Sunday, June 8, 2014

प्रॉपर्टी माफिया के शिकार लोगों के प्रति सरकार की ज़िम्मेदारी




शेष नारायण सिंह 

मुंबई में संपन्न लोगों की हाउसिंग सोसाइटी ,कैम्पा  कोला बिल्डिंग के गिराये जाने के मुंबई महानगर निगम के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका को सर्वोच्च न्यायलय से खारिज़ कर दिया और इस तरह से उस बिल्डिंग में रहने वाले लोगों की उम्मीदें समाप्त  हो गयी हैं।  उनको मालूम है कि  उनके घर अब बच पायेगें।  मुंबई के वर्ली इलाक़े में  यह आवासीय बिल्डिंग स्थित है। यह गैरकानूनी तरीके से बनायी गयी इमारत  है।  यहां रहने वालों का आरोप है बिल्डर ने उनको अँधेरे में रख कर उनसे गलत वायदा करके इस बिल्डिंग की बुकिंग की और महंगे दामों पर घर बनाकर दे दिया।  सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को नहीं मंज़ूर किया कि  उनको कुछ भी मालूम नहीं था।  अब इस बहुत क़ीमती   मकानों  वाली बिल्डिंग का गिराया जाना  निश्चित माना जा रहा है।  

मुंबई की कैम्पा कोला सोसाइटी के विवाद के सन्दर्भ से देश में हर बड़े शहर में पैदा होने वाले उस माफिया  के बारे में  चर्चा शुरू हो जानी चाहिए जो हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन को बहुत ही बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं  . हर बड़े शहर में ऐसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या देखी जा  सकती है जो सरकार की मान्यताप्राप्त योजनाओं के दायरे से बाहर लोगों को मकान दिलवाने के सपने दिखाते  हैं।  इनकी कोशिश यह होती है कि  मध्य वर्ग को मान्यताप्राप्त इलाक़ों के बाहर  अपेक्षाकृत कम दाम वाले मकान दिलाने के नाम पर अपने जाल में फंसा लें।  देश के बड़े शहरों में इस तरह के लालच का शिकार  हुए लोगों  की बहुत बड़ी आबादी है।  दिल्ली में तो योजनाबद्ध तरीके से बसी हुयी कालोनियों के  बाहर रहने वालों की  संख्या बहुत अधिक है।  होता यह है कि  सरकार द्वारा अधिग्रहीत ज़मीनों पर कालोनी काटकर गरीब आदमियों को घर का सपना दिखाया जाता है।  कोशिश   होती है कि  जल्दी से जल्दी लोगों को वहां बसा दिया जाए और उनका नाम वोटर लिस्ट में डलवा दिया जाये. यह कालोनियां ऐसी होती हैं जहां कोई सुविधा नहीं होती. शुरू में जनरेटर से बिजली दी जाती है।  सीवेज की लाइन नहीं होती।  घर के आसपास ही सोक पिट बनवा दिए जाते हैं।  पीने के पानी का इंतज़ाम नहीं होता इसलिए कच्ची बोरिंग करवा दी जाती है।  ज़मीन का हर वर्ग फुट एक निश्चित कीमत दे रहा होता है इसलिए सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए कोई भी जगह नहीं छोड़ी जाती।  नतीजा यह होता है एक अनधिकृत स्लम बस्ती तैयार हो जाती है।  यहां की आबादी अन्य इलाक़ों से बहुत ज़्यादा होती है इसलिए यहां वोट भी बहुत ज़्यादा होते हैं।  नतीजा यह होता है कि  इतनी बड़ी संख्या में  वोट लेने के लिए सभी पार्टियों के नेता इन बस्तियों को नियमित कराने के वायदे करते  रहते हैं।  अक्सर देखा गया है कि  चुनाव के दौरान इस तरह की बस्तियों को अधिकृत करने के वायदे किये जाते हैं और जब चुनाव ख़त्म होता है  तो इन बस्तियों को नियमित कर दिया जाता है।  यह बहुत ही ज़हरीला सर्किल है और इस तरह की बस्तियों के चलते ही बहुत से काम होते हैं  जो सभ्य समाजों में नहीं होने चाहिए।    

ऐसी कालोनियों से समाज और मानवता का बहुत नुक्सान होता है। सबसे बड़ा नुक्सान तो  स्वास्थय सेवाओं के क्षेत्र में होता है।  इन बस्तियों में स्वास्थय की कोई सुविधा नहीं होती. उलटे बीमारी बढ़ाने की सारे इंतज़ाम मौजूद  रहते हैं.   अनधिकृत होने के कारण यहां सीवर लाइन नहीं होती और खुली नालियां बजबजाती रहती हैं।  पीने का पानी भी साफ़ नहीं होता।  शौच आदि की कोई सुविधा नहीं होती. शुरू में यह  कालोनियां किसी भी  म्युनिसिपल रिकार्ड आदि में नहीं होती इसलिए यहां रहने वाले लोगों के बारे में  कोई भी  सांख्यिकीय जानकारी नहीं उपलब्ध की जा सकती।  इसके अलावा यहां  रियल एस्टेट माफिया के लोग नेताओं के एजेंट के रूप में काम करते हैं।  आजकल तो एक नया  हो गया है।  प्रॉपर्टी के काम में लगे हुए बहुत सारे लोग बड़े  शहरों में चुनाव जीत रहे हैं।  प्रॉपर्टी के धंधे में  अपनाई  गयी बहुत सारी तरकीबों   राजनीति में भी अपनाते हैं। 



मुंबई की  हाउसिंग सोसाइटी ,कैम्पा  कोला के सर्वोच्च न्यायालय में आये केस के  हवाले से केंद्र में  सत्ता में आयी नरेंद्र मोदी सरकार को शहरी विकास के एक अहम मुद्दे पर  गौर करना बहुत ज़रूरी है।  नरेंद्र मोदी ने  प्रधानमंत्री बनने के पहले देश को  भरोसा दिलाया था कि  वे देश भर में एक सौ नए शहर बसाकर देश के औद्योगिक विकास की गति को तेज़ी देगें।  उनके सतर्क रहना चाहिए कि  इन नए शहरों में भी  रीयल  एस्टेट माफिया उनकी योजनाओं  को बेकार साबित करने की साज़िश में न जुट जाये.  ध्यान रखना होगा कि  रीयल  एस्टेट माफिया के पास आजकल बहुत सारी आर्थिक और राजनीतिक ताक़त  गयी है। कैम्प कोला सोसाइटी में समाज के सबसे धनी वर्ग के लोग रहते  हैं लेकिन देश की ज़्यादातर गैरकानूनी इमारतों  में बहुत गरीब लोग रहते हैं।  आज का फैसला इस बात  की चेतावनी है कि  सरकार को प्रॉपर्टी  माफिया से संभलकर रहना होगा। 

Sunday, April 20, 2014

अस्सी के संतो ,असंतों और घोंघाबसंतों की तमन्ना है कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला ज़बरदस्त हो



शेष नारायण सिंह

बनारस के अस्सी  घाट की पप्पू की चाय की  दूकान एक बार फिर चर्चा में है . पता चला है कि बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार , नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी के प्रस्तावक के रूप में पप्पू को भी जिला निर्वाचन अधिकारी के सामने पेश किया जायेगा. पप्पू की चाय की दूकान  का ऐतिहासिक ,भौगोलिक और राजनीतिक महत्त्व है . अपने उपन्यास ' काशी का अस्सी ' में काशी नाथ सिंह ने पप्पू की दूकान को अमर कर दिया है " काशी का अस्सी " को आधार बनाकर एक फिल्म भी बन चुकी है . इस फिल्म का निर्माण लखनऊ के किसी व्यापारी ने किया है .डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी इस फिल्म के निदेशक हैं .नामी धारावाहिक " चाणक्य " की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जब अमृता प्रीतम की कहानी के आधार पर फिल्म पिंजर बनाई थी तो भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के दौरान पंजाब में दर्द का जो तांडव हुआ था ,वह सिनेमा के परदे पर जिंदा हो उठा था . छत्तोआनी और रत्तोवाल नाम के गावों के हवाले से जो भी दुनिया ने पिंजर फिल्म में देखा था उस से लोग सिहर उठे थे . जिन लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन को नहीं देखा उनकी समझ में कुछ बात आई थी और जिन्होंने देखा था उनका दर्द फिर से ताज़ा हो गया था. मैंने कई ऐसी बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ भी फिल्म " पिंजर " को देखा जो १९४७ में १५ से २५ साल के बीच की उम्र की रही होंगीं . उन लोगों के भी आंसू रोके नहीं रुक रहे थे . फिल्म बहुत ही रियल थी. लेकिन उसे व्यापारिक सफलता नहीं मिली. 

काशी नाथ सिंह का उपन्यास " काशी का अस्सी "  पप्पू की दूकान के आस पास ही  मंडराता रहता है  .बताते हैं कि शहर बनारस के दक्खिनी छोर पर गंगा किनारे बसा ऐतिहासिक मोहल्ला अस्सी. है . अस्सी चौराहे पर भीड़ भाड वाली  चाय की एक दुकान है . इस दूकान पर रात दिन बहसों में उलझते ,लड़ते- झगड़ते कुछ स्वनामधन्य अखाडिये बैठकबाज़ विराजमान रहते हैं . न कभी उनकी बहसें ख़त्म होती  हैं , न सुबह शाम . कभी प्रगतिशील और लिबरल राजनीतिक सोच वालों के केंद्र रहे इसी अस्सी को केंद्र बनाकर इस बार नरेंद्र मोदी की पार्टी वाले वाराणसी का अभियान चला रहे हैं . इस अभियान में
 वाराणसी में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल को  मोदी के समर्थक भगा देने के चक्कर में हैं . अरविन्द केजरीवाल जहां भी जा रहे हैं बीजेपी कार्यकर्ता उनके  ऊपर पत्थर ,टमाटर आदि फेंक रहे हैं .  इन कार्यकर्ताओं के इस कार्यक्रम के चलते केजरीवाल का नाम देश के सभी टी वी चैनलों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाया हुआ है . हालांकि सच्चाई यह है कि बनारस की ज़मीन पर अभी केजरीवाल का कोई नाम नहीं है . बनारस में रहने वाले और पप्पू की दूकान को राजनीतिक समझ की प्रयोगशाला मानने वाले एक गुनी से बात हुयी तो पता चला कि अरविन्द केजरीवाल के साथ आये हुए लोग भी बनारस में अजनबी ही हैं . वाराणसी के पत्रकारों से चर्चा करने पर पता चला है कि नरेंद्र मोदी का मीडिया प्रोफाइल इतना बड़ा है कि उनकी हार के बारे में सोचना भी अजीब लगता है लेकिन यह असंभव भी नहीं है . समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के मज़बूत उम्मीदवार है . समाजवादी पार्टी ने एक मंत्री को चुनाव में उतार दिया है . पूरे सरकारी तामझाम के साथ यह मंत्री चुनाव लड़ रहा है . जानकारों की राय है कि ज्यों ज्यों चुनाव आगे बढेगा ,अरविन्द केजरीवाल की टीम को अंदाज़ लग जाएगा कि मीडिया में चाहे जितना प्रचार कर लें लेकिन बनारस की ज़मीन पर उनके लिए मुश्किलें पेश आयेगीं और आती ही रहेगीं . अभी  यह प्रचार कर दिया गया है कि मुसलमानों का  वोट थोक में अरविन्द केजरीवाल को मिल रहा है . इसके कारण बीजेपी के रणनीतिकारों में खुशी है . उनको मालूम है की अगर बीजेपी विरोधियों के वोट बिखरते हैं तो नरेंद्र मोदी की लड़ाई बहुत आसान हो जायेगी
लेकिन  यह अभी बहुत जल्दी का आकलन है . काशी में कई दशक से पत्रकारिता कर रहे एक वरिष्ट पत्रकार ने बताया कि वाराणसी में नरेंद्र मोदी को सही चुनौती केवल अजय राय  ही दे सकते  हैं .वाराणसी के अलग अलग चुनावों में अजय राय बड़े बड़े महारथियों को हरा चुके हैं . बनारस के कवि, व्योमेश शुक्ल बताते हैं कि ओम प्रकाश राजभर, ऊदल,  सोनेलाल पटेल आदि कुछ ऐसे लोग हैं जिनको अजय राय ने हराया है . जिस तरह से अरविन्द  केजरीवाल को हर चौराहे पर नरेंद्र मोदी के समर्थक अपमानित कर रहे हैं , उनकी हिम्मत नहीं पड़ेगी कि अजय राय के समर्थकों के खिलाफ हाथ उठायें . अजय  राय के  बारे  में कहा जाता है कि उनको वाराणसी में हरा पाना  बहुत मुश्किल है . एक बार तो किसी उपचुनाव में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री , मायावती ने अपने २३ मंत्रियों को वाराणसी में  चुनाव प्रचार के काम में लगा दिया था लेकिन अजय राय निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत गए थे. वाराणसी में यह चर्चा है कि अगर मुलायम सिंह यादव अमेठी और रायबरेली की तर्ज़ पर वाराणसी में भी अपना उम्मीदवार हटा  लें तो मोदी की काशी की लड़ाई बहुत ही मुश्किल हो जायेगी . आज़मगढ़ से अपना परचा दखिल करके आज़मगढ़ और वाराणसी कमिश्नरी में मुलायम सिंह  यादव ने बीजेपी उम्मीदवारों की जीत की संभावना  को बहुत ही सीमित तो पहले ही कर दिया है .
बहरहाल इस चुनाव में हार जीत चाहे जिसकी हो , काशी वालों को डर है कि कहीं बनारस न  हार जाए  . यहाँ भलमनसाहत की एक परम्परा रही है . १८०९ में पहली बार यहाँ एक बहुत बड़ा साम्प्रदायिक दंगा हुआ था .अंग्रेजों का राज था और कई महीनों तक खून खराबा चलता रहा था . लाट भैरो नाम के  इस साम्प्रदायिक बवाल से हर बनारसी डरता रहा है . बनारस के पुराने प्रमियों से बात करके पता चलता है की पिछली पीढ़ियाँ आने वाली पीढ़ियों को साम्प्रदायिक  दहशत से आगाह कराती रहती हैं . यहाँ  के लोगों को मालूम है कि चुनावों की तैयारियों में मुज़फ्फरनगर के दंगों का कितना योगदान रहा है . ख़तरा यह है कि राजनेता बिरादरी चुनाव जीतेने के लिए कहीं वैसा ही कुछ यहाँ न कर बैठे . बाकी भारत की तरह राजनीतिक  बिरादरी को बनारस में भी शक की निगाह से देखा जाता है और यह माना जाता है कि नेता  अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं .पिछले कुछ दिनों से पप्पू की चाय की दूकान पर जिस तरह की राजनीतिक  चर्चा चल रही है उस से साफ़ है कि इस बार का चुनाव बिलकुल वैसा नहीं होगा जैसा होना चाहिए,जैसा आम तौर पर बनारस में चुनावों में होता है .
आम बनारसी की इच्छा  है कि चुनाव में मुख्य मुकाबले में ऐसा एक व्यक्ति ज़रूर होना चाहिए जिसको बनारस से मुहब्बत हो , जो बनारस की इज्ज़त और शान बचाए रखने के लिए चुनाव में हार जाना भी ठीक समझे. बनारस वास्तव में गरीब लोगों का शहर है . हालांकि यहाँ संपन्न लोगों की भी खासी संख्या है लेकिन शहर के मिजाज़ का स्थाई भाव गरीबी ही है . यहाँ गरीबी को भी धकिया कर मज़ा लेने की परम्परा है . कमर में गमछा, कंधे पर लंगोट औरर बदन पर जनेऊ डाले अपने आप में मस्त रहने वाले लोगों का यह शहर किसी की परवाह नहीं करता.  कहते हैं कि लंगोट और जनेऊ तो आजकल कमज़ोर पड़ गए हैं लेकिन गमछा अभी भी बनारसी यूनीफार्म का अहम हिस्सा है . बिना किसी की परवाह किये मस्ती में घूमना इस शहर का पहचान पत्र है . अस्सी घाट की ज़िंदगी को केंद्र में रख कर लिखा गया काशी नाथ सिंह का उपन्यास  और उसकी शुरुआत के कुछ पन्ने बनारस की ज़िंदगी का सब कुछ बयान कर देते हैं लेकिन उन सारे शब्दों का प्रयोग एक पत्रकार  के लेख में नहीं किया जा सकता . वास्तव में अस्सी बनारस का  मुहल्ला नहीं है ,अस्सी वास्तव में " अष्टाध्यायी " है और बनारस उसका भाष्य . पिछले पचास वर्षों से 'पूंजीवाद ' से पगलाए अमरीकी यहाँ आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसकी टीका हो जाए ..मगर चाहने से क्या होता है ?
 इसी बनारस की पहचान की हिफाज़त के  लिए गंगा के किनारे से तरह तरह की आवाजें आ रही हैं . लोगों की इच्छा है की मुख्य मुकाबले में कम से कम एक बनारसी ज़रूर हो . सबको मालूम है कि  नरेंद्र मोदी तो हटने वाले नहीं हैं क्योंकि उनको प्रधानमंत्री पद के  लिए अभियान चलाना है . इसलिए लोग उम्मीद कर रहे हैं कि अरविन्द केजरीवाल की हट  जाएँ क्योंकि वे बनारस में नरेंद्र मोदी के खिलाफ प्रचार करके , किसी गली मोहल्ले में थोडा बहुत पिट पिटा कर केवल ख़बरों में बने रह सकते हैं लेकिन बनारस के हर मोड़ पर वे मोदी वालों का रोक नहीं पायेगें .  मोदी और केजरीवाल को इस  बात की परवाह नहीं रहेगी कि बनारस की इज्जत बचती है कि  धूल में मिल जाती है . इसलिए अस्सी मोहल्ले के आस पास मंडराने वाले संत , असंत और घोंघाबसंतों की तमन्ना है कि मुकाबला नरेंद्र मोदी का ज़बरदस्त हो लेकिन उनके खिलाफ कोई बनारसी ही मैदान ले. इस सन्दर्भ में मैंने एक  बुढऊ कासीनाथ से बात की . वे इन्भरसीटी में मास्टर थे , कहानियां-फहानियाँ लिखते थे  और अपने दो चार बकलोल दोस्तों के साथ  मारवाड़ी सेवा संघ के चौतरे पर अखबार बिछाकर उसपर लाई दाना फैलाकर ,एक पुडिया नमक के  साथ भकोसते रहते थे  . पिछले  दिनों इन महोदय के बारे में प्रचार कर  दिया  गया था कि यह मोदी के पक्ष में चले गए थे लेकिन वह खबर झूठ फैलाने वालों की बिरादरी का आविष्कार मात्र थी. वे  डंके की चोट पर नरेंद्र मोदी को हराना चाहते हैं और उनकी  नज़र में कांग्रेसी उम्मीदवार अजय राय मोदी को एक भारी चुनौती  दे सकता है . काशी नाथ सिंह बार बार यह कहा  है की नरेंद्र मोदी को  खांटी बनारसी चुनौती मिलनी चाहिए और वह इसी अस्सी की सरज़मीन से मिलेगी . उन्होने मुझे  भरोसा दिलाया कि बनारस में अस्सी के बाहर भी तरह की चर्चा सुनने में आ रही है .

Friday, April 18, 2014

पूंजीवादी निजाम से भी खूंखार अर्थव्यवस्था का वादा , कांग्रेसी घोषणा पत्र में धन्नासेठों की मनमानी का पुख्ता इंतज़ाम


शेष नारायण सिंह 

27 मार्च का लेख 


.कांग्रेस पार्टी ने पूरे जोशो खरोश के साथ अपना चुनाव घोषणापत्र जारी कर दिया . हर बार की तरह इस बार भी कुछ वैसे ही वायदे किये  गए जिनको पूरा कर पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता है .लेकिन इस बार कांग्रेस के  घोषणा पत्र में वचन दिया गया है कि देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से इकनामिक फ्रीडम के आर्थिक दर्शन की बुनियाद पर डाल दिया जाएगा . कांग्रेस पार्टी ने जो घोषणा पत्र जारी किया है उसके आधार पर अगर अर्थव्यवस्था का प्रबंधन किया गया तो आर्थिक गतिविधियों पर जो थोडा बहुत सार्वजनिक कंट्रोल बना हुआ है वह भी पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा . इकनामिक फ्रीडम की सर्वमान्य परिभाषा में बताया गया है कि यह किसी भी देश में आर्थिक  सम्पन्नता हासिल करने का वह तरीका है जिसमें किसी सरकार या किसी आर्थिक अथारिटी को कोई हस्तक्षेप न हो . व्यक्तियों को अपनी निजी संपत्ति, मानव संसाधन और श्रम का संरक्षण करने की असीमित  आज़ादी होती है . पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में इकानामिक फ्रीडम के तत्व होते हैं .अगर उसमें सविल लिबर्टी के तत्व डाल दिए जाएँ तो वह पूरी तरह से स्वतंत्र हो जायेगें और  इकनामिक फ्रीडम की श्रेणी में आ जायेगें . ध्यान में रखना चाहिए कि बीजेपी के नेता , नरेंद्र मोदी भी इस देश में इक्नामिक फ्रीडम की अवधारणा के समर्थक हैं और उनको इस क्षेत्र में दिया जाने वाला देश सर्वोच्च पुरस्कार भी मिल चुका है . दिलचस्प बात यह है कि यह पुरस्कार उनको  राजीव गांधी फाउन्डेशन की और से दिया गया था जिसकी अध्यक्ष कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी हैं . जानकार बताते हैं कि अर्थव्यवस्था के दार्शनिक आधार के बारे में कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही मनमोहन सिंह के आर्थिक चिंतन को सही मानते हैं .

कांग्रेस के घोषणा पत्र में वे सारी बातें समाहित कर ली गयी हैं जो अगर लागू हो गयीं तो इस देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से आर्थिक मनमानी के निजाम के अधीन हो जायेगी . कांग्रेस के घोषणा पत्र को मोटे तौर पर पंद्रह सूत्रों में पिरोया गया है .. इसमें स्वास्थ्य ,पेंशन ,आवास का अधिकार , सम्मान का अधिकार , उद्यमित्ता का अधिकार आदि को शामिल किया गया है .. महिलाओं के अधिकार , सुरक्षा आदि से सम्बंधित जो पारंपरिक बातें हैं वह  महत्वपूर्ण  हैं लेकिन जो बातें देश की अर्थव्यवस्था को निरंकुश पूंजी के हाथ में देने वाली हैं उनका अब तक शासक वर्गों की किसी  राजनीतिक पार्टी ने विरोध नहीं किया है . विकास दर और अन्य आंकड़ों के बीच में जो बातें देश की अर्थव्यवस्था को आम आदमी की पंहुच के बाहर ले जाने वाली हैं उनको बहुत ही करीने से बीच में डाल दिया गया है  कांग्रेस के घोषणा पत्र में लिखा है की " हम एक ऐसी खुली हुई और कम्पटीशन वाली अर्थव्यवस्था को प्रमोट करेगें जिसमें  घरेलू और दुनिया भर के  पूंजीपति और आम आदमी एक दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा कर सकेगें ." इसका भावार्थ यह हुआ कि देश की अर्थव्यवस्था को बिलकुल स्वतंत्र छोड़ दिया जाएगा  जिसमें उद्योग लगाने के लिए बैंक से क़र्ज़ लेकर आया हुआ कुशल और प्रशिक्षित इंजीनियर , देश का सबसे धनी उद्योगपति और अमरीका या यूरोप की बड़ी से बड़ी कंपनी  समान अवसर के साथ एक दुसरे का मुकाबला  कर सकेगें . सरकार की तरफ से किसी को कोई विशेष सुविधा या अवसर नहीं दिया जाएगा . आसानी से समझा जा सकता है कि यह प्रबंधन क्या गुल खिलायेगा. कृषि क्षेत्र  में भी भारी  निवेश की बात की गयी है लेकिन खेती से होने वाली पैदावार को भी कारपोरेट तरीके से करने पर जोर दिया जाएगा और धीरे धीरे देश कारपोरेट खेती की तरफ अग्रसर होगा . कांग्रेस का तर्क है कि ऐसा करने से खेती से मिलने वाली पैदावार बढ़ेगी . लेकिन इकनामिक फ्रीडम का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा क्योंकि किसान के हाथों में जो अभी खेती के उत्पादन के साधन का नियंत्रण  है वह कारपोरेट हाथों में चला जायेगा क्योंकि किसान इस देश के  बड़े औद्योगिक घरानों और दुनिया भर के कृषि धन्नासेठों से मुकाबला नहीं कर सकेगा .
बड़े औद्योगिक घरानों को अभी सबसे ज़्यादा परेशानी मजदूरों को उचित मजदूरी देने में होती है और कर्मचारियों की तनखाह एक बड़ा बोझ होता है . कई बार तो ऐसा होता है कि कारखाने में कोई काम नहीं होता और कर्मचारियों को तनखाह देना पड़ता है .इसको दुरुस्त करने के लिए देश और विदेश के उद्योगपति पिछले कई वर्षों से  कोशिश कर रहे हैं . उसको श्रम कानून में सुधार का नाम दिया जाता रहा है . कांग्रेस के घोषणा पत्र में इस बार इस समस्या का हल भी निकाल दिया गया है . घोषणा पत्र में लिखा है कि ऐसी लाछीली श्रमनीति बनाई जिससे औद्द्योगिक उत्पादान की प्रतिस्पर्धा बनी रहे और भारतीय उत्पादन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कम्पटीशन बना रहे . इसका अर्थ यह ऐसे श्रम कानून बनाए  जायेगें जिसके बल पर उद्योगपति जब चाहे कर्मचारियों और मजदूरों को काम पर रखें या जब चाहें अलग कर दें . कांग्रेस के घोषणापत्र में बाकी बातें वही हैं जो कांग्रेस पिछले दस वर्षों से करती रही है . लेकिन अगर कांग्रेस सत्ता में आयी तो उनके घोषणा पत्र में ऐसी व्यवस्था है कि साधारण पूंजीवादी निजाम से आगे बढ़ कर इकनामिक फ्रीडम वाला निजाम कायम कर दिया जाएगा .

Monday, March 24, 2014

लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपराधियों को संसद और विधानमंडलों से बाहर रखना होगा


शेष नारायण सिंह
आजकल राजनीति में भले आदमियों के साथ साथ अपराधी भी बड़ी संख्या में देखे जाते हैं . लोकसभा और विधान सभाओं में इनकी संख्या खासी है. पहली बार १९८० में बड़ी संख्या में विधान सभा और लोक सभा के चुनावों में बड़ी संख्या में कांग्रेस के तत्कालीन युवराज संजय गांधी ने अपराधियों या आपराधिक चावी वाले दबंगों को टिकट बांटी थी. उसके बाद तो सभी पार्टियों में अपराधियों को टिकट देने का फैशन हो गया . एक से एक अपराधी और बाहुबली लोग लोकतंत्र के इन पवित्र केन्द्रों में पंहुचने लगे. दोनों बड़ी पार्टियों के अलावा क्षेत्रीय पार्टियों में भी बड़ी तादाद अपराधियों की है .सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया की किसी भी विधान मंडल का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों को अपनी आपराधिक छवि का रिकार्ड हलफनामे की शक्ल में जमा करना पडेगा . सुप्रीम कोर्ट को उम्मीद थी कि जब जनता को मालूम हो जाएगा कि आपराधिक छवि के लोग उम्मीदवार हैं तो वह उनको वोट नहीं देगी .अपने एक विद्वत्तापूर्ण लेख में विद्वान् राजनीतिक विश्लेषक सर्वमित्रा  सुरजन ने लिख दिया था कि  परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो आपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर आ गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं देंपरंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नही करती है। 'ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनलने अपनी रिपोर्ट में संसार के 174 देशों में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के मामले में भारत को स्थान 72वां प्रदान किया है।
स्वतंत्रता के बाद पिछले 60 वर्ष में अपने देश में लोकतंत्र मजबूत तो हुआ हैलेकिन राजनीति का अपराधीकरण भी बढ़ा हैजिससे चुनावों के साफ-सुथरे होने पर संदेह के बादल गहराने लगे हैं। दिनों-दिन यह मुद्दा लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज से अहम होता जा रहा है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपराधी तत्वों की सहायता लेना तो अब बहुत छोटी बात हो गई है अब तो बाकायदा उनकों टिकट देकर उपकृत किया जा रहा है।  भारत का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें किसी न किसी प्रकार के अपराधी न हो। 
लोकसभा और राय विधानसभाओं में यदि अपराधियों का रिकॉर्ड देखा जाए तो यह देखकर घोर आश्चर्य होता है कि अपराधियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया था कि यदि कोई व्यक्ति संसद या विधानसभा के चुनाव का प्रत्याशी है तो वह यह हलफनामा देगा कि उसके खिलाफ कितने आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह अनुमान था कि जब वोटरों को किसी व्यक्ति का आपराधिक रिकॉर्ड मालूम होगा तो वह उसे किसी हालत में वोट नहीं देगा। परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो अपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर आ गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं देंपरंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नही करती है।'ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनलने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि संसार के 174 देशों में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के मामले में भारत का स्थान 72वां है। यहां तक कि संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लगभग एक तिहाई सांसद हैंजिन पर कुल 413 मामले लंबित हैं।
लोकसभा और विधानसभाओं में अपराधियों की संख्या तब और ज़्यादा बढ़ गई जब एक पार्टी के बदले कई पार्टियों की मिलीजुली सरकार बनने लगीखासकर क्षेत्रीय पार्टियों में इतने अपराधी भर पड़े हैं कि उनकी कोई गणना भी नहीं कर सकता है। तर्क दिया जाता है कि जब तक किसी व्यक्ति पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपराध साबित नहीं हो जाता है तब तक उसे अपराधी कैसे कह सकते हैं। पिछले अनेक वर्षों से तमाम संगठन अपराधियों के निर्वाचित होने के अधिकार पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। फिर भी विधानसभाओं तथा संसद में अपराधियों की संख्या कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है। कोई भी यह नहीं बताता है कि जनता आखिर अपराधियों को क्यों चुन कर भेजती है। यह तो तय है कि उनके गले पर अपराधियों की बन्दूकें नहीं लगी होतीं । और तो और अब तो बात यहाँ तक आ चुकी है कि जो जितना बड़ा अपराधी होगा उसके जीतने की उम्मीद भी अधिक होगी । 
जब तक इस सवाल का जवाब नहीं तलाशा जाएगा कि आम जनता ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले  नेताओं को छोड़कर अपराधियों को ही वोट क्यों देती हैतबतक अपराधियों को निर्वाचित होने से नहीं रोका जा सकता है। यह तय है कि अपराधियों को निर्वाचित होने से रोकने के लिये बनाए जाने वाले कानून एक दिन स्वयं लोकतंत्र का ही गला घोंट देंगे। एक और चौंकाने वाली बात है कि स्विस सरकार के नवीन घोषणा के अनुसार यदि भारत सरकार उनसे मांगे तो वह यह बता सकते हैं कि उनके बैंकों में किन भारतीयों के कितने पैसे जमा है। हालत बहुत ही चिंताजनक हैं लेकिन इसी में से कहीं उम्मीद भी नज़र आने लगी है .
केंद्र सरकार के विधि आयोग ने अपनी २४४वीं रिपोर्ट दाखिल कर दिया है .सुप्रीम कोर्ट ने एक मुक़दमें की सुनवाई के दौरान विधि आयोग को आदेश दिया था कि चुनाव जन प्रतिनिधित्व कानून १९५१ में सुधार के लिए सुझाव तैयार किये जाएँ . माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अपराधियों को राजनीति से बाहर रखना बहुत ज़रूरी है और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं .सरकार ने अब इस रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश कर दिया है .दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश  जस्टिस ए पी शाह की अध्यक्षता वाले इस आयोग की रिपोर्ट में जो सुझाव दिए गए हैं वे अपराधियों को राजनीति से बाहर रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं . आयोग की रिपोर्ट में सख्त प्रावधान तो  हैं लेकिन ऐसे सुझाव भी हैं जिनको लागू किये जाने पर कानून का दुरुपयोग रोक जा सकेगा .रिपोर्ट का नाम ही " चुनावी अयोग्यताएं " बताया गया है .इसमें एक  महत्वपूर्ण प्रावधान तो यही है कि गलत हलफनामा देने वाले को जेल की सज़ा बढ़ा दी जानी चाहिए . अभी तक का प्रावधान यह है कि जब तक  मुक़दमे  का फैसला न हो जाए तब  तक किसी को चुनाव लड़ने से रोक नहीं  जा सकता . मौजूदा रिपोर्ट में लिखा है कि जब किसी भी अभियुक्त के खिलाफ आरोप तय हो जाएँ उसके बाद से उसे चुनाव के लिए पर्चा दाखिल करने से रोक दिया जाए . हालांकि जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो यह मानता है कि एफ आई आर लिखे जाने के बाद ही अभियुक्त को चुनाव लड़ने से रोक देना चाहिए लेकिन विधि आयोग का मानना  है कि यह उचित नहीं है . रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाने से किसी नेता को चुनाव रोकने से रोकना संभव होने लगेगा तो पुलिस की मनमानी बढ़ जायेगी .इसलिए जब तक किसी स्तर पर न्यायिक प्रक्रिया से न गुज़र जाए तब तक किसी भी जांच को  प्रामाणिक नहीं माना जाना चाहिए .अभी नियम यह  है कि किसी भी अदालत से सज़ा पाने वालों को चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए .आयोग का कहना है कि अगर नियम का दुरुपयोग रोकने की सही यवस्था की  जा सके तो अपराध तय होने के बाद ऐसे अभियुक्तों को चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है जिनके अपराध में कम से कम पांच साल की सज़ा का प्रावधान हो . अभी तक देखा गया है कि सज़ा हो जाने के बाद अपराधी को रोकने की प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं है .भारतीय न्याय व्यवस्था की एक सच्चाई यह भी है कि मुक़दमों के अंतिम निर्णय में बहुत समय लगता है . बहुत सारे मामले ऐसेहैं जहां सबको मालूम रहता  है कि अपराधी कौन है लेकिन वह अदालत से बरी हो जाता है .हालांकि इस प्रावधान के दुरुपयोग की संभावना भी कम नहीं  है लेकिन लेकिन आयोग का कहना है की इसमें ऐसे नियम बनाए जा सकते हैं जिससे कानून का दुरुपयोग न हों .एक सुझाव यह भी है कि एम पी और एम एल ए के खिलाफ दाखिल मुक़दमों में साल भर के अन्दर फैसला आ जाना चाहिए . सुप्रीम कोर्ट ने इस एक सुझाव को मान लिया है और इस सन्दर्भ में फैसला भी दे दिया है .
विधि आयोग की मौजूदा सिफारिशों को मान लेने से अपराधियों को बाहर रखने में ज़रूरी मदद मिलेगी . यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि अगर फौरन कार्रवाई न हुयी तो बहुत देर हो जायेगी .इस चुनाव में भी साफ़ नज़र आ रहा  है कि ऐसे लोगों को चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है जो पूरी तरह से अपराधी हैं और संसद की गरिमा को निश्चित रूप से गिरायेगें . ऐसे लोगों पर लगाम लगाए जाने की ज़रुरत है .

Thursday, March 20, 2014

अगर राजनेताओं का ढिंढोरची बना तो कहीं का नहीं रहेगा मीडिया


शेष नारायण सिंह 

लोकसभा चुनाव २०१४ में राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का भविष्य दांव पर लगा हुआ है इसके साथ साथ बहुत कुछ  कसौटी पर है , बहुत सारे नेताओं और राजनीतिक पार्टियों की परीक्षा हो रही है . इस चुनाव में सबसे ज़्यादा कठिन परीक्षा से मीडिया को गुजरना पड़ रहा है .सभी पार्टियां मीडिया पर उनके विरोधी का पस्ख लेने के आरोप लगा रही हैं . इस बार राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय कई राजनीतिक पार्टियों के बारे में कहा जा रहा है कि वे मीडिया की देन हैं . आम आदमी पार्टी के बारे में तो सभी एकमत हैं कि उसे मीडिया ने ही बनाया है . लेकिन अब मीडिया से सबसे ज्यादा नाराज़ भी आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो ही हैं . वे कई बार कह चुके हैं कि मीडिया बिक चुका है . बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी की हवा बनाने में भी मीडिया की खासी भूमिका है . उनकी पार्टी के नेता आम तौर पार मीडिया  को अपना मित्र  मानते हैं . लेकिन अगर कहीं किसी बहस में कोई पत्रकार उनकी पार्टी के स्थापित मानदंडों का विरोध कर दे तो उसका विरोध तो करते ही हैं ,कई बार फटकारने भी लगते हैं . कांग्रेस के नेता आम तौर पर मीडिया के खिलाफ बोलते रहते हैं . उनका आरोप रहता है कि मीडिया के ज़्यादातर लोग उनके खिलाफ लामबंद हो गए  हैं और कांग्रेस की मौजूदा स्थति में मीडिया के  विरोध की खासी  भूमिका है . हालांकि ऊपर लिखी बातों में पूरी तरह से कुछ भी सच नहीं है  लेकिन सारी ही बातें आंशिक रूप से सच हैं . इस बात में दो राय नहीं  है कि इस चुनाव में मीडिया भी कसौटी पर है और यह लगभग तय है कि इन चुनावों के बाद सभी पार्टियों की शक्ल बदली हुयी होगी और मीडिया की हालत भी निश्चित रूप से बदल जायेगी .
आज से करीब बीस साल पहले जब आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो वह हर क्षेत्र में देखा गया . मीडिया भी  उस से अछूता नहीं रह गया . मीडिया संस्थाओं के नए मालिकों का प्रादुर्भाव हुआ , पुराने मालिकों ने नए नए तरीके से काम करना शुरू कर दिया . देश की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी के मालिक ने तो साफ़ कह दिया कि वे तो विज्ञापन के लिए अखबार निकालते हैं ,उसमें ख़बरें भी डाल दी जाती हैं . बहुत सारे मालिकों ने यह कहा नहीं लेकिन सभी कहने लगे कि धंधा तो करना ही है.  इस दौर में बहुत सारे ऐसे पत्रकार भी पैदा हो गए जो निष्पक्षता को भुलाकर कर  निजी एजेंडा की पैरवी में  लग गए. एक बहुत बड़े चैनल के मुख्य सम्पादक और अब एक पार्टी के उम्मीदवार हर सेमीनार में  टेलिविज़न चलाने के लिए लगने वाले पैसे का ज़िक्र करते थे और उसको इकट्ठा करने के लिए पत्रकारों की भूमिका में बदलाव के पैरोकारों में सबसे आगे खड़े नज़र आते थे . इस अभियान में उनको कई बार सही पत्रकारों के गुस्से का सामना भी करना पडा .जब अन्ना हजारे का रामलीला मैदान वाला शो हुआ तो उन पत्रकार महोदय की अजीब दशा थी . उनकी पूरी कायनात अन्नामय हो गयी थी . अब  जाकर पता चला है कि वे एक निश्चित योजना के अनुसार काम कर  रहे थे . आज वे उस दौर में अन्ना हजारे के  मुख्य शिष्य रहे व्यक्ति की पार्टी के नेता हैं . इस तरह की घटनाओं से पत्रकारिता की  निष्पक्षता की संस्था के रूप में पहचान  को  नुक्सान होता है .मौजूदा चुनाव में यह ख़तरा सबसे ज़्यादा है और इससे बचना पत्राकारिता की सबसे बड़ी चुनौती है .

टेलिविज़न आज पत्रकारिता का सबसे प्रमुख माध्यम है . चुनावों के दौरान  वह और भी ख़ास हो जाता है .वहीं पत्रकार की सबसे कठिन परीक्षा होती  है . आजकल टेलिविज़न में पत्रकारों के कई रूप देखने को मिल रहे हैं . एक तो रिपोर्टर  का है जिसमें उसको  उन बातों को भी पूरी ईमानदारी , निष्पक्षता और निष्ठुरता से बताना होता है जो सच हैं , उसे सच के प्रति प्रतिबद्ध रहना होता है ठीक उसी तरह जैसे भीष्म पितामह हस्तिनापुर के सिंहासन के साथ  प्रतिबद्ध थे. उसको ऐसी  बातों को भी रिपोर्ट करना होता है जिनको वह पसंद नहीं करता . दूसरा  रूप विश्लेषक का होता है जहां उसको  स्थिति की स्पष्ट व्याख्या करनी होती है . इस व्यख्या में भी उसको अपनी  प्रतिबद्धताओं से बचना होता है .और अंतिम रूप टिप्पणीकार  का है जहा पत्रकार अपने  दृष्टिकोण को भी  रख सकता है और उसकी तार्किक व्याख्या कर सकता है .. यह सारे काम बहुत  ही कठिन हैं और इनका पालन करना इस चुनाव में मीडिया के लोगों का सबसे कठिन लक्ष्य है , अब तक के संकेतों से साफ़ है कि मीडिया घरानों के मालिक अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से ही काम करने वाले है . पत्रकार की अपनी निष्पक्षता  कहाँ तक  पब्लिक डोमेन में आ पाती है यह देखना दिलचस्प होगा.

मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती पेड न्यूज का संकट है . पेड न्यूज़ के ज़्यादातर  मामलों में मालिक लोग खुद ही शामिल रहते हैं लेकिन काम तो पत्रकार के ज़रिये होता है इसलिए असली अग्निपरीक्षा पत्रकारिता के पेशे में लगे हुए लोगों की है .पेड न्यूज़ के कारण आज मीडिया की विश्वसनीयता पर संकट आ गया है। मीडिया पैसे लेकर खबर छापकर अपने पाठकों के विश्वास के साथ खेल रहा है और पेड न्यूज के कारण मीडियाकर्मियों की चारों तरफ आलोचना हो रही है। २००९ के लोकसभा चुनावों के दौरान यह संकट बहुत मुखर रूप से सामने आया था  .अखबारों के मालिक पैसे लेकर विज्ञापनों को समाचार की शक्ल में छापने लगे .. प्रभाष जोशीपी.साईंनाथ , परंजय गुहा ठाकुरता और विपुल मुद्गल ने इसकी आलोचना का अभियान चलाया  . प्रेस काउन्सिल ने भी पेड न्यूज की विवेचना करने के लिये  पराजंय गुहा ठाकुरता और के.श्रीनिवास रेड्डी की कमेटी बनाकर एक रिपोर्ट तैयार की जिसको आज के संदर्भ में एक बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जा सकता है. सरकारी तौर पर भी इस पर चिंता प्रकट की गयी और प्रेस कौंसिल ने पेड न्यूज को रोकने के उपाय किये . प्रेस कौंसिल ने बताया कि  कोई समाचार या विश्लेषण अगर पैसे या किसी और तरफादारी के बदले किसी भी मीडिया में जगह पाता है तो उसे पेड न्यूज की श्रेणी में रखा जाएगा ।प्रेस कौंसिल के इस विवेचन के बाद पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर तरह तरह के सवाल उठने लगे . सरकार भी सक्रिय हो गयी .और पेड न्यूज़ पर चुनाव आयोग की नज़र भी पड़ गयी. चुनाव आयोग ने पेड न्यूज के केस में २०११ में  पहली कार्रवाई की और उत्तर प्रदेश से विधायक रहीं उमलेश यादव को तीन साल के लिए अयोग्य करार दिया। आयोग ने महिला विधायक उमलेश यादव के खिलाफ यह कार्रवाई दो हिंदी समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों पर हुए चुनाव खर्च के बारे में गलत बयान देने के लिए की . उमलेश यादव ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 के तहत अप्रैल 2007 में उत्तर प्रदेश में बिसौली के लिए हुए विधानसभा चुनाव के दौरान हुए चुनावी खर्च में अनियमितता की थी और अखबारों को धन देकर अपने पक्ष में ख़बरें छपवाई थीं . उत्तर प्रदेश की इस घटना के बाद और भी घटनाएं  हुईं .  लोगों को सज़ा भी मिली लेकिन समस्या बद से बदतर होती जा रही है . आज मीडियाकर्मी के ऊपर चारों तरफ से दबाव है और मीडिया और संचार माध्यामों की कृपा से ही पूरी दुनिया बहुत छोटी हो गयी है .मार्शल मैक्लुहान ने कहा  था कि एक दिन आएगा जब सारी दुनिया एक गाँव हो जायेगी , वह होता दिख रहा  है लेकिन यह भी ज़रूरी है कि उस गाँव के लिए आचरण के नए मानदंड तय किये जाएँ . यह काम मीडिया वालों  को ही करना  है लेकिन उदारीकरण के चलते सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है .इसके चलते आम आदमी की भावनाओं को कंट्रोल किया जा रहा  है .सब कुछ एक बाज़ार की शक्ल में देखा जा रहा है .यह बाज़ार पूंजी के ,मालिकों  और मीडिया संस्थानों को  विचारधारा की शक्ति को काबू करने की ताकत देता है .पश्चिमी दुनिया में  बाजार की ताक़त  को विचारधारा की स्वतंत्रता के बराबर माना जाता है लेकिन बाजार का गुप्त हाथ नियंत्रण के औजार के रुप में भी इस्तेमाल किया जाता  है .
आज भारत में यही पूंजी काम कर रही है और मीडिया पार उसके कंट्रोल के चलते ऐसे ऐसे राजनीतिक अजूबे पैदा हो रहे हैं जिनका भारत के भविष्य पर  क्या असर पडेगा कहना मुश्किल  है . राजनीतिक आचरण का उद्देश्य हमेशा से ज्यादा से ज़्यादा लोगों की नैतिक और सामूहिक इच्छाओं  को पूरा करना माना जाता रहा है .  दुनिया भर में जितने भी इतिहास को दिशा देने वाले आन्दोलन हुए हैं  उनमें आम आदमी सडकों पर उतर कर शामिल हुआ है . महात्मा गांधी का भारत की आज़ादी के लिए हुआ आन्दोलन इसका सबसे अहम उदाहारण है . अमरीका का महान मार्च  हो या फ्रांसीसी क्रान्ति ,, माओ का चीन की आज़ादी के लिए हुआ मार्च हो या लेनिन की बोल्शेविक क्रान्ति ,हर ऐतिहासिक  परिवर्तन के दौर में जनता सडकों पर जाकर शामिल हई है . लेकिन अजीब बात  है कि इस बार जनता  कहीं शामिल नहीं है , मीडिया के ज़रिये भारत में एक ऐसे परिवर्तन की शुरुआत करने की कोशिश की जा रही है जिसके बाद सारी व्यवस्था बदल जायेगी . व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर किया जा रहा यह वायदा कभी कार्यक्रम की तरह लगता है और कभी यह धमकी के रूप में प्रयोग होता है . यहाँ सब अब सार्वजनिक डोमेन में है . भारत की आज़ादी की मूल मान्यताओं , लिबरल डेमोक्रेसी को भी बदल डालने की कोशिश की जा रही है , मीडिया के दत्तक पुत्र की हैसियत  रखने वाले आम आदमी पार्टी के नेता  व्यवस्था पारिवर्तन के नाम पर संविधान को ही बेकार साबित करने के चक्कर  में हैं . उनकी  प्रतिद्वंदी पार्टी बीजेपी है जो संसदीय लोकतंत्र के नेहरू माडल को बदल कर गुजरात माडल लगाने की सोच रही है . पता नहीं क्या होने वाला है. देश का राजनीतिक भविष्य कसौटी पर है लेकिन उसके साथ साथ मीडिया का भविष्य भी कसौटी पर है . लगता है कि इस चुनाव के बाद यह तय हो जाएगा की मीडिया सामाजिक बदलाव की ताक़तों का निगहबान दस्ता रहेगा या वह सत्ता पर काबिज़ राजनीतिक ताक़तों का ढिंढोरा पीटने वालों में शामिल होने का खतरा तो नहीं उठा रहा  है .


Saturday, March 8, 2014

मर्दवादी सोच से शिकंजे से बाहर निकलकर ही पूरी होगी आधी आबादी के अधिकार की लड़ाई




शेष नारायण सिंह

लखनऊ में रहने वाली साथी ताहिरा हसन ने सूचित किया है कि ,'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के ठीक पहले लखनऊ के घनी आबादी वाले खदरा मोहल्ले में एक महिला को दौड़ा दौड़ा कर चाकुओ से गोद कर मार डाला गया महिला चीखती चिल्लाती रही लेकिन लोगो ने मदद करने की बजाए अपने घर के खिड़की दरवाज़े बंद कर लिए .... शाम को पता चला है कि कुछ मोमबत्तिया और प्लेकार्ड बनाने के लिए दफ्तिया खरीदी गयी है जल्दी ही पुलिस प्रशासन के विरुद्ध प्रदर्शन की सम्भावना है दिल्ली में काम करने वाली एक बेहतरीन पत्रकार से आई एन एस बिल्डिंग के सामने मुलाक़ात हो गयी .उनको दिल्ली की राजनीति के गलियारों में ,खासकर सत्ता की राजनीति की बारीक समझ है.कांग्रेस बीट की  इस कुशाग्रबुद्धि रिपोर्टर से बात करके मेरे पाँव के नीचे की ज़मीन खिसक गयी.  जहां खड़े होकर हम बात कर रहे थे वहां से भारत की संसद की दूरी करीब २०० मीटर होगी ,और जिस महिला से हम बात कर रहे थे वह इलाहाबाद के पथ पर पत्थर नहीं तोडती, वह देश की राजनीति की चोटी पर बैठे राजनेताओं की कारस्तानी को रिपोर्ट करती है और यह उसका कैरियर है . मैंने कहा कि तुमको भी टी वी की बहसों में जाना चाहिए क्योंकि मैं जानता हूँ उस लडकी की राजनीतिक समझ बहुत अच्छी है  . लेकिन उसने  मुझसे बताया  कि इस दिशा  में वह सोच भी नहीं सकती . बिलकुल संभव नहीं है . वह टेलिविज़न की बहसों में इस लिए नहीं जाना चाहती की उसके दफ्तर में काम करने  वाले अन्य पत्रकारों को यह काम पसंद नहीं  आयेगा क्योंकि वे नहीं चाहते कि कोई महिला उनसे बेहतर नाम पैदा करे . उसने यह भी बताया की अपने करियर में वह कई बार ऐसे शुभचिंतकों से दो चार हुयी है जब उसको बताया गया है कि राजनीतिक रिपोर्टिंग के चक्कर में वह न पड़े और सौंदर्य या रसोई टाइप कोई बीट ले ले . इस रिपोर्टर ने साफ़ मना कर दिया और अपने शुभचिंतकों को बार बार याद दिलाया कि वह अपने अन्य साथियों से बिलकुल ही कम नहीं है .

अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस पर इस मानसिकता से लड़ना पडेगा . संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों और अन्य संस्थाओं से मिली जानकारी के आधार पर बहुत ही भरोसे से कहा जा सकता है कि पूरी दुनिया में महिलाओं की हालत बहुत खराब है . गर्भ में ही कन्या भ्रूण की हत्या हो रही है . लेकिन असली समस्या यह है कि आज भी हमारा पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को समाप्ति मानता है , बड़े से बड़े पद पर बैठी हुयी महिला को उसका चपरासी कमज़ोर मानता  है , केवल नौकरी बचाने के लिए उसका हुक्म मानता है ,सम्मान नहीं करता. विश्वविद्यालयों में लड़कियों को सुरक्षित नहीं माना जा सकता . दिल्ली के पास बसे हुए उत्तर प्रदेश के मेरे उपनगर में बहुत सारे शिक्षा संस्थान हैं , दूर दराज़ के इलाकों में रहने वाले दोस्तों के बच्चे यहाँ पढने आये हैं . वे बच्चे जब हमारे घर कभी आते हैं तो लड़कों की उतनी चिंता नहीं रहती लेकिन अगर लडकियां शाम का खाना खाकर अपने होस्टल जानी की सोचती हैं तो उन्हें उनके ठिकाने तक पंहुचा कर आना सही माना जाता है क्योंकि कई बार दिन ढले सड़क पर जा रही लड़कियों के साथ बदतमीजी की गयी है . १९९० में जब मेरी स्वर्गीया माँ को पता चला कि मेरी बेटी दिल्ली के उस दौर के एक ऐसे स्कूल में पढ़ती है जहां की फीस बहुत ज्यादा है तो उन्हें अजीब लगा था और उन्होंने कहा कि लड़के के लिए तो इतनी फीस देना समझ में आता हिया ,लडकी के लिए क्यों पैसा बर्बाद कर रहे हो . इन सारी घटनाओं में ज़रिये कोशिश की गयी है  कि यह बताया जाए कि हम किस तरह के समाज में रहते हैं और हमको कितना चौकन्ना रहना चाहिए . जब तक औरतों के बारे में पुरुष समाज की बुनियादी सोच नहीं बदलेगी तब तक कुछ नहीं होने वाला है . असली लड़ाई पुरुषों की मानसिकता  बदलने की है और जब तक वह नहीं बदलता कुछ भी नहीं बदलने वाला  है .
जब यह मानसिकता  बदलेगी उसके बाद ही देश की आधी आबादी के खिलाफ निजी तौर पर की जाने वाली ज़हरीली बयानबाजी से बचा  जा सकता है . दुनिया जानती है कि संसद और विधानमंडलों में महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिये कानून बनाने के लिए देश की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों में आम राय है लेकिन कानून संसद में पास नहीं हो रहा  है . इसके पीछे भी वही तर्क है कि पुरुष प्रधान समाज से आने वाले नेता महिलाओं के बराबरी के हक को स्वीकार नहीं करते .इसीलिये सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक और नैतिक  विकास को बहुत तेज़ गति दे सकने वाला यह कानून अभी पास नहीं हो रहा है .हालांकि अब वह दिन दूर नहीं जब यह कानून पास होकर रहेगा क्योंकि संसद और विधान मंडलों में ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए औरतों ने मैदान ले लिया है . उनको मालूम है कि महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमज़ोर नहीं हैं और वे पिछले १५ वर्षों से सरकारों को अपनी बातें मानने पर मजबूर करती रही हैं .अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं . बात तो ठीक है लेकिन महिलाओं को शक़ है कि यह टालने का तरीका है .

महिला अधिकारों की लड़ाई कोई नई नहीं है  भारत की आज़ादी  की लड़ाई के सास्स्थ साथ महिलाओं की आज़ादी की लड़ाई का आन्दोलन भी चलता रहा है .१८५७ में ही मुल्क की खुद मुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी लेकिन अँगरेज़ भारत का साम्राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. उसने इंतज़ाम बदल दिया. ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में ले ली. लेकिन शोषण का सिलसिला जारी रहा. दूसरी बार अँगरेज़ को बड़ी चुनौती महात्मा गाँधी ने दी . १९२० में उन्होंने जब आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ़ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं हैवे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं उनके साथ पूरा मुल्क खड़ा हो गया . . हिन्दू ,मुसलमानसिखईसाईबूढ़े ,बच्चे नौजवान औरतें और मर्द सभी गाँधी के साथ थे. सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने भरोसा जगा दिया था कि अब असली आज़ादी मिल जायेगी. लेकिन अँगरेज़ ने उनकी मुहिम में हर तरह के अड़ंगे डाले . १९२० की हिन्दू मुस्लिम एकता को खंडित करने की कोशिश की . अंग्रेजों ने पैसे देकर अपने वफादार हिन्दुओं और मुसलमानों के साम्प्रदायिक संगठन बनवाये और देशवासियों की एकता को तबाह करने की पूरी कोशिश की . लेकिन आज़ादी हासिल कर ली गयी. आज़ादी के लड़ाई का स्थायी भाव सामाजिक इन्साफ और बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना भी थी . लेकिन १९५० के दशक में जब गांधी नहीं रहे तो कांग्रेस के अन्दर सक्रिय हिन्दू और मुस्लिम पोंगापंथियों ने बराबरी के सपने को चकनाचूर कर दिया . इनकी पुरातनपंथी सोच का सबसे बड़ा शिकार महिलायें हुईं. इस बात का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब महात्मा गाँधी की इच्छा का आदर करने के उद्देश्य से जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दू विवाह अधिनियम पास करवाने की कोशिश की तो उसमें कांग्रेस के बड़े बड़े नेता टूट पड़े और नेहरू का हर तरफ से विरोध किया. यहाँ तक कि उस वक़्त के राष्ट्रपति ने भी अडंगा लगाने की कोशिश की. हिन्दू विवाह अधिनियम कोई क्रांतिकारी दस्तावेज़ नहीं था . इसके ज़रिये हिन्दू औरतों को कुछ अधिकार देने की कोशिश की गयी थी. लेकिन मर्दवादी सोच के कांग्रेसी नेताओं ने उसका विरोध किया. बहरहाल नेहरू बहुत बड़े नेता थे उनका विरोध कर पाना पुरातन पंथियों के लिए संभव नहीं था और बिल पास हो गया .
महिलाओं को उनके अधिकार देने का विरोध करने वाली पुरुष मानसिकता के चलते आज़ादी के बाद सत्ता में औरतों को उचित हिस्सेदारी नहीं मिल सकी. संसद ने पंचायतों में तो सीटें रिज़र्व कर दीं लेकिन बहुत दिन तक पुरुषों ने वहां भी उनको अपने अधिकारों से वंचित रखा . धीरे धीरे सब सुधर रहा है .लेकिन जब संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने की बात आई तो अड़ंगेबाजी का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया. किसी न किसी बहाने से पिछले पंद्रह वर्षों से महिला आरक्षण बिल राजनीतिक अड़ंगे का शिकार हुआ पड़ा है . देश का दुर्भाग्य है कि महिला आरक्षण बिल का सबसे ज्यादा विरोध वे नेता कर रहे हैं जो डॉ राम मनोहर लोहिया की राजनीतिक सोच को बुनियाद बना कर राजनीति आचरण करने का दावा करते हैं . डॉ लोहिया ने महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी का सबसे ज्यादा समर्थन किया था और पूरा जीवन उसके लिए कोशिश करते रहे,. . देश का दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पिछले २० वर्षों से देश में ऐसी सरकारें हैं जो गठबंधन की राजनीति की शिकार हैं . लिहाज़ा कांग्रेस बी जे पी या लेफ्ट फ्रंट की राजनीतिक मंशा होने के बावजूद भी कुछ नहीं हो पा रहा है . मर्दवादी सोच चौतरफा हावी है . इस बार भी राज्यसभा में बिल को पास करा लिया गया था लेकिन उसका कोई मतलब नहीं होता. असली काम तो लोकसभा में होना था लेकिन अब लोकसभा का कार्यकाल ख़त्म हो गया है और मामला हर बार की तरह एक बार फिर लटक गया है .. अब तो कांग्रेस और बी जे पी जैसी पार्टियां भी इस बिल से बच कर निकल जाना चाहती हैं .
महिलाओं के सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए इस बिल का पास होना बहुत ज़रूरी है लेकिन सच्चाई  यह  है कि इस बिल को पास  उन लोगों के ही करना है जिनमें से अधिकतर मर्दवादी  सोच की बीमारी  के मरीज़ हैं .हस्तक्षेप नाम के एक समाचार पोर्टल ने लिखा है कि अहमदाबाद वीमेंस एक्शन ग्रुप और इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि अहमदाबाद की 58 फीसदी औरतें गंभीर रूप से मानसिक तनाव की शिकार हैं. उनका अध्ययन बताता है कि 65 फीसद औरतें सरेआम पड़ोसियों के सामने बेइज्जत की जाती है. 35 फीसदी औरतों की बेटियां अपने पिता की हिंसा की शिकार हैं. यही नहीं 70 फीसदी औरतें गाली गलौच और धमकी झेलती हैं. 68 फीसदी औरतों ने थप्पड़ों से पिटाई की जाती है. ठोकर और धक्कामुक्की की शिकार 62 फीसदी औरतें हैं तो 53फीसदी लात-घूंसों से पीटी जाती हैं. यही नहीं 49 फीसदी को किसी ठोस या सख्त चीज से प्रहार किया गया जाता है. वहीं 37 फीसदी के जिस्मों पे दांत काटे के निशान पाए गए. 29 फीसद गला दबाकर पीटी गई हैं तो 22 फीसदी औरतों को सिगरेट से जलाया गया है. "
कुल मिलाकर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि एक महिला दिवस और  मना लिया गया लेकिन महिलाओं के अधिकार और सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा है .इस लक्ष्य को हासिल करने का सबसे कारगर तरीका संसद और विधान मंडलों में महिलाओं के लिए ३३ प्रतिशत सीटों का आरक्षण है . सभी राजनीतिक जमातों को चाहिए कि उस दिशा में आगे बढ़ने के लिये राजनीतिक माहौल बनाएं .

Tuesday, March 4, 2014

आज क़मर आज़ाद हाशमी का जन्मदिन है ---एक श्रद्धांजलि



शेष नारायण सिंह


आज स्वर्गीय क़मर आज़ाद हाशमी का जन्मदिन हैं . उनको पिछले ३७ वर्षों से मैं अम्मा जी के रूप में जानता आया हूँ . हालांकि वे सबीहा ,सुहेल, शेहला ,सफदर और शबनम की अम्मा हैं लेकिन उनके पाँचों बच्चों के  सभी दोस्त उनको अम्मा जी ही कहते थे .अम्मा अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनकी शान कायम है और रहेगी भी . दिल्ली की बाएं बाजू की सियासी और अदबी ज़िंदगी को जानने वाले जानते हैं की अम्मा कौन हैं . हमारी पीढ़ी का  जो भी इंसान उनसे मिलता था ,उनको अम्मा ही कहने लगता था. मेरी मुलाक़ात उनसे १९७६ में हुयी थी. इमरजेंसी के खिलाफ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जो प्रतिरोध चल रहा था ,उसकी अगुवाई उनके बेटे ,सुहेल हाशमी कर रहे थे . वे जे एन यू यूनिट के सेक्रेटरी थे . छात्रसंघ के अध्यक्ष देवी प्रसाद त्रिपाठी जेल में थे , और भी बहुत सारे साथी जेलों में थे . राजेन्द्र शर्मा के कमरे में साइक्लोस्टाइल करने की मशीन लगी थी जिस से इमरजेंसी के खिलाफ पम्फलेट आदि छापे जाते थे . मैं फरवरी १९७६ में दिल्ली आया था और आन्दोलन के साथी के रूप में  मेरी पहचान जे एन यू में डी पी त्रिपाठी और घनश्याम मिश्र ने करवा दी थी.  जहां आज संसद मार्ग  थाना है वहीं एक कोर्ट हुआ करती थी जिसमें जेल में बंद डी पी त्रिपाठी को पेशी के लिए लाया जाता था . वहीं मेरी मुलाक़ात पीरू विजयन और उषा मेनन से डी पी  त्रिपाठी ने करवाई थी.  अम्मा से उनके लोदी एस्टेट वाले प्राइमरी स्कूल के घर में मैं पीरू विजयन के साथ गया था . वहीं  मुझे अशोकलता जैन मिली थीं . उसके बाद तो लगने लगा कि हम भी उनके घर के सदस्य हो गए . वहां उस वक़्त के जे एन यू के एस एफ आई से जुड़े हुए बहुत सारे लोग मिल  जाते थे जो भूखे होते थे . सुहेल के दोस्तों के लिए वहां पेटपूजा के लिए कुछ न कुछ ज़रूर मिल जाता था .

२०११ में जब उनके जन्मदिन के मौके पर उर्दू अकादमी ने उनको सम्मानित करने  का फैसला किया था तो मैंने एक मजमून लिख कर उनके प्रति सामान व्यक्त किया था . उसमें लिखी गयी बातें आज भी उतनी ही सच  हैं जितनी तीन साल पहले थीं ,या आने वाले बहुत सारे वर्षों में सच रहेगीं . यह मजमून उस दिन उर्दू और हिंदी के अखबारों में छपा भी था.आज वही मजमून फिर से पोस्ट कर रहा हूँ ,स्पेलिंग की गलतियों सहित ;
दिल्ली सरकार की उर्दू अकादमी की ओर से आज एक ऐसी महिला का सम्मान किया जा रहा है,जिन्होंने मुसीबतों को हर मोड़ पर चुनौती दी है. दिल्ली के समाज के निर्माण में उनका खुद का और उनके परिवार का बहुत बड़ा योगदान है .कमर आज़ाद हाशमी का जन्म ४ मार्च १९२६ को झांसी में हुआ था.उनके पिता अज़हर अली आज़ाद उर्दू और फारसी के विद्वान थे.उनकी माँ जुबैदा खातून, दहेज़ के खिलाफ सक्रिय थीं कई भाषाओं की जानकार थीं, घुड़सवारी करती थीं और राइफल चलाना जानती थीं. उनकी ससुराल के लोग दिल्ली की राजनीति में सक्रिय थे. उनके पति की माँ , बेगम हाशमी नैशनल फेडरेशन आफ इन्डियन वीमेन की संस्थापक अध्यक्ष थीं. मुल्क के बँटवारे के वक़्त ऐसे हालात बने के कमर आज़ाद हाशमी को अपने माता पिता के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा. वहां वे पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव , सज्जाद ज़हीर से मिलीं. सज्जाद ज़हीर को कम्युनिस्ट पार्टी ने पाकिस्तान भेजा था जहां उन्हें पार्टी का गठन करना था . उन्हने मालूम था कि कमर की शादी हनीफ हाशमी से होने वाली थी. उन्होंने कमर को कहा कि वापस जाओ और हनीफ से शादी करके उसे भी पाकिस्तान लाओ जिस से वहां वामपंथी आन्दोलन को ताक़त दी जा सके. कमर आज़ाद हाशमी जब दिल्ली आयीं तो शादी तो उन्होंने हनीफ हाशमी से कर ली लेकिन वापस जाने की बात ख़त्म कर दी. बाद में स्व सज्जाद ज़हीर भी वापस हिन्दुस्तान आ गये. 
कमर आज़ाद हाशमी ने अपनी पहली किताब ६९ साल की उम्र में लिखी . अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उनकी पढाई पर ब्रेक लग गयी थी क्योंकि १९४७ के तकसीम ए मुल्क ने सब कुछ बदल दिया था .उन्होंने सत्तर साल की उम्र में एम ए करने का फैसला किया और किया भी. मजदूरों के हक के लिए लड़ते हुए उनके ३४ साल के बेटे को दिल्ली के पास साहिबाबाद में गुंडों ने मार डाला लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी . उस दिन उन्होंने दुःख में डूबे उसके साथियों का हौसला बढ़ाया था और कहा कि साथियो उठ खड़े हो और रोशनी फैलाने का काम जारी रखो क्योंकि अँधेरे के परदे को रोशनी से ही खत्म किया जा सकता है .उनके बेटे का नाम सफ़दर हाशमी था और आज उसे पूरी दुनिया में लोग जानते हैं . कमर आज़ाद हाशमी के सफ़दर के अलावा चार और बच्चे हैं. इन्होने अपने सभी बच्चों के अंदर पता नहीं क्या भर दिया है कि उनमें से कोई भी अन्याय के खिलाफ मोर्चा संभालने में एक मिनट नहीं लगाता . इनकी सबसे छोटी औलाद शबनम हाशमी हैं जिन्होंने गुजरात नरसंहार २००२ के बाद दर्द की तूफ़ान को झेल रहे हर गुजराती मुसलमान को ढाढस बंधाया और उसके साथ खडी रहीं.शबनम ने बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद संघी ताक़तों का मुकाबला किया और देश में सेकुलर जमातों को एकजुट किया. इनके बड़े बेटे सुहेल हाशमी हैं जो दिल्ली की विरासत के सबसे बड़े जानकारों में गिने जाते हैं . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के लोकतांत्रिक रूप को स्थापित करने में सुहेल का बड़ा योगदान है .इनकी दो और बेटियाँ हैं जिन्होंने स्कूल टीचर के रूप में दिल्ली के दो नामी स्कूलों में काम किया और अपने विषय को बहुत ही लोकप्रिय बनाया . अपने बच्चों को कमर आज़ाद हाशमी ने बेहतर इंसान बनने की ट्रेनिंग अच्छी तरह से दे रखी है .दिल्ली में नर्सरी शिक्षा को एक सम्मानजनक मुकाम तक पंहुचाने में कमर आज़ाद हाशमी का ख़ास योगदान है .

मुल्क के बँटवारे के बाद से दिल्ली और अलीगढ के बीच उन्होंने वक़्त की हर मार को झेला और अपने बच्चों को मज़बूत इंसान बनाया. उनके छोटे बेटे सफ़दर को १९८९ में मार डाला गया . उसकी याद में ही सामाजिक बदलाव और सांस्कृतिक हस्तक्षेप का मंच ,सहमत बनाया गया . शुरू में सहमत का संचालन उनकी छोटी बेटी शबनम हाशमी ने किया . बाद में शबनम ने अनहद का गठन किया जो शोषित पीड़ित जनता की लड़ाई का एक प्रमुख मोर्चा है . सहमत और अनहद से जुड़े ज़्यादातर लोग कमर आज़ाद हाशमी को अम्माजी कहते हैं .सफ़दर को विषय बनाकर अम्माजी ने एक किताब भी लिखी जिसका नाम है "पांचवां चिराग़ " . यह किताब कई भाषाओं में छप चुकी है . घोषित रूप से तो यह सफ़दर की जीवनी है लेकिन वास्तव में यह बीसवीं सदी में हो रहे बदलाव का एक आइना है . यह किताब उस औरत के अज़्म की कहानी है जिसका जवान बेटा राजनीतिक कारणों से शहीद कर दिया गया था,. इस किताब में चारों तरफ बिखरे हुए सपने पड़े हैं ,उम्मीदें हैं और हौसले हैं . इस किताब को पढने के बाद लगता है कि एक औरत अगर तय कर ले तो मुसीबतें कहीं नहीं ठहरेगीं. अम्माजी को बहुत सारे सम्मान मिले हैं और आज भी काम करने का ज़ज्बा ऐसा है कि अगले बीस साल तक के लिए प्लान बना चुकी हैं . 
आजकल दिल्ली में अपनी छोटी बेटी शबनम हाशमी के साथ रहती हैं और अनहद के काम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं . अपने वालिद की फारसी ग़ज़लों और नज्मों का एक संकलन प्रकाशित कर चुकी है और दूसरे संकलन के बारे में काम चल रहा है.आज भी उनके पास बैठने पर लगता है कि काम करने का अगर हौसला हो तो बाकी चीज़ें अपने आप दुरुस्त हो जायेगीं.


Monday, February 24, 2014

नई किस्म की राजनीतिक परम्परा की शुरुआत की ज़रूरत है



शेष नारायण सिंह

अभी एक दोस्त ने ऐलान किया है कि ‘ देश की राजनीति में अच्छेईमानदारचरित्रवानकर्मठ और जुझारू लोगों के आये बिना देश का भला संभव नहीं है. इसीलिए सोचता हूँ कि लोकसभा चुनाव में ताल ठोकते हुए उतर ही जाऊं .’ आज अपना लोकतंत्र ऐसे मुकाम पर है जब देश के उन लोगों को राजनीति में शामिल होने की ज़रूरत है जो इस देश की एकता और अखण्डता में विश्वास करते हैं .  देश के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त यह दोस्त पुलिस की सर्वोच्च सेवा ,आई पी एस छोड़कर बिहारशरीफ के अपने घर में रहता है और शान्ति की ज़िंदगी जीता है  . इसके सीने में एक बेहतरीन संवेदनाओं वाले इंसान का दिल धडकता है और यह अपने देश को प्रेम करता है . आमतौर पर मित्रों को राजनीति की कड़ाही में जाने से रोकने की अपनी आदत के बावजूद इस मित्र के इस ऐलान से खुशी हुई . हमें मालूम है कि अपनी शान्ति प्रिय जिन्दगी को छोड़कर यह दोस्त चुनावी राजनीति में शामिल नहीं होगा लेकिन खुशी है कि राजनीति में शामिल हो चुके लोगों की स्वार्थपरता अब ऐसे मुकाम पर पंहुच गयी है कि सभ्य लोग भी राजनीति में दोबारा शामिल होने के बारे में कभी कभी सोचने लगे हैं . दुबारा इसलिए कि महात्मा गांधी और नेहरू के नेतृत्व में सभ्य लोग ही राजनेति में शामिल होते थे लेकिन पिछले ३५ वर्षों में राजनीति  ऐसे लोगों का ठिकाना हो चुकी है जो आमतौर पर राजनीति को एक व्यवसाय के रूप में अपनाते हैं .लेकिन शुरू से ऐसा नहीं था. आज़ादी की लड़ाई में जब  बड़े पैमाने पर गिरफतारियां शुरू हुईं तो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफल लोग राजनीति में शामिल हुए थे . १९२० से १९४२ तक भारतीय राजनीति में जो लोग शामिल हुए वे अपने क्षेत्र के बहुत ही सफल लोग थे .राजनीति में वे कुछ लाभ लेने के लिए नहीं आये थे  ,अपना सब कुछ कुर्बान  करके अपने देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था को लोकशाही के हवाले करने का उनका जज्बा  उनको राजनीति में लाया था. बाद के समय में भी राजनीति में वे लोग सक्रिय थे जो आज़ादी की लड़ाई में शामिल रह चुके थे और देश के हित में कुर्बानियां देकर आये थे . लेकिन जवाहरलाल नेहरू के बाद जब से राजनीतिक नेताओं का नैतिक अधिकार कमज़ोर पड़ा तो राजनीति में ऐसे लोग आने लगे जिनको चापलूस कहा जा सकता है . इसी दौर में राजनीति में ‘ इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा ‘ का जयकारा लगाने वाले भी राजनीति के शिखर पर पंहुचे .जब कांग्रेसी राजनीति की चापलूसी इस बुलंदी पर थी तो वे राजनीतिक जमातें भी राजनीति में सम्मान की उम्मीद करने लगीं जिनके राजनीतिक पूर्वज या तो अंग्रेजों के साथ थे और या आज़ादी की लड़ाई में तमाशबीन की तरह शामिल हुए थे . उनको मान्यता मिली भी क्योंकि १९४७ के पहले राजनीतिक संघर्ष का जीवन जीने वाले नेता धीरे धीरे समाप्त हो रहे थे . बाद में तो राजनीति एक कैरियर के रूप में अपनाई जाने लगी . आज की तारीख में दिल्ली में अगर नज़र दौडाई जाए तो साफ़ नज़र आ जाएगा कि राजनीति में ऐसे लोगों का बोलबाला है जो  राजनीति को एक पेशे के रूप में अपनाकर सत्ता के गलियारों में धमाचौकड़ी मचा रहे हैं , देश के उज्जवल भविष्य से उनका कोई लेना देना नहीं  है , वे वर्तमान में जीने के शौक़ीन हैं और वर्तमान को राजाओं की तरह जी रहे हैं .
ऐशो आराम के शौकीन मौजूदा राजनेताओं की यह फौज भारतीय अर्थव्यवस्था के मनमोहनीकरण की देन है . जब मनमोहन सिंह ने पी वी नरसिम्हा राव के वित्तमंत्री के रूप में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश शुरू की तो उन्होंने पूंजीवादी अर्थशास्त्र की सबसे खतरनाक राजनीति की शुरुआत की जिसमें कल्याणकारी राज्य की भूमिका को केवल व्यापार को बढ़ावा देने वाली एजेंसी के रूप में पेश किया गया  . देश की अर्थव्यवस्था को उन्होंने उदारीकरण और भूमंडलीकरण की आग में झोंक दिया . मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण को उपचार के रूप में पेश किया और भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व बाज़ार के साथ जोड़ दिया। डॉ. मनमोहन सिंह ने आयात और निर्यात को भी सरल बनाया। और भारत को दुनिया के विकसित देशों का बाज़ार बना दिया .निजी पूंजी को उत्साहित करके सार्वजनिक उपक्रमों को हाशिए पर ला दिया . देखने में आया है कि डॉ मनमोहन सिंह के १९९२ के विख्यात बजट भाषण के बाद इस देश में जो घोटाले हुए हैं वे हज़ारों करोड के घोटाले हैं .इसके पहले घोटाले कम कीमत के हुआ करते थे . बोफर्स घोटाला बहुत बड़ा घोटाला माना जाता था लेकिन पिछले १५ वर्षों के घोटालों पर एक नज़र डाली जाए तो समझ में आ जाएगा कि ६५ करोड का बोफर्स घोटाला आधुनिक कलमाडीयों , राजाओं और येदुराप्पाओं के सामने बहुत मामूली हैसियत रखता है .इसका करण यह है कि  बहुत बड़ी संख्या में राजनीति में आर्थिक लाभ से प्रेरित लोग शामिल  हो गए हैं .यह लोग राजनीति को व्यापार समझते हैं और उसमें लाभ हानि के लिए किसी से भी समझौता कर लेते हैं . एक और बात समझ लेने की है कि दोनों ही बड़ी पार्टियों की अर्थनीति वही है , डॉ मनमोहन सिंह को बेशक बीजेपी वाले आजकल दिन रात कोस रहे हैं लेकिन जब उनकी पार्टी की सरकार बनी तो छः साल तक मनमोहन सिंह की ही आर्थिक नीतियां चलती रहीं . उन नीतियों को लागू करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी ने वित्त मंत्री के रूप में किसी पूर्व अफसर को लगा रखा था .
अभी हमने देखा कि बीजेपी और कांग्रेस में लोकसभा में तेलंगाना मुद्दे पर बड़ी अपनापे भरी एकता नज़र आयी . यह जो एकता दिखी है वह अकारण नहीं है . दोनों ही पार्टियां पूंजीवादी अर्थशास्त्र की राजनीति के लिए काम करती हैं और ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिल जायेगें जहां कांग्रेस और बीजेपी में कोई फर्क नहीं हैं . अभी पिछले दिनों दिल्ली की विधानसभा में भी कांग्रेस और बीजेपी में ज़बरदस्त एकता देखी गयी . यह एकता सारी राजनीतिक तल्खी के बाद बनी रहती है. ऐसा माना जा रहा था कि अरविंद केजरीवाल नाम का व्यक्ति दोनों पार्टियों के जनविरोधी और पूंजीवाद समर्थक रुख को रोकने की कोशिश करेगा लेकिन उन्होंने इस उम्मीद को ध्वस्त कर दिया है . उन्होंने पूंजीपतियों की एक सभा में जाकर ऐलानियाँ कहा कि वे पूंजीवाद की राजनीति की पूरी पक्षधरता के साथ लगे हुए हैं . यानी वे भी आखीर में मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र को ही लागू करेगें . हाँ सत्ता हासिल करने के लिए वे दोनों ही राजनीतिक पार्टियों का विरोध करने का स्वांग ज़रूर कर रहे हैं .
राजनीति में सत्तर के दशक में ऐसे लोगों का आना बड़े पैमाने पर शुरू हुआ जो राजनीति को व्यापार समझते थे. इस तरह के लोगों की भर्ती स्व इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र संजय गांधी ने मुख्य रूप से की थी. संजय गांधी ने दिल्ली की सीमा पर गुडगाँव में मारुति लिमिटेड नाम की एक फैक्ट्री लगाकार कारोबार शुरू किया था लेकिन बुरी तरह से असफल रहे. अटल बिहारी वाजपेयीमधु लिमये ज्योतिर्मय बसु पीलू मोदीजार्ज फर्नांडीज़ और हरि विष्णु कामथ के लोकसभा में दिए गए भाषणों से हमें मालूम हुआ कि संजय गाँधी को उद्योगपति बनाने के लिए बहुत से दलालों चापलूसों और कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों ने कोशिश की लेकिन संजय गाँधी उद्योग के क्षेत्र में बुरी तरह से फेल रहे . उसी दौर में दिल्ली के उस वक़्त के काकटेल सर्किट में सक्रिय लोगों ने उन्हें कमीशनखोरी के धंधे में लगा दिया . बाद में तो वे लगभग पूरी तरह से इन्हीं लोगों की सेवा में लगे रहे. शादी ब्याह भी हुआ और काम की तलाश में इंदिरा गाँधी के कुछ चेला टाइप अफसरों के सम्पर्क में आये और नेता बन गए. भारतीय राजनीति का सबसे काला अध्याय संजय गाँधी के साथ ही शुरू होता है. जब हर तरफ से फेल होकर संजय गाँधी ने राजनीति में शामिल होने की योजना बनाई तो बड़े बड़े मुख्यमंत्री उनके दास बन गए . नारायण दत्त तिवारीबंसी लाल आदि ऐसे मुख्य मंत्री थे जिनकी ख्याति संजय गाँधी के चपरासी से भी बदतर थी. न्यायपालिका संजय गाँधी की मनमानी में आड़े आने लगी. संजय गाँधी ने अपनी माँ को समझा बुझाकर इमरजेंसी लगवा दी. इमरजेंसी के दौरान सत्ता की राजनीति का घोर पतन हुआ और संजय गांधी के चापलूस की सत्ता के मालिक बन बैठे . कांग्रेस पार्टी को १९७७ में हार का मुंह देखना पड़ा लेकिन सत्ता से बाहर रहकर संजय गांधी ने ऐसे लोगों को कांग्रेस का सदस्य बनाया जिनको राजनीति के उन आदर्शों से कोई लेना देना नहीं था  जो आज़ादी की लड़ाई की मूल भावना के रूप में जाने  जाते थे.  यही वर्ग १९८० में सत्ता में आ गया और जब मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को विश्वबाजार के सामने पेश किया तो इस वर्ग के बहुत सारे नेता भाग्यविधाता बन  चुके थे. उन्हीं भाग्यविधाताओं ने आज देश  का यह हाल किया है और अपनी तरह के लोगों को ही राजनीति में  शामिल होने के लिए  प्रोत्साहित किया है .पिछले २० वर्षों की भारत की राजनीति ने यह साफ़ कर दिया है कि जब तक देशप्रेमी और आर्थिक भ्रष्टाचार के धुर विरोधी राजनीतिक पदों पर नहीं पंहुचते ,देश का कोई भला नहीं होने वाला है . इसी शून्य को भरने की कोशिश आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने की और जनता  ने उनको सर आँखों पर बिठाया लेकिन उद्योगपतियों की सभा में उन्होंने भी साफ़ कह दिया है कि वे पूंजीवादी राजनीति का समर्थक हैं . इसका मतलब यह हुआ कि वे चाकर पूंजी के लिए काम करेगें और उसी तरह से देश का भला करेगें  जैसा ईस्ट इंडिया कंपनी, ब्रिटिश साम्राज्य और १९७० के बाद की बाकी सत्ताधारी पार्टियों ने किया है . केवल महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक प्रमुखता  के दौर में देश के आम आदमी के हित की राजनीति हुई है बाकी तो चाकर पूंजी की सेवा ही चल रही है .
राजनीतिक दुर्दशा के इस माहौल में मेरे मित्र या उसके जैसे लोगों का चुनाव राजनीति में शामिल होने के बारे में सोचना एक महत्वपूर्ण राजनीतिक विकासक्रम है . आज यह देशहित में है कि ऐसे लोग सभी राजनीतिक पार्टियों में शामिल हों जिससे देश की राजनीति देश के साधारण आदमी की पक्षधरता के बुनियादी कर्त्तव्य का पालन कर सके ,कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो सके, और राजनीति के रास्ते देश में फल फूल रहा आर्थिक भ्रष्टाचार खत्म किया जा सके .

Sunday, January 26, 2014

केजरीवाल से किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं ,यह भी को-आप्ट हो जायेगें

शेष नारायण सिंह 

लखनऊ के रहने वाले आदरणीय पत्रकार ,सिद्धार्थ कलहंस के फेसबुक पेज पर लगा यह नोट बिना उनसे पूछे नक़ल करके यहाँ चिपका रहा हूँ और इसके हर शब्द से अपने आपको सम्बद्ध करता हूँ.

 "भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी के तौर पर पहले लाखों कमाने वाले और बाद को एनजीओ चला करोड़ों कमाने वाले श्री केजरीवाल, मुशायरे में लाखों वसूलने वाले और कालेज में न पढ़ा हजारों लेने वाले विश्लावास, कोई गोपीनाथ कोई महेशव्री, सिहं, बारदालोई, साराभाई और इनफोसिस वाले सब आम आदमी हैं। पुस्तैनी शराब कारोबारी बाद को मीडिया मुगल हो जाने वाले कोई जायसवाल सब आम आदमी हैं। लखनऊ में डंडीमार, पेट्रोल पंप पर घटतौली करने वाले इस दल के संयोजक हैं।"

लेकिन यह भी सच है कि इन लोगों की पार्टी इतिहास के उस मुकाम पर भारत की राजनीति में नमूदार हुई है जब हमारी आज़ादी की विरासत को एक नरेंद्र मोदी और एक अदद राहुल गांधी मिलकर संसदीय लोकतंत्र से मिटाकर राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ धकेल रहे हैं . अब तक के राहुल गांधी के आचरण से लग रहा है कि वे २०१४ का चुनाव नरेंद्र मोदी को गिफ्ट करके २०१६ के लिए तैयार होना चाह रहे हैं . जबकि नरेंद्र मोदी वही काम करने पर आमादा नज़र आ रहे हैं जो १९७५-७६ में उनके पूर्ववर्ती संजय गांधी करना चाह रहे थे . ऐसी हालत में या झाडू वाला रंगरूट एक ज़रूरी काम कर रहा है .  हम सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश , गुजरात ,महाराष्ट्र, कर्नाटक, दिल्ली आदि इलाकों में यह राहुल गांधी और नरेंद्र नरेंद्र मोदी की मंशा पर लगाम लगाएगा . इससे ज़्यादा इससे उम्मीद नहीं की जानी चाहिए . क्योंकि जिस आन्दोलन से यह पैदा हुआ  है , अन्ना हजारे का वह रामलीला वाला शो बेईमानों की नीयत का नतीजा था.
जो लोग अरविन्द केजरीवाल से बहुत ही पवित्र राजनीतिक आचरण की उम्मीद कर रहे हैं ,उनको निराशा होगी क्योंकि अरविन्द केजरीवाल भी उतने ही सामन्ती सोच के मालिक हैं जितने नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी . अभी से उनके साथ कांग्रेसी और भाजपाई धंधेबाज़ जुड़ना शुरू हो गए हैं . लोकसभा में कुछ सीटें जीतने के बाद यह भी जयललिता, करुणानिधि, शरद पवार, बाल ठाकरे, मुलायम सिंह यादव  , मायावती , नीतीश कुमार, लालू यादव, राम विलास पासवान जैसे लोगों की तरह ईमानदार हो  जायेगें लेकिन भारत के संसदीय इतिहास में अपनी भूमिका आदा करने के बाद में ही यह नेपथ्य में जाएँ तो अच्छा है .

अरविन्द केजरीवाल से किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं करनी चाहिए क्योंकि जब स्थापित सत्ता को चुनौई देने वाली १९७४-७५ की संघर्ष शील पीढ़ी आज सत्ता प्रतिष्ठान का भ्रष्ट  नमूनों में शुमार हो चुकी है तो यह बेचारे केजरीवाल किस खेत की मूली हैं . याद रखना चाहिए कि जे पी के आन्दोलन के सभी नौजवान आज सिस्टम में शामिल हो चुके हैं ,अरविन्द केजरीवाल की टोली के लोग भी को-आप्ट हो जायेगें