Saturday, November 16, 2013

नरेंद्र मोदी का इतिहासबोध भी सरदार पटेल को आर एस एस का हमदर्द नहीं बना सकता



शेष नारायण सिंह 

आजकल आर एस एस / बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी की राजनीति को इतिहाससम्मत बनाने के काम में जुटे हुए है . इस चक्कर में वे बहुत ऊलजलूल काम कर रहे हैं . अभी गुजरात में किसी भाषण में उन्होंने कह दिया कि उनकी पार्टी के संस्थापक डॉ श्यामा  प्रसाद मुखर्जी १९३० में स्विट्ज़रलैंड में मर गए थे जबकि इतिहास का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु १९५३ में कश्मीर में हुई थी. पटना के भाषण में उन्होंने कह दिया कि सिकंदर गंगा नदी तक आया  था. या कि तक्षशिला बिहार में था . मोदी जी की इन गलतियों का कारण यह है कि वे या इतिहास की सही जानकारी नहीं रखते और उनका दिमाग इस बात की कोशिश करता रहता है कि अपनी पार्टी को भी इतिहास की महान परंपरा से जोड़ने में सफलता हासिल करें .उनके ऊपर इस बात का दबाव है कि वे आज़ादी की लड़ाई के कुछ महानायकों के साथ अपनी पार्टी को भी जोड़ें . इस चक्कर में कभी वह मौलाना आज़ाद का नाम लेते हैं, कभी बाल गंगाधर तिलक का नाम लेते हैं लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि यह सभी महान लोग आर एस एस में कभी नहीं रहे जबकि आज़ादी की लड़ाई के सारे महान नायक कांग्रेस में रह चुके हैं . मोदी  केवल एक प्वाइंट पर भारी पड़ते हैं कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व इंदिरा गांधी के परिवार के अलावा किसी का नाम नहीं लेता जबकि १९२० से १९५०  तक का कांग्रेस का इतिहास ऐसा है कि उस पर कोई भी गर्व कर सकता है और उसी  कालखंड का आर एस एस का इतिहास ऐसा है जिसे कोई भी गौरवशाली व्यक्ति अपना कहने में संकोच करेगा क्योंकि उसी दौर में भी महात्मा गांधी की हत्या हुई थी.

आज़ादी की लड़ाई के  नायकों को अपनाने की कोशिश आर एस एस और उसके मातहत संगठन अक्सर करते रहते हैं .२००९ में जब महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की रचना के सौ साल पूरे हुए तो आर.एस.एस. वालों ने एक बार फिर योग्य पूर्वजों की तलाश का काम शुरू कर दिया था. उस किताब के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में सेमीनार आदि आयोजित किये गए . करीब ३३ साल पहले महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश के नाकाम रहने के बाद उस प्रोजेक्ट को दफन कर दिया गया था लेकिन पता नहीं क्यों एक बार फिर महात्मा गांधी को अपनाने की जुगत चालू कर दी गयी थी. आर एस एस ने इस बार महात्मा गांधी के व्यक्तित्व पर नहीं उनके सिद्धांतों का अनुयायी होने की योजना शुरू किया है . हिंद स्वराज को अपनाने की स्कीम उसी रणनीति का हिस्सा है .।

आर एस एस की समस्या यह है कि उनके पास ऐसा कोई हीरो नहीं है जिसने भारत की आजादी में संघर्ष किया हो। एक वी.डी.सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की गई . जब संघ परिवार की केंद्र में सरकार बनी तो सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी मिल गई लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से माफी मांगकर आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है। सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी। इस अभियान का नुकसान  हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थेउन्हें भी पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने की शपथ ली थी।1980 में अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधी को अपनाने की कोशिश शुरू की थी लेकिन गांधी के हत्यारों और संघ परिवार के संबंधों को लेकर मुश्किल सवाल पूछे जाने लगे तो योजना को छोड़ दिया  गया और कई साल तक महात्मा गांधी का नाम नहीं लिया। क्योंकि हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिएतो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहेंतो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदूमुसलमानपारसीईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैंएक देशीएक-मुल्की हैंवे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।" ज़ाहिर है यह आर एस एस बीजेपी की राजनीति के लिए कोई फायदे की बात नहीं है .
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत कीउससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अलीसरदार पटेलमौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया। लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना जैसे लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। महात्मा गांधी के १९२० के आंदोलन के बाद ही वी डी सावरकर की किताब “ हिंदुत्व “ को आधार बनाकर आर एस एस की स्थापना भी हुई.

बीच में कोशिश की गई कि आर.एस.एस. के संस्थापक डॉ के बी हेडगेवार के बारे में प्रचार किया जाय कि वे भी आजादी की लड़ाई में जेल गए थे लेकिन मामला चला नहीं। उल्टेजनता को पता लग गया कि वे जंगलात महकमे के किसी विवाद में जेल गए थे जिसे आर एस एस वाले अब वन सत्याग्रह नाम देते हैं . वन सत्याग्रह शब्द को सच भी मान लें तो आर.एस.एस. भी यह दावा कभी नहीं करता कि उसके संस्थापक १९२५ के बाद आजादी के किसी कार्यक्रम में संघर्ष का हिस्सा बने थे. हाँ कलकत्ता में कांग्रेस के सदस्य के रूप में वे शायद आज़ादी के संघर्ष में शामिल हुए रहे हों .। वन सत्याग्रह वाली बात को साबित करने के लिए आर एस एस की ओर से दिल्ली के किसी कालेज में काम करने वाले एक मास्टर साहेब की किताब का ज़िक्र किया जाता है . वे लोग बहुत जोर देकर बताते हैं कि कि वह किताब केन्द्र सरकार के प्रकाशन विभाग ने छापी है . हो सकता है कि सरकार ने किताब छापी हो लेकिन उस किताब का सोर्स क्या है इसपर कोई बात नहीं करता . 1940 में संघ के मुखिया बनने के बाद एम एस गोलवलकर भी घूमघाम तो करते रहे लेकिन एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जब पूरा देश गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में शामिल था तो न तो आर.एस.एस. के प्रमुख एम एस गोलवलकर को कोई तकलीफ हुई और न ही मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिनाह को। दोनों जेल से बाहर की आजादी का सुख भोगते रहे।

जब संसद में सावरकर की तस्वीर लगाने के मामले पर एन.डी.ए. सरकार की पूरी तरह से दुर्दशा हो गई तो सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई ,जो आज तक चल रही है .  सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा। सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था। जब हत्या में गोलवलकर का रोल सिद्ध नहीं हो सका तो उन्हें छोड़ दिया जाना चाहिए था लेकिन सरदार पटेल ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडरटेकिंग न दें। सरदार पटेल ने लिखित अंडरटेकिंग लेकर गोलवलकर को जेल से रिहा होने दिया था . सरदार पटेल  की एक दूसरी शर्त थी कि रिहाई के पहले आर एस एस का  एक लिखित संविधान भी बनाया जाए.संविधान बन भी गया लेकिन उसका इस्तेमाल केवाल अपने प्रमुख  की रिहाई मात्र था.वह कभी लागू नहीं हुआ. उस संविधान में लिखा गया है कि संघ वाले किसी तरह ही राजनीति में शामिल नहीं हो सकेंगे। उसके बाद राजनीति करने के लिए 1951 में जनसंघ की स्थापना हुई। १९७७ में भारतीय जनसंघ का  जनता पार्टी में विलय हुआ और उसी जनता पार्टी को तोड़कर बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी जिसको आज लोग बीजेपी के नाम से जानते हैं ..

अपने को आज़ादी की लड़ाई से जोड़ने की कोशिश करने का काम पिछले दिनों बीजेपी और  आर एस एस की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी को सौंपा गया .नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले तो सरदार पटेल को अपना साबित करने का अभियान चालू किया और उन्हें गुजराती तक कह डाला जबकि सरदार पटेल को किसी एक भौगोलिक सीमा में बांधना असंभव है . वे तो सारे देश के नेता थे.  सरदार पटेल को अपना सकना नरेंद्र मोदी के लिए बहुत मुश्किल साबित होने वाला है क्योंकि नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे व्यक्ति की  है जिसके राज में २००२ में हज़ारों मुसलमानों को निर्दयता पूर्वक क़त्ल कर दिया गया था  और सरकार ने राजधर्म नहीं निभाया था. जबकि सरदार पटेल ने देश के विभाजन के बाद के हुए खून खराबे में लोगों को मुसलमानों की जान बचाने के लिए प्रेरित किया था . सरदार धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे .केन्द्र सरकार के गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)

सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। भारत के गृहमंत्री के साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बेटी भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओंसिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ. ज़ाहिर है कि इस राजनीतिक सोच के मालिक सरदार पटेल के जीवन में ऐसे सैकड़ों काम होंगें जो नरेंद्र मोदी या उनकी राजनीति के हित के साधन के लिए किसी काम के नहीं होगें . इसलिए आर एस एस की सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश भी सफल  नहीं होने वाली है .ऐसी हालत में बेहतर यही होगा कि नरेंद्र मोदी समेत आर एस एस के बाकी लोग इतिहास को स्वीकार कर लें और उसे बदलने की कोशिश न करें .

Sunday, November 10, 2013

जवाहर लाल नेहरू के शिष्य थे डॉ राम मनोहर लोहिया

 
शेष नारायण सिंह 

आजकल देश के दो सबसे बड़े राज्यों में डॉ राम मनोहर लोहिया के अनुयायियों की सरकार है . उत्तर प्रदेश और बिहार के समाजवादी मुख्यमंत्रियों की सरकारें दावा करती पायी जाती हैं कि वे ही समाजवादी राजनीति के झंडाबरदार हैं . समाजवादी राजनीति ने इस देश को बहुत सारे चिन्तक दिए हैं . १९३६ में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी तो उसके सदस्यों में  ई एम एस नम्बूदिरीपाद , डॉ राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव , जयप्रकाश नारायण जैसे चिन्तक शामिल थे. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी वास्तव में कांग्रेस का ही हिस्सा थी .इस वर्ग को कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में जवाहर लाल का ग्रुप माना जाता था . यह अलग बात है कि इस में शामिल सभी नेता जवाहर लाल नेहरू से किसी मायने में कम नहीं थे.अपने देश में  समाजवादी राजनीति को स्थापित करने का श्रेय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं को ही जाता है .
समाजवादी नेताओं में डॉ राम मनोहर लोहिया का मुकाम सबसे ऊंचा था. आज़ादी के  बाद कांग्रेस की सत्ता जब आम आदमी की हित साधक संस्था के रूप में अपनी पहचान गँवा बैठी तो डॉ लोहिया ने कांग्रेस की हर उस नीति का विरोध  किया जो  जनविरोधी थी . दो आम चुनावों के बाद जब उनको लगा कि कांग्रेस की सत्ता जड़ पकडती जा  रही है तो उन्होंने गैर कांग्रेस वाद का राजनीतिक सिद्धांत दिया और आर एस एस से सम्बद्ध राजनीतिक पार्टी ,भारतीय जनसंघ तक को साथ लेने में संकोच नहीं किया. इस रणनीति का असर भी हुआ और १९६७ के आम चुनाव के बाद उत्तर और पूर्वी भारत के  कई राज्यों से कांग्रेस की सत्ता बेदखल कर दी गयी. १९६७ की संविद सरकारें डॉ लोहिया की राजनीति की सफलता और उनकी राजनीतिक समझ की वैज्ञानिकता   का सबूत हैं .डॉ लोहिया की छवि आमतौर पर कांग्रेस विरोधी राजनेता की है. उन्होंने आज़ादी के बाद से कांग्रेस की पूंजीवादी नीतियों को ज़बरदस्त विरोध भी किया और जीवन के अंत तक कांग्रेस विरोध की राजनीति ही किया .
डॉ राम मनोहर लोहिया हमेशा से ही कांग्रेस विरोधी नहीं थे. डॉ लोहिया कभी महात्मा गांधी के बाद की पीढी के सबसे बड़े नेता के  शिष्य भी थे. डॉ लोहिया के सबसे बड़े अनुयायी और आज के समाजवादियों के शलाकापुरुष स्व मधु लिमये ने अपनी एक किताब में साफ़ लिखा है कि डॉ राम  मनोहर लोहिया  शुरू से लेकर आज़ादी मिलने  तक जवाहर लाल नेहरू के बहुत करीबी व्यक्ति थे. भारत की विदेश नीति को मूल रूप से जवाहर लाल नेहरू ने डिजाइन किया था .  भारत के समकालीन इतिहास का हर विद्यार्थी जनता है कि  विदेश नीति की जवाहर लाल की जो भी सोच थी उसमें डॉ राम मनोहर लोहिया का बहुत बड़ा योगदान था. जवाहर लाल नेहरू ने हर मंच पर लोहिया की तारीफ़ की और उनकी राय को महत्व दिया

हमारी पीढी के  लोगों के लिए यह सोच पाना बहुत मुश्किल है कि डॉ राम मनोहर लोहिया जैसा स्वतंत्रचेता व्यक्ति किसी का शिष्य हो सकता है .लेकिन जब डॉ लोहिया के सबसे प्रभावशाली अनुयायी ने अपनी एक अहम  किताब में लिखा है तो उसे मान लेने में कोई संकोच नहीं किया जाना चाहिए . जिस लेख का हवाला यहाँ लिया जा  रहा है कि वह मधु लिमये की किताब ," म्यूज़िंग्स ऑन करेंट प्राब्लम्स एंड पास्ट इवेंट्स ( १९८८) " में छपा हुआ है .  

मधु जी ने लिखा  है कि डॉ  लोहिया को कांग्रेस में शामिल करने का श्रेय सेठ जमनालाल बजाज को जाता है जो डॉ लोहिया के पिता जी के परिचित थे. जमनालाल बजाज उन दिनों कांग्रेस के  कोषाध्यक्ष भी थे. उन्होंने ही डॉ लोहिया को महात्मा गांधी से मिलवाया था और महात्मा जी ने जवाहर लाल नेहरू से राम मनोहर लोहिया को लखनऊ कांग्रेस के समय १९३६ में मिलवाया. . महात्मा गांधी के सुझाव पर उस साल जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया था. वे ताज़ा ताज़ा जेल से छूट कर आये थे. लोहिया से उनकी मुलाक़ात कांग्रेस अध्यक्ष के टेंट में ही हुई. . उन्होंने डॉ लोहिया को समाजवादी  चिंतन धारा का उभरता हुआ सितारा कह कर संबोधित किया . . उन्होंने पूछा कि कि क्या लोहिया ने उनके अध्यक्षीय भाषण को पढ़ा है . डॉ लोहिया ने जवाब दिया कि वह एक नोबुल स्पीच है . इस तरह के विशेषण के प्रयोग से नेहरू चौंक  गए और बहुत खुश हुए . डॉ लोहिया ने कहा कि  कांग्रेस अध्यक्ष के रूप  में आपके सपने बहुत ही अच्छे हैं और लगता है कि आप कांग्रेस आन्दोलन में एक नया जीवन फूंकने के लिए तैयार हैं.इस समय डॉ लोहिया की उम्र केवल २६ साल की थी. कहते हैं कि इस मुलाक़ात के बाद जवाहर लाल नेहरू ने डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना बहुत ही करीबी मानना शुरू कर दिया था. . लोहिया वास्तव में  जवाहर लाल नेहरू के बहुत बड़े प्रशंसक थे. लोहिया महात्मा गांधी के बहुत बड़े भक्त थे लेकिन गांधी के बाद उनके सम्मान के  हक़दार जवाहर लाल नेहरू ही थे. 
जवाहर लाल नेहरू  भी उन  नौजवानों से बहुत प्रभावित रहते थे जो विदेशी विश्वविद्यालाओं से शिक्षा ले कर आये थे . शायद इसीलिए उन्होंने डॉ लोहिया  को सम्मान देना शुरू किया था लेकिन बाद में वे  उनकी कुशाग्रबुद्धि से बहुत प्रभावित हुए थे. उन्होंने कहा कि राम मनोहर में वह शक्ति  है कि वे किसी भी विषय पर घंटों बात कर सकते थे  और तुर्रा यह कि बातचीत लगातार दिलचस्प बनी रहेगी. . नेहरू ने डॉ लोहिया को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के विदेश विभाग का इंचार्ज बनाने का प्रस्ताव किया,जिसको वे  कांग्रेस के मुख्यालय में ही स्थापित करना चाहते थे. और लोहिया ने उस काम को तुरंत स्वीकार कर लिया . उन दिनों कांग्रेस का मुख्यालय इलाहाबाद में होता था .आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के विदेशी मामलों के सेक्रेटरी के रूप में डॉ लोहिया ने पूरी दुनिया के प्रगतिशील आन्दोलनों से संपर्क कायम किया . एक बुलेटिन भी निकालना शुरू किया और भारत की भावी विदेशनीति के बारे में कई पम्फलेट निकाले.. डॉ लोहिया के एक कम्युनिस्ट साथी ने कहा था कि जवाहर लाल के नए संगठन में डॉ लोहिया का काम आउटस्टैंडिंग था और डॉ लोहिया भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के पहले विदेशमंत्री थे. लोहिया ने जवाहर लाल नेहरू  की आत्म कथा का  एक रिव्यू लिखा था जिसमें उन्होंने बताया कि  नेहरू ने दो दशकों में भारत की लड़ाई के हर मुकाम पर अपनी छाप छोडी है. जवाहर लाल ने समय की आत्मा को पहचान लिया है और उसको विकसित किया . दूसरे विश्व युद्ध  के पहले लिखी गयी इस पुस्तकसमीक्षा में हमारे समकालीन इतिहास की दो महान विभूतियों की सोच के बारे समझ को विकसित करने में सहयोग मिलता है .डॉ  लोहिया ने लिखा कि कि उनकी नज़र में जवाहर लाल का जीवन एक आदर्श  जीवन था. उन्होंने तय किया कि वे देश के लिए तकलीफ उठायेगें और उसे खुशी खुशी उठाया. . जवाहर लाल  ने एक ऐसा जीवन जीने का फैसला किया जिसका प्रगति पर हमेशा विश्वास  बना रहा.. वे उन्हें एक ऐसा आदमी मानते थे जो उनकी गिरफ्तारी के लिए आई हुई पुलिस की गाडी देख कर भी मुस्कुरा देते थे और पुलिस लाठीचार्ज के दौरान दोनों तरफ की क्रूरता को भी देखने की  क्षमता  रखते थे.. लोहिया के अनुसार जवाहर लाल के  जीवन को दो शब्दों में व्यक्त किया जा सकता  है ------ प्रयास और सौंदर्य 
कांग्रेस मुख्यालय में अपने काम से लोहिया बहुत जल्दी ऊब गए . वे एक सोशलिस्ट और एक कांग्रेस नेता के रूप में  देश के अलग अलग हिस्सों में जाकर काम करना चाहते थे . उन्होंने छोड़ने की पेशकश की लेकिन आचार्य जे बी कृपलानी ने कहा कि जब तक नेहरू यूरोप से नहीं वापस आते तब तक छोड़ना ठीक नहीं होगा. . जवाहर लाल की निजी ज़िन्दगी में उन दिनों बहुत परेशानी थी. उनकी पत्नी कमला नेहरू बहुत बीमार थीं और उनका विदेश में इलाज़ चला था. बाद में उनकी मृत्यु भी हो गयी थी.  यूरोप से आने के बाद जवाहर लाल ने  लोहिया  को कांग्रेस मुख्यालय के काम से छुट्टी तो दे दी लेकिन वे हमेशा डॉ राम मनोहर लोहिया को एक महान व्यक्ति और कुशाग्रबुद्धि नौजवान मानते  रहे. १९४० में अमेरिकन इंस्टीटयूट आफ पैसिफिक रिलेशंस ने जवाहर लाल से कहा कि वे कृपया किसी ऐसे भारतीय विद्वान का चुनाव कर दें जिसका स्तर बहुत ऊंचा हो ,जो पूर्वी एशिया के आर्थिक और राजनीतिक संबंधों के बारे में बहुत ही भरोसे के साथ लिख सकता हो तो जवाहर लाल नेहरू के दिमाग में केवल एक नाम  आया और वह नाम डॉ लोहिया का था. लेकिन उन्होंने चिट्ठी में लिखा है  कि अगर डॉ राम मनोहर लिखने के लिए तैयार हो जाएँ  तो उनसे अच्छा कोई नहीं है .

लखनऊ कांग्रेस के बाद डॉ लोहिया और जवाहर लाल नेहरू में सम्बन्ध बहुत अच्छे हो गए थे. . लखनऊ कांग्रेस के बाद कांग्रेस में पुरातनपंथी सोच वालों से नेहरू का भारी विवाद हुआ. नेहरू विरोधी कांग्रेस के हर मंच पर  बहुमत में थे.  अति वामपंथी रुझान के कांग्रेस सदस्य नेहरू की खूब आलोचना करते थे . इनमें कुछ लोग महात्मा गांधी की आलोचना भी करते रहते थे .सुभाष चन्द्र बोस , एम एन रॉय और अन्य कम्युनिस्टों के अनुयायियों की नज़र में महात्मा गांधी की सोच बिलकुल बेकार की थी . . इस दौर में जब महात्मा गांधी का विरोध करना वामपंथियों के लिए फैशन था, डॉ लोहिया ने महात्मा गांधी के नेतृत्व के बारे में जवाहरलाल नेहरू के मूल्यांकन को सही माना . १९३९ में जब कांग्रेस अध्यक्ष पद  के चुनाव के वक़्त कांग्रेस की टूट  का ख़तरा पैदा हो  गया तो डॉ राम मनोहर लोहिया ने कई लेख लिखे और आग्रह किया कि कांग्रेस को टूट से बचाना राष्ट्रहित में था. . उन्होंने कहा कि आज़ादी की लड़ाई की सफलता के लिए महात्मा गांधी  नेतृत्व एक ज़रूरी शर्त है .  उन दिनों गांधी के विरोधी वैकल्पिक नेतृत्व की बात करते थे . जवाहर लाल और लोहिया ने इस सोच को गलत बताया और इसे नाकाम करने के लिए काम किया  .

नेहरू और लोहिया में मतभेद के लक्षण पहली बार दूसरे विश्वयुद्ध के समय नज़र आने शुरू हुए .लोहिया की अगुवाई में  कांग्रेस के विदेश विभाग ने एक परचा तैयार किया था जिसमें लोहिया ने कहा कि दुनिया को चार वर्गों में  बांटा जा सकता है .पहले में पूंजीपति, फासिस्ट और साम्राज्यवादी ताकतें. दूसरे में वे देश जो साम्राज्य वादियों की प्रजा देश हैं और उनसे  छुटकारा चाहते हैं ,तीसरा वर्ग रूस के साथियों का है  जिसके साथ जो आम तौर पर समाजवादी हैं और चौथा वर्ग वह है जो साम्राज्यवादियों , पूंजीवादियों और फासिस्टों के शोषण का शिकार होने के लिए अभिशप्त हैं .बस इसी सोच में नेहरू और लोहिया के विवाद की बुनियाद है . यूरोप के पूंजीवादी देशों के वामपंथी  अरब देशों और पूर्वी एशिया के संघर्षों को भी फासिस्टों का  समर्थक मानते थे . जवाहर लाल की रुझान इन यूरोपियन वामपंथियों के साथ थी .  बहर हाल यहाँ से विवाद शुरू हुआ तो वह आखिर तक गया और दुनिया जानती  है कि बाद के वर्षों में डॉ राम मनोहर लोहिया ने नेहरू की आर्थिक नीतियों की धज्जियां बार बार उड़ाईं और आखिर में उनकी पार्टी के खिलाफ जो आन्दोलन सफल हुए उन सब की बुनियाद में डॉ लोहिया की राजनीतिक आर्थिक सोच वाला दर्शनशास्त्र ही स्थायी भाव  के रूप में मौजूद रहा. लेकिन इसके बाद भी मधु लिमये की उस बात में बहुत दम है कि डॉ राम मनोहर लोहिया और जवाहर लाल नेहरू ने इस देश में गरीब आदमी की पक्षधरता की  राजनीति की बुनियाद डाली थी. 

Monday, November 4, 2013

नार्वे में हिटलर का एजेंट क्विजलिन दुनिया भर में देशद्रोह का समानार्थी माना जाता है .



शेष नारायण सिंह

नार्वे के  चुनाव कवरेज के दौरान वहाँ के इतिहास के बहुत सारे पक्ष समझ में आये . बहुत लोगों से दोस्ती हुई , नेताओं को करें से देखने का मौक़ा मिला और ऐसे लोगों से मुलाक़ात हुई जो जिंदादिली को प्रेरित करते हैं .ऐसी ही एक मित्र हैं इल्जा मेरी ढल . पेशे से आर्किटेक्ट हैं  . वे जब पैदा  हुईं तो जर्मन कब्जा खतम हो चुका था . जर्मन कब्जा शुरू होने पर उनके पिता अमरीका में आराम की ज़िंदगी बिता रहे थे लेकिन जब उन्होंने सुना कि उनके मुल्क नार्वे पर जर्मन सेना ने कब्जा कर रखा है   तो वे अपने  देश आ गए . सिविल इंजीनियर के रूप में अमरीका में  काम करते थे  लेकिन ओस्लो वापस आकर जर्मन कब्जे के खिलाफ आंदोलन में शामिल हो गए . बहुत यातनाएं झेलीं और उसी संघर्ष एक दौरान एक बहादुर साथी से शादी की . वह उम्र में उनसे बहुत छोटी थीं लेकिन लड़ाई में साथ साथ थीं . जब जर्मन सेना चली गयी तो हिटलर को तबाह करने के लिए जुटे हुए नार्वेजियन लोगों को किले के पास समुद्र के किनारे अस्थायी बैरक बना कर बसाया गया. नार्वे के मौसम को जो लोग जानते हैं उनको मालूम है कि कि बिना सही हीटिंग वाले घर में रहना कितना मुश्किल होता है लेकिन अपने देश को तानाशाही से आज़ाद कराने वालों का  हौसला इतना ज़बरदस्त था कि इन्होने कभी परवाह नहीं की. कुछ  वर्षों के अंदर ही तहस नहस कर दिए गए ओस्लो शहर में फिर से ज़िंदगी आ गयी और शहर बस गया . इल्जा बताती हैं कि शुरू में जिस घर में यह लोग रहते थे उसमें ज़रा सा भी पानी तुरंत बर्फ बन जाता था .नार्वे पर यह मुसीबात हिटलर ने डाली थी लेकिन उसका एजेंट विद्कुन क्विजलिन था . इस अधम को नार्वे क्या पूरी दुनिया का सभ्य समाज कभी भी माफ नहीं करेगा .

विद्कुन क्विजलिन नाजी इतिहास का एक ऐसा सितारा है जिसका नाम किसी को गाली देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है .नाजी तानाशाह हिटलर ने उसको पाल रखा था और नार्वे के लोगों को उसकी मार्फ़त ही नाजी आतंकवाद का सबक सिखाया था . जब हिटलर ने नार्वे पर कब्जा किया तो उसने इसी विद्कुन क्विजलिन को वहाँ का शासक बना दिया था . विद्कुन क्विजलिन  नार्वे की राजनीति में सक्रिय बहुत ही महत्वाकांक्षी राजनेता था लेकिन हिटलर के एजेंट के रूप में उसने अपने लोगों पर तरह तरह के अत्याचार किये और हिटलर की मनमानी का वाहक बना . यह भी सच है कि नाजियों की मनमानी को नार्वे की अवाम ने कभी स्वीकार नहीं किया लेकिन नार्वे की जनता के संघर्ष और विद्कुन क्विजलिन की तबाही एक ऐसा उदाहरण है जिसको बाद की दुनिया में इस बात का संकेत देने के लिए इस्तेमाल किया जायेगा कि अपने देश की तबाही के लिए किसी फासिस्ट तानाशाह का साथ नहीं देना चाहिए . विद्कुन क्विजलिन की कमीनगी ओस्लो शहर के हर कोने में नज़र आती है लेकिन आम तौर पर उसका ज़िक्र नहीं किया जाता . उसका घर आज होलोकास्ट म्यूज़ियम है और लोग उसके नाम पार थूकते हैं


इसी सितम्बर २०१३ में ओस्लो की यात्रा के दौरान  नार्वे के लोगों की जिंदादिली और उनकी इंसानियत के बहुत सारे किस्से मैं बयान करता रहा हूँ लेकिन जब किसी कौम पर हिटलर नाजिल होता है ,और उसी कौम के किसी महत्वाकांक्षी नेता को पकड़कर गद्दार बनाता है और  इंसानी ज़िंदगी को अँधेरे से भर देने की कोशिश करता है तो सभ्य लोगों की नार्वेजी कौम किस तरह से मुकाबला करती है ,  उसको समझने के लिए विद्कुन क्विजलिन  के कैरेक्टर को समझना ज़रूरी है . विद्कुन क्विजलिन  को तबाह करने और  हिटलर का मुकाबला करने के लिए  नार्वेजियन अवाम ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था . उस संघर्ष ने  इतिहास में नार्वेजी अवाम की बहादुरी को एक संगमील के रूप में स्थापित कर दिया है .जब नाजी जर्मन सेना ने नार्वे पर हमला किया तो यह क्विजलिन हिटलर से जा मिला और तख्ता पलट करके नार्वे की सत्ता हथिया ली. क्विजलिन वहाँ हिटलर के एजेंट के रूप में ही काम करता रहा .उसने सत्ता तो जर्मन सेना के आगमन के साथ ही १९४० में हथिया लिया था लेकिन हिटलर ने उसे बाकायदा मिनिस्टर प्रेसीडेंट बनाकार १९४२ में स्थापित किया . विद्कुन क्विजलिन  ने हिटलर के कुख्यात फाइनल सालुशन को लागू किया . हिटलर की तबाही के बाद विद्कुन क्विजलिन  पर मुकादमा चला और वह देशद्रोह का दोषी पाया गया . ओस्लो के एकरहुस किले में उसको फायरिंग स्क्वाड के सामने खडा करके गोली मारकर सज़ा दी गयी .

विद्कुन क्विजलिन कोई मामूली आदमी नहीं था . वह बहादुर था और नार्वे की सेना का भरोसेमंद अफसर था .अपनी सरकार की ओर से वह रूस भी गया था और नार्वे के हेलसिंकी दूतावास में भी उच्च पद पर काम कर चुका था . नार्वेजी समाज में उसकी इज्ज़त थी . एक बार तो नार्वे के सबसे सम्मानित व्यक्ति फ्रिदोफ़ नानसेन ने ही उसको सम्मान देकर यूक्रेन की राजधानी भेजा था . नानसेन  वह व्यक्ति हैं जो नार्वे के सबसे प्रिय खेल , स्कीइंग के बहुत बड़े नाम हैं और जिनको १९२२ का नोबेल शान्ति पुरस्कार मिल चुका है और जो आधुनिक नार्वे के संस्थापकों में माने जाते हैं . नानसेन की दोस्ती का विद्कुन क्विजलिन  ने बहुत जगहों पर फायदा उठाया . मई १९३० में नानसेन की मृत्यु के बाद उसने अखबारों में नानसेन के बाद की राजनीति की रूपरेखा लिखी और नार्वे के लोगों  को बताने की  कोशिश की कि किस तरह से नानसेन के सपनों का नार्वे बनाया जा सकता है  . लेकिन जब उनको अग्रेरियन  सरकार में रक्षा मंत्री बनने का मौका लगा तो नानसेन की विचारधारा को भूलकर वहाँ जा लगे. हर फासिस्ट तानाशाह की तरह विद्कुन क्विजलिन भी कम्युनिस्टों से नफरत करते थे . उसने कम्युनिस्टों से नफरत के कारण ही १९३३ में एक पार्टी बनायी और उसी राष्ट्रवादी पार्टी के साथियों को हिटलर की नार्वे योजना का हिस्सा बना दिया . उसकी नई पार्टी का नाम नैशनल समलिंग था और इसका नारा राष्ट्रीय एकता था. उसने प्रधानमंत्री पर सीधा हमला किया और नार्वे के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में पहचान बनायी . पूरे नार्वे में जहां भी वह जाता था उसकी जयजयकार होती थी  क्योंकि एक अलोकप्रिय प्रधानमंत्री को हटाने की बात को वह बहुत ही प्रभावशाली तरीके से कह रहा था . क्विजलिन की पार्टी भी जर्मनी की नाजी पार्टी की तरह एक व्यक्ति की अथारिटी को स्थापित करने की बात करती थी. उसने नारा दिया कि राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर एक नेता को समर्थन दिया जाए . ओस्लो के संभ्रांत वर्ग का समर्थन क्विजलिन को ज़बरदस्त तरीके से मिल रहा था और यह शक जताया का रहा था कि पूंजीपति वर्ग उसे बड़े पैमाने पर समर्थन दे रहे हैं क्योंकि उसके प्रचार में भारी धन खर्च होता साफ़ नज़र आ रहा था .
चुनाव के बाद साफ़ हो गया कि जितना प्रचार था क्विजलिन की पार्टी उतनी लोकप्रिय नहीं थी और उसके बाद उसने अपने तरीके के राष्ट्रीय समाजवाद की स्थापना के लिए काम शुरू किया .चुनाव में मिली असफलता के बाद क्विजलिन  बहुत गुस्से में रहता था . उसने अपने आपको विदेशी फासिस्ट पार्टियों के दोस्त के रूप में पेश करना शुरू किया . दिसंबर १९३४ में वह  अंतर्राष्ट्रीय फासिस्ट सम्मेलन में भी गया .वहाँ उसकी मुलाक़ात जर्मनी की नाजी पार्टी के नेताओं से हुई. १९३६ के चुनाव में उसको नार्वे के हिटलर के रूप में पहचान मिल चुकी थी . यही वह समय है जब हिटलर को पूरी दुनिया के राष्ट्रवादी लोग सम्मान की दृष्टि से देखते थे . भारत में भी राष्ट्रवादी विचारधारा वाले हिटलर की तारीफ़ में किताबें उसी दौर में लिखते पाए गए थे .
१९३६ के चुनाव में भी क्विजलिन की पार्टी बुरी तरह से हार गयी , खिसियाकर  उसने चुनाव के खिलाफ राजनीतिक बयान देना शुरू कर दिया . इस बीच १९३९ तक यूरोप में युद्ध की दस्तक सुनायी पड़ने लगी थी . उसने नारा दिया कि बोल्शेविज़्म और यहूदी राज से बचने के लिए नार्वे को हिटलर का साथ देना चाहिए .हिटलर ने क्विजलिन की पार्टी को खूब धन दिया और नार्वे में उसको अपने प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने की कोशिश शुरू कर दी .जर्मनी से धन मिलने के बाद क्विजलिन को भरोसा  हो गया कि आने वाले समय में वही देश का नेतृत्व करेगा .जब उसको बताया जाता कि उसकी पार्टी के पास तो कोई एम पी नहीं  है ,वह हंस कर टाल जाता .
१४ दिसंबर १९३९ को क्विजलिन ने जर्मनी जाकर हिटलर से मुलाक़ात की . हिटलर ने क्विजलिन की योजनाओं को गंभीरता से नहीं लिया लिए लेकिन उसको लगा कि आदमी काम का है . १८ दिसंबर को फिर दोनों  मिले और क्विजलिन को हिटलर के सहयोगी के रूप में भर्ती कर लिया गया .उसके बाद पूरे यूरोप में राजनीतिक गतिविधियां हिटलर के पक्ष  या विपक्ष में घूमती रहीं . ९ अप्रैल १९४० के दिन सुबह नार्वे के ऊपर जर्मन हमला हुआ , नार्वे के राजा और प्रधानमंत्री ने शहर छोड़ दिया था . उसी दिन  क्विजलिन ने नार्वे की एक नई सरकार बनायी और ९ अप्रैल को उसी सरकार ने जर्मन सेना का स्वागत भी कर लिया .लेकिन हिटलर ने देखा  कि क्विजलिन के खिलाफ लगभग सारा नार्वे है तो उसने उसे धोखा दे दिया और अपनी फौज के अधिकारियों के हाथ में सत्ता दे दी . क्विजलिन को बेईज्ज़त भी किया गया लेकिन बाद में उसको साथ लेकर जर्मन सेना ने काम शूरू किया . नार्वे के राजा ने हिटलर का कोई सहयोग नहीं किया . और उन्होंने अपनी प्रजा का आवाहन किया कि वह जर्मन कब्जे के खिलाफ  संघर्ष करे .
इस बीच १ फरवरी १९४२ के दिन क्विजलिन को जर्मनी ने मिनिस्टर प्रेसीडेंट बना दिया और  नार्वे की सत्ता उसको सौंप दी. लेकिन नार्वे की जनता ने उसको कभी स्वीकार नहीं किया उसका विरोध होता रहा. जर्मन सेना भी उसे कठपुतली की तरह नचाती रही और जब १९४५ में जर्मन सेना नार्वे छोड़कर भागी तो क्विजलिन तबाह हो चुका था.उसको गिरफ्तार किया गया ,उसके ऊपर मुकादमा चला और सुप्रीम  कोर्ट तक अपील की गयी . उसे दोषी पाया गया और समुद्र के किनारे स्थिति एकरहुस किले में फायरिंग स्क्वाड के सामने खड़े करके भून दिया गया .  उसकी पत्नी मारिया जीवित रहीं, १९८० में  उनकी  मृत्यु प्राकृतिक रूप से हुई . क्विजलिन  को राष्ट्रद्रोह के पर्याय के रूप में उसे इतिहास याद रखेगा . नार्वे के सहनशील समाज ने उसकी सकारात्मक  व्याख्या करने की कोशिश भी की है  लेकिन उसने नार्वे पर जो मुसीबत बरपा की थी और जिस तरह से नार्वे के लोगों ने उससे मुकाबला किया वह संघर्ष के इतिहास में अमर रहेगा 

Sunday, November 3, 2013

मुंबई का पृथ्वी थियेटर - जहां सपने अपनी मंजिल तलाशते हैं .




शेष नारायण सिंह

मैं जब भी मुंबई के पृथ्वी थियेटर जाता हूँ मुझे महान बुद्धिजीवी  जी पी देशपांडे की याद ज़रूर आ जाती है . शायद ऐसा इसलिए कि मुझे मालूम है कि इस थियेटर का उदघाटन उनके नाटक “उद्ध्वस्त धर्मशाला “ के मंचन से हुआ था . और जब वे इस नाटक के बाद दिल्ली वापस आये थे तो इसके बारे में बात की थी . विश्वविद्यालय की सड़क पर चलते हुए उन्होंने बताया था कि उन्हें कितनी खुशी हुई थी  . पी पी एच से निकल कर आते हुए उनसे मुलाक़ात  हुई थी . याद इसलिए अब तक बनी हुई है कि शब्द ‘उद्ध्वस्त धर्मशाला ‘ मुझे कहीं चिपक सा गया है . कभी इस अभिव्यक्ति को सुना नहीं था .कुछ लोग थे और उनके बीच जी पी देशपांडे . इस बार उनकी याद बहुत शिद्दत से आयी क्योंकि अभी कुछ दिन पहले उनका देहांत हो गया है . हो सकता है कि लोग पृथ्वी थियेटर को  पृथ्वीराज कपूर की याद में जानते हों लेकिन मेरे लिए यह एक निजी यादगार है . हालांकि पृथ्वीराज कपूर को भी मैं बहुत ही सम्मान से याद करता हूँ  लेकिन पृथ्वी पर आते ही मुझे जी पी डी की याद आ जाती है तो  क्या करूं ?
महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लोग  औरंगजेब को नहीं जानते थे लेकिन जब मराठी थियेटर के सबसे ताक़तवर अभिनेता प्राभाकर पंशीकर ने  औरंगजेब की भूमिका में गाँव गाँव में घूमकर नाटक प्रस्तुत करना शुरू किया तो लोग उनकी शख्सियत से जोड़कर औरंगजेब का तसव्वुर करने लगे. लगभग ऐसा ही आलम  मुग़ल बादशाह अकबर का है . हमारी और हमारी पहले की  पीढ़ी के ज़्यादातर लोग अकबर का वही तसव्वुर करते हैं जो के. आसिफ की फिल्म ‘मुगले-आज़म ‘ में दिखाया गया है . बहुत ही भारी भरकम आवाज़ में भारत के शहंशाह मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर के डायलाग हमने सुने हैं . अकबर का नाम आते ही उन लोगों के सामने तस्वीर घूम जाती है जिसमें  मुगले आज़म की भूमिका में पृथ्वीराज  कपूर को देखा गया है .
पृथ्वीराज कपूर अपने ज़माने के बहुत बड़े  अभिनेता थे. उन्हीं की याद में उनके बच्चों ने पृथ्वी थियेटर की इमारत स्थापना की . उनकी इच्छा थी कि पृथ्वी थियेटर को एक स्थायी पता दिया जा सके. इस उद्देश्य से उन्होंने १९६२ में ही ज़मीन का इंतज़ाम कर लिया था लेकिन बिल्डिंग बनवा नहीं पाए. १९७२ में उनकी मृत्यु हो गयी .ज़मीन  की लीज़ खत्म हो गयी .उनके बेटे शशि कपूर और जेनिफर केंडल ने से लीज़ का नवीकरण करवाया और आज पृथ्वी थियेटर पृथ्वीराज कपूर के सम्मान के हिसाब से ही जाना जाता है . श्री पृथ्वीराज कपूर मेमोरियल ट्रस्ट एंड रिसर्च फाउन्डेशन नाम की संस्था इसका संचालन करती है . इसके मुख्य ट्रस्ट्री शशि कपूर हैं और उनके बच्चे इसका संचालन करते हैं. आज मुंबई के सांस्कृतिक कैलेण्डर में पृथ्वी थियेटर का स्थान बहुत बड़ा है .

जब १९७८ में जेनिफर केंडल और उनके पति , हिंदी फिल्मों के नामी अभिनेता शशि कपूर ने इस जगह पर पृथ्वी का काम शुरू किया तो इसका घोषित उद्देश्य हिंदी नाटकों को एक मुकाम देना था .लेकिन अब अंग्रेज़ी नाटक भी यहाँ होते हैं .जेनिफर केंडल खुद एक बहुत बड़ी अदाकारा थीं और अपने पिता की नाटक कंपनी शेक्स्पीयाराना में काम करती थीं. पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी  थियेटर की स्थापना १९४४  में कर ली थी. सिनेमा की अपनी कमाई को वे पृथ्वी थियेटर के नाटकों में लगाते थे . अपने ज़माने में उन्होंने बहुत ही नामी नाटकों की प्रस्तुति की .शकुंतला ,गद्दार, आहुति, किसान, कलाकार कुछ ऐसे नाटक हैं जिनका हिंदी/उर्दू नाटकों के विकास में इतिहास में अहम योगदान है और इन सबको पृथ्वीराज कपूर ने ही प्रस्तुत किया था .थियेटर के प्रति उनके प्रेम को ध्यान में रख कर ही उनके बेटे और पुत्रवधू ने इस संस्थान को स्थापित किया था . मौजूदा पृथ्वी थियेटर का उदघाटन १९७८ में किया गया . पृथ्वी के मंच पर पहला नाटक “ उध्वस्त धर्मशाला “  खेला गया जिसको महान नाटककार ,शिक्षक और बुद्दिजीवी जी पी देशपांडे ने लिखा था . नाटक की दुनिया के बहुत बड़े अभिनेताओं , नसीरुद्दीन शाह  और ओम पूरी ने इसमें अभिनय किया था . पृथ्वी से मेरे निजी लगाव का भी यही कारण है .अब तो खैर जब भी मुंबई आता हूँ यहाँ टहलते हुए ही चला आता हूँ क्योंकि यह मेरे बच्चों के घर के बहुत पास है .पृथ्वी का दूसरा नाटक था बकरी , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के इस नाटक को इप्टा की ओर से एम एस सथ्यू ने निर्देशित किया था . यह वह समय है जबकि मुंबई की नाटक की दुनिया में हिंदी नाटकों की कोई औकात नहीं थी लेकिन पृथ्वी ने एक मुकाम दे दिया और आज अपने सपनों को एक शक्ल देने के लिए मुंबई आने वाले बहुत सारे संघर्षशील कलाकार यहाँ दिख जाते हैं .पृथ्वी के पहले मुंबई में अंग्रेज़ी, मराठी और गुजराती नाटकों का बोलबाला हुआ करता था लेकिन पृथ्वी थियेटर की स्थापना के ३५ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है . अब हिंदी के नाटकों की अपनी एक पहचान है और मुंबई के हर इलाके में आयोजित होते है .
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Saturday, November 2, 2013

बस्तर संभाग में नरेंद्र मोदी को कोई नहीं जानता,यहाँ रमन सिंह बीजेपी के सबसे बड़े नेता हैं


शेष नारायण सिंह 

जगदलपुर, २७ अक्टूबर . छत्तीसगढ़ विधान सभा के चुनावो के बाद रायपुर में बनने वाली सरकार के गठन में बस्तर संभाग की १२ सीटों का महत्व सबसे ज़्यादा है . बाकी इलाके में तो कांग्रेस और बीजेपी की स्थिति लगभग बराबर ही रहती है . पिछली विधान सभा में बस्तर संभाग की बीजेपी की ११ सीटों के कारण ही रमन सिंह दुबारा मुख्यमंत्री बन सके थे  . लेकिन  बस्तर क्षेत्र में रहने वाला हर इंसान जानता है कि इस बार बीजेपी की ११ सीटें नहीं आ रही है . यहाँ तक कि बीजेपी के कार्यकर्ता भी जानते हैं कि उनकी पार्टी की हालत इस बार उतनी अच्छी नहीं है जितनी पिछली बार थी. पिछली बार बस्तर में लखमा कवासी इकलौते कांग्रेसी उम्मीदवार थे जो कोंटा से विजयी रहे थे. कांग्रेसी उम्मीद कर रहे थे कि जीरम घाटी में मारे गए महेंद्र कर्मा के परिवार के किसी उम्मीदवार को टिकट दे देने से उसे सहानुभूति का लाभ मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं है .उसी तरह दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेता समझ रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की आक्रामक हिंदू नेता की छवि का लाभ पार्टी को मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं है .कई इलाकों में तो लोगों ने नरेंद्र मोदी का नाम भी नहीं सुन रखा है .इस इलाके में बीजेपी का एक ही नेता है और उसका नाम है रमन सिंह .

बस्तर संभाग में २००८ के चुनाव में  ११ सीटें जीतकर रमन सिंह ने सरकार बना ली थी. यहाँ के हर जानकार ने बताया कि इस इलाके में आदिवासियों और सतनामियों के बीच कांग्रेस नेता अजीत जोगी की पहचान  है और  बीजेपी की ११ सीटों  की जीत में अजीत जोगी की खासी भूमिका थी क्योंकि उन्होंने अपने आपको बड़ा नेता साबित करने के लिए अपने विरोधी गुट के कांग्रेसी उम्मीदवारों के खिलाफ काम किया था . लेकिन इस बार ऐसा नहीं है . इस बार अजीत जोगी कांग्रेस के उम्मीदवारों के खिलाफ काम नहीं कर रहे हैं . बस्तर संभाग की ११ सीटें रिज़र्व हैं जबकि जगदलपुर की सीट सामान्य है . यहाँ से कांग्रेस ने शामू कश्यप को उम्मीदवार बनाया है . कांग्रेस के एक बहुत ही ज़िम्मेदार नेता ने बताया कि यह कांग्रेस आलाकमान की चूक है . शामू कश्यप महरा जाति के हैं .उनकी जाति के लोगों की बहुत वर्षों से मांग है कि उनको अनुसूचित जनजाति का दरजा दिया जाए लेकिन अनुसूचित जनजाति के लोग इस मांग का विरोध कर रहे हैं . उनको डर है कि अगर महरा जाति को  अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा मिल गया तो वे सारे लाभ हथिया लेगें क्योंकि महरा जाति के लोग अपेक्षाकृत चालाक बताए जाते हैं . गाँवों में जो भी छोटे मोटे कारोबार हैं सब इनके पास ही हैं . कांग्रेस को उम्मीद है कि महरा जाति के करीब दो लाख वोट उनको एकतरफा मिल जायेगें लेकिन इस गणित से बीस लाख के करीब मुरिया,गोंड,राउत और घसिया आदिवासी नाराज़ भी हो सकते हैं .बताते हैं कि  कांग्रेस की इस राजनीतिक अनुभवहीनता का लाभ उठाने के लिए बीजेपी ने अपने वनवासी कल्याण परिषद वालों के ज़रिये बहुसंख्यक आदिवासियों को सचेत करना शुरू कर दिया है . ऐसी हालत में जगदलपुर के मौजूदा विधायक संतोष बाफना को लाभ मिलने की स्थति पैदा हो गयी है .यहाँ कांग्रेस और बीजेपी दोनों को ही बागियों का सामना करना पड़  रहा है . बीजेपी के राजाराम तोडेम स्वाभिमान मंच से लड़ रहे हैं तो सेठिया समाज के राम केसरी कांग्रेस से नाराज़ होकर बागी हो गए हैं इस इलाके में सेठिया समाज के वोटों की खासी संख्या है .ज़ाहिर है कि यह बीजेपी को फायदा पंहुचा सकते हैं .

इस बार बस्तर सम्भाग की दो सीटों पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार मजबूती से लड़ रहे हैं . कोंटा में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के अध्यक्ष ,मनीष  कुंजाम मज़बूत हैं जबकि उनकी पुरानी सीट दंतेवाड़ा में उनकी पार्टी के उम्मीदवार बोमड़ा राम कवासी की हालत बहुत अच्छी है . दंतेवाडा सीट इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहाँ से कांग्रेस ने महेंद्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को टिकट दिया है . कांग्रेस ने उम्मीद की थी कि महेंद्र कर्मा की जिस तरह से माओवादियों ने जीरम घाटी में ह्त्या की थी उससे सहानुभूति  मिलेगी लेकिन दंतेवाड़ा में ऐसा कुछ नहीं दिखता.  देवती कर्मा से किसी को सहानुभूति नहीं है . उनके दो बेटे इलाके में ऐसी ख्याति अर्जित कर चुके  हैं जिसके बाद किसी को भी सहानुभूति नहीं मिलती. उनका एक बेटा अभी भी नगर पंचायत का अध्यक्ष है जबकि दूसरा जिला पंचायत का भूतपूर्व अध्यक्ष है. दोनों ने ही इलाके के लोगों को बहुत परेशान कर रखा है . सलवा जुडूम के हीरो के रूप में भी महेंद्र कर्मा की  पहचान थी जिसके कारण आदिवासी इलाकों  में उन्हें बीजेपी के एजेंट के रूप में पहचाना जाता है . आम आदिवासी महेंद्र कर्मा को नापसंद करता है  हालांकि केन्द्र सरकार और उनेक सहयोगी उन्हें बस्तर का शेर बनाकर पेश करने की कोशिश करते हैं . दंतेवाड़ा से महेंद्र कर्मा २००८ में खुद कांग्रेस उम्मीदवार थे और तीसरे नंबर पर रहे थे . यहाँ कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे नंबर पर थी . उस बार यहाँ के उम्मीदवार मनीष कुंजाम थे . कम्युनिट पार्टी के प्रचार में दिन रात एक कर रहे पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य सी आर बख्शी ने बताया कि उनका उम्मीदवार गैर आर एस एस समुदाय में बहुत लोकप्रिय है .यहाँ की लड़ाई अभी शुद्ध रूप से सी पी आई और बीजेपी के बीच है . दिल्ली में कांग्रेस के एक बड़े नेता ने भी बताया कि दंतेवाड़ा में सी पी आई का उम्मीदवार बहुत मजबूत है .

कोंटा सीट पर  सी पी आई के मनीष कुंजाम खुद उम्मीदवार हैं . उनकी इज्ज़त सभी वर्गों में है . जब माओवादियों ने सुकमा के कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन का अपहरण कर लिया था  तो उनकी रिहाई के लिए जो कोशिशें हुई थीं उनमें मनीष कुंजाम ने जो भूमिका निभाई थी उसकी सभी सराहना करते हैं . माओवादियों के बीच भी उनकी इज्ज़त है . आदिवासी समुदाय उनके साथ है लेकिन एक शंका यह जतायी जा रही है कि रमन सिंह की सरकार कम्युनिस्ट उम्मीदवारों को नहीं जीतने देगी चाहे उसे कांग्रेस के पक्ष में ही बीजेपी के अपने वोट ट्रांसफर करना पड़े. बस्तर सम्भाग से इकलौते कांग्रेसी एम एल ए , कवासी लखमा भी कोंटा में उम्मीदवार हैं . लेकिन उनकी हालत खस्ता बतायी जा रही है . यह सीट सी पी आई को मिल सकती है .

बीजेपी के बस्तर क्षेत्र के विधायकों के खिलाफ जनरल माहौल है .चित्रकोट के बीजेपी उम्मीदवार बैदूराम कश्यप हैं जो विधायक भी हैं . यह कभी भी अपने क्षेत्र में नहीं गए. इनके क्षेत्र की सबसे बड़ी पंचायत कूकानार है , इसमें करीब आठ हज़ार वोट हैं . बस्तर के हिसाब से यह बहुत बड़ा वोट बैंक है .बीजेपी की जीत में इस इलाके का भारी योगदान रहता  है  लेकिन चुनाव जीतने के बार बैदूराम यहाँ एक बार भी नहीं गए. कूकानार में उनके खिलाफ सभी लोग हैं और उनको हराने के लिए वोट करने वाले हैं . उनका विरोध उनकी ही पार्टी के लच्छूराम कश्यप कर रहे हैं . लच्छूराम अभी जिला पंचायत के अध्यक्ष है और बीजेपी के टिकट के मज़बूत दावेद्दार थे . उन्होने बताया कि अगर इस बार भी बैदूराम जीत गए तो वह जड़ पकड़ लेगें और जिले में उनकी जो राजनीतिक हैसियत है वह खत्म हो जायेगी . हालांकि कांग्रेस उम्मीदवार के खिलाफ भी बागी उम्मीदवार हैं लेकिन कांग्रेस का उम्मीदवार दीपक बैज नया खिलाड़ी है और बैदूराम पर भारी पड़ रहा है.

कांकेर विधानसभा क्षेत्र में बीजेपी ने अपनी विधायक सुमित्रा मारकोले की जगह पर संजय कोडोपी को टिकट दिया है। बीजेपी  कार्यकर्ताओं में नाराज़गी है. संजय कोडोपी बहुत ही अलोकप्रिय है  और पार्टी में  बगावत के कारण उनके पाँव नहीं जम पा रहे हैं।  कांग्रेस के शंकर धुर्वा उम्मीदवार हैं और उनके परिवार की इज़ज़त है।  बीजेपी के कार्यकर्ता भी कहते देखे गए कि श्यामा धुर्वा की जो गुडविल है शंकर को उसका लाभ मिल सकता है। 

अंतागढ़ में बीजेपी के उम्मीदवार विक्रम उसेंडी हैं।  इंकमबेंसी की असली मार झेल  रहे हैं।  पिछले पांच साल के उनके काम से नाराज़ लोगों की बड़ी संख्या है। उनसे नाराज़ होकर उनकी पार्टी के ही प्रभावशाली नेता , भोजराज नाग निर्दलीय लड़ रहे हैं। लेकिन  विक्रम उसेंडी के पास भी साधनों की कोई कमी नहीं है।  उन्होंने भोजराज नाग नाम के एक और उम्मीदवार को खड़ा कर दिया है।  पिछले बार विक्रम उसेंडी १०९ वोट से जीते थे।  ज़ाहिर है कि उनका मुक़ाबला मुश्किल है।  कांग्रेस के उम्मीदवार मंतूराम पवार इलाक़े में सम्मानित व्यक्ति है और उसको मंत्री जी की दुर्दशा का लाभ मिल रहा है। इसी क्षेत्र में ढाका से १९५० के दशक में आये हुए शरणार्थियों की बस्ती भी है।  नामशूद्र जाति के यह लोग अविभाजित बंगाल में दलित वर्ग के माने जाते थे ।  लेकिन यहाँ उनको दलित नहीं माना जा रहा है। उनकी बहुत दिनों से मांग है कि उन्हें अनुसूचित वर्ग में रखा जाए।  लेकिन केंद्र की सरकार इस बात को हमेशा से टाल रही है।  इस बार विक्रम उसेंडी ने उनको भरोसा दिला दिया है कि उनको अनुसूचित जाति की श्रेणी में वे करवा देगें। उनकी बात पर पंखाजोर के इस इलाक़े में सही माना जा रहा है।  इस बात की सम्भावना है कि विक्रम उसेंडी को यह सारे  वोट मिल जायेगें।  अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस उम्मीदवार की सारी अच्छाई का बावजूद भी यह सीट बीजेपी के हाथ लगेगी क्योंकि नामशूद्रों के यहाँ क़रीब आठ हज़ार वोट हैं।  और जहां १०९ वोट से हारजीत का फैसला हो रहा हो वहाँ आठ हज़ार वोटों का बहुत अधिक महत्व है।  

केशकाल बस्तर सम्भाग की एक अन्य महत्वपूर्ण सीट है।  जहां बीजेपी के विधायक सेवक राम नेताम फिर मैदान में हैं।  पांच साल का उनका कार्यकाल आलोचना का विषय है ।  उनके खिलाफ अजीत जोगी का बन्दा संतराम नेताम कांग्रेस की तरफ से उमीदवार है।  संतराम को बाहरी माना जा रहा है लेकिन सेवकराम निष्क्रिय रहे हैं इसलिए संतराम की स्थिति मज़बूत है।  यहाँ कांग्रेस की अगर हार हुयी तो उसमें स्वाभिमान मंच के उम्मीदवार  का भारी योगदान होगा क्योंकि वह यहाँ बीजेपी की मदद कर रहा है और कांग्रेस के वोट काट रहा है।  

बीजापुर में कांग्रेस ने विक्रम मंडावी को उतारा है लेकिन उनको टिकट मिलने से बहुत सारे कांग्रेसी नाराज़ हैं।  ज़िला पंचायत की अध्यक्ष और कांग्रेस की नेता , नीना रावतिया भी टिकटार्थी थीं और अब कांग्रेसी उम्मीदवार का विरोध कर रही हैं। इस टिकट से नाराज़ कुछ लोगों ने बीजेपी भी ज्वाइन कर लिया है। यहाँ बीजेपी के उमीदवार महेश गागड़ा हैं। ।  राजाराम तोड़ेम भी यहाँ से बीजेपी का टिकर मांग रहे थे।  लेकिन अब नाराज़ हैं और स्वाभिमान मंच में शामिल हो गए हैं।  वे जगदल पुर से पर्चा भर चुके हैं और वहाँ बीजेपी के संतोष बाफना की लड़ाई को कठिन बना रहे हैं। 

भानु प्रतापपुर में बीजेपी विधायक ब्रह्मानंद नेताम को टिकट काट दिया गया है।  उनकी जगह पर नौजवान सतीश लाठिया लड़ रहे हैं।  बीजेपी के कई नेता उनके खिलाफ हैं।  ब्रह्मानंद भी विरोध में काम कर रहे हैं लेकिन बीजेपी के रायपुर के नेताओं को उम्मीद है कि बात बन जायेगी  .  बीजेपी नेता रुक्मिणी ठाकुर तो लाठिया को हारने का मन बना चुकी हैं।  कांग्रेस के उम्मीदवार मनोज मंडावी हैं।  यहाँ कांग्रेस बहुत मज़बूत नहीं है इसलिए उनके खिलाफ भितरघात का ख़तरा नहीं है. बस्तर सम्भाग के जितने बीजेपी नेताओं से बात हुयी सबी इस  सीट पर कांग्रेस की जीत की बात करते पाये गए। 

कोंडागांव बीजेपी की मज़बूत सीट है।  वहाँ से पूर्व सांसद मनकूराम सोढ़ी के बेटे शंकर सोढ़ी  निर्दलीय उम्मीदवार हैं और कांग्रेसी उम्मीदवार मोहन मरकाम की लड़ाई को बहुत कठिन बना रहे हैं।  पिछली बार भी मोहन मरकाम अच्छा लड़े थे और बहुत मामूली अंतर से हारे थे।  लेकिन इस बार शंकर सोढ़ी के कारण वर्त्तमान विधायक लता उसेंडी की स्थिति मज़बूत है।  आज की हालत अगर  चुनाव के दिन तक बनी रही तो यह सीट बीजेपी की हो जायेगी लेकिन अगर शंकर सोढ़ी मान गए तो कांग्रेस के खाते में जा सकती है।  केंद्रीय कांग्रेस नेताओं ने बताया कि शंकर सोढ़ी  को लोकसभा लड़ने के लिए कहा जा रहा है।  अगर यह सम्भव हुआ तो यहाँ से कांग्रेस की जीत की सम्भावना बहुत अधिक हो जायेगी।  

नारायणपुर में मंत्री केदार कश्यप बहुत मज़बूत हैं।  रमन सिंह सरकार में मंत्री हैं।  आदिवासी विभाग के मंत्री हैं , बहुत संपन्न हैं और कांग्रेसी उम्मीदवार , चन्दन कश्यप पर बहुत भारी पड़ रहे हैं। जबकि बस्तर विधानसभा क्षेत्र दोनों पार्टियों में भितरघात है।  बीजेपी विधायक सुभाऊ कश्यप के खिलाफ कांग्रेस ने डॉ लखेश्वर  बघेल को टिकट दिया है  जो मज़बूत माने जा रहे हैं।  
बस्तर सम्भाग में राहुल गांधी या नरेन्द्र मोदी का कहीं भी कोई ज़िक्र नहीं है। सारा चुनाव आदिवासियों  के मुक़ामी मुद्दों पर लड़ा जा रहा है।  पूरे क्षेत्र में नरेद्र मोदी का कोई पोस्टर नहीं दिखा  जबकि कांग्रेसियों ने जगह राहुल गांधी, सोनिया गांधी और डॉ मनमोहन सिंह के पोस्टर लगा ऱखे हैं।  यहाँ रमन सिंह नरेंद्र मोदी से बड़े नेता के रूप में जाने जाते हैं। 

Thursday, October 31, 2013

मधु लिमये ने सरदार पटेल को धर्मनिरपेक्षता का महान प्रणेता बताया था

ek puraana lekha






शेष  नारायण सिंह 

मधु लिमये होते तो ९० साल के हो गए होते . मुझे मधु  जी के करीब आने का मौक़ा १९७७ में मिला था जब वे लोक सभा के लिए चुनकर दिल्ली  आये थे. लेकिन उसके बाद दुआ सलाम तो होती रही लेकिन अपनी रोजी रोटी की लड़ाई में मैं बहुत व्यस्त हो गया. . जब आर एस एस ने  बाबरी मस्जिद के मामले को गरमाया तो पता नहीं कब मधु जी से मिलना जुलना लगभग रोज़ ही का सिलसिला बन गया .  इन दिनों वे सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके थे और लगभग पूरा समय लिखने में लगा रहे थे. बाबरी मस्जिद के बारे में आर एस एस और बीजेपी वाले उन दिनों सरदार पटेल के हवाले से अपनी बात कहते पाए जाते थे. हुम लोग भी दबे रहते थे क्योंकि सरदार पटेल को कांग्रेसियों का एक वर्ग भी साम्प्रदायिक बताने की कोशिश करता रहता था. उन्हीं दिनों मधु लिमये ने मुझे बताया था कि सरदार पटेल किसी भी तरह से हिन्दू साम्प्रदायिक नहीं थे. 
 दिसंबर १९४९ में  फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर के के नायर की साज़िश के बाद बाबरी मस्जिद में भगवान् राम की मूर्तियाँ रख दी गयी थीं . केंद्र सरकार बहुत चिंतित थी . ९ जनवरी १९५० के दिन  देश के गृह मंत्री ने रूप में सरदार पटेल ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था. पत्र में साफ़ लिखा है कि " मैं समझता हूँ कि इस मामले दोनों सम्प्रदायों के बीच आपसी समझदारी से हल किया जाना चाहिए . इस तरह के मामलों में शक्ति के प्रयोग का कोई सवाल नहीं पैदा होता... मुझे यकीन है कि इस मामले को इतना गंभीर मामला नहीं बनने देना चाहिए और वर्तमान अनुचित विवादों को शान्ति पूर्ण तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए ." 

मधु जी ने बताया कि सरदार पटेल इतने व्यावहारिक थे किउन्होने मामले के भावनात्मक आयामों  को समझा और इसमें मुसलमानों की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया . उसी दौर में मधु लिमये ने बताया था कि बीजेपी किसी भी हालत में सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू का विरोधी नहीं साबित कर सकती क्योंकि महात्मा जी से सरदार की जो अंतिम बात हुई थी उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि जवाहर ;लाल से मिल जुल कर काम कारण है . सरदार पटेल एन महात्मा जी की अंतिम इच्छा को हमेशा ही सम्मान दिया ..

मधु लिमये हर बार कहा करते थे कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था . धर्मनिरपेक्षता  भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा राजनेताओं को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी . महात्मा गाँधी के दो बहुत बड़े अनुयायी जवाहर लाल नेहरू और  कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने धर्मनिरपेक्षता को इस देश के मिजाज़ से बिलकुल मिलाकर राष्ट्र की बुनियाद रखी.

मधु जी बताया करते थे कि कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" 

सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता।
बाद में  इन चर्चाओं के दौरान हुई  बहुत  सारी बातों को मधु लिमये ने अपनी किताब ," सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता " में विस्तार से लिखी भी हैं . १९९४ में जब मैंने इस किताब की समीक्षा लिखी तो मधु जी बहुत खुश हुए थे और उन्होंने संसद के पुस्तकालय से मेरे लेख की फोटोकापी लाकर मुझे दी और कहा कि सरदार पटेल के बारे के जो लेख तुमने लिखा है वह बहुत  अच्छा है . मैं अपने लेखन के बारे में उनके उस बयान को अपनी यादों की सबसे बड़ी धरोहर मानता हूँ जो उस महान व्यक्ति ने मुझे उत्साहित करने के लिए दिया था 

जिस दिन इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी.



शेष नारायण सिंह

३१ अक्टूबर १९८४ ,नई दिल्ली. सुबह साढ़े नौ बजे के आस पास मेरे मित्र राम चन्द्र सिंह का फोन आया कि इंदिरा गांधी को उनके घर में ही किसी ने गोली मार दी है . इलाज के लिए आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेज में ले जाई गयी हैं . हम सफदरजंग इन्क्लेव में रहते थे. बाहर निकल कर उसी पैजामे कुर्ते में सामने खड़े एक आटोरिक्शा पर बैठ  गए . किराया दो रूपया होना चाहिए था लेकिन उसने पांच रूपये मांगे .हाँ कर दी और मेडिकल इंस्टीट्यूट पंहुच गए. कोई भीड़ नहीं थी इंदिरा गांधी के घर पर रहने वाले लोग ही रहे होंगें . कुछ पुलिस वाले , कुछ डाक्टर और कोई नहीं . पता चला कि आपरेशन थियेटर में  ले जाई गयी  हैं . कर्मचारी संगठन के मिश्र जी नज़र आये .मैंने पूछा कि  इंदिरा जी की कैसी हाल चाल है . उन्होंने बताया कि हाल चाल कैसी होगी . सैकड़ों  गोलियाँ लगी हैं . शरीर छलनी है . मैंने पूछा बच तो जायेगीं ? उन्होंने कहा कि यह सवाल मूर्खता भरा है . इंदिरा जी की बाडी ही अस्पताल लाई गयी थी. मैं इंदिरा गांधी का बहुत प्रशंसक कभी नहीं रहा लेकिन मुझे याद है किमैं बहुत तकलीफ से घिर गया .लगा कि अब तूफ़ान आ सकता है . वहीं बैठ गया . बहुत देर बैठा रहा . नेताओं का आना जाना शुरू हो चुका था .अरुण नेहरू पूरे कंट्रोल में थे ,कुछ देर बाद ऊपर जाकर देखा. अंदर कमरे में इंदिरा गांधी का मृत शरीर और बाहर उनकी सरकार के मंत्री खड़े बातचीत कर रहे थे. कुछ देर बाद पुलिस वालों ने फालतू लोगों को हटा दिया. लेकिन अभी किसी को बताया नहीं गया था कि इंदिरा गांधी की मृत्यु हो चुकी थी.
मैं बाहर आ गया .सड़क पर भीड़ इकट्ठा होने लगी थी. लेकिन चारों तरफ सन्नाटा था . लगता है कि सब को मालूम था कि अंदर क्या हो गया था. पुलिस अधिकारी गौतम कौल नज़र आये . उनके चेहरे पर बहुत तकलीफ थी जो आम तौर पर पुलिस वालों के चेहरे पर नहीं होती ,वीय तो ड्यूटी कर रहे होते हैं . लेकिन गौतम की आँखे बहुत भारी थीं. वे इंदिरा जी के रिश्तेदार भी हैं .मुझे याद है उन्होंने किसी थानेदार को बुलाया और कहा  कि एम्स और सफदरजंग अस्पताल के बीच वाली सड़क को खाली करवा लो. जो कारें खड़ी हैं , उनको क्रेन वगैरह से हटवा दो . अब तक भीड़ आना शुरू हो चुकी थी. पास में ही अर्जुन दास का दफ्तर था .उसके लोग बड़ी संख्या में मौजूद थे और धीरे धीरे शोरगुल का माहौल बन रहा था . मैं अपने घर चला आया और तैयार होकर काम पर चला गया .
शाम को बस में बैठे हुए मैंने आकाशवाणी की छ बजे की बुलेटिन सुनी कि राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गयी है. मैं सन्न रह गया . मुझे लगा कि राजीव गांधी को सरकार में रहने का एक दिन का भी अनुभव नहीं है ,अभी दो साल पहले राजनीति में सक्रिय हुए हैं,यह क्या हो गया .  सरकार के अंदर  मौजूद स्वार्थतंत्र तो उनसे बहुत सारे उलटे सीधे  काम करवा लेगा. बाद की घटनाएं बताती हैं को मेरा डर सही था.  बहरहाल अब तो हो चुका था . अपने दोस्त जनार्दन सिंह के यहाँ पंहुचा . वहाँ से घर आते हुए मैंने आर के पुरम और सफदरजंग इन्केल्व के बीच में कई जगह देखा  कि अर्जुन दास के लोग सिखों को मार रहे हैं . मेरे मोहल्ले के कोने में एक  घर था जिसपर बख्शी लिखा था , वह आग के हवाले हो गया था. किसी तरह घर पंहुचा . लेकिन मोहल्ले में ही सिखों के घरों की पहचान करके आग लगाई जा रही थी. मेरे मित्र आशुतोष वार्ष्णेय वहीं पड़ोस में अमिता और सतीश के घर पर रहते थे . उन्होएँ भी दिनमें शहर में तनाव देखा था. शहर से लौटकर उन्होंने जो वर्णन किया हो दिल दहला देने वाला था.

अगले दिन आशुतोष के स्कूटर पर बैठकर शहर में निकले .  लेडी श्रीराम कालेज के पीछे लाजपत भवन में रोमेश थापर ,कुलदीप नैयर और धर्मा कुमार की अगुवाई में लोग  जमा हो रहे थे . पता लगा कि अर्जुन दास ,एच के एल भगत, ललित माकन और सज्जन कुमार के इलाकों में खूब क़त्ल-ओ-गारद हुआ है . हम लोग त्रिलोकपुरी  की तरफ एक टेम्पो में बैठकर गए. वहाँ की तबाही दिल दहला देने वाली थी. बहुत सारे लोगों के घर जला दिए गए थे , लोगों के परिवार वालों को मार डाला गया था. सब कुछ बिलकुल संगठित रूप से हो रहा था.. कनिष्क होटल में हमारे दोस्त आर सी सिंह मैनेजर थे . उनके पास  गए और उन्होने  पूरी दिल्ली में हुई तबाही का हाल बताया . शाम को घर आया तो मेरे मोहल्ले में भारी तबाही नज़र आयी. अर्जुन दास का इलाका है ,सिखों के घरों को चुन चुन कर तबाह किया गया था .  आई आई टी के प्रोफ़ेसर दिनेश मोहन के साथ उनकी फिएट कार में मैं और आशू कई जगह गए और आजतक मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि इंदिरा जी की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था . दिल्ली में तो सारा खून खराबा प्रायोजित था . राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन चुके थे और दिल्ली के रिवाज़ के हिसाब से अपने आपको उनका वफादार साबित करने के लिए मुकामी कांग्रेसी नेताओं ने खूनखराबा करवाया था.         

Wednesday, October 16, 2013

रतनगढ़ हादसे में पुलिस ने दानव रूप अख्तियार किया



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, १५ अक्टूबर रतनगढ़ से जो ख़बरें आ रही हैं वे तो यह साबित कर दे रही हैं कि हैवानियत ने उस मंदिर के क्षेत्र में अपनी सारी कला का प्रदर्शन किया . देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार में खबर छपी है कि पुलिस वालों ने घायल बच्चों को नदी में फेंक दिया .जो बात हैरत अंगेज है वह यह कि  यह बच्चे जब  नदी में फेंके गए तो जिंदा थे . जो बच्चे नदी में फेंके गए थे उनमें से छः को तो दतिया की राजुश्री यादव ने बचा लिया और पांच बच्चों को उनके माता पिता के हवाले कर दिया . एक बच्ची अभी भी उनके पास है जो सारी रात  रोती रही .उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि इउस बच्ची को कहाँ ले जाएँ . एक अन्य चश्मदीद ने बताया है कि उसने ट्रकों में  भरकर पुलिस वालों को करीब पौने दो से लाशें ले जाते देखा ,उनको पता नहीं कि उन लाशों को कहाँ ले जाकर फेंक दिया गया . जब संवाददाता ने मध्य प्रदेश के पुलिस महानोदेशक ने पूछा कि यह वहशत क्यों की गयी तो उन्होने इन आरोपों को खारिज नहीं किया बल्कि कहा कि इन आरोपों की जांच हो रही है और अगर कुछ गलत पाया गया तो निश्चित रूप से कार्रवाई की जायेगी . नदी में बच्चों को फेंकने की और भी बहुत सारी ख़बरें आ रही हैं और सरकार की तरफ से पूरी कोशिश की जा रही है कि कि मामले को दबा दिया जाए .
यह शर्मनाक है .रतनगढ़ में हुए हादसे को किसी तरफ से देखें सरकार की अक्षमता सामने आती है . दतिया में २००६ में भी बीजेपी के शासन के दौरान रतनगढ़ में ही इसी जगह ५० से ज़्यादा लोग कुचले गये थे .लेकिन सरकार ने ऐसा कोई क़दम नहीं उठाया कि मंदिर की तरफ जाने वाले एक पुल के अलावा और कोई वैकल्पिक रास्ता बना दिया जाए . ज़रूरी यह था  कि धार्मिक लोगों  को सुरक्षित मंदिर तक पंहुचाने के लिए सरकार कोई और उपाय करती. लेकिन कुछ नहीं किया गया  .इस तरह सरकार का बहुत ही गैरजिम्मेदार चेहरा सामने आता  है .

राज्य के लोगों में तीर्थयात्रा की  भावनाओं को भी शिवराज सरकार ने खूब हवा दिया है. ग्रामीण भारत में सबकी इच्छा  होती है कि तीर्थदर्शन करे. मध्यप्रदेश की सरकार ने सरकारी खर्चे पर एक स्कीम चलाई है जिसमें ६० साल से अधिक के लोगों को तीर्थयात्रा के लिए सरकारी खजाने से मदद दी जाती है .मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन योजना नाम की यह स्कीम गरीब आदमियों के ऊपर मुख्यमंत्री का एहसान लाद देने के उद्देश्य से चलाई गयी है . जब यह योजना शुरू हुई थी बीजेपी के कई नेताओं ने बताया था कि इस योजना के बाद ग्रामीण मध्यप्रदेश में कोई भी व्यक्ति शिवराज सिंह चौहान को हर बार मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहेगा . मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन योजना  के कारण ग्रामीण इलाकों में तीर्थयात्रा के प्रति  जो माहौल बना है उसके बाद किसी भी तीर्थस्थान पर जाने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है .. मध्यप्रदेश सरकार ने लोगों को  तीर्थस्थानों तक जाने के लिए प्रेरित तो कर दिया लेकिन उसके लिए ज़रूरी सुविधाओं का विकास नहीं किया . यह बात बार बार उठायी जाती रही है लेकिन इस बार रतनगढ़ के हादसे के बाद यह और तेज़ी से रेखांकित हो गयी है . मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को चाहिए कि इन हादसों की जिम्मेदारी लें और  नवंबर में अगर वे दुबारा मुख्यमंत्री बंटे हैं तो उनको चाहिए कि हर तीर्थस्थान पर बुनियादी सुविधाओं की स्थापना भी मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन योजना के एक कार्यक्रम के रूप में शुरू करें .

अजीत जोगी कांग्रेस आलाकमान की अरदब में ,कांग्रेसियों को जिताने के लिए काम करेगें

शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,१५ अक्टूबर . छत्तीसगढ़ की चुनावी राजनीति में भारी परिवर्तन हुआ है . अब तक कांग्रेस के हर नेता को दरकिनार करके खुद और अपने परिवार को सुर्ख़ियों में रखने की कोशिश कर रहे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी अब आलाकमान के सुझाव मान गए हैं . खबर है कि कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें भरोसा दिला दिया है कि अगर कांग्रेस की जीत हुई तो मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी को प्राथमिकता दी जायेगी .  बताया गया है कि अजीत जोगी भी अब इस बात पर राजी हो  गए हैं कि वे राज्य में मुख्यमंत्री रमन सिंह को सत्ता से बाहर करने के लिए पूरा प्रयास करेगें. जोगी को अब कांग्रेस आलाकमान ने काबू में कर लिया है और  उन्होंने भी वचन दिया है कि अब वे कांग्रेस के उम्मीदवारों को हराने के लिए कोई काम नहीं करेगें . भरोसेमंद सूत्रों ने बताया है कि राहुल गांधी के बहुत ही विश्वासपात्र कांग्रेस नेताओं की सलाह पर अजीत जोगी को साथ रख कर चलने की रणनीति बनायी गयी है . अजीत जोगी को कांग्रेस के सर्वोच्च स्तर से बता दिया गया है कि अगर पार्टी जीतेगी तो उनकी संभावना अच्छी रहेगी लेकिन अगर पार्टी की हालत ही खराब हो जायेगी तो उनके सपनों को भी भारी झटका लगेगा.
जब से अजीत जोगी ने सार्वजनिक रूप से छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के इंचार्ज महासचिव बी के हरिप्रसाद को हडकाया था तब से ही यह चर्चा  चल पडी थी कि अजीत जोगी कांग्रेस आलाकमान की उन नीतियों और योजनाओं को नहीं चलने देगें जो उनकी रजामंदी से नहीं चलाई जायेंगीं . उन्होंने कांग्रेस पार्टी के औपचारिक कार्यक्रमों से अलग अपने दफ्तर से तरह तरह के राजनीतिक बयान देना शुरू कर दिया था . उन्होंने दिग्विजय सिंह सहित हर उस कांग्रेसी नेता के खिलाफ खुसुर फुसर अभियान चला दिया था जो उनकी बात नहीं मान रहा था. कांग्रेस के अंदर यह चर्चा  भी चल निकली थी कि अजीत जोगी को पार्टी से अलग कर दिया जायेगा .लेकिन अब उन सब बातों पर विराम लग गया है . राहुल गांधी और सी पी जोशी ने अजीत जोगी को बता दिया है कि अगर पार्टी के साथ रहोगे तो आगे चल कर फायदा होगा लेकिन अगर कांग्रेस के उम्मीदवारों को हराने की कोशिश करेगें तो कहीं के नहीं रह जायेगें . अजीत  जोगी को यह भी साफ़ बता दिया गया है कि टिकट वितरण में उनका कोई दखल नहीं स्वीकार किया जायेगा . हाँ ,उनके बेटे और पत्नी के टिकट के बारे में सकारात्मक तरीके से विचार किया जा सकता है . लेकिन उनके या किसी और के कहने पर किसी को टिकट नहीं दिया जाएगा . हालांकि वे अपने लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे थे कि टिकट वितरण में उनसे सलाह ली जायेगी लेकिन जब वे छत्तीसगढ़ मामलों के कांग्रेस के सबसे महत्वपूर्ण नेता से  मिले तब उनको अंदाज़  हो गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है . टिकट वितरण शुद्ध रूप से कम्प्युटर में  फीड किये गए आंकड़ों के आधार पर किया जा रहा  है . पहली खेप में जो १८ टिकट घोषित किये गए हैं उनमें ९ विधायकों को टिकट देने की बात राज्य के नेताओं और अन्य लोगों की तरफ से की गयी थी लेकिन अंत में केवल तीन मौजूदा विधायकों की टिकट ही बच सकी ,बाकी सबके टिकट काट दिए गए.
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Tuesday, September 17, 2013

नार्वे में फोकस इंडिया-----ओस्लो विश्वविद्यालय में दलित राजनीति पर सेमीनार



शेष नारायण सिंह


ओस्लो विश्वविद्यालय में फोकस इंडिया  के तहत आयोजित ‘ भारत में जाति ‘ विषय पर आयोजित सेमीनार सितम्बर के दूसरे हफ्ते में संपन्न हो गया. एकेडमिक आयोजन था . ज़ाहिर है इससे उम्मीद की जानी चाहिए कि यह भविष्य की राजनीति के लिए मैटर उपलब्ध कराएगा . लेकिन सेमीनार का स्तर ऐसा नहीं था जिस से ऐसी कोई उम्मीद की जा सके. कहने को सेमीनार जाति पर आयोजित किया गया था लेकिन सारी बात मूल रूप से दलित राजनीति के आस पास ही मंडराती रही. जो दूसरा अजूबा था वह यह कि कुल १० पर्चे पढ़े गए जिसमें से  ६ पर्चे बंगाल के दलितों के इतिहास  भूगोल पर  आधारित थे.  २ उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति की बात कर रहे थे , एक पर्चा जे एन यू के दलित छात्रों की राजनीति पर केंद्रित था और एक परचा ऐसा था जिसको अखिल भारतीय रंग दिया जा सकता है . डॉ अम्बेडकर को दलित राजनीति के सिम्बल के रूप में  स्थापित होने की प्रक्रिया का  विश्लेषण किया गया था ,यह पर्चा नार्वे के बर्गेन विश्वविद्यालय के प्रो.दाग एरिक बर्ग था और प्रो. बर्ग की वार्ता से साफ़ नज़र आया कि उन्होने अपने विषय की गंभीरता के साथ न्याय किया  है .

इस सेमीनार का पहला पर्चा न्यूजीलैंड के विक्टोरिया विश्वविद्यालय के डॉ शेखर बंद्योपाध्याय ने प्रस्तुत किया. देश के बँटवारे के साथ साथ बंगाल की राजनीति में अनुसूचित जातियों की राजनीति और उससे जुडी समस्याओं का विषद विवेचन किया गया . उन्होंने अपनी तर्कपद्धति से साफ़ कर दिया कि यह धारणा गलत  है कि बंगाल में वर्ग की अवधारणा इतनी ज़बरदस्त जड़ें जमा चुकी है कि  जाति पार अब राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श होना बेमतलब हो गया है . उन्होने २००४ के मिड डे मील विवाद के हवाले से बताया कि कई जिलों में ऊंची जाति के लोगों ने अपने बच्चों को वह खाना खाने से रोक दिया था जिसे दलित जातियों के लोगों ने पकाया था.  उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि देश के विभाजन के बाद अनुसूचित जातियों के संगठित आंदोलन पर ब्रेक लग गयी थी और इसीलिये यह मिथ पैदा किया जा सका कि बंगाल में जाति का कोई मतलब नहीं होता . अविभाजित बंगाल में संगठित दलित आंदोलन में दो वर्गों की प्रमुखता थी . नामशूद्र और राजबंशी नाम से दलितों की पहचान होती थी . नामशूद्रों का इलाका पाकिस्तान में चला गया और जब वे १९५० के बाद भारत आने लगे तो उनके नेताओं का ध्यान मुख्य रूप से उनके पुनर्वास पर केंद्रित हो गया और जाति का सवाल दूसरे नंबर पर चला गया . वे पश्चिम बंगाल में शरणार्थी के रूप में पहचाने जाने लगे . उनको फिर से बसाने की समस्या मूल हो गयी , बाकी बातें बहुत पीछे छूट गयीं .जब उनकी आबादी ही तितर बितर हो गयी तो संगठित होने की बात बहुत दूर की कौड़ी हो गयी .  शेखर बंद्योपाध्याय के पर्चे में दलितों  और मुसलमानों के जिस सहयोग को पूर्वी बंगाल की राजनीति का आधार माना जाता था ,उसके तहस नहस होने की बात को भी समझाने की कोशिश की गई है . उनका निषकर्ष यह है कि आज भी दलितों की जाति आधारित पहचान का मुद्दा जिंदा है और तृणमूल कांग्रेस ने दलितों के मूल नेता , पी आर ठाकुर के एक बेटे को साथ लेकर चुनावी राजनीतिक सफलता हासिल की है .

सेमीनार का दूसरा पर्चा एमहर्स्ट कालेज के द्वैपायन सेन का था. उन्होंने पश्चिम बंगाल की राजनीति से जाति के सवाल के गायब होने की बौद्धिक व्याख्या करने की कोशिश की और दावा किया कि  विभाजन पूर्व बंगाल की दलित राजनीति का बड़े नेता जोगेन्द्र नाथ मंडल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के हवाले से पश्चिम बंगाल में दलित राजनीति के विभिन्न आयामों की पड़ताल की गयी है लेकिन उनका दुर्भाग्य था कि उनके ठीक पहले  प्रो. शेखर बंद्योपाध्याय का  विद्वत्तापूर्ण पर्चा पढ़ा जा चुका था .इसलिए उनके पूरे भाषण  के दौरान ऐसा लगता रहा कि डॉ द्वैपायन सेन या तो पहले पर्चे की बातों को दोहरा रहे हैं और या तो पूरी तरह से रास्ता भटक गए हैं . दलित जातियों की राजनीति को बैकबर्नर  पर रखने के लिए उन्होने कभी कांग्रेस तो कभी कम्युनिस्टों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए निर्धारित  बीस मिनट का समय पार कर लिया . यही उनके पर्चे की सबसे बड़ी उपलब्धि नज़र आयी .

नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की राजनीति में दलितों की भूमिका पर केंद्रित लिथुआनिया के एक विश्वविद्यालय की विद्वान  क्रिस्टीना गार्लाइते ने पर्चा पढ़ा . उन्होने  जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पहचान की राजनीति के विभिन्न स्वरूपों की  चर्चा की .कुछ समय  तक  यूनिवर्सिटी के अंदर चली दलित राजनीति की गतिविधियों का बहुत ही अच्छा वर्णन क्रिस्टीना ने प्रस्तुत किया . जे एन यू के दलित प्राध्यापकों की राजनीति की परतों का भी बिलकुल सटीक विश्लेषण किया और यह भी लगभग साबित कर दिया कि कैम्पस में मौजूद दलित छात्र तो बहुत कम समय के लिए आते हैं लेकिन यहाँ जमे हुए प्राध्यापक उनको अपनी मुकामी राजनीति को चमकाने के लिए कैसे इस्तेमाल करते हैं . बिना नाम लिए हुए उन्होंने राष्ट्रीय राजनीतिक दलों , कांग्रेस , बीजेपी, बी एस पी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, सी पी आई ( एम एल ) के जे एन यू कैम्पस में मौजूद एजेंटों की भी अच्छी तरह से निशानदेही की .हालांकि क्रिस्टीना ने अपने पर्चे में यह बातें शिष्टाचार की सीमा में रहकर ही की थीं लेकिन जब श्रोताओं में मौजूद जे एन यू की कुछ पूर्व छात्राओं ने बात को आगे  बढ़ाया  तो कई परतें  खुल गयीं . साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों की जो पोल जे एन यू की बीफ एंड पोर्क फेस्टिवल ने खोली थी वह भी एक बार सेमीनार के कक्ष में जिंदा  हो उठा और यह भी सामने आ गया कि किस तरह से कोर्ट के दखल के बाद ही  इस फेस्टिवल को रोका जा सका था.उस्मानिया विश्वविद्यालय में हुए उपद्रव का भी ज़िक्र हुआ और दलित राजनीतिक अस्मिता की एक अहम पहचान के रूप में किस तरह से इस कार्यक्रम को जे एन यू कैम्पस में पहचाना  गया .इस फेस्टिवल ने किस तरह से विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से वफादारी रखने वाले लोगों को  एक्स्पोज़ किया ,यह भी चर्चा के दौरान  सामने आया .

अमरीका के विश्वविख्यात शोध केन्द्र एम आई टी से आये अक्षय मंगला ने सर्वशिक्षा अभियान को उत्तर प्रदेश में शिक्षा और  जाति की राजनीति से जोड़ने की कोशिश की और लगा कि उन्होने अपने पर्चे को बिना  तैयारी के ही पेश कर दिया है . उन्होंने सर्वशिक्षा अभियान जैसे केन्द्र सरकार के आयोजन  को इस तरह से पेश किया जैसे वह उत्तर प्रदेश सरकार का ही कार्यक्रम हो . एक बार भी उन्होंने इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि यह  केन्द्र सरकार की योजना है . सर्व शिक्षा अभियान बहुत बड़े पैमाने पर हेराफेरी का कार्यक्रम भी है इसका भी ज़िक्र नहीं हुआ.  उन्होंने सहारनपुर जिले के एक गाँव और उसके आस पास के कुछ गाँवों के आंकड़ों के सहारे कुछ साबित करने की कोशिश की लेकिन अंत तक समझ में  नहीं आया कि  बहुत बड़े पैमाने पर सामान्यीकरण करने की उनको क्या जरूरत  थी .  उन्होने दावा  किया कि शिक्षा के क्षेत्र में जो नौकरशाही सक्रिय है उसमें  ब्राह्मणों का एकाधिकार है . इस नौकरशाही में  उन्होने ग्राम प्रधान से लेकर शिक्षामंत्री तक को शामिल बताया .  जब उनसे पूछा गया कि  पंचायत चुनावों में और सरकारी नौकरियों में जो ५० प्रतिशत का रिज़र्वेशन है उसके बाद भी ब्राह्मणों का एकाधिकार कैसे बना हुआ है , तो वे बात को टालने की कोशिश करते नज़र आए. हालांकि इसके पहले ही उनकी बुनियादी अवधारणा  चकनाचूर हो चुकी थी. यह बात उनको भी मालूम है कि इतने जागरूक श्रोता वर्ग के बीच कोई असंगत बात कहकर पार पाना कितना मुश्किल होता है . वे  यह भी नहीं स्पष्ट कर पाए कि केवल सहारनपुर के एक  उदाहरण से वे पूरे उतर प्रदेश के बारे में कोई भी बात इतने अधिकारपूर्वक कैसे कह  सकते हैं ,

अगला पर्चा नार्वेजियन  इंस्टीट्यूट आफ इंटरनैशनल अफेयर्स की  डॉ. फ्रांसेस्का येंसीनियस का था. उनके पर्चे का टापिक था, ‘ अनुसूचित जाति के नेताओं के  बारे में धारणा, : उत्तर प्रदेश से सर्वे साक्ष्य ‘ . कानपुर देहात के जिले के रसूलाबाद और औरैया जिले के औरैया विधानसभा क्षेत्रों के कुछ आंकड़ों के आधार पर उन्होने अपनी बात समझाने की कोशिश की .. दोनों क्षेत्र बिलकुल आसपास हैं और पूरे उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जातियों के नेताओं के बारे में  आम आदमी की राय को समझने के लिए एक ही इलाके के दो विधानसभा क्षेत्रों  को क्यों चुना गया यह बात श्रोताओं  में मौजूद बहुत लोगों की समझ में नहीं आयी. दोनों विधानसभा क्षेत्रों  के बीच की दूरी करीब ५० किलोमीटर से भी कम है .  सर्वे के लिए सैम्पल चुनने में इस पर्चे में भी वही विसंगति थी जो सर्वशिक्षा अभियान वाले पर्चे में केवल सहारनपुर को चुनकर की गयी थी. उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के बारे में कोई भी अनुमान निकालने के पहले यह देखना ज़रूरी होता है उसके पूर्वी , मध्य और पश्चिमी भाग की राजनीतिक भौगोलिक हालात बिलकुल अलग अलग हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया , गोरखपुर आदि जिलों , मध्य उत्तर प्रदेश के कानपुर इटावा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ,मेरठ जिलों की राजनीतिक सामाजिक सच्चाई कई बार एक द्दूसरे के बिलकुल खिलाफ होती है . लेकिन जब उन्होंने बताया कि कानपुर के किसी कालेज के एक प्रोफ़ेसर साहेब ने उनके लिए  आंकड़ों का संकलन करवाया था ,तब बात समझ में आ गयी कि अपनी सुविधा के हिसाब से अपने आसपास के इलाकों का सर्वे करवा कर इन प्रोफ़ेसर  साहेब ने काम निपटा दिया था. फ्रान्सेसका की शोध पद्धति और आंकड़ों की तुलना का तरीका बहुत ही अच्छा था लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीतिक सच्चाई से वाकिफ कोई भी व्यक्ति बता देगा कि दलित राजनेताओं के बारे में उन्होंने जो भी निष्कर्ष निकाले , वे किसी भी हालात में विश्वसनीय नहीं हैं .

सेमीनार को बंगाल और उत्तर प्रदेश से कुछ हद तक बाहर ले जाने का काम बर्गेन विश्वविद्यालय के डॉ दाग एरिक बर्ग ने किया  . उन्होंने  दलितों की  पहचान के रूप में डॉ अम्बेडकर की आवधारणा पर चर्चा की  .हालांकि उनका भी फोकस उत्तर प्रदेश ही था लेकिन डॉ आम्बेडकर के व्यक्तित्व के अखिल भारतीय स्वरूप के कारण उनके चर्चा का दायरा बढ़ गया. पर्चे में डॉ बर्ग ने तर्क दिया कि दलितों के सामाजिक राजनीतिक बदलाव में डॉ अम्बेडकर की अन्य भूमिकाओं के अलावा कानून को प्रभावित कर सकने वाली भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है.

 इसके बाद फिर बंगाल हावी हो गया . बाद के चारों पर्चे बंगाल में दलितों के इतिहास भूगोल से संबंधित थे . मृतशिल्पियों  के बारे में ओस्लो विश्वविद्यालय की  मौमिता सेन का परचा बहुत सारी सूचनाओं से भरा हुआ था. कृष्णानगर और कुमारटोली के के कुम्हारों के  काम में हुए बदलाव को उन्होंने बहुत ही कुशलता से स्पष्ट किया . इन क्षेत्रों के कुम्भकारों ने दैवी प्रतिमा से शुरू करके महान विभूतियों की मूर्तियां बनाने के लिए जो यात्रा की है , मौमिता ने उसको राजनीतिक संदर्भों के हवाले से समझाने की सफलता पूर्वक कोशिश की. उन्होंने इस विषय पर कला इतिहासकार ,गीता कपूर की किताब का भी हवाला लिया और यह साबित करने की कोशिश की कि किसी खास किस्म के फोटो के सहारे इन मृतशिल्पियों ने कैसे बहुत सारे नेताओं की मूर्तिनुमा पहचान को स्थापित किया है . कैसे पूरी दुनिया में लगभग एक ही तरह के गांधी,  टैगोर और सुभाष बोस देखे जा सकते हैं . बहुत ही  दिलचस्प विषय  को बहुत ही रुचि पूर्वक प्रस्तुत करने के लिए मौमिता के प्रस्तुतीकरण को सबने पसंद किया लेकिन संचालक महोदय ने  बार बार इशारा करके वार्ता को बीस मिनट में खतम करने के लिए लगातार दबाव बनाए रखा .
कोलकाता के सेंट जेवियर्स कालेज की शरबनी बंद्योपाध्याय ने बंगाल में  दलित राजनीतिक अधिकारों की राजनीतिक व्याख्या करने की  कोशिश की . उनकी खोज का दायरा भी ख़ासा बड़ा था और उन्होंने बहुत ही कुशलतापूर्वक अपने विषय का निर्वाह किया . १९वीं और २०वीं शताब्दी के उपलब्ध दस्तावेजों के सहारे उन्होने साबित करने की कोशिश की कि उस दौर में बंगाल में जाति एक प्रमुख संस्था हुआ करती थी लेकिन आज़ादी के बाद जाति हाइबरनेशन में चली गयी लगती है .उन्होंने १९२२ में बंगीय जन संघ के गठन को  केन्द्र बनाकर अपने तर्क को अकादमिक शक्ल देने का प्रयास किया . १९२३ में भारत सेवाश्रम संघ का गठन भी एक  महत्वपूर्ण घटना है  जिसे दलित राजनीति पर एक प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है . इस बीच कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो गया .कम्युनिस्ट पार्टी कुछ दलित संगठनों के करीब तो आयी लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी मूल रूप से अपनी भद्रलोक पहचान से बाहर नहीं आ सकी .इस पर्चे में कम्युनिस्ट पार्टी की किसान सभा और भारत सेवाश्रम संघ के के हवाले से दलित राजनीति को मिलने वाली भद्रलोक की प्रतिक्रिया  को समझने की कोशिश की गयी . यह पर्चा विद्वत्ता से परिपूर्ण था और पिछले दो वर्षों में दलितों की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होकर शरबनी ने बहुत ही वास्तविक धरातल पर बात  को समझाया . श्रोताओं  ने इसे बहुत पसंद किया .

इसके बाद हैम्पशायर कालेज की उदिति सेन ने नामशूद्रों के हवाले  से पश्चिम बंगाल में शरणार्थियों के गवर्नेंस के बारे में के परचा प्रस्तुत किया . बंगाल की दलित राजनीति पर उन्होंने अपनी बात कहने की कोशिश की लेकिन बात फीकी इसलिए पड गयी  कि नामशूद्रों और राजबंशियो के बारे में सेमीनार के पहले ही सत्र में डॉ शेखर बंद्योपाध्याय का गंभीर परचा पढ़ा जा चुका था . इसके अलावा उदिति सेन  ने कुछ तथ्यों को  उलट दिया था. उदाहरण के लिए उन्होने कह दिया कि जोगेन मंडल को सरकार ने  अंडमान भेजा था जबकि अंडमान पी आर ठाकुर गए थे  .  यह बात सुबह के सत्र में शेखर बंद्योपाध्याय के पर्चे में आ भी चुकी थी. बाद में उनको यह बताया भी गया तो उन्होंने यह कहकर अपनी रक्षा करने की कोशिश की उन्होंने तो सुनी सुनायी बात को पर्चे में लिख दिया था . उम्मीद की जानी चाहिए कि बाद में वे तथ्यों को ठीक कर लेगीं

अंतिम पर्चा मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फार द स्टडी आफ रिलीजस एंड एथनिक डाइवरसिटी के उदय चंद्रा का था . उन्होंने औपनिवेशिक बंगाल में कोल आदिवासियों के कुली बनने की प्रक्रिया का ऐतिहासिक विश्लेषण किया . दिलचस्प जानकारी से भरपूर उनका पर्चा दलित राजनीति के शोधार्थियों के लिए इतिहास के संदर्भ बिंदु के रूप में उपयोगी साबित होगा