशी शक्तियों का बहुत ही नाजायज़ प्रभाव रहता है . ब्रिटेन और अमरीका के बाद आजकल चीन इस इलाके में अपना प्रभुत्व स्थापित करने की फ़िराक में है चीनी विदेशमंत्री वांग यी की यात्रा इस इलाके में शान्ति और सुलह का माहौल बनाए रखने के लिए बहुत अहम क़दम है लेकिन चीन के प्रभुत्वकामी हुक्मरानों की मंशा के मद्देनज़र उसके साथ रिश्ते सुधारने के चक्कर में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए . हमें इतिहास का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि जो इतिहास को ध्यान में नहीं रखते वे खुद ही एक दुखद इतिहास बनने का खतरा मोल लेते हैं . चीन से अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने हर कोशिश की थी लेकिन सब कुछ बहुत जल्दी  ही चीनी विस्तारवाद का शिकार हो गया. आठ फरवरी १९६० को जब राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने संसद को दोनों सदनों को बजट सत्र की शुरुआत के वक़्त संबोधित किया तो उसमें साफ़ चिंता  जताई गयी कि चीन भारतीय सीमा पर अपने सैनिक झोंक रहा है . हालांकि चीनी हमला वास्तव  में १९६२ में हुआ लेकिन १९६० में ही मामला इतना गंभीर हो चुका था कि राष्ट्रपति को अपने संबोधन में इस मद्दे को मुख्य विषय बनाना पडा.
मौजूदा यात्रा केवल जान पहचान बढाने वाली यात्रा के रूप में देखी जा रही है और २०१५ तक १०० अरब डालर का आपसी व्यापार वाला लक्ष्य हासिल  करने की दिशा में एक ज़रूरी क़दम  मानी जा रही है . ब्राज़ील में, ब्रिक्स ( ब्राजील ,भारत, चीन रूस और दक्षिण अफ्रीका ) सम्मलेन के दौरान  होने वाली  शासनाध्यक्षों की मुलाक़ात के सन्दर्भ में भी यह यात्रा महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति जी जिनपिंग की मुलाक़ात होगी .  ज़ाहिर है चीनी विदेशमंत्री की इस यात्रा से ब्रिक्स में बातचीत करने के कुछ बिंदु निकाले जा रहे हैं .इस्सके अलावा इस यात्रा से बहुत उम्मीद करना जल्दबाजी होगी .

Sunday, June 8, 2014

औरतों को तालीम की ताक़त दो ,वरना इन्साफ नहीं होगा



शेष नारायण सिंह

देश के हर कोने से महिलाओं पर हो रहे अत्याचार की ख़बरें आ रही हैं।  अभी खबर आयी है कि  मुंबई के पास कल्याण में एक मर्द ने सरकारी बस में यात्रा कर रही एक महिला को इतना पीटा कि  वह बेहोश हो गयी।  उसको बचाने के लिए बस की कंडक्टर आई तो उसको भी मारा पीटा।  बस में  ने उनकी वहशत का कोई जवाब  नहीं  दिया।  उत्तर प्रदेश से  बलात्कार की ख़बरें कई ज़िलों से आ रही हैं।  मध्य प्रदेश और राजस्थान में महिलाओं के साथ अत्याचार की इतनी ख़बरें आती हैं कि  जब किसी दिन घटना की सूचना नहीं आती तो लगता है कि  वही समाचार  का विषय है। आज दिल्ली के अखबारों में खबर है  कि  किसी नराधम ने एक तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया। उत्तर प्रदेश से लड़कियों से हैवानियत की जितनी भी रिपोर्टें आ रही हैं उनमें ज़्यादातर ऐसी बच्चियों को शिकार बनाया गया है जो शाम ढले शौच के लिए घर से बाहर खेतों में  जा रही थीं . यानी अगर उनके घर में शौच की सुविधा होती , शौचालय बनाने की सरकारी स्कीम के तहत शौचालय बनवा दिए गए होते तो बड़ी संख्या में लड़कियों को बलात्कार जैसी जघन्य पाशविकता का शिकार होने से बचाया जा सकता था. केंद्र सरकार के संगठन , राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन( एन एस एस ओ ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के गाँवों में रहने वाली साठ फीसदी आबादी के पास घर में या घर के पास शौचालय नहीं है . केंद्र सरकार की तरफ से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन लागू किया गया है .ग्रामीण आबादी के लिये अप्रैल, 2005 में शुरू किया गया . इस कार्यक्रम में महिलाओं और उनके स्वास्थ्य में सुधार को सबसे ज़्यादा प्राथमिकता दी गयी है . एक बड़ी धनराशि महिलाओं की सुविधा को ध्यान में रखकर शौचालयों के लिए रिज़र्व कर दी गयी थी. देश के अठारह राज्यों के लिए इस स्कीम में ख़ास इंतज़ाम किये गए थे . अरुणाचल प्रदेश,असमबिहारछत्तीसगढ़हिमाचल प्रदेशझारखंडजम्मू कश्मीरमणिपुरमिजोरममेघालयमध्य प्रदेश,नागालैण्डउड़ीसाराजस्थानसिक्किमत्रिपुराउत्तराखंड एवं उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार की और से अब तक शौचालय के नाम पर बड़ी रक़म दी जा चुकी है लेकिन गैरजिम्मेदार राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई ख़ास काम नहीं किया. मन कहता है की काश सरकारों ने अपने ज़िम्मेदारी निभाई होती तो आज  उन बच्चियों को बलात्कार जैसे भयानक अपराध से बचाया जा सका होता.

 

लेकिन यहीं पर दूसरा सवाल पैदा होता है . क्या वे लड़कियां जो अकेले देखी जायेगीं उनको बलात्कार का शिकार बनाया जायेगा. बार बार सवाल पैदा होता है कि लड़कियों के प्रति समाज का रवैया इतना वहशियाना क्यों है। दिसंबर २०१३ में हुए दिल्ली गैंग रेप कांड के बाद समाज के हर वर्ग में गुस्सा था.  अजीब बात है कि बलात्कार जैसे अपराध के बाद शुरू हुए आंदोलन से वह बातें निकल कर नहीं आईं जो महिलाओं को राजनीतिक ताक़त  देतीं  और उनके सशक्तीकरण की बात को आगे बढ़ातीं . गैंग रेप का शिकार हुई लडकी के साथ हमदर्दी वाला जो आंदोलन शुरू हुआ था उसमें बहुत कुछ ऐसा था जो कि व्यवस्था बदल देने की क्षमता रखता था लेकिन बीच में पता नहीं कब अपना राजनीतिक एजेंडा चलाने वाली राजनीतिक पार्टियों ने आंदोलन को हाइजैक कर लिया और केन्द्र सरकार ,दिल्ली  सरकार और इन सरकारों को चलाने वाली राजनीतिक पार्टी फोकस में आ गयी . कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश में लगी हुई पार्टियों ने आंदोलन को दिशाहीन और हिंसक बना दिया . इस दिशाहीनता का नतीजा या हुआ  कि महिलाओं के सशक्तीकरण के मुख्य मुद्दों से राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह से भटका दिया गया  .  बच्चियों और महिलाओं के प्रति समाज के रवैय्ये को  बदल डालने का जो अवसर मिला था  उसको गँवा दिया गया।   अब ज़रूरी है कि कानून में ऐसे इंतजामात किये जाएँ कि अपराधी को मिलने वाली सज़ा को देख कर भविष्य में किसी भी पुरुष की हिम्मत न पड़े कि बलात्कार के बारे में सोच भी सके.  उस समाज के खिलाफ सभ्य समाज को लामबंद होने की ज़रूरत है जो लडकी को इस्तेमाल की वस्तु साबित करता है  और उसके साथ होने वाले बलात्कार को भी अपनी शान में गुस्ताखी मान कर सारा काम करता है . हमें एक ऐसा समाज  चाहिए जिसमें लडकी के साथ बलात्कार करने वालों और उनकी मानसिकता की हिफाज़त करने वालों के खिलाफ लामबंद होने की इच्छा हो और ताक़त हो. 

 चारों तरफ महिलाओं के प्रति अत्याचार की ख़बरें हैं।  किसी दिन के अखबारों पर नज़र डालें तो बलात्कार के कम से कम दस मामले ऐसे हैं जिनकी खबर छपी है . ये ऐसे मामले हैं जिनको पुलिस थानों में बाकायदा रिपोर्ट किया गया है . इन बलात्कारों से भी ज्यादा अपमानजनक बहुत सारे  विज्ञापन हैं जो अखबारों और टेलिविज़न चैनलों पर चलाये जा रहे हैं .महिलाओं को उपभोग की चीज़ साबित करने की कोशिश करने वाली इस मानसिकता के खिलाफ जंग  छेड़ने की ज़रूरत है जिसमें लडकी को संपत्ति मानते हैं . इसी मानसिकता के चलते इस देश में लड़कियों को दूसरे दरजे का इंसान माना जाता है और उनकी इज्ज़त को मर्दानी इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है . लडकी की इज्ज़त की रक्षा करना समाज का कर्त्तव्य माना जाता है . यह गलत है . पुरुष कौन होता है लडकी की रक्षा करने वाला . ऐसी शिक्षा और माहौल बनाया जाना चाहिए जिसमें लड़की खुद को अपनी रक्षक माने . लड़की के रक्षक के रूप में पुरुष को पेश करने की  मानसिकता को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तह तक कुछ भी बद्लेगा नहीं. जो पुरुष समाज अपने आप को महिला की इज्ज़त का रखवाला मानता है वही पुरुष समाज अपने आपको यह अधिकार भी दे देता है कि वह महिला के  यौन जीवन का संरक्षक  और उसका उपभोक्ता है . इस मानसिकता को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया जाना चाहिए .मर्दवादी सोच से एक समाज के रूप में लड़ने की ज़रूरत है . और यह लड़ाई केवल वे लोग कर सकते हैं जो लड़की और लड़के को बराबर का  इंसान मानें और उसी सोच को जीवन के हर क्षेत्र में उतारें .  कमज़ोर को मारकर बहादुरी दिखाने वाले जब तक अपने कायराना काम को शौर्य बताते रहेगें तब तक इस देश में बलात्कार करने वालों के हौसलों को तोड़ पाना संभव नहीं होगा. अब तक का भारतीय समाज  का इतिहास ऐसा है जहां औरत को कमज़ोर बनाने के सैकड़ों संस्कार मौजूद हैं . स्कूलों में भी कायरता को शौर्य बताने वाले पाठ्यक्रमों की कमी  नहीं है .इन पाठ्यक्रमों को खत्म करने की ज़रूरत है . सरकारी स्कूलों के स्थान पर देश में कई जगह ऐसे स्कूल खुल गए हैं,जहां मर्दाना शौर्य की वाहवाही की शिक्षा दी जाती है . वहाँ औरत को एक ऐसी वस्तु की रूप में सम्मानित करने की सीख दी जाती है .इस समाज में औरत का सम्मान पुरुष के सम्मान से जुड़ा हुआ है . इस मानसिकता के खिलाफ एकजुट  होकर उसे ख़त्म करने की ज़रूरत है . अगर हम एक समाज के रूप में अपने आपको बराबरी की बुनियाद पर नहीं स्थापित कर सके तो जो पुरुष अपने आपको महिला का रक्षक बनाता फिरता है वह उसके साथ ज़बरदस्ती करने में भी संकोच नहीं करेगा. शिक्षा और समाज की बुनियाद में ही यह भर देने की ज़रूरत है कि पुरुष और स्त्री बराबर है और कोई किसी का रक्षक नहीं है. सब अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं. बिना बुनियादी बदलाव के बलात्कार को हटाने की कोशिश वैसी  ही है जैसे किसी घाव पर मलहम लगाना . हमें ऐसे एंटी बायोटिक की तलाश करनी है जो शरीर में ऐसी शक्ति पैदा करे कि घाव होने की नौबत ही न आये. कहीं कोई बलात्कार ही न हो . उसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि महिला और पुरुष के बीच बराबरी को सामाजिक विकास की आवश्यक शर्त माना जाए.

इस बात की भी ज़रुरत है कि लड़कियों की तालीम को हर परिवार ,हर बिरादरी सबसे बड़ी प्राथमिकता बनाये और उनकी शिक्षा के लिए ज़रूरी पहल की जाए . जहां तक मुसलामानों की बात है केंद्र सरकार के पंद्रह सूत्र प्रोग्राम में लड़कियों की तालीम पर पूरा जोर दिया गया  है . मौजूदा  सरकार के प्रधानमंत्री ने कई बार कहा है कि पिछली सरकार की जो अच्छी बातें हैं उनको लागू किया जाएगा. सबको मालूम है की सच्चर कमेटी की रिपोर्ट और प्रधानमंत्री का पंद्रह सूत्री प्रोग्राम अल्पसंख्यकों के हवाले से पिछली सरकार के बहुत ही अच्छे प्रोग्राम हैं , मौजूदा सरकार अगर उनको लागू करती है जो लड़कियों का इम्पावरमेंट तालीम के ज़रिये होगा और अगर सही तरीके से महिलाओं को अवसर दिए गए तो बलात्कार जैसे अपराध बिलकुल कम हो जायेगें . या यह भी हो सकता है कि नई सरकार को इन दस्तावेजों से एतराज़ हो क्योंकि इनका फोकस मुस्लिम ख़वातीन पर ज़्यादा है तो उनको अपनी कोई नई स्कीम लानी चाहिए . लेकिन जो भी करना हो फ़ौरन करना पडेगा क्योंकि इस दिशा में जो काम आज से साठ साल पहले  होने चाहिए थे उन्हें अब शुरू करना है . अगर और देरी हुई तो बहुत देर हो जायेगी .

यू पी में बलात्कार की शिकार महिला जज भी ,सरकार की असंवेदनशीलता बरकरार

शेष नारायण सिंह 


उत्तर प्रदेश में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार लगातार चर्चा में हैं .  बदायूं में पिछड़ी जाति की दो लड़कियों के साथ बलात्कार ,बहुत ही जघन्य तरीके से की गयी उनकी हत्या और उस हत्या के ज़रिये आतंक फैलाने की अपराधियों की मंशा , मानवता के इतिहास के उन नीचतम कार्यों में दर्ज होगी जिसको याद करके आने वाली  नस्लें हमारी पीढी के शासकों के नाम पर थूकेगीं.  उत्तर प्रदेश की राजनीति और प्रशासन में एक ख़ास जाति के लोगों का दबदबा  है और उसी दबदबे के चलते इस जाति में अपराधी प्रवृत्ति के लोग आतंक फैला चुके हैं . आतंक के इस राज में देखा गया है कि पुलिस के कर्मचारी भी अपराधियों के साथ मिलकर वारदात को अंजाम दे रहे हैं . यह अक्षम्य है . बदायूं की घटना में पुलिस वाले भी शामिल थे . इस वारदात को मीडिया में खासी जगह मिल गयी.  शायद इसका कारण  यह था कि बहुत दिनों तक  उत्तर प्रदेश पर मीडिया का फोकस चुनाव की सरगर्मी के कारण रहा था और जब चुनाव से जुडी खबरें ख़त्म हो गयीं तो राजकाज में ज़िम्मेदारी से जुडी एक खबर को मीडिया ने अपनी ज़द में ले लिया और बलात्कार और ह्त्या की वे घटनाएं खबर बनने लगीं जो उत्तर प्रदेश में आमतौर पर रूटीन की घटनाएं बताकर टाल दी जाती हैं .
बदायूं की घटना के अलावा भी बहुत सी घटनाएं रोज़ ही उत्तर प्रदेश में हो रही हैं .बदायूं के बलात्कार और ह्त्या की घटना पर अपनी प्रतिक्रिया में उत्तर प्रदेश पुलिस के एक बहुत बड़े अफसर ने दावा किया कि राज्य में अभी प्रतिदिन बलात्कार की चौदह घटनाएं होती हैं . उनका कहना  था कि राज्य बहुत बड़ा  है , आबादी बहुत है , इसलिए अगर उत्तर प्रदेश में प्रतिदिन बलात्कार की बाईस घटनाएं हों तो अनुपात सही बैठेगा . इस गैरजिम्मेदार पुलिस अफसर की आपराधिक स्वीकारोक्ति को किस श्रेणी में रखा जाय यह बात समझ के बिकुल परे है. लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री भी कुछ कम  नहीं हैं . राज्य के हर कोने से आ रही बलात्कार  की घटनाओं और बिजली की कटौती से मचे हाहाकार के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव , मीडिया से मुखातिब हुए और जो ज्ञान उन्होंने दिया वह राजकाज के किसी भी जानकार की समझ में आने वाला नहीं हैं . उन्होने कहा कि ," मैंने बार बार कहा  है कि ऐसी घटनाएं केवल उत्तर प्रदेश में नहीं हो रही हैं . बंगलूरू में भी ऐसी  ही एक घटना हुयी , मध्यप्रदेश में एक बड़े मंत्री के रिश्तेदार की चेन उनके घर के सामने ही छीन ली गयी " मुख्यमंत्री ने सवाल उठाया कि क्या मीडिया ने उन खबरों को दिखाया . मुख्यमंत्री जी के इन सवालों का क्या जवाब हो सकता  है . सवाल उठता है कि अगर अन्य राज्यों में अपराध की घटनाएं हो रही हैं तो क्या उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री को अपराध को बढ़ावा देने और उनपर काबू करने की कोशिश न करने का लाइसेंस मिल जाता है .
 उत्तर प्रदेश सरकार और उसके मुख्यमंत्री उस घटना के बारे में क्या कहेगें जो अभी अलीगढ से रिपोर्ट हुई है जिसमें अलीगढ की एक महिला  जज के अति सुरक्षित घर में घुसकर दो बदमाशों ने  बलात्कार की कोशिश की ,उनको कोई ज़हरीला पदार्थ पिलाया और जज साहिबा को मारा पीटा.अलीगढ़ में जहां वारदात हुई है वह राज्य सरकार की  सुरक्षा पुलिस ,पी ए सी की २४ घंटे की सुरक्षा का क्षेत्र हैं . जजेज कम्पाउंड नाम  की कालोनी में महिला जज का यह घर और उसमें रहने वाली बड़ी न्यायिक अधिकारी की इज्ज़त भी जब अपराधियों  से  महफूज़ नहीं है तो राज्य के गरीब आदमियों की बच्चियों का कौन रक्षक होगा .  
अभी दो साल पहले पूरे बहुमत के साथ राज्य में सरकार बनाने वाले राज्य के मुख्यमंत्री को शासन करने की ज़रुरत से दो चार होना पडेगा, हुकूमत का इक़बाल बुलंद करना पडेगा , अपराधी चाहे जिस जाति या धर्म का हो उसके मन में कानून की ताक़त का अहसास करना पड़ेगा और अगर ऐसा नहीं हो सका तो हुकूमत को अपने अस्तित्व के बारे में भी गंभीरता से सोचना पडेगा क्योंकि जब राजकाज ही सही तरीके से नहीं चला सकते तो स्पष्ट बहुमत को जनता वैसे ही अल्पमत में बदल सकती है जिस तरह से लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की पार्टी की राजनीतिक ताक़त को तबाह करके किया है .मुख्यमंत्री जी को हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि केंद्र में अब एक ऐसी सरकार है जो उनकी पार्टी या उसके नेताओं की किसी तरह से भी रक्षा नहीं करने वाली है ,बल्कि उनकी सरकार की कोई भी बड़ी गलती उनकी सरकार को अस्तित्व के संकट में डाल सकती है ..

प्रॉपर्टी माफिया के शिकार लोगों के प्रति सरकार की ज़िम्मेदारी




शेष नारायण सिंह 

मुंबई में संपन्न लोगों की हाउसिंग सोसाइटी ,कैम्पा  कोला बिल्डिंग के गिराये जाने के मुंबई महानगर निगम के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका को सर्वोच्च न्यायलय से खारिज़ कर दिया और इस तरह से उस बिल्डिंग में रहने वाले लोगों की उम्मीदें समाप्त  हो गयी हैं।  उनको मालूम है कि  उनके घर अब बच पायेगें।  मुंबई के वर्ली इलाक़े में  यह आवासीय बिल्डिंग स्थित है। यह गैरकानूनी तरीके से बनायी गयी इमारत  है।  यहां रहने वालों का आरोप है बिल्डर ने उनको अँधेरे में रख कर उनसे गलत वायदा करके इस बिल्डिंग की बुकिंग की और महंगे दामों पर घर बनाकर दे दिया।  सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को नहीं मंज़ूर किया कि  उनको कुछ भी मालूम नहीं था।  अब इस बहुत क़ीमती   मकानों  वाली बिल्डिंग का गिराया जाना  निश्चित माना जा रहा है।  

मुंबई की कैम्पा कोला सोसाइटी के विवाद के सन्दर्भ से देश में हर बड़े शहर में पैदा होने वाले उस माफिया  के बारे में  चर्चा शुरू हो जानी चाहिए जो हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन को बहुत ही बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं  . हर बड़े शहर में ऐसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या देखी जा  सकती है जो सरकार की मान्यताप्राप्त योजनाओं के दायरे से बाहर लोगों को मकान दिलवाने के सपने दिखाते  हैं।  इनकी कोशिश यह होती है कि  मध्य वर्ग को मान्यताप्राप्त इलाक़ों के बाहर  अपेक्षाकृत कम दाम वाले मकान दिलाने के नाम पर अपने जाल में फंसा लें।  देश के बड़े शहरों में इस तरह के लालच का शिकार  हुए लोगों  की बहुत बड़ी आबादी है।  दिल्ली में तो योजनाबद्ध तरीके से बसी हुयी कालोनियों के  बाहर रहने वालों की  संख्या बहुत अधिक है।  होता यह है कि  सरकार द्वारा अधिग्रहीत ज़मीनों पर कालोनी काटकर गरीब आदमियों को घर का सपना दिखाया जाता है।  कोशिश   होती है कि  जल्दी से जल्दी लोगों को वहां बसा दिया जाए और उनका नाम वोटर लिस्ट में डलवा दिया जाये. यह कालोनियां ऐसी होती हैं जहां कोई सुविधा नहीं होती. शुरू में जनरेटर से बिजली दी जाती है।  सीवेज की लाइन नहीं होती।  घर के आसपास ही सोक पिट बनवा दिए जाते हैं।  पीने के पानी का इंतज़ाम नहीं होता इसलिए कच्ची बोरिंग करवा दी जाती है।  ज़मीन का हर वर्ग फुट एक निश्चित कीमत दे रहा होता है इसलिए सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए कोई भी जगह नहीं छोड़ी जाती।  नतीजा यह होता है एक अनधिकृत स्लम बस्ती तैयार हो जाती है।  यहां की आबादी अन्य इलाक़ों से बहुत ज़्यादा होती है इसलिए यहां वोट भी बहुत ज़्यादा होते हैं।  नतीजा यह होता है कि  इतनी बड़ी संख्या में  वोट लेने के लिए सभी पार्टियों के नेता इन बस्तियों को नियमित कराने के वायदे करते  रहते हैं।  अक्सर देखा गया है कि  चुनाव के दौरान इस तरह की बस्तियों को अधिकृत करने के वायदे किये जाते हैं और जब चुनाव ख़त्म होता है  तो इन बस्तियों को नियमित कर दिया जाता है।  यह बहुत ही ज़हरीला सर्किल है और इस तरह की बस्तियों के चलते ही बहुत से काम होते हैं  जो सभ्य समाजों में नहीं होने चाहिए।    

ऐसी कालोनियों से समाज और मानवता का बहुत नुक्सान होता है। सबसे बड़ा नुक्सान तो  स्वास्थय सेवाओं के क्षेत्र में होता है।  इन बस्तियों में स्वास्थय की कोई सुविधा नहीं होती. उलटे बीमारी बढ़ाने की सारे इंतज़ाम मौजूद  रहते हैं.   अनधिकृत होने के कारण यहां सीवर लाइन नहीं होती और खुली नालियां बजबजाती रहती हैं।  पीने का पानी भी साफ़ नहीं होता।  शौच आदि की कोई सुविधा नहीं होती. शुरू में यह  कालोनियां किसी भी  म्युनिसिपल रिकार्ड आदि में नहीं होती इसलिए यहां रहने वाले लोगों के बारे में  कोई भी  सांख्यिकीय जानकारी नहीं उपलब्ध की जा सकती।  इसके अलावा यहां  रियल एस्टेट माफिया के लोग नेताओं के एजेंट के रूप में काम करते हैं।  आजकल तो एक नया  हो गया है।  प्रॉपर्टी के काम में लगे हुए बहुत सारे लोग बड़े  शहरों में चुनाव जीत रहे हैं।  प्रॉपर्टी के धंधे में  अपनाई  गयी बहुत सारी तरकीबों   राजनीति में भी अपनाते हैं। 



मुंबई की  हाउसिंग सोसाइटी ,कैम्पा  कोला के सर्वोच्च न्यायालय में आये केस के  हवाले से केंद्र में  सत्ता में आयी नरेंद्र मोदी सरकार को शहरी विकास के एक अहम मुद्दे पर  गौर करना बहुत ज़रूरी है।  नरेंद्र मोदी ने  प्रधानमंत्री बनने के पहले देश को  भरोसा दिलाया था कि  वे देश भर में एक सौ नए शहर बसाकर देश के औद्योगिक विकास की गति को तेज़ी देगें।  उनके सतर्क रहना चाहिए कि  इन नए शहरों में भी  रीयल  एस्टेट माफिया उनकी योजनाओं  को बेकार साबित करने की साज़िश में न जुट जाये.  ध्यान रखना होगा कि  रीयल  एस्टेट माफिया के पास आजकल बहुत सारी आर्थिक और राजनीतिक ताक़त  गयी है। कैम्प कोला सोसाइटी में समाज के सबसे धनी वर्ग के लोग रहते  हैं लेकिन देश की ज़्यादातर गैरकानूनी इमारतों  में बहुत गरीब लोग रहते हैं।  आज का फैसला इस बात  की चेतावनी है कि  सरकार को प्रॉपर्टी  माफिया से संभलकर रहना होगा। 

Sunday, April 20, 2014

अस्सी के संतो ,असंतों और घोंघाबसंतों की तमन्ना है कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला ज़बरदस्त हो



शेष नारायण सिंह

बनारस के अस्सी  घाट की पप्पू की चाय की  दूकान एक बार फिर चर्चा में है . पता चला है कि बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार , नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी के प्रस्तावक के रूप में पप्पू को भी जिला निर्वाचन अधिकारी के सामने पेश किया जायेगा. पप्पू की चाय की दूकान  का ऐतिहासिक ,भौगोलिक और राजनीतिक महत्त्व है . अपने उपन्यास ' काशी का अस्सी ' में काशी नाथ सिंह ने पप्पू की दूकान को अमर कर दिया है " काशी का अस्सी " को आधार बनाकर एक फिल्म भी बन चुकी है . इस फिल्म का निर्माण लखनऊ के किसी व्यापारी ने किया है .डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी इस फिल्म के निदेशक हैं .नामी धारावाहिक " चाणक्य " की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जब अमृता प्रीतम की कहानी के आधार पर फिल्म पिंजर बनाई थी तो भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के दौरान पंजाब में दर्द का जो तांडव हुआ था ,वह सिनेमा के परदे पर जिंदा हो उठा था . छत्तोआनी और रत्तोवाल नाम के गावों के हवाले से जो भी दुनिया ने पिंजर फिल्म में देखा था उस से लोग सिहर उठे थे . जिन लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन को नहीं देखा उनकी समझ में कुछ बात आई थी और जिन्होंने देखा था उनका दर्द फिर से ताज़ा हो गया था. मैंने कई ऐसी बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ भी फिल्म " पिंजर " को देखा जो १९४७ में १५ से २५ साल के बीच की उम्र की रही होंगीं . उन लोगों के भी आंसू रोके नहीं रुक रहे थे . फिल्म बहुत ही रियल थी. लेकिन उसे व्यापारिक सफलता नहीं मिली. 

काशी नाथ सिंह का उपन्यास " काशी का अस्सी "  पप्पू की दूकान के आस पास ही  मंडराता रहता है  .बताते हैं कि शहर बनारस के दक्खिनी छोर पर गंगा किनारे बसा ऐतिहासिक मोहल्ला अस्सी. है . अस्सी चौराहे पर भीड़ भाड वाली  चाय की एक दुकान है . इस दूकान पर रात दिन बहसों में उलझते ,लड़ते- झगड़ते कुछ स्वनामधन्य अखाडिये बैठकबाज़ विराजमान रहते हैं . न कभी उनकी बहसें ख़त्म होती  हैं , न सुबह शाम . कभी प्रगतिशील और लिबरल राजनीतिक सोच वालों के केंद्र रहे इसी अस्सी को केंद्र बनाकर इस बार नरेंद्र मोदी की पार्टी वाले वाराणसी का अभियान चला रहे हैं . इस अभियान में
 वाराणसी में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल को  मोदी के समर्थक भगा देने के चक्कर में हैं . अरविन्द केजरीवाल जहां भी जा रहे हैं बीजेपी कार्यकर्ता उनके  ऊपर पत्थर ,टमाटर आदि फेंक रहे हैं .  इन कार्यकर्ताओं के इस कार्यक्रम के चलते केजरीवाल का नाम देश के सभी टी वी चैनलों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाया हुआ है . हालांकि सच्चाई यह है कि बनारस की ज़मीन पर अभी केजरीवाल का कोई नाम नहीं है . बनारस में रहने वाले और पप्पू की दूकान को राजनीतिक समझ की प्रयोगशाला मानने वाले एक गुनी से बात हुयी तो पता चला कि अरविन्द केजरीवाल के साथ आये हुए लोग भी बनारस में अजनबी ही हैं . वाराणसी के पत्रकारों से चर्चा करने पर पता चला है कि नरेंद्र मोदी का मीडिया प्रोफाइल इतना बड़ा है कि उनकी हार के बारे में सोचना भी अजीब लगता है लेकिन यह असंभव भी नहीं है . समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के मज़बूत उम्मीदवार है . समाजवादी पार्टी ने एक मंत्री को चुनाव में उतार दिया है . पूरे सरकारी तामझाम के साथ यह मंत्री चुनाव लड़ रहा है . जानकारों की राय है कि ज्यों ज्यों चुनाव आगे बढेगा ,अरविन्द केजरीवाल की टीम को अंदाज़ लग जाएगा कि मीडिया में चाहे जितना प्रचार कर लें लेकिन बनारस की ज़मीन पर उनके लिए मुश्किलें पेश आयेगीं और आती ही रहेगीं . अभी  यह प्रचार कर दिया गया है कि मुसलमानों का  वोट थोक में अरविन्द केजरीवाल को मिल रहा है . इसके कारण बीजेपी के रणनीतिकारों में खुशी है . उनको मालूम है की अगर बीजेपी विरोधियों के वोट बिखरते हैं तो नरेंद्र मोदी की लड़ाई बहुत आसान हो जायेगी
लेकिन  यह अभी बहुत जल्दी का आकलन है . काशी में कई दशक से पत्रकारिता कर रहे एक वरिष्ट पत्रकार ने बताया कि वाराणसी में नरेंद्र मोदी को सही चुनौती केवल अजय राय  ही दे सकते  हैं .वाराणसी के अलग अलग चुनावों में अजय राय बड़े बड़े महारथियों को हरा चुके हैं . बनारस के कवि, व्योमेश शुक्ल बताते हैं कि ओम प्रकाश राजभर, ऊदल,  सोनेलाल पटेल आदि कुछ ऐसे लोग हैं जिनको अजय राय ने हराया है . जिस तरह से अरविन्द  केजरीवाल को हर चौराहे पर नरेंद्र मोदी के समर्थक अपमानित कर रहे हैं , उनकी हिम्मत नहीं पड़ेगी कि अजय राय के समर्थकों के खिलाफ हाथ उठायें . अजय  राय के  बारे  में कहा जाता है कि उनको वाराणसी में हरा पाना  बहुत मुश्किल है . एक बार तो किसी उपचुनाव में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री , मायावती ने अपने २३ मंत्रियों को वाराणसी में  चुनाव प्रचार के काम में लगा दिया था लेकिन अजय राय निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत गए थे. वाराणसी में यह चर्चा है कि अगर मुलायम सिंह यादव अमेठी और रायबरेली की तर्ज़ पर वाराणसी में भी अपना उम्मीदवार हटा  लें तो मोदी की काशी की लड़ाई बहुत ही मुश्किल हो जायेगी . आज़मगढ़ से अपना परचा दखिल करके आज़मगढ़ और वाराणसी कमिश्नरी में मुलायम सिंह  यादव ने बीजेपी उम्मीदवारों की जीत की संभावना  को बहुत ही सीमित तो पहले ही कर दिया है .
बहरहाल इस चुनाव में हार जीत चाहे जिसकी हो , काशी वालों को डर है कि कहीं बनारस न  हार जाए  . यहाँ भलमनसाहत की एक परम्परा रही है . १८०९ में पहली बार यहाँ एक बहुत बड़ा साम्प्रदायिक दंगा हुआ था .अंग्रेजों का राज था और कई महीनों तक खून खराबा चलता रहा था . लाट भैरो नाम के  इस साम्प्रदायिक बवाल से हर बनारसी डरता रहा है . बनारस के पुराने प्रमियों से बात करके पता चलता है की पिछली पीढ़ियाँ आने वाली पीढ़ियों को साम्प्रदायिक  दहशत से आगाह कराती रहती हैं . यहाँ  के लोगों को मालूम है कि चुनावों की तैयारियों में मुज़फ्फरनगर के दंगों का कितना योगदान रहा है . ख़तरा यह है कि राजनेता बिरादरी चुनाव जीतेने के लिए कहीं वैसा ही कुछ यहाँ न कर बैठे . बाकी भारत की तरह राजनीतिक  बिरादरी को बनारस में भी शक की निगाह से देखा जाता है और यह माना जाता है कि नेता  अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं .पिछले कुछ दिनों से पप्पू की चाय की दूकान पर जिस तरह की राजनीतिक  चर्चा चल रही है उस से साफ़ है कि इस बार का चुनाव बिलकुल वैसा नहीं होगा जैसा होना चाहिए,जैसा आम तौर पर बनारस में चुनावों में होता है .
आम बनारसी की इच्छा  है कि चुनाव में मुख्य मुकाबले में ऐसा एक व्यक्ति ज़रूर होना चाहिए जिसको बनारस से मुहब्बत हो , जो बनारस की इज्ज़त और शान बचाए रखने के लिए चुनाव में हार जाना भी ठीक समझे. बनारस वास्तव में गरीब लोगों का शहर है . हालांकि यहाँ संपन्न लोगों की भी खासी संख्या है लेकिन शहर के मिजाज़ का स्थाई भाव गरीबी ही है . यहाँ गरीबी को भी धकिया कर मज़ा लेने की परम्परा है . कमर में गमछा, कंधे पर लंगोट औरर बदन पर जनेऊ डाले अपने आप में मस्त रहने वाले लोगों का यह शहर किसी की परवाह नहीं करता.  कहते हैं कि लंगोट और जनेऊ तो आजकल कमज़ोर पड़ गए हैं लेकिन गमछा अभी भी बनारसी यूनीफार्म का अहम हिस्सा है . बिना किसी की परवाह किये मस्ती में घूमना इस शहर का पहचान पत्र है . अस्सी घाट की ज़िंदगी को केंद्र में रख कर लिखा गया काशी नाथ सिंह का उपन्यास  और उसकी शुरुआत के कुछ पन्ने बनारस की ज़िंदगी का सब कुछ बयान कर देते हैं लेकिन उन सारे शब्दों का प्रयोग एक पत्रकार  के लेख में नहीं किया जा सकता . वास्तव में अस्सी बनारस का  मुहल्ला नहीं है ,अस्सी वास्तव में " अष्टाध्यायी " है और बनारस उसका भाष्य . पिछले पचास वर्षों से 'पूंजीवाद ' से पगलाए अमरीकी यहाँ आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसकी टीका हो जाए ..मगर चाहने से क्या होता है ?
 इसी बनारस की पहचान की हिफाज़त के  लिए गंगा के किनारे से तरह तरह की आवाजें आ रही हैं . लोगों की इच्छा है की मुख्य मुकाबले में कम से कम एक बनारसी ज़रूर हो . सबको मालूम है कि  नरेंद्र मोदी तो हटने वाले नहीं हैं क्योंकि उनको प्रधानमंत्री पद के  लिए अभियान चलाना है . इसलिए लोग उम्मीद कर रहे हैं कि अरविन्द केजरीवाल की हट  जाएँ क्योंकि वे बनारस में नरेंद्र मोदी के खिलाफ प्रचार करके , किसी गली मोहल्ले में थोडा बहुत पिट पिटा कर केवल ख़बरों में बने रह सकते हैं लेकिन बनारस के हर मोड़ पर वे मोदी वालों का रोक नहीं पायेगें .  मोदी और केजरीवाल को इस  बात की परवाह नहीं रहेगी कि बनारस की इज्जत बचती है कि  धूल में मिल जाती है . इसलिए अस्सी मोहल्ले के आस पास मंडराने वाले संत , असंत और घोंघाबसंतों की तमन्ना है कि मुकाबला नरेंद्र मोदी का ज़बरदस्त हो लेकिन उनके खिलाफ कोई बनारसी ही मैदान ले. इस सन्दर्भ में मैंने एक  बुढऊ कासीनाथ से बात की . वे इन्भरसीटी में मास्टर थे , कहानियां-फहानियाँ लिखते थे  और अपने दो चार बकलोल दोस्तों के साथ  मारवाड़ी सेवा संघ के चौतरे पर अखबार बिछाकर उसपर लाई दाना फैलाकर ,एक पुडिया नमक के  साथ भकोसते रहते थे  . पिछले  दिनों इन महोदय के बारे में प्रचार कर  दिया  गया था कि यह मोदी के पक्ष में चले गए थे लेकिन वह खबर झूठ फैलाने वालों की बिरादरी का आविष्कार मात्र थी. वे  डंके की चोट पर नरेंद्र मोदी को हराना चाहते हैं और उनकी  नज़र में कांग्रेसी उम्मीदवार अजय राय मोदी को एक भारी चुनौती  दे सकता है . काशी नाथ सिंह बार बार यह कहा  है की नरेंद्र मोदी को  खांटी बनारसी चुनौती मिलनी चाहिए और वह इसी अस्सी की सरज़मीन से मिलेगी . उन्होने मुझे  भरोसा दिलाया कि बनारस में अस्सी के बाहर भी तरह की चर्चा सुनने में आ रही है .

Friday, April 18, 2014

पूंजीवादी निजाम से भी खूंखार अर्थव्यवस्था का वादा , कांग्रेसी घोषणा पत्र में धन्नासेठों की मनमानी का पुख्ता इंतज़ाम


शेष नारायण सिंह 

27 मार्च का लेख 


.कांग्रेस पार्टी ने पूरे जोशो खरोश के साथ अपना चुनाव घोषणापत्र जारी कर दिया . हर बार की तरह इस बार भी कुछ वैसे ही वायदे किये  गए जिनको पूरा कर पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता है .लेकिन इस बार कांग्रेस के  घोषणा पत्र में वचन दिया गया है कि देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से इकनामिक फ्रीडम के आर्थिक दर्शन की बुनियाद पर डाल दिया जाएगा . कांग्रेस पार्टी ने जो घोषणा पत्र जारी किया है उसके आधार पर अगर अर्थव्यवस्था का प्रबंधन किया गया तो आर्थिक गतिविधियों पर जो थोडा बहुत सार्वजनिक कंट्रोल बना हुआ है वह भी पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा . इकनामिक फ्रीडम की सर्वमान्य परिभाषा में बताया गया है कि यह किसी भी देश में आर्थिक  सम्पन्नता हासिल करने का वह तरीका है जिसमें किसी सरकार या किसी आर्थिक अथारिटी को कोई हस्तक्षेप न हो . व्यक्तियों को अपनी निजी संपत्ति, मानव संसाधन और श्रम का संरक्षण करने की असीमित  आज़ादी होती है . पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में इकानामिक फ्रीडम के तत्व होते हैं .अगर उसमें सविल लिबर्टी के तत्व डाल दिए जाएँ तो वह पूरी तरह से स्वतंत्र हो जायेगें और  इकनामिक फ्रीडम की श्रेणी में आ जायेगें . ध्यान में रखना चाहिए कि बीजेपी के नेता , नरेंद्र मोदी भी इस देश में इक्नामिक फ्रीडम की अवधारणा के समर्थक हैं और उनको इस क्षेत्र में दिया जाने वाला देश सर्वोच्च पुरस्कार भी मिल चुका है . दिलचस्प बात यह है कि यह पुरस्कार उनको  राजीव गांधी फाउन्डेशन की और से दिया गया था जिसकी अध्यक्ष कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी हैं . जानकार बताते हैं कि अर्थव्यवस्था के दार्शनिक आधार के बारे में कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही मनमोहन सिंह के आर्थिक चिंतन को सही मानते हैं .

कांग्रेस के घोषणा पत्र में वे सारी बातें समाहित कर ली गयी हैं जो अगर लागू हो गयीं तो इस देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से आर्थिक मनमानी के निजाम के अधीन हो जायेगी . कांग्रेस के घोषणा पत्र को मोटे तौर पर पंद्रह सूत्रों में पिरोया गया है .. इसमें स्वास्थ्य ,पेंशन ,आवास का अधिकार , सम्मान का अधिकार , उद्यमित्ता का अधिकार आदि को शामिल किया गया है .. महिलाओं के अधिकार , सुरक्षा आदि से सम्बंधित जो पारंपरिक बातें हैं वह  महत्वपूर्ण  हैं लेकिन जो बातें देश की अर्थव्यवस्था को निरंकुश पूंजी के हाथ में देने वाली हैं उनका अब तक शासक वर्गों की किसी  राजनीतिक पार्टी ने विरोध नहीं किया है . विकास दर और अन्य आंकड़ों के बीच में जो बातें देश की अर्थव्यवस्था को आम आदमी की पंहुच के बाहर ले जाने वाली हैं उनको बहुत ही करीने से बीच में डाल दिया गया है  कांग्रेस के घोषणा पत्र में लिखा है की " हम एक ऐसी खुली हुई और कम्पटीशन वाली अर्थव्यवस्था को प्रमोट करेगें जिसमें  घरेलू और दुनिया भर के  पूंजीपति और आम आदमी एक दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा कर सकेगें ." इसका भावार्थ यह हुआ कि देश की अर्थव्यवस्था को बिलकुल स्वतंत्र छोड़ दिया जाएगा  जिसमें उद्योग लगाने के लिए बैंक से क़र्ज़ लेकर आया हुआ कुशल और प्रशिक्षित इंजीनियर , देश का सबसे धनी उद्योगपति और अमरीका या यूरोप की बड़ी से बड़ी कंपनी  समान अवसर के साथ एक दुसरे का मुकाबला  कर सकेगें . सरकार की तरफ से किसी को कोई विशेष सुविधा या अवसर नहीं दिया जाएगा . आसानी से समझा जा सकता है कि यह प्रबंधन क्या गुल खिलायेगा. कृषि क्षेत्र  में भी भारी  निवेश की बात की गयी है लेकिन खेती से होने वाली पैदावार को भी कारपोरेट तरीके से करने पर जोर दिया जाएगा और धीरे धीरे देश कारपोरेट खेती की तरफ अग्रसर होगा . कांग्रेस का तर्क है कि ऐसा करने से खेती से मिलने वाली पैदावार बढ़ेगी . लेकिन इकनामिक फ्रीडम का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा क्योंकि किसान के हाथों में जो अभी खेती के उत्पादन के साधन का नियंत्रण  है वह कारपोरेट हाथों में चला जायेगा क्योंकि किसान इस देश के  बड़े औद्योगिक घरानों और दुनिया भर के कृषि धन्नासेठों से मुकाबला नहीं कर सकेगा .
बड़े औद्योगिक घरानों को अभी सबसे ज़्यादा परेशानी मजदूरों को उचित मजदूरी देने में होती है और कर्मचारियों की तनखाह एक बड़ा बोझ होता है . कई बार तो ऐसा होता है कि कारखाने में कोई काम नहीं होता और कर्मचारियों को तनखाह देना पड़ता है .इसको दुरुस्त करने के लिए देश और विदेश के उद्योगपति पिछले कई वर्षों से  कोशिश कर रहे हैं . उसको श्रम कानून में सुधार का नाम दिया जाता रहा है . कांग्रेस के घोषणा पत्र में इस बार इस समस्या का हल भी निकाल दिया गया है . घोषणा पत्र में लिखा है कि ऐसी लाछीली श्रमनीति बनाई जिससे औद्द्योगिक उत्पादान की प्रतिस्पर्धा बनी रहे और भारतीय उत्पादन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कम्पटीशन बना रहे . इसका अर्थ यह ऐसे श्रम कानून बनाए  जायेगें जिसके बल पर उद्योगपति जब चाहे कर्मचारियों और मजदूरों को काम पर रखें या जब चाहें अलग कर दें . कांग्रेस के घोषणापत्र में बाकी बातें वही हैं जो कांग्रेस पिछले दस वर्षों से करती रही है . लेकिन अगर कांग्रेस सत्ता में आयी तो उनके घोषणा पत्र में ऐसी व्यवस्था है कि साधारण पूंजीवादी निजाम से आगे बढ़ कर इकनामिक फ्रीडम वाला निजाम कायम कर दिया जाएगा .

Monday, March 24, 2014

लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपराधियों को संसद और विधानमंडलों से बाहर रखना होगा


शेष नारायण सिंह
आजकल राजनीति में भले आदमियों के साथ साथ अपराधी भी बड़ी संख्या में देखे जाते हैं . लोकसभा और विधान सभाओं में इनकी संख्या खासी है. पहली बार १९८० में बड़ी संख्या में विधान सभा और लोक सभा के चुनावों में बड़ी संख्या में कांग्रेस के तत्कालीन युवराज संजय गांधी ने अपराधियों या आपराधिक चावी वाले दबंगों को टिकट बांटी थी. उसके बाद तो सभी पार्टियों में अपराधियों को टिकट देने का फैशन हो गया . एक से एक अपराधी और बाहुबली लोग लोकतंत्र के इन पवित्र केन्द्रों में पंहुचने लगे. दोनों बड़ी पार्टियों के अलावा क्षेत्रीय पार्टियों में भी बड़ी तादाद अपराधियों की है .सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया की किसी भी विधान मंडल का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों को अपनी आपराधिक छवि का रिकार्ड हलफनामे की शक्ल में जमा करना पडेगा . सुप्रीम कोर्ट को उम्मीद थी कि जब जनता को मालूम हो जाएगा कि आपराधिक छवि के लोग उम्मीदवार हैं तो वह उनको वोट नहीं देगी .अपने एक विद्वत्तापूर्ण लेख में विद्वान् राजनीतिक विश्लेषक सर्वमित्रा  सुरजन ने लिख दिया था कि  परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो आपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर आ गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं देंपरंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नही करती है। 'ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनलने अपनी रिपोर्ट में संसार के 174 देशों में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के मामले में भारत को स्थान 72वां प्रदान किया है।
स्वतंत्रता के बाद पिछले 60 वर्ष में अपने देश में लोकतंत्र मजबूत तो हुआ हैलेकिन राजनीति का अपराधीकरण भी बढ़ा हैजिससे चुनावों के साफ-सुथरे होने पर संदेह के बादल गहराने लगे हैं। दिनों-दिन यह मुद्दा लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज से अहम होता जा रहा है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपराधी तत्वों की सहायता लेना तो अब बहुत छोटी बात हो गई है अब तो बाकायदा उनकों टिकट देकर उपकृत किया जा रहा है।  भारत का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें किसी न किसी प्रकार के अपराधी न हो। 
लोकसभा और राय विधानसभाओं में यदि अपराधियों का रिकॉर्ड देखा जाए तो यह देखकर घोर आश्चर्य होता है कि अपराधियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया था कि यदि कोई व्यक्ति संसद या विधानसभा के चुनाव का प्रत्याशी है तो वह यह हलफनामा देगा कि उसके खिलाफ कितने आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह अनुमान था कि जब वोटरों को किसी व्यक्ति का आपराधिक रिकॉर्ड मालूम होगा तो वह उसे किसी हालत में वोट नहीं देगा। परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो अपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर आ गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं देंपरंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नही करती है।'ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनलने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि संसार के 174 देशों में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के मामले में भारत का स्थान 72वां है। यहां तक कि संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लगभग एक तिहाई सांसद हैंजिन पर कुल 413 मामले लंबित हैं।
लोकसभा और विधानसभाओं में अपराधियों की संख्या तब और ज़्यादा बढ़ गई जब एक पार्टी के बदले कई पार्टियों की मिलीजुली सरकार बनने लगीखासकर क्षेत्रीय पार्टियों में इतने अपराधी भर पड़े हैं कि उनकी कोई गणना भी नहीं कर सकता है। तर्क दिया जाता है कि जब तक किसी व्यक्ति पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपराध साबित नहीं हो जाता है तब तक उसे अपराधी कैसे कह सकते हैं। पिछले अनेक वर्षों से तमाम संगठन अपराधियों के निर्वाचित होने के अधिकार पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। फिर भी विधानसभाओं तथा संसद में अपराधियों की संख्या कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है। कोई भी यह नहीं बताता है कि जनता आखिर अपराधियों को क्यों चुन कर भेजती है। यह तो तय है कि उनके गले पर अपराधियों की बन्दूकें नहीं लगी होतीं । और तो और अब तो बात यहाँ तक आ चुकी है कि जो जितना बड़ा अपराधी होगा उसके जीतने की उम्मीद भी अधिक होगी । 
जब तक इस सवाल का जवाब नहीं तलाशा जाएगा कि आम जनता ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले  नेताओं को छोड़कर अपराधियों को ही वोट क्यों देती हैतबतक अपराधियों को निर्वाचित होने से नहीं रोका जा सकता है। यह तय है कि अपराधियों को निर्वाचित होने से रोकने के लिये बनाए जाने वाले कानून एक दिन स्वयं लोकतंत्र का ही गला घोंट देंगे। एक और चौंकाने वाली बात है कि स्विस सरकार के नवीन घोषणा के अनुसार यदि भारत सरकार उनसे मांगे तो वह यह बता सकते हैं कि उनके बैंकों में किन भारतीयों के कितने पैसे जमा है। हालत बहुत ही चिंताजनक हैं लेकिन इसी में से कहीं उम्मीद भी नज़र आने लगी है .
केंद्र सरकार के विधि आयोग ने अपनी २४४वीं रिपोर्ट दाखिल कर दिया है .सुप्रीम कोर्ट ने एक मुक़दमें की सुनवाई के दौरान विधि आयोग को आदेश दिया था कि चुनाव जन प्रतिनिधित्व कानून १९५१ में सुधार के लिए सुझाव तैयार किये जाएँ . माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अपराधियों को राजनीति से बाहर रखना बहुत ज़रूरी है और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं .सरकार ने अब इस रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश कर दिया है .दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश  जस्टिस ए पी शाह की अध्यक्षता वाले इस आयोग की रिपोर्ट में जो सुझाव दिए गए हैं वे अपराधियों को राजनीति से बाहर रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं . आयोग की रिपोर्ट में सख्त प्रावधान तो  हैं लेकिन ऐसे सुझाव भी हैं जिनको लागू किये जाने पर कानून का दुरुपयोग रोक जा सकेगा .रिपोर्ट का नाम ही " चुनावी अयोग्यताएं " बताया गया है .इसमें एक  महत्वपूर्ण प्रावधान तो यही है कि गलत हलफनामा देने वाले को जेल की सज़ा बढ़ा दी जानी चाहिए . अभी तक का प्रावधान यह है कि जब तक  मुक़दमे  का फैसला न हो जाए तब  तक किसी को चुनाव लड़ने से रोक नहीं  जा सकता . मौजूदा रिपोर्ट में लिखा है कि जब किसी भी अभियुक्त के खिलाफ आरोप तय हो जाएँ उसके बाद से उसे चुनाव के लिए पर्चा दाखिल करने से रोक दिया जाए . हालांकि जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो यह मानता है कि एफ आई आर लिखे जाने के बाद ही अभियुक्त को चुनाव लड़ने से रोक देना चाहिए लेकिन विधि आयोग का मानना  है कि यह उचित नहीं है . रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाने से किसी नेता को चुनाव रोकने से रोकना संभव होने लगेगा तो पुलिस की मनमानी बढ़ जायेगी .इसलिए जब तक किसी स्तर पर न्यायिक प्रक्रिया से न गुज़र जाए तब तक किसी भी जांच को  प्रामाणिक नहीं माना जाना चाहिए .अभी नियम यह  है कि किसी भी अदालत से सज़ा पाने वालों को चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए .आयोग का कहना है कि अगर नियम का दुरुपयोग रोकने की सही यवस्था की  जा सके तो अपराध तय होने के बाद ऐसे अभियुक्तों को चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है जिनके अपराध में कम से कम पांच साल की सज़ा का प्रावधान हो . अभी तक देखा गया है कि सज़ा हो जाने के बाद अपराधी को रोकने की प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं है .भारतीय न्याय व्यवस्था की एक सच्चाई यह भी है कि मुक़दमों के अंतिम निर्णय में बहुत समय लगता है . बहुत सारे मामले ऐसेहैं जहां सबको मालूम रहता  है कि अपराधी कौन है लेकिन वह अदालत से बरी हो जाता है .हालांकि इस प्रावधान के दुरुपयोग की संभावना भी कम नहीं  है लेकिन लेकिन आयोग का कहना है की इसमें ऐसे नियम बनाए जा सकते हैं जिससे कानून का दुरुपयोग न हों .एक सुझाव यह भी है कि एम पी और एम एल ए के खिलाफ दाखिल मुक़दमों में साल भर के अन्दर फैसला आ जाना चाहिए . सुप्रीम कोर्ट ने इस एक सुझाव को मान लिया है और इस सन्दर्भ में फैसला भी दे दिया है .
विधि आयोग की मौजूदा सिफारिशों को मान लेने से अपराधियों को बाहर रखने में ज़रूरी मदद मिलेगी . यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि अगर फौरन कार्रवाई न हुयी तो बहुत देर हो जायेगी .इस चुनाव में भी साफ़ नज़र आ रहा  है कि ऐसे लोगों को चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है जो पूरी तरह से अपराधी हैं और संसद की गरिमा को निश्चित रूप से गिरायेगें . ऐसे लोगों पर लगाम लगाए जाने की ज़रुरत है .

Thursday, March 20, 2014

अगर राजनेताओं का ढिंढोरची बना तो कहीं का नहीं रहेगा मीडिया


शेष नारायण सिंह 

लोकसभा चुनाव २०१४ में राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का भविष्य दांव पर लगा हुआ है इसके साथ साथ बहुत कुछ  कसौटी पर है , बहुत सारे नेताओं और राजनीतिक पार्टियों की परीक्षा हो रही है . इस चुनाव में सबसे ज़्यादा कठिन परीक्षा से मीडिया को गुजरना पड़ रहा है .सभी पार्टियां मीडिया पर उनके विरोधी का पस्ख लेने के आरोप लगा रही हैं . इस बार राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय कई राजनीतिक पार्टियों के बारे में कहा जा रहा है कि वे मीडिया की देन हैं . आम आदमी पार्टी के बारे में तो सभी एकमत हैं कि उसे मीडिया ने ही बनाया है . लेकिन अब मीडिया से सबसे ज्यादा नाराज़ भी आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो ही हैं . वे कई बार कह चुके हैं कि मीडिया बिक चुका है . बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी की हवा बनाने में भी मीडिया की खासी भूमिका है . उनकी पार्टी के नेता आम तौर पार मीडिया  को अपना मित्र  मानते हैं . लेकिन अगर कहीं किसी बहस में कोई पत्रकार उनकी पार्टी के स्थापित मानदंडों का विरोध कर दे तो उसका विरोध तो करते ही हैं ,कई बार फटकारने भी लगते हैं . कांग्रेस के नेता आम तौर पर मीडिया के खिलाफ बोलते रहते हैं . उनका आरोप रहता है कि मीडिया के ज़्यादातर लोग उनके खिलाफ लामबंद हो गए  हैं और कांग्रेस की मौजूदा स्थति में मीडिया के  विरोध की खासी  भूमिका है . हालांकि ऊपर लिखी बातों में पूरी तरह से कुछ भी सच नहीं है  लेकिन सारी ही बातें आंशिक रूप से सच हैं . इस बात में दो राय नहीं  है कि इस चुनाव में मीडिया भी कसौटी पर है और यह लगभग तय है कि इन चुनावों के बाद सभी पार्टियों की शक्ल बदली हुयी होगी और मीडिया की हालत भी निश्चित रूप से बदल जायेगी .
आज से करीब बीस साल पहले जब आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो वह हर क्षेत्र में देखा गया . मीडिया भी  उस से अछूता नहीं रह गया . मीडिया संस्थाओं के नए मालिकों का प्रादुर्भाव हुआ , पुराने मालिकों ने नए नए तरीके से काम करना शुरू कर दिया . देश की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी के मालिक ने तो साफ़ कह दिया कि वे तो विज्ञापन के लिए अखबार निकालते हैं ,उसमें ख़बरें भी डाल दी जाती हैं . बहुत सारे मालिकों ने यह कहा नहीं लेकिन सभी कहने लगे कि धंधा तो करना ही है.  इस दौर में बहुत सारे ऐसे पत्रकार भी पैदा हो गए जो निष्पक्षता को भुलाकर कर  निजी एजेंडा की पैरवी में  लग गए. एक बहुत बड़े चैनल के मुख्य सम्पादक और अब एक पार्टी के उम्मीदवार हर सेमीनार में  टेलिविज़न चलाने के लिए लगने वाले पैसे का ज़िक्र करते थे और उसको इकट्ठा करने के लिए पत्रकारों की भूमिका में बदलाव के पैरोकारों में सबसे आगे खड़े नज़र आते थे . इस अभियान में उनको कई बार सही पत्रकारों के गुस्से का सामना भी करना पडा .जब अन्ना हजारे का रामलीला मैदान वाला शो हुआ तो उन पत्रकार महोदय की अजीब दशा थी . उनकी पूरी कायनात अन्नामय हो गयी थी . अब  जाकर पता चला है कि वे एक निश्चित योजना के अनुसार काम कर  रहे थे . आज वे उस दौर में अन्ना हजारे के  मुख्य शिष्य रहे व्यक्ति की पार्टी के नेता हैं . इस तरह की घटनाओं से पत्रकारिता की  निष्पक्षता की संस्था के रूप में पहचान  को  नुक्सान होता है .मौजूदा चुनाव में यह ख़तरा सबसे ज़्यादा है और इससे बचना पत्राकारिता की सबसे बड़ी चुनौती है .

टेलिविज़न आज पत्रकारिता का सबसे प्रमुख माध्यम है . चुनावों के दौरान  वह और भी ख़ास हो जाता है .वहीं पत्रकार की सबसे कठिन परीक्षा होती  है . आजकल टेलिविज़न में पत्रकारों के कई रूप देखने को मिल रहे हैं . एक तो रिपोर्टर  का है जिसमें उसको  उन बातों को भी पूरी ईमानदारी , निष्पक्षता और निष्ठुरता से बताना होता है जो सच हैं , उसे सच के प्रति प्रतिबद्ध रहना होता है ठीक उसी तरह जैसे भीष्म पितामह हस्तिनापुर के सिंहासन के साथ  प्रतिबद्ध थे. उसको ऐसी  बातों को भी रिपोर्ट करना होता है जिनको वह पसंद नहीं करता . दूसरा  रूप विश्लेषक का होता है जहां उसको  स्थिति की स्पष्ट व्याख्या करनी होती है . इस व्यख्या में भी उसको अपनी  प्रतिबद्धताओं से बचना होता है .और अंतिम रूप टिप्पणीकार  का है जहा पत्रकार अपने  दृष्टिकोण को भी  रख सकता है और उसकी तार्किक व्याख्या कर सकता है .. यह सारे काम बहुत  ही कठिन हैं और इनका पालन करना इस चुनाव में मीडिया के लोगों का सबसे कठिन लक्ष्य है , अब तक के संकेतों से साफ़ है कि मीडिया घरानों के मालिक अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से ही काम करने वाले है . पत्रकार की अपनी निष्पक्षता  कहाँ तक  पब्लिक डोमेन में आ पाती है यह देखना दिलचस्प होगा.

मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती पेड न्यूज का संकट है . पेड न्यूज़ के ज़्यादातर  मामलों में मालिक लोग खुद ही शामिल रहते हैं लेकिन काम तो पत्रकार के ज़रिये होता है इसलिए असली अग्निपरीक्षा पत्रकारिता के पेशे में लगे हुए लोगों की है .पेड न्यूज़ के कारण आज मीडिया की विश्वसनीयता पर संकट आ गया है। मीडिया पैसे लेकर खबर छापकर अपने पाठकों के विश्वास के साथ खेल रहा है और पेड न्यूज के कारण मीडियाकर्मियों की चारों तरफ आलोचना हो रही है। २००९ के लोकसभा चुनावों के दौरान यह संकट बहुत मुखर रूप से सामने आया था  .अखबारों के मालिक पैसे लेकर विज्ञापनों को समाचार की शक्ल में छापने लगे .. प्रभाष जोशीपी.साईंनाथ , परंजय गुहा ठाकुरता और विपुल मुद्गल ने इसकी आलोचना का अभियान चलाया  . प्रेस काउन्सिल ने भी पेड न्यूज की विवेचना करने के लिये  पराजंय गुहा ठाकुरता और के.श्रीनिवास रेड्डी की कमेटी बनाकर एक रिपोर्ट तैयार की जिसको आज के संदर्भ में एक बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जा सकता है. सरकारी तौर पर भी इस पर चिंता प्रकट की गयी और प्रेस कौंसिल ने पेड न्यूज को रोकने के उपाय किये . प्रेस कौंसिल ने बताया कि  कोई समाचार या विश्लेषण अगर पैसे या किसी और तरफादारी के बदले किसी भी मीडिया में जगह पाता है तो उसे पेड न्यूज की श्रेणी में रखा जाएगा ।प्रेस कौंसिल के इस विवेचन के बाद पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर तरह तरह के सवाल उठने लगे . सरकार भी सक्रिय हो गयी .और पेड न्यूज़ पर चुनाव आयोग की नज़र भी पड़ गयी. चुनाव आयोग ने पेड न्यूज के केस में २०११ में  पहली कार्रवाई की और उत्तर प्रदेश से विधायक रहीं उमलेश यादव को तीन साल के लिए अयोग्य करार दिया। आयोग ने महिला विधायक उमलेश यादव के खिलाफ यह कार्रवाई दो हिंदी समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों पर हुए चुनाव खर्च के बारे में गलत बयान देने के लिए की . उमलेश यादव ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 के तहत अप्रैल 2007 में उत्तर प्रदेश में बिसौली के लिए हुए विधानसभा चुनाव के दौरान हुए चुनावी खर्च में अनियमितता की थी और अखबारों को धन देकर अपने पक्ष में ख़बरें छपवाई थीं . उत्तर प्रदेश की इस घटना के बाद और भी घटनाएं  हुईं .  लोगों को सज़ा भी मिली लेकिन समस्या बद से बदतर होती जा रही है . आज मीडियाकर्मी के ऊपर चारों तरफ से दबाव है और मीडिया और संचार माध्यामों की कृपा से ही पूरी दुनिया बहुत छोटी हो गयी है .मार्शल मैक्लुहान ने कहा  था कि एक दिन आएगा जब सारी दुनिया एक गाँव हो जायेगी , वह होता दिख रहा  है लेकिन यह भी ज़रूरी है कि उस गाँव के लिए आचरण के नए मानदंड तय किये जाएँ . यह काम मीडिया वालों  को ही करना  है लेकिन उदारीकरण के चलते सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है .इसके चलते आम आदमी की भावनाओं को कंट्रोल किया जा रहा  है .सब कुछ एक बाज़ार की शक्ल में देखा जा रहा है .यह बाज़ार पूंजी के ,मालिकों  और मीडिया संस्थानों को  विचारधारा की शक्ति को काबू करने की ताकत देता है .पश्चिमी दुनिया में  बाजार की ताक़त  को विचारधारा की स्वतंत्रता के बराबर माना जाता है लेकिन बाजार का गुप्त हाथ नियंत्रण के औजार के रुप में भी इस्तेमाल किया जाता  है .
आज भारत में यही पूंजी काम कर रही है और मीडिया पार उसके कंट्रोल के चलते ऐसे ऐसे राजनीतिक अजूबे पैदा हो रहे हैं जिनका भारत के भविष्य पर  क्या असर पडेगा कहना मुश्किल  है . राजनीतिक आचरण का उद्देश्य हमेशा से ज्यादा से ज़्यादा लोगों की नैतिक और सामूहिक इच्छाओं  को पूरा करना माना जाता रहा है .  दुनिया भर में जितने भी इतिहास को दिशा देने वाले आन्दोलन हुए हैं  उनमें आम आदमी सडकों पर उतर कर शामिल हुआ है . महात्मा गांधी का भारत की आज़ादी के लिए हुआ आन्दोलन इसका सबसे अहम उदाहारण है . अमरीका का महान मार्च  हो या फ्रांसीसी क्रान्ति ,, माओ का चीन की आज़ादी के लिए हुआ मार्च हो या लेनिन की बोल्शेविक क्रान्ति ,हर ऐतिहासिक  परिवर्तन के दौर में जनता सडकों पर जाकर शामिल हई है . लेकिन अजीब बात  है कि इस बार जनता  कहीं शामिल नहीं है , मीडिया के ज़रिये भारत में एक ऐसे परिवर्तन की शुरुआत करने की कोशिश की जा रही है जिसके बाद सारी व्यवस्था बदल जायेगी . व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर किया जा रहा यह वायदा कभी कार्यक्रम की तरह लगता है और कभी यह धमकी के रूप में प्रयोग होता है . यहाँ सब अब सार्वजनिक डोमेन में है . भारत की आज़ादी की मूल मान्यताओं , लिबरल डेमोक्रेसी को भी बदल डालने की कोशिश की जा रही है , मीडिया के दत्तक पुत्र की हैसियत  रखने वाले आम आदमी पार्टी के नेता  व्यवस्था पारिवर्तन के नाम पर संविधान को ही बेकार साबित करने के चक्कर  में हैं . उनकी  प्रतिद्वंदी पार्टी बीजेपी है जो संसदीय लोकतंत्र के नेहरू माडल को बदल कर गुजरात माडल लगाने की सोच रही है . पता नहीं क्या होने वाला है. देश का राजनीतिक भविष्य कसौटी पर है लेकिन उसके साथ साथ मीडिया का भविष्य भी कसौटी पर है . लगता है कि इस चुनाव के बाद यह तय हो जाएगा की मीडिया सामाजिक बदलाव की ताक़तों का निगहबान दस्ता रहेगा या वह सत्ता पर काबिज़ राजनीतिक ताक़तों का ढिंढोरा पीटने वालों में शामिल होने का खतरा तो नहीं उठा रहा  है .


Saturday, March 8, 2014

मर्दवादी सोच से शिकंजे से बाहर निकलकर ही पूरी होगी आधी आबादी के अधिकार की लड़ाई




शेष नारायण सिंह

लखनऊ में रहने वाली साथी ताहिरा हसन ने सूचित किया है कि ,'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के ठीक पहले लखनऊ के घनी आबादी वाले खदरा मोहल्ले में एक महिला को दौड़ा दौड़ा कर चाकुओ से गोद कर मार डाला गया महिला चीखती चिल्लाती रही लेकिन लोगो ने मदद करने की बजाए अपने घर के खिड़की दरवाज़े बंद कर लिए .... शाम को पता चला है कि कुछ मोमबत्तिया और प्लेकार्ड बनाने के लिए दफ्तिया खरीदी गयी है जल्दी ही पुलिस प्रशासन के विरुद्ध प्रदर्शन की सम्भावना है दिल्ली में काम करने वाली एक बेहतरीन पत्रकार से आई एन एस बिल्डिंग के सामने मुलाक़ात हो गयी .उनको दिल्ली की राजनीति के गलियारों में ,खासकर सत्ता की राजनीति की बारीक समझ है.कांग्रेस बीट की  इस कुशाग्रबुद्धि रिपोर्टर से बात करके मेरे पाँव के नीचे की ज़मीन खिसक गयी.  जहां खड़े होकर हम बात कर रहे थे वहां से भारत की संसद की दूरी करीब २०० मीटर होगी ,और जिस महिला से हम बात कर रहे थे वह इलाहाबाद के पथ पर पत्थर नहीं तोडती, वह देश की राजनीति की चोटी पर बैठे राजनेताओं की कारस्तानी को रिपोर्ट करती है और यह उसका कैरियर है . मैंने कहा कि तुमको भी टी वी की बहसों में जाना चाहिए क्योंकि मैं जानता हूँ उस लडकी की राजनीतिक समझ बहुत अच्छी है  . लेकिन उसने  मुझसे बताया  कि इस दिशा  में वह सोच भी नहीं सकती . बिलकुल संभव नहीं है . वह टेलिविज़न की बहसों में इस लिए नहीं जाना चाहती की उसके दफ्तर में काम करने  वाले अन्य पत्रकारों को यह काम पसंद नहीं  आयेगा क्योंकि वे नहीं चाहते कि कोई महिला उनसे बेहतर नाम पैदा करे . उसने यह भी बताया की अपने करियर में वह कई बार ऐसे शुभचिंतकों से दो चार हुयी है जब उसको बताया गया है कि राजनीतिक रिपोर्टिंग के चक्कर में वह न पड़े और सौंदर्य या रसोई टाइप कोई बीट ले ले . इस रिपोर्टर ने साफ़ मना कर दिया और अपने शुभचिंतकों को बार बार याद दिलाया कि वह अपने अन्य साथियों से बिलकुल ही कम नहीं है .

अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस पर इस मानसिकता से लड़ना पडेगा . संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों और अन्य संस्थाओं से मिली जानकारी के आधार पर बहुत ही भरोसे से कहा जा सकता है कि पूरी दुनिया में महिलाओं की हालत बहुत खराब है . गर्भ में ही कन्या भ्रूण की हत्या हो रही है . लेकिन असली समस्या यह है कि आज भी हमारा पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को समाप्ति मानता है , बड़े से बड़े पद पर बैठी हुयी महिला को उसका चपरासी कमज़ोर मानता  है , केवल नौकरी बचाने के लिए उसका हुक्म मानता है ,सम्मान नहीं करता. विश्वविद्यालयों में लड़कियों को सुरक्षित नहीं माना जा सकता . दिल्ली के पास बसे हुए उत्तर प्रदेश के मेरे उपनगर में बहुत सारे शिक्षा संस्थान हैं , दूर दराज़ के इलाकों में रहने वाले दोस्तों के बच्चे यहाँ पढने आये हैं . वे बच्चे जब हमारे घर कभी आते हैं तो लड़कों की उतनी चिंता नहीं रहती लेकिन अगर लडकियां शाम का खाना खाकर अपने होस्टल जानी की सोचती हैं तो उन्हें उनके ठिकाने तक पंहुचा कर आना सही माना जाता है क्योंकि कई बार दिन ढले सड़क पर जा रही लड़कियों के साथ बदतमीजी की गयी है . १९९० में जब मेरी स्वर्गीया माँ को पता चला कि मेरी बेटी दिल्ली के उस दौर के एक ऐसे स्कूल में पढ़ती है जहां की फीस बहुत ज्यादा है तो उन्हें अजीब लगा था और उन्होंने कहा कि लड़के के लिए तो इतनी फीस देना समझ में आता हिया ,लडकी के लिए क्यों पैसा बर्बाद कर रहे हो . इन सारी घटनाओं में ज़रिये कोशिश की गयी है  कि यह बताया जाए कि हम किस तरह के समाज में रहते हैं और हमको कितना चौकन्ना रहना चाहिए . जब तक औरतों के बारे में पुरुष समाज की बुनियादी सोच नहीं बदलेगी तब तक कुछ नहीं होने वाला है . असली लड़ाई पुरुषों की मानसिकता  बदलने की है और जब तक वह नहीं बदलता कुछ भी नहीं बदलने वाला  है .
जब यह मानसिकता  बदलेगी उसके बाद ही देश की आधी आबादी के खिलाफ निजी तौर पर की जाने वाली ज़हरीली बयानबाजी से बचा  जा सकता है . दुनिया जानती है कि संसद और विधानमंडलों में महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिये कानून बनाने के लिए देश की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों में आम राय है लेकिन कानून संसद में पास नहीं हो रहा  है . इसके पीछे भी वही तर्क है कि पुरुष प्रधान समाज से आने वाले नेता महिलाओं के बराबरी के हक को स्वीकार नहीं करते .इसीलिये सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक और नैतिक  विकास को बहुत तेज़ गति दे सकने वाला यह कानून अभी पास नहीं हो रहा है .हालांकि अब वह दिन दूर नहीं जब यह कानून पास होकर रहेगा क्योंकि संसद और विधान मंडलों में ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए औरतों ने मैदान ले लिया है . उनको मालूम है कि महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमज़ोर नहीं हैं और वे पिछले १५ वर्षों से सरकारों को अपनी बातें मानने पर मजबूर करती रही हैं .अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं . बात तो ठीक है लेकिन महिलाओं को शक़ है कि यह टालने का तरीका है .

महिला अधिकारों की लड़ाई कोई नई नहीं है  भारत की आज़ादी  की लड़ाई के सास्स्थ साथ महिलाओं की आज़ादी की लड़ाई का आन्दोलन भी चलता रहा है .१८५७ में ही मुल्क की खुद मुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी लेकिन अँगरेज़ भारत का साम्राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. उसने इंतज़ाम बदल दिया. ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में ले ली. लेकिन शोषण का सिलसिला जारी रहा. दूसरी बार अँगरेज़ को बड़ी चुनौती महात्मा गाँधी ने दी . १९२० में उन्होंने जब आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ़ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं हैवे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं उनके साथ पूरा मुल्क खड़ा हो गया . . हिन्दू ,मुसलमानसिखईसाईबूढ़े ,बच्चे नौजवान औरतें और मर्द सभी गाँधी के साथ थे. सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने भरोसा जगा दिया था कि अब असली आज़ादी मिल जायेगी. लेकिन अँगरेज़ ने उनकी मुहिम में हर तरह के अड़ंगे डाले . १९२० की हिन्दू मुस्लिम एकता को खंडित करने की कोशिश की . अंग्रेजों ने पैसे देकर अपने वफादार हिन्दुओं और मुसलमानों के साम्प्रदायिक संगठन बनवाये और देशवासियों की एकता को तबाह करने की पूरी कोशिश की . लेकिन आज़ादी हासिल कर ली गयी. आज़ादी के लड़ाई का स्थायी भाव सामाजिक इन्साफ और बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना भी थी . लेकिन १९५० के दशक में जब गांधी नहीं रहे तो कांग्रेस के अन्दर सक्रिय हिन्दू और मुस्लिम पोंगापंथियों ने बराबरी के सपने को चकनाचूर कर दिया . इनकी पुरातनपंथी सोच का सबसे बड़ा शिकार महिलायें हुईं. इस बात का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब महात्मा गाँधी की इच्छा का आदर करने के उद्देश्य से जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दू विवाह अधिनियम पास करवाने की कोशिश की तो उसमें कांग्रेस के बड़े बड़े नेता टूट पड़े और नेहरू का हर तरफ से विरोध किया. यहाँ तक कि उस वक़्त के राष्ट्रपति ने भी अडंगा लगाने की कोशिश की. हिन्दू विवाह अधिनियम कोई क्रांतिकारी दस्तावेज़ नहीं था . इसके ज़रिये हिन्दू औरतों को कुछ अधिकार देने की कोशिश की गयी थी. लेकिन मर्दवादी सोच के कांग्रेसी नेताओं ने उसका विरोध किया. बहरहाल नेहरू बहुत बड़े नेता थे उनका विरोध कर पाना पुरातन पंथियों के लिए संभव नहीं था और बिल पास हो गया .
महिलाओं को उनके अधिकार देने का विरोध करने वाली पुरुष मानसिकता के चलते आज़ादी के बाद सत्ता में औरतों को उचित हिस्सेदारी नहीं मिल सकी. संसद ने पंचायतों में तो सीटें रिज़र्व कर दीं लेकिन बहुत दिन तक पुरुषों ने वहां भी उनको अपने अधिकारों से वंचित रखा . धीरे धीरे सब सुधर रहा है .लेकिन जब संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने की बात आई तो अड़ंगेबाजी का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया. किसी न किसी बहाने से पिछले पंद्रह वर्षों से महिला आरक्षण बिल राजनीतिक अड़ंगे का शिकार हुआ पड़ा है . देश का दुर्भाग्य है कि महिला आरक्षण बिल का सबसे ज्यादा विरोध वे नेता कर रहे हैं जो डॉ राम मनोहर लोहिया की राजनीतिक सोच को बुनियाद बना कर राजनीति आचरण करने का दावा करते हैं . डॉ लोहिया ने महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी का सबसे ज्यादा समर्थन किया था और पूरा जीवन उसके लिए कोशिश करते रहे,. . देश का दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पिछले २० वर्षों से देश में ऐसी सरकारें हैं जो गठबंधन की राजनीति की शिकार हैं . लिहाज़ा कांग्रेस बी जे पी या लेफ्ट फ्रंट की राजनीतिक मंशा होने के बावजूद भी कुछ नहीं हो पा रहा है . मर्दवादी सोच चौतरफा हावी है . इस बार भी राज्यसभा में बिल को पास करा लिया गया था लेकिन उसका कोई मतलब नहीं होता. असली काम तो लोकसभा में होना था लेकिन अब लोकसभा का कार्यकाल ख़त्म हो गया है और मामला हर बार की तरह एक बार फिर लटक गया है .. अब तो कांग्रेस और बी जे पी जैसी पार्टियां भी इस बिल से बच कर निकल जाना चाहती हैं .
महिलाओं के सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए इस बिल का पास होना बहुत ज़रूरी है लेकिन सच्चाई  यह  है कि इस बिल को पास  उन लोगों के ही करना है जिनमें से अधिकतर मर्दवादी  सोच की बीमारी  के मरीज़ हैं .हस्तक्षेप नाम के एक समाचार पोर्टल ने लिखा है कि अहमदाबाद वीमेंस एक्शन ग्रुप और इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि अहमदाबाद की 58 फीसदी औरतें गंभीर रूप से मानसिक तनाव की शिकार हैं. उनका अध्ययन बताता है कि 65 फीसद औरतें सरेआम पड़ोसियों के सामने बेइज्जत की जाती है. 35 फीसदी औरतों की बेटियां अपने पिता की हिंसा की शिकार हैं. यही नहीं 70 फीसदी औरतें गाली गलौच और धमकी झेलती हैं. 68 फीसदी औरतों ने थप्पड़ों से पिटाई की जाती है. ठोकर और धक्कामुक्की की शिकार 62 फीसदी औरतें हैं तो 53फीसदी लात-घूंसों से पीटी जाती हैं. यही नहीं 49 फीसदी को किसी ठोस या सख्त चीज से प्रहार किया गया जाता है. वहीं 37 फीसदी के जिस्मों पे दांत काटे के निशान पाए गए. 29 फीसद गला दबाकर पीटी गई हैं तो 22 फीसदी औरतों को सिगरेट से जलाया गया है. "
कुल मिलाकर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि एक महिला दिवस और  मना लिया गया लेकिन महिलाओं के अधिकार और सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा है .इस लक्ष्य को हासिल करने का सबसे कारगर तरीका संसद और विधान मंडलों में महिलाओं के लिए ३३ प्रतिशत सीटों का आरक्षण है . सभी राजनीतिक जमातों को चाहिए कि उस दिशा में आगे बढ़ने के लिये राजनीतिक माहौल बनाएं .