Thursday, August 22, 2013

मेरी पहली विदेश यात्रा ---- दिल्ली से ओस्लो




शेष नारायण सिंह 
ओस्लो,२२ अगस्त. नार्वे की राजधानी ओस्लो पंहुचने पर सुखद अनुभवों का सिलसिला शुरू हो गया. वहाँ मेरी बेटी के एक दिन पहले पैदा हुए बेटे को देखा ,अपने मित्र और मेरी बेटी के ससुर तरुण मित्र के साथ शहर की बुनियादी खासियतों का अंदाज़ लिया . अगले दिन भारतीय मूल के नार्वेजियन पत्रकार सुरेश चन्द्र शुक्ल से भेंट हुई और उन्होंने देश के राष्ट्रीय चुनाव के प्रचार अभियान से शुरुआती परिचय करवा दिया . भारत की पवित्र भूमि के बाहर जाने का यह मेरा पहला मौक़ा है ,इसलिए मित्रों ने बहुत समझाया था,संभावित परेशानियों के हल सुझाए गए थे क्योंकि आम तौर पर यह मानकर चला जाता है कि विदेश यात्रा में परेशानियां होंगीं . बहुत सारे साधारण लोगों की विदेश यात्राओं के बारे में सुन रखा था . सबकी तकलीफों के बारे में विस्तार से जानकारी थी. इसलिए यात्रा की मुसीबतों  को लेकर मन में बहुत सारी आशंकाएं थीं . लगता है कि इस बार मैं भाग्यशाली रहा कि मुझे कोई परेशानी नहीं हुई. दिल्ली हवाई अड्डे पर सारी औपचारिकताएं ऐसे बीत गयीं जैसे हर काउंटर पर बैठा हर अधिकारी हमारा ही इंतज़ार कर रहा था. मेरी पत्नी अब पूरी तरह से गदगद और आश्वस्त हो चुकी थीं कि चिंता की बात नहीं है. लुफ्थांसा की हवाई सेवा का अच्छा नाम है और वह सही साबित हुआ .बहुत ही आराम से विमान में सीट मिली और विमान में यात्रियों की सहायता करने वाले स्टाफ में कुछ जर्मन नागरिक थे और कुछ लडकियां भारतीय थीं. विमान में बैठते ही एक भारतीय लड़की ने मुझे पहचान लिया . वह टाइम्स नाउ के मुख्य संपादक अर्नब गोस्वामी की बहुत बड़ी फैन है और उसने मुझे भी उसी चैनल में हो रही किसी बहस में कभी देखा था. उसने बताया कि उसके घर में टाइम्स नाउ ज़रूर देखा जाता है .बस फिर क्या था ,लड़की अपनी शुभचिंतक बन चुकी थी . हस्बे मामूल मेरी एक बेटी और जन्म ले चुकी थी .इस लडकी ने हमारे बारे में पता नहीं क्या क्या तारीफ़ के पुल बांधे होंगें कि जब हम साढ़े सात घंटे की फ्लाईट के बात म्यूनिख पंहुचे तो वहाँ विमान कंपनी की एक अधिकारी हमारा इंतज़ार कर रही थी. दिल्ली से म्यूनिख तक का टाइम ऐसे बीत गया जैसे जौनपुर में बैठे डॉ अरुण कुमार सिंह से गप मार रहे हों . जर्मनी के शहर म्यूनिख की ख्याति पूरी दुनिया में है. नार्वे और जर्मनी,दोनों देश ,यूरोपियन युनियन के सदस्य हैं इसलिए हमारे शेंगेन वीजा की इमीग्रेशन की औपचारिकता म्यूनिख में ही होनी थी क्योंकि यूरोपियन युनियन में हम वहीं से प्रवेश कर रहे थे . पूरी दुनिया में इमीग्रेशन अधिकारियों की ख्याति लोगों से मुश्किल सवाल पूछने की है . म्यूनिख  में मुझसे जो सवाल पूछा  गया उसके बाद अपनी दिल्ली-म्यूनिख फ्लाईट की  बेटी द्वारा  की गयी प्रशस्ति गाथा का मुझे मामूली सा अंदाज़ लग गया . इमीग्रेशन काउंटर पर शीशे के पीछे  बैठे हज़रत ने सवाल दागा कि मैं क्यों मानूं कि आप पत्रकार हैं . मुझे लगता है कि उनको बता दिया गया था कि मैं कौन हूँ . म्यूनिख में विमान से उतरते ही मुझे और मेरी पत्नी को विशेष गोल्फ कार्ट दे दी गयी. उसी गाड़ी से हम इमीग्रेशन अधिकारी के सामने पेश किये गए थे . उस खिड़की पर हमारे  अलावा कोई और नहीं था . अब अपने आपको  पत्रकार साबित करने के लिए मेरे पास और कोई जरिया नहीं था . मैं कहने ही वाला था कि  दिल्ली –म्यूनिख फ्लाईट की एयर होस्टेस से पूछ लीजिए लेकिन तब तक मेरे पर्स में मेरा पी आई बी कार्ड दिख गया . उसे दिखाया और सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकार को उस सख्त चेहरे वाले इमीग्रेशन अधिकारी ने मुस्कराहट के साथ विदा किया .यह बात दिलचस्प लगी कि कि पी आई बी की मान्यता कहाँ खाना काम आ सकती है . बात करते करते उसने हमारे पासपोर्ट पर ज़रूरी मुहर भी लगा दी .बहुत ही सम्मानपूर्वक हम म्यूनिख से ओस्लो जाने वाले विमान के प्रतीक्षा लाउंज में बैठा दिए गए.  म्यूनिख से ओस्लो की दो घंटे की यह यात्रा भी बहुत ही सुखद रही . ओस्लो हवाई अड्डे पर हमारे दामाद अनिरबान हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे . दिन डूबने के पहले हम ओस्लो के अपने बच्चों के घर पंहुच गए..एक दिन आराम करने के बाद हमने शहर में अपने मित्रों को अपने आने की जानकारी दे दी .उसी दिन ओस्लो के साहित्यकार और नार्वेजियन पत्रकार सुरेशचंद्र शुक्ल  से मुलाक़ात हो गयी . उनका साहित्यिक नाम शरद आलोक है और वे एक बहुत ही दिलचस्प इंसान हैं . मेरी इच्छा  है कि उनके बारे में पूरा एक आलेख लिखूं जो इसके बाद ही लिखने की तमन्ना है . 

Monday, August 19, 2013

एक गाँव जहां औरतें मजदूरी करके अपनी लड़कियों का मुस्तकबिल बदल रही हैं



शेष नारायण सिंह

मागड़ी तहसील के इस गाँव में जो बहुएं बेटा नहीं पैदा करतीं उनकी ज़िंदगी में मुसीबत की शुरुआत हो जाती  है . वैसे भी उनकी ज़िंदगी बहुत खूबसूरत नहीं होती क्योंकि इस गाँव में भी महिलाओं को पुरुषों से इन्फीरियर माना जाता है .गाँव के ज़्यादातर लड़के शराब पीते हैं और उनके घर की औरतें काम करती हैं . बेंगलूरू शहर से इस गाँव की दूरी करीब तीस किलोमीटर है लेकिन आई टी की राजधानी कहे जाने वाले शहर की प्रगति का कोई भी असर इस गाँव में  नहीं पंहुचा है . यहाँ ३५ परिवार रहते हैं . जिनमें से ३३ मराठे हैं और दो वोक्कालिगा  हैं . वोक्कालिगा परिवार के लोग ही  पंचायत से लेकर राज्य की राजनीति के अन्य क्षेत्रों में पहचाने जाते हैं . यहाँ रहने वाले मराठों को शिवाजी के किसी अभियान के दौरान यहाँ लाया गया था . शायद एकाध परिवार ही आया था लेकिन तीन सौ साल बाद उसी परिवार की इतने शाखें बन गयी हैं कि पूरा गाँव बस गया है . गाँव में विधवाएं बहुत ज्यादा हैं क्योंकि जो नौजवान शराब पीकर वाहन चलाते हैं वे हमेशा खतरे से जूझ रहे होते हैं .वैसे भी गाँव के बाहर जाने  वाली सड़क पर ट्रैफिक इतना तेज है कि अगर शराब के नशे में पैदल चल रहा कोई आदमी ज़रा सा भी गाफिल हो गया तो वह मौत का शिकार हो जाता हैं .बिना कंट्रोल चल रही  गाडियां किसी को भी रौंद देने में मिनट नहीं लगातीं . पहले तो गाँव के बाहर की सड़क पर स्पीडब्रेकर भी नहीं था लेकिन करीब आठ महीने पहले स्पीडब्रेकर लग गया है  . स्पीडब्रेकर लगने के बाद से यहाँ ऐसा कोई हादसा नहीं हुआ जिसमें किसी की जान चली जाए. इस गाँव से कुछ दूरी पर एक प्राइमरी स्कूल है इसलिए गाँव के बहुत सारे बच्चे पांचवीं पास हैं लेकिन उसके बाद बच्चों की पढाई पर ब्रेक लग जाती है क्योंकि उसके ऊपर की जमातों के स्कूल मागड़ी या अन्य दूर के कस्बों में हैं और बेंगलूरू से मागड़ी जाने वाली बसों के ड्राइवर इस गाँव में बस नहीं रोकते . ऑटोरिक्शा से भी वहाँ जाया जा सकता है लेकिन आमतौर पर मजदूरी करने वाली महिलाओं के परिवार ऑटो रिक्शा का किराया नहीं दे सकते.लिहाजा पढाई छूट जाती है .
यह कहानी बंगलूरू से लगे हुए रामनगरम जिले के मागड़ी तालुका के ज्योतिपाल्या गाँव की है लेकिन यही कहानी  कर्नाटक के  बहुत सारे गाँवों की भी हो सकती है. एक दिन यहाँ अजीब मुसीबत खड़ी हो गयी . यहाँ के एक किसान, छत्रपति राव का दामाद उसकी बेटी को घर छोड़ गया . साथ में सन्देश भी है कि दो लाख रूपया भेज दो ,तो बेटी भी साथ जायेगी वरना अब संभालो अपनी बेटी. अभी साल भर पहले इस बेटी की शादी करने के लिए , छत्रपति ने अपनी पुश्तैनी ज़मीन का एक टुकड़ा बेच दिया था. अब अगर बेटी को उसके पति के पास भेजना है तो उसे बाकी ज़मीन भी बेचनी पड़ेगी . इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है . छत्रपति को उसकी बेटी ने बताया कि उसे उसके सास ससुर पैसा लाने के लिए परेशान करते हैं और मारपीट भी करते हैं . यह बदकिस्मत किसान बहुत ही गैरजिम्मेदार इंसान हैं या यों कहिए कि पुरुष रूप में पशु हैं . अपनी पत्नी और बेटियों को इसलिए अपमानित करते रहते हैं कि वे स्त्रियाँ हैं .
 इसी गाँव में प्रेमा रहती है जो सरकार के एक ऐसे कार्यक्रम में काम करती है जो अपने कर्मचारियों से कम तनखाह पर काम करवाता है .उसके पति ने उसे मारपीट कर घर से निकाल दिया है और उसके ऊपर तलाक का मुकदमा दायर कर रखा है . उसके ऊपर भी सारी मुसीबत इसलिए आयी है कि उसकी कोख से दो लडकियां पैदा हो गयीं . वह सरकारी काम के साथ साथ घर की मजूरी भी करती थी लेकिन  लडकियां पैदा करने का इस इलाके का सबसे बड़ा अपराध कर बैठी . उसके आदमी को जब किसी ने समझाया कि, भाई लडकियां या लड़के पैदा करने में औरत और मर्द का बराबर का ज़िम्मा है तो उस अहंकारी पुरुष ने समझाने वाले को ही अपमानित कर दिया .
यहाँ पड़ोस के गाँव से आकर एक महिला रहती है . अपने खाने के लिए वह लोगों से भीख मांगती है . उसके अपने गाँव में उसके घर वाले रहते हैं , उसके नाम ज़मीन भी है जिसपर  घर वालों ने कब्जा कर रखा  है . बताया गया है कि उसके घर वाले अक्सर आकर देख जाते हैं कि वह जिंदा है कि नहीं . क्योंकि जब वह मर जायेगी तो उसकी लाश का अंतिम संस्कार कर देगें और इस इलाके के पुरुषप्रधान समाज के लोग उनको उस महिला की ज़मीन का कानूनी मालिक घोषित करवा देगें . यहाँ के समाज में अभी भी लड़की को बोझ माना जाता है . शादी के लिए कोई भी हमउम्र लड़का तलाशा जाता है , चाहे जितना नाकारा हो .लड़की के लिए योग्य वर की तलाश की अवधारणा अभी यहाँ नहीं है . लड़कियों की शिक्षा के बारे में सरकार ने भी बहुत ध्यान नहीं दिया है . सरकारी स्कूलों की खस्ता हालत देखकर लगता ही नहीं कि यह उत्तर प्रदेश या बिहार के सरकारी प्राइमरी स्कूलों से अलग  है .

इतिहास की कोख में सो गए इस गाँव में भी महिलाओं के दृढ निश्चय के सामने परिवर्तन की जुम्बिश साफ़ नज़र आने लगी है .खेत में दिन भर मजदूरी करने वाली एक  विधवा महिला की बच्चियां पास के चित्रकूट कालेज में पढ़ने जाने लगी हैं . यह बच्चियां अंग्रेज़ी में कमज़ोर हैं  लेकिन चित्रकूट के संस्थापक भी फुल जिद्दी आइटम हैं , उन्होंने तय कर लिया है कि बिना किसी अतिरिक्त फीस के इन बच्चियों को अंग्रेज़ी सिखायेगें और उनको भी बाकी बच्चियों और लड़कों के बराबर खडा कर देगें . लेकिन फीस तो देना ही पडेगा . खेत में मजदूरी करने वाली माहिला इतनी फीस भी कहाँ से देगी . ऐसी और भी महिलायें हैं जो अपनी औकात से ज़्यादा पैसा लड़कियों की फीस के लिए देने के लिए आमादा देखी गयीं .इन महिलाओं के दृढ निश्चय की पड़ताल की कोशिश की जाए तो तस्वीर के कुछ आयाम समझ में आने लगते हैं . जहां महिलायें सदियों से अपनी नियत का अनुसरण करने के  लिए अभिशप्त थीं वहाँ की तलाकशुदा, विधवा ,परित्यक्ता महिलाओं ने अपनी बेटियों के भविष्य को बदलने के लिए शिक्षा का सहारा लेने का फैसला कैसे ले लिया . खासतौर से जब वे पुरुष भी जो अपनी लड़कियों की भलाई के बारे में  सजग हैं , वह भी शिक्षा को महत्व नहीं देते . पता चला कि कुछ महीने पहले यहाँ बंगलोर के एक स्कूल में फाइन आर्ट की टीचर महिला ने अपना घर  बनाने का फैसला किया था . जब उन्होंने यहाँ आकर लड़कियों और महिलाओं की ज़िंदगी की मुसीबतें देखीं तो वे सन्नाटे में आ गयीं .  उन्होंने बताया कि समझ में ही नहीं आया कि शिक्षा के बल पर आसमान छू लेने की कोशिश कर रही युवतियों और युवकों के शहर बंगलोर के इतना करीब यह क्या हो रहा था. शुरू में तो यहाँ आकार उनके बस जाने की वजह से कुछ नाराज़गी थी लेकिन जब धीरे धीरे लोगों को मालूम चला कि वे तो सबकी भलाई के लिए काम कर रही हैं तो वे पूरे गाँव की अज्जी हो गयीं .कर्नाटक के इस इलाके में दादी को अज्जी कहते हैं और सफ़ेद बालों और करीब ४० साल  तक पब्लिक स्कूलों में  टीचर के रूप में काम करके उन्होंने कई पीढ़ियों की अज्जी होने का  तजुर्बा हासिल कर लिया  है .
इन अज्जी की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है . दिल्ली के कश्मीरी गेट और अलीगढ में इनका बचपन बीता . इनकी माता जी ने चालीस के दशक में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों को अपने अधिकारों के बारे में बताना शुरू कर दिया था और कई बार ज्यादतियों के खिलाफ उनको लामबंद भी किया था. इनके परिवार के लोग आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए थे ,इनके पिता जी ने १९४६-४७ में हिंदू कालेज के छात्र के रूप में दिल्ली शहर में मुस्लिम लीग के फैलाए हुए दंगे के खिलाफ मोर्चा लिया था . अज्जी के सभी  भाई बहन अन्याय के खिलाफ मोर्चा लेने में कभी संकोच नहीं करते . दिल्ली के एक बहुत ही नामी पब्लिक स्कूल में  सीनियर टीचर के रूप में काम करते हुए इन्होने बहुत सारे कारनामे किए हैं .स्कूल की इनकी लैब में चपरासी के रूप में काम कर रहे एक दलित लड़के को इन्होने इतना उकसाया किया कि इनको खुश करने के लिए उसने बी ए का पत्राचार का कोर्स किया और बैंक में अफसर का इम्तहान दिया और आज किसी बैंक में मैनेजर है . अपने भाई के एक दोस्त के बच्चों को इन्होने ऐसी दिशा पर डाल दिया कि आज वे सभी मध्यवर्ग की ऊंची पायदान पर विराजमान हैं और जीवन यापन कर रहे हैं . हालांकि यह दोस्त उत्तर प्रदेश के उस इलाके का रहने वाला है जहां अभी बहुत पिछडापन है .यह सब उन्होंने शिक्षा के महत्व का वर्णन करके किया . कई ऐसे केस हैं जहां उन्होने किसी के भी बच्चों की पढाई के लिए ज़रूरी इंतजामात कर दिए थे .उन्होंने रामनगरम जिले के ज्योतिपालया गाँव में देखा कि शिक्षा की कमी के चलते महिलाओं का शोषण हो रहा है तो उन्हें मिशन मिल गया और आज वे इस गाँव में परिवर्तन के लिए जुट पडी हैं . मानसिक रूप से परेशान कुछ पुरुषों के अलावा अब  यहाँ लड़कियों की  शिक्षा का विरोध करने वाले बहुत कम हैं और लगता है कि धीरे धीरे सब कुछ बदल जाएगा क्योंकि अगर लडकी की शिक्षा का सही इंतज़ाम होगा तो असली सामाजिक बदलाव आएगा .



Thursday, August 8, 2013

पाकिस्तानी फौज, दाऊद इब्राहीम और हाफ़िज़ सईद नहीं चाहते कि भारत और पाकिस्तान के बीच शान्ति कायम हो

 शेष नारायण सिंह
१९८९ में जब मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी और महबूबा मुफ्ती की बहन रुबैय्या सईद का अपहरण हुआ तो पाकिस्तानी आतंकवादी निजाम को लगा था कि भारत की सरकार को मजबूर किया जा सकता है .  तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी को छुडाने के लिए सरकार ने बहुत सारे समझौते किये जिसके बाद  पाकिस्तानी आतंकवादियों  के हौसले बढ़ गए थे . नियंत्रण रेखा के रास्ते और अन्य रास्तों से आतंकवादी आते रहे , वारदात को अंजाम  देते रहे और सीमा के दोनों तरफ शान्ति को झटका लगता रहा .  उसके बाद सीमावर्ती इलाकों में रहने वालों की जिन्दगी बहुत ही मुश्किल हो गयी.  छिटपुट आतंक की घटनाओं का सिलसिला जारी रहा और आखिर में २००३ के नवम्बर महीने में भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर का समझौता हुआ . इलाके के किसानों से कोई पूछकर देखे तो पता लग जाएगा कि सीजफायर समझौते के पहले बार्डर के गावों में जिंदा रहना कितना मुश्किल हुआ करता था. सीजफायर लाइन के दोनों तरफ के गाँव वालों की ज़िंदगी बारूद के ढेर पर ही मानी जाती थी . दोनों तरफ के गाँव वालों को पता है कि लगातार होने वाली गोलीबारी में कभी किसी का घर तबाह हो जाता था ,तो कभी कोई किसान मौत का शिकार हो जाता था. लेकिन नवंबर २००३ के बाद सीमावर्ती इलाकों के सैकड़ों गांवों में शान्ति है .सीमा पर कंटीले तार लगे हुए हैं और इन रास्तों से अब कोई आतंकवादी भारत में प्रवेश नहीं करता . सीजफायर समझौते के बाद यहाँ के गांवों में जो शान्ति का माहौल बना है उसे जारी रखने की दुआ इस इलाके के हर घर में होती ,हर गाँव में लोग यही प्रार्थना करते हैं कि सीमावर्ती इलाकों में फिर से झगडा न शुरू हो जाये जाए .

लेकिन दिल्ली और इसलामाबाद में रहकर सत्ता का सुख भोगने वाले एक वर्ग को इन गावं वालों से कोई मतलब नहीं है . उनको तो हर हाल में झगडे की स्थिति चाहिए क्योंकि संघस्ढ़ की स्थिति में मीडिया की दुकानें भी चलती हैं और सियासत का कारोबार भी  परवाना चढता है  . पाकिस्तान में जब भी नवाज़  शरीफ की सरकार बनती है तो पाकिस्तानी फौज में मौजूद उनके पुराने साथियों को लगता है कि अब मनमानी की जा सकेगी लेकिन नवाज शरीफ दोनों देशों के बीच तनाव कम करने के सपने देखने लगते हैं. नवाज शरीफ की इस कोशिश को आई एस आई और फौज में मौजूद उनके साथी धोखा मानते हैं .पाकिस्तान की राजनीति में नवाज़ शरीफ को स्थापित करने के श्रेय पाकिस्तान के पूर्व फौजी तानाशाह, जनरल जिया उल हक को जाता है . नवाजशरीफ अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन में जनरल जिया के बहुत बड़े  चेले हुआ करते थे .पाकिस्तानी फौज में भी आजकल टाप पर वही लोग बैठे हैं जो जनरल जिया के वक़्त में नौजवान अफसर होते थे. पाकिस्तानी सेना और समाज का इस्लामीकरण करने की अपनी मुहिम में इन अफसरों का जिया ने पूरी तरह से इस्तेमाल किया था . आज के पाकिस्तानी  सेना के अध्यक्ष जनरल अशफाक कयानी और उनके जूनियर जनरलों ने भारत के हाथों पाकितान को १९७१ में बुरी तरह से हारते देखा है . जब १९७१ में भारत की सैनिक क्षमता के सामने पाकिस्तानी फौज ने घुटने टेके थे ,उसी साल जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू की थी. उन्होंने बार बार यह स्वीकार किया है कि वे १९७१ का बदला लेना चाहते हैं लेकिन उनकी इस जिद का नतीजा दुनिया के लिए जो भी होउनके अपने देश को भी तबाह कर सकता है . यह बात जनरल अशफाक कयानी को मालूम है कि अगर उन्होंने परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की गलती कर दी तो अगले कुछ घंटों में भारत उनकी सारी सैनिक क्षमता को तबाह कर सकता है . अगर ऐसा हुआ तो वह विश्वशान्ति के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत होगा . शायद इसीलिये वे कोशिश करते रहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी सूरत में रिश्ते सुधरने न पायें और उनको भारत को तबाह करने  के अपने सपने को जिंदा रखने में मदद मिलती रहे .पाकिस्तानी फौजी लीडरशिप की इसी ज़हनियत की वजह से १९९० के बाद से जब भी कोई सिविलियन सरकार दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने की बात करती है तो पाकिस्तानी फौज या तो आतंकवादियों के ज़रिये और या आई एस आई के ज़रिये कोई ऐसा काम कर देती है जिस से सामान्य होने की दिशा में चल पड़े रिश्ते तबाह हो जाएँ या उस प्रक्रिया में पक्के तौर पर अड़चन ज़रूर आ जाए .जब  तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस में बैठकर लाहौर गए थे तो पाकिस्तानी फौज ने कारगिल शुरू कर दिया था . अब तो सबको मालूम है कि कारगिल में जो भी हुआ उसके लिए शुद्ध रूप से उस वक़्त के सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ ज़िम्मेदार थे , प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को तो पता  भी नहीं था. लेकिन उस घटना के बहुत सारी राजनीतिक नतीजे  निकले थे . नवाज़ शरीफ की  गद्दी चली गयी थी, मुशर्रफ ने सत्ता  हथिया ली थी, कारगिल की लड़ाई हुई थी, भारत ने कारगिल के इलाके से पाकिस्तानी फौज को खदेड़ दिया था और अटल बिहारी वाजपेयी १९९९ के चुनावों विजेता के रूप में  प्रचार  करते हुए पांच साल तक राज करने का जनादेश लाये थे.
जम्मू-कश्मीर के पुंछ इलाके में पांच भारतीय सैनिकों के मारे जाने की घटना को भी जल्दबाजी में पाकिस्तानी हमला मान लेना ठीक नहीं होगा . इस बात की पूरी संभावना है कि पाकिस्तानी फौज ने नई नवाज़ शरीफ सरकार को भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाने से रोकने के लिए यह काम किया हो . इस  बात में तो शक नहीं हो सकता पाकिस्तानी फौज ने ही भारतीय सैनिकों की जघन्य ह्त्या करवाई है लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि पाकिस्तान की सिविलियन सरकार भी इसमें शामिल हो .इसे मुशर्रफ के उस एडवेंचर से मिलाकर देखना चाहिए जब लाहौर बस यात्रा से पैदा हुए माहौल को खराब करने के लिए मुशर्रफ की पाकिस्तानी फौज ने कारगिल कर दिया था.
पुंछ सेक्टर की ताज़ा घटना  भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों की परीक्षा लेने के लिए तैयार है . पाकिस्तानी आई एस आई और हाफ़िज़ सईद के अधीन काम करनेवाले आतंकवादी संगठन कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेगें कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी तरह के सामान्य सम्बन्ध  कायम हों .  इसका एक नतीजा यह भी  होगा कि मुंबई हमलों के गुनाहगार  हाफ़िज़ सईद को पाकिस्तान भारत के हवाले भी कर सकता है .अगर दोनों देशों में दोस्ती  हो गयी तो भारत दाऊद इब्राहीम के प्रत्यर्पण की मांग भी कर सकता है. सबको मालूम है कि दाऊद इब्राहीम और हाफ़िज़ सईद पाकिस्तानी हुक्मरान की नज़र में कितने ताक़तवर हैं . इसलिए यह दोनों अपराधी किसी भी सूरत में दोनों देशों के बीच  दोस्ती नहीं कायम होने देगें .अजीब बात यह है कि भारत में पब्लिक ओपिनियन के करता धरता भी पाकिस्तानी  आतंकवाद के सूत्रधारों के जाल में फंसते जा रहे हैं .भारत के टेलिविज़न चैनलों की चले तो वे आज ही पाकिस्तान पर भारतीय फौजों से हमला करवा दें . विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का रवैया भी पुंछ में  हुई भारतीय सैनिकों की निर्मम हत्या के बाद ऐसा है कि वे पाकिस्तानी आतंकवादियों की मंशा  को पूरी करते नज़र आ रहे हैं . बीजेपी के एक नेता ने लोकसभा में कह दिया कि कि भारत के पास ताक़त है ,भारतीय सेना के पास ताक़त है ,भारतीय संसद के पास ताक़त है  कि पाकिस्तान को उसी भाषा में जवाब दिया जाए जो उसकी समझ में आती है .इस तरह की बयानबाजी से दोनों देशों के बीच के रिश्ते और खराब होंगें ,पाकिस्तानी सेना में मौजूद वे लोग मज़बूत होंगें जो भारत से हर हाल में दुश्मनी रखना चाहते हैं और पाकिस्तान में रहकर भारत के खिलाफ काम करने वाला आतंक का तंत्र बहुत मज़बूत होगा. इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि भारत का मीडिया और राजनीतिक बिरादरी पाकिस्तानी आतंकवादियों के जाल में न फंसे और उनके मंसूबों  को नाकाम करने की कोशिश करे . इस मिशन में पाकिस्तानी सिविलियन  सरकार की विश्वसनीयता बढाने की कोशिश भी की जानी चाहिए .
भारत के रक्षा मंत्री ए के एंटोनी ने संसद में बताया कि भारी हथियारों से लैस करीब बीस आतंकवादियों और पाकिस्तानी सेना की वर्दी पहने कुछ लोगों ने पुंछ के इलाके में हमला किया  और पांच भारतीय सैनिकों की जानें गयीं . यू पी ए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि भारत को इस तरह के धोखेबाजी के तरीकों से परेशान नहीं किया जा सकता. पाकिस्तान की सरकार ने कहा है कि भारतीय मीडिया ने आरोप लगाया है कि पुंछ की घटना में पाकिस्तान की सेना का हाथ है जिसे पाकिस्तानी सरकार खारिज करती है . पाकिस्तान सरकार की तरफ से जो बयान आया है उसके मुताबिक सीमा पर ऐसा कोई भी काम नहीं हुआ जिसके कारण दोनों देशों के बीच में तनाव  आये.  यह बयान सच्चाई को छुपाता है लेकिन फिर भी यह युद्ध की तरफ बढ़ने वाली कूटनीति को लगाम देने में इस्तेमाल किया जा सकता है . भारत के विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा है कि इस घटना से दोनों देशों के बीच सामान्य हो रहे रिश्तों में बाधा ज़रूर पड़ेगी  .पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ की सरकार आने के बाद उम्मीद बढ़ी थी कि रिश्ते सामान्य होंगें . इसी साल जनवरी में एक भारतीय सैनिक का सिर काटे जाने के बाद रिश्तों में बहुत तल्खी आ गयी थी लेकिन पाकिस्तान में आम चुनाव के बाद आयी नवाज़ शरीफ की नई सरकार आने के बाद उम्मीदें थोडा बढ़ी थीं . सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र के सम्मलेन के बहाने दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की मुलाक़ात की संभावना है लेकिन लगता है कि आई एस आई , पाकिस्तानी फौज और पाकिस्तानी आतंकवादियों की साज़िश के बाद मामला बिगड सकता है . अगर ऐसा हुआ तो इसे पाकिस्तानी ज़मीन पर रहकर ,पाकिस्तानी सरकार की परवाह किये बिना  भारत से रिश्ते खराब करने वालों के मंसूबों की जीत माना जायेगा . ज़ाहिर है इससे  सीमा के दोनों तरफ रहने वाले शान्तिप्रेमी लोगों इच्छाओं को ज़बरदस्त धक्का लगेगा

Wednesday, August 7, 2013

अमरीकी फेडरल रिज़र्व की मुखिया किसी महिला को बनाने के चर्चा से मर्दवादी परेशान


शेष नारायण सिंह

अमरीका के फेडरल रिज़र्व के अध्यक्ष के रूप में उसके गवर्नारों के बोर्ड की मौजूदा उपाध्यक्ष जेनेट येलेन की  तैनाती की चर्चा है , वे महिला हैं और किसी भी पुरुष से ज़्यादा योग्य हैं लेकिन अमरीकी समाज में पिछडापन की हद ही कही जायेगी कि उनके खिलाफ आभियान चलाया जा रहा है कि वे देश की सबसे बड़ी वित्तीय संस्था की अध्यक्ष न बन जाएँ. एक फटीचर अमरीकी अखबार में उनके महिला होने के कारण फेडरल रिज़र्व के अध्यक्ष पद पर तैनाती के खिलाफ सम्पादकीय लिख दिया गया . अजीब बात है कि देश के बड़े आर्थिक अखबार , वाल स्ट्रीट जर्नल में भी उसी संपादकीय के हवाले से चर्चा कर दी गयी और इस अखबार की मर्दवादी सोच को सही ठहरा दिया गया .

भारत में  लोग नहीं जानते होंगें लेकिन अमरीका में सबसे  बड़े वित्तीय प्रबंधक के रूप में जेनेट येलेन की पहचान है .उन्होंने अमरीका के शीर्ष विश्वविद्यालयों में शिक्षा पायी है . ब्राउन विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद उन्होंने येल विश्वविद्यालय से पी. एचडी किया था. हार्वर्ड विश्वाविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर के रूप में उन्होंने नौकरी शुरू की और १९७६ तक हार्वर्ड में रहीं . १९७७-७८ में वे इसी फेडरल रिज़र्व में इकानामिस्ट के रूप  में काम किया जिसकी आजकल उपाध्यक्ष हैं  . १९८० में उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय ,बर्कले के बिजिनेस स्कूल में मैक्रो इकनामिक्स की शिक्षक रहीं .डॉ येलेन बिल क्लिंटन के राष्ट्रपति काल में आर्थिक सलाहकारों की परिषद की अध्यक्ष रहीं . वे हार्वर्ड विश्वविद्यालय और लन्दन स्कूल आफ इकानामिक्स में प्रोफ़ेसर रह चुकी हैं . अमरीका की सबसे प्रतिष्ठित अर्थशास्त्र के विद्वानों की संस्था अमेरिकन इकनामिक एसोशियेशन की उपाध्यक्ष रह चुकी हैं .  फेडरल रिज़र्व सिस्टम के मौजूदा अध्यक्ष  बेन  बर्नान्के को अगर २००९ में फिर से अध्यक्ष न बना दिया गया होता तो उस वक़्त में उनके गंभीर उताराधिकारियों में जेनेट येलेन का नाम  लिया जा रहा था . लेकिन अमरीकी अर्थव्यवस्था का नुक्सान होना था तो पता नहीं किस रौ में बराक ओबामा ने बर्नान्के को फिर से एक और कार्यकाल बख्श दिया .और पांच साल के लिए फेडरल रिज़र्व की मुख्य कुर्सी पर बैठा दिया .

इस बात की पूरी संभावना है कि इतनी काबिल महिला को इस बार फेडरल रिज़र्व सिस्टम का अध्यक्ष बना दिया जाएगा लेकिन अमरीकी समाज में मौजूद पुरातनपंथी और पोंगापंथी राजनेता  और लाबी ग्रुप के लोग उनका विरोध कर रहे हैं . यह विरोध दो स्तरों पर हो रहा है . एक तो घटिया दर्जे की मानसिकता वाले पब्लिक ओपिनियन लीडर लोग कुछ फटीचर और मर्दवादी अखबारों में लिख रहे हैं .जबकि सच्चाई यह है कि आज की तारीख में अमरीका में अगर कोई इस नौकरी लायक है तो उसमें सबसे ऊपर जेनेट येलेन का ही नाम आता है . कुछ ऐसे लोग जो  मर्दवादी तो हैं लेकिन ऐलानियाँ विरोध करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ती , वे येलेन के खिलाफ निंदा अभियान गुप्त रूप से चला रहे हैं .

पिछले हफ्ते  सन अखबार ने उनके खिलाफ एक सम्पादकीय लिखा जिसका  शीर्षक था “ द फीमेल डालर “ .इस सम्पादकीय ने बहुत ही बेशर्मी से ऐलान किया कि पिछले पचास साल से फेडरल रिज़र्व ने ऐसी मुद्रानीति का पालन किया है  जिस से मुद्रास्फीति बढती है और अगर किसी महिला को  फेडरल रिज़र्व का काम सौंप दिया गया तो यह और खराब हो जाएगा. इस सम्पादकीय लेखक को यह भी पता नहीं है कि अमरीकी अर्थव्यवस्था में इस साल की मुद्रास्फीति  पचास वर्षों में सबसे नीचे हैं .सन अखबार का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि उसकी कोई औकात नहीं है .अगर अन्य दक्षिणपंथी अखबारों ने इस लाइन को आगे न बढ़ाया होता तो कोई भी परवाह न करता  . लेकिन वाल स्ट्रीट जर्नल समेत कुछ नामी अखबारों ने भी अभियान शुरू कर दिया . जिसकी निंदा की जानी चाहिए .
सवाल यह है कि अगर जेनेट येलेन पुरुष होतीं और जितना दमदार उनका बायोडाटा है तो किसी भी अमरीकी पुरातनपंथी मर्दवादी नेता और बुद्धिजीवी ने उनका विरोध न किया होता .लेकिन ऐसा हो रहा है और इसकी निंदा की जानी चाहिए और राष्ट्रपति बराक ओबामा को चाहिए कि २००९ की गलती न दोहराएँ और जैनेट येलेन को इस बार फेडरल रिज़र्व सिस्टम का अध्यक्ष बनाने में संकोच न करें .

Tuesday, August 6, 2013

जन्मदिन मुबारक मेरे बेटे





शेष नारायण सिंह

आज हमारे बेटे का जन्मदिन है . इमरजेंसी लगने के करीब डेढ़ महीने बाद सुल्तानपुर जिले के मेरे गाँव में ६ अगस्त के दिन इनका जन्म हुआ. कई साल बाद उनके जन्मदिन के दो दिन पहले मुंबई के उनके घर में साथ थे ,उनकी अम्मा ने कहा कि चलो एक बहुत अच्छी कमीज़ खरीद कर लाते हैं . बातों बातों में मेरे मुंह से निकल गया तो उन्होंने कहा कि मेरे जन्मदिन पर कपडे तो कभी नहीं आये . उनकी इस बात के बाद ऐसा लगा कि पिछले अडतीस साल का एक एक दिन नज़रों के सामने से गुज़र गया . आज वे एक बड़ी विदेशी बैंक में बड़े पद पर काम करते हैं ,उच्च मध्य वर्ग की अच्छी ज़िंदगी जीते  हैं , एक बहुत ही ज़हीन लड़की उनकी पत्नी है और एक निहायत ही काबिल लड़का उनका बेटा है . स्कूल जाता है और बहुत बड़ा पाटी करता है ,बाबा  को उसे साफ़ करने का मौक़ा देता है और  अपनी दादी को बुलाने के लिए सप्तम सुर में दादी दादी कहकर आवाज़ लगाता है .अगर अच्छे मूड में होता है तो दादी को भी पाटी देखने का मौक़ा देता है . उनकी दादी धन्य हो जाती हैं .
अपने बेटे के लिए पहली बार जन्मदिन का गिफ्ट लेने हम १९८१ में गए थे . उसके पहले गाँव में  रहते थे ,किसी को पता भी नहीं होता था कि जन्मदिन क्या होता है लेकिन दिल्ली में जब यह स्कूल गए तो हर महीने कुछ बच्चों का जन्मदिन होता था, लिहाजा इनका जन्मदिन भी  इनकी क्लास में और घर में सबको पता लगा . जन्मदिन का गिफ्ट लेने के चक्कर में कई दुकानों में गए लेकिन समझ में कुछ नहीं आया . जिस गिफ्ट पर भी हाथ डाला ,वह खरीद की सीमा के बाहर था . शाम तक वापस आ गए . अगले दिन जे एन यू जाना हुआ और गीता बुक सेंटर पर खड़े हुए दूकान के मालिक दादा से भी ज़िक्र कर दिया . उसके बाद तो लगा कि सारी राहें आसान हो गयीं . दादा ने प्रगति प्रकाशन मास्को की कई किताबें पैक कर दीं और कहा कि जब तक बच्चा बड़ा न हो जाए उसे हर साल किताब ही देते रहना .  वह सारा गिफ्ट दस रूपये में आया था. उसके बाद जब तक हम साथ रहे हर साल किताबों का गिफ्ट देते रहे. उनके जन्मदिन पर दी  गयी किताबों ने उनकी ज़िंदगी को खूबसूरत बनाने में अहम  भूमिका निभाई वर्ना एक अनिश्चित आमदनी वाले माँ बाप के बच्चों की जिन्दगी में वह स्थिरता नहीं होती जो इनकी ज़िंदगी में है और इनकी बहनों की जिन्दगी में है . जन्मदिन की किताबें खरीदने के लिए हम कई बार गोलचा सिनेमा के पास बिकने वाली पुरानी किताबों को देखने फुटपाथ पर भी गए ,कई बार बुक आफ नालेज लाये और कई बार डिक्शनरियां लाये .किताबों के प्रति उनके मन में आज भी बहुत सम्मान है और जब भी कहीं टाइम पास करना होता है किताबें खरीद लेते हैं .

आज जब पीछे  मुड़कर देखता हूँ तो लगता  है कि दादा की सलाह ने मेरे और और मेरे बच्चों के भविष्य को बदल दिया . मैं जानता हूँ  कि हमारा बेटा जहां भी होता है उसको लोग बहुत सम्मान देते हैं , पढ़ा लिखा इंसान माना जाता  है. आमतौर पर शांत रहने वाला हमारा यह बेटा एक बेहतरीन पति और बहुत अच्छा बाप है . मुझे मालूम है कि वह अपनी अम्मा को बहुत सम्मान करता  है और मेरी हर परेशानी को समझता है लेकिन मेरे सिद्धार्थ ने मुझे कभी बेचारा नहीं माना . जैसे ही  हमारी किसी  परेशानी का पता चलता है मेरा बेटा उसको हल करने के लिए तड़प उठता है लेकिन जब तक हम कह न दें कोई पहल नहीं करता . जन्मदिन मुबारक मेरे बेटे अम्मा की तरफ से भी और पापा की तरफ से भी .

Monday, August 5, 2013

उत्तर प्रदेश ने हमेशा ही देश की राजनीति को दिशा दी है


शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश में आज अराजकता का माहौल है ,कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है लेकिन राजनीतिक रूप से राज्य की ताक़त कभी कम नहीं हुई ,आज भी राजनीतिक हैसियत कम नहीं है . गंगा नदी के प्रवाह के इस मुख्य क्षेत्र में हमेशा से भारतीय राजनीति की दिशा तय होती रही है . आज़ादी के लिए पहली  बार जब इस देश की जनता उठ खड़ी हुई थी तो मई १८५७ की मुख्य लड़ाइयां उत्तर प्रदेश में ही लड़ी गयी थीं.  महात्मा गांधी के नेतृत्व में भी आधुनिक भारत की स्थापना और अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता की जो लड़ाई लड़ी गयी उसमें उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण स्थान है . १९२० में आज़ादी की इच्छा रखने वाला हर भारतवासी महात्मा गांधी के साथ था, केवल अंग्रेजों के कुछ खास लोग उनके खिलाफ थे .आज़ादी  की लड़ाई में एक ऐतिहासिक मुकाम तब आया जब चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद महात्मा गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया . उस वक़्त के हर बड़े नेता ने महात्मा गांधी से आन्दोलन जारी रखने का आग्रह किया लेकिन महात्माजी ने साफ़ कह दिया कि भारतीयों की सबसे बड़ी ताक़त अहिंसा थी .  सच भी है कि अगर हिंसक  रास्ते अपनाए जाते तो अंग्रेजों ने तो़प खोल दिया होता और जनता की  महत्वाकांक्षाओं की वही दुर्दशा होती जो १८५७ में हुई थी. १९२९ और १९३० में जब जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तो लाहौर की कांग्रेस में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया . १९२९ में  कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व उत्तर प्रदेश के हाथ आया तो वह कभी नहीं हटा. ११९३० के दशक में भारत में जो राजनीतिक परिवर्तन हुए वे किसी भी देश के लिए पूरा इतिहास हो सकते हैं . गवर्नमेंट आफ इन्डिया एक्ट १९३५ के  बाद की अंग्रेज़ी साजिशों का सारा पर्दाफाश  यहीं  हुआ. १९३७ में लखनऊ में  हुए मुस्लिम  लीग के सम्मेलन में ही मुहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों की शह पर द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया और  तुरंत से ही उसका विरोध शुरू हो गया . उस वक़्त के मज़बूत संगठन ,हिंदू महासभा के  राष्ट्रीय अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकार ने भी अहमदाबाद में हुए अपने वार्षिक अधिवेशन में द्विराष्ट्र सिद्धांत का नारा दे दिया  लेकिन उत्तर प्रदेश में उसी साल हुए चुनावों में इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ चुकी थीं क्योंकि  यहाँ की जनता ने सन्देश दे दिया था कि भारत एक है और वहाँ दो राष्ट्र वाले  सिद्धांत के लिए कोई जगह  नहीं है . मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को चुनावों में  जनता ने नकार दिया था . कांग्रेस के अंदर जो समाजवादी रुझान शुरू हुई और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के ज़रिये आतंरिक लोकतंत्र को और मजबूती देने की जो कोशिश की गयी उसके दोनों बड़े नेता आचार्य नरेंद्र देव और डॉ राम मनोहर लोहिया उत्तर प्रदेश के ही मूल निवासी थे .  
भारतीय राजनीति में  कांग्रेस के विकल्प को तलाशने की  कोशिश भी यहीं शुरू हुई . जब डॉ  राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की अपनी राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाया तो तीन बड़े नेताओं ने उत्तर प्रदेश के कन्नौज, मुरादाबाद और जौनपुर में १९६३ के लोकसभा के उपचुनावों में हिस्सा लिया . डॉ लोहिया  कन्नौज ,आचार्य जे बी कृपलानी मुरादाबाद और दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से गैर कांग्रेसवाद के उम्मीदवार बने . इसी प्रयोग के बाद  गैरकांग्रेसवाद ने एक शकल हासिल की और १९६७ में हुए आम चुनावों में अमृतसर से कोलकता तक के  इलाके में वह कांग्रेस चुनाव हार गयी और  विपक्षी पार्टी बन  गयी जिसे जवाहर लाल  नेहरू के जीवनकाल में अजेय माना जाता रहा था . १९६७ में संविद सरकारों का जो प्रयोग हुआ उसे शासन  पद्धति का को बहुत बड़ा उदाहरण तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह पक्का है कि उसके बाद से ही यह बात आम  जहनियत का हिस्सा बन गयी कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है . सभी मानते हैं कि देश में लोकप्रिय सरकार बनाने के लिए ज़रूरी है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत बनायी जाए. अगर उत्तर प्रदेश में किसी राजनीतिक पार्टी की ताक़त नहीं है तो दिल्ली में सरकार बना पाना असंभव माना जाता है .
अब तक की सच्चाई यही है कि जो भी केन्द्र में सरकार बनाएगा उसे उत्तर प्रदेश में जीत दर्ज करना ज़रूरी है . जो उत्तर प्रदेश में हार गया उसे दिल्ली में सरकार बनाने  का हक भी साथ साथ छोड़ना पड़ता है . १९७७ में पहली बार केन्द्र में गैरकांग्रेस सरकार बनी थी . इस सरकार में उत्तर प्रदेश में जीती गयी जनता पार्टी की ८५ सीटों  का मुख्य योगदान था .उस चुनाव में कांग्रेस पार्टी के सभी उम्मीदवार उत्तर प्रदेश में चुनाव हार गए थे ,प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयी थीं . लेकिन जब १९८० में हुए चनाव में काँग्रेस ने लगभग सभी सीटें जीत लीं  तो उनकी सरकार बन गयी और इंदिरा गांधी  फिर प्रधानमंत्री बनीं.  राजनीतिक पार्टियों के भाग्योदय में  भी उत्तर प्रदेश की राजनीति एक मानदंड का काम करती है . आज का मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी है . लेकिन १९८४ में हुए लोकसभा चुनाव में उसे उत्तर प्रदेश में नकार दिया गया था . नतीजा  हुआ कि पार्टी पूरे देश में केवल दो सीटों पर सिमट गयी थी. लेकिन जब उत्तर प्रदेश में उसे सफलता मिली तो १९८९ में बीजेपी एक महत्वपूर्ण पार्टी बनी और उसे  केन्द्र में वी पी सिंह की सरकार को बनवाने का मौका मिला . बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में ही बाबरी मसजिद-रामजन्म भूमि विवाद को राजनीतिक स्वरूप दिया और उसी के बल पर केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी . अयोध्या  के विवाद को फिर से मुख्यधारा में लाने की चर्चा आजकल भी है और जानकार बताते हैं  कि २०१४ में बीजेपी , अगर सत्ता में आने में सफल होती है तो उसमें उत्तर प्रदेश का सबसे ज़्यादा योगदान होगा . शायद इसीलिये बीजेपी में  राष्ट्रीय अध्यक्ष के बाद के सबसे महत्वपूर्ण नेता और मुख्य चुनाव प्रचारक नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा ध्यान दिया है . उन्हें मालूम है कि अगर दिल्ली में राज करना  है तो उत्तर प्रदेश में मजबूती के साथ आना होगा . इसीलिये नरेंद्र मोदी ने अपने सबसे भरोसेमंद साथी ,अमित शाह को बीजेपी की तरफ से उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनवाया है . बताते हैं कि गुजरात में  नरेंद्र मोदी के चुनाव का सारा प्रबंध अमित शाह ही करते हैं  . बीच में कुछ दिनों के लिए वे गुजरात के राजनीतिक पटल से हटे थे जब उनको  कोर्ट के आदेश पर गुजरात में घुसने से मना कर दिया गया था .
केन्द्र की मौजूदा सरकार  हो या अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ,उसे उत्तर प्रदेश के  नेताओं ने ही जीवनदायिनी शक्ति बख्शी है . केन्द्र की मौजूदा सरकार का अस्तित्व केवल इसलिए बचा है कि उसे मुलायम सिंह यादव और मायावती का समर्थन हर बुरे वक़्त में मिल  जाता है . मायावती जी ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को बचा रखा था और जब उनकी सरकार के मंत्री जगमोहन ने ताज कारिडोर मामला शुरू किया तो मायावती की धमकी के बाद बीजेपी के राजनीतिक प्रबंधकों को बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ा था .
इसलिए उत्तर प्रदेश के राजनीतिक महत्व को कभी भी कमतर करके नहीं आँका जा सकता . दिल्ली की सरकार का हर रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही गुज़रता है शायद इसी लिए २०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए भी दोनों ही मुख्य पार्टियां उत्तर प्रदेश को बहुत गंभीरता से ले  रही हैं . मुलायम सिंह यादव और मायावती भी सारी ताक़त के साथ जुटे हैं कि अगर केन्द्र की सरकार में महत्वपूर्ण बने रहना है तो अपने राज्य में उन्हें मजबूती से जीतना पडेगा .

( नवभारत टाइम्स से साभार )

Saturday, August 3, 2013

तेलंगाना के फैसले पर बीजेपी वाले कांग्रेस का समर्थन करने के लिए मजबूर है


शेष नारायण सिंह
विन्ध्य के उस पार , अपने पुराने वायदे को कांग्रेस ने पूरा कर दिया है .तेलंगाना का अलग राज्य बनाने के लिए राजनीतिक फैसला लेकर प्रशासनिक काम आगे बढ़ा दिया है.  अब सरकार  और संसद का ज़िम्मा है कि इस राजनीतिक फैसले को अमली जामा पहनाये. आंध्र प्रदेश के कुछ नेताओं और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा इस फैसले  का कोई विरोध नहीं है . विरोध के लिए विरोध करने वाली राजनीतिक जमात , बीजेपी , ने तो  पहले ही अपने आप को तेलंगाना का पक्षधर घोषित कर रखा था . उनको उम्मीद थी कि कांग्रेस इस फैसले को टालती रहेगी और बीजेपी के नेता कांग्रेस को ढुलमुल काम करने वाली पार्टी के रूप में पेश करते रहेगें  लेकिन सब कुछ उलट गया . कांग्रेस ने तेलंगाना के पक्ष में वोट डाल दिया . अब बीजेपी के सामने विरोध का मौक़ा नहीं है . उसे भी कम स कम एक मुद्दे पर कांग्रेस के साथ जाना पड़ रहा है . तेलंगाना के इलाके में खुशी की लहर है .यह उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सपनों की ताबीर है . सीमान्ध्र और रायलसीमा के नेता लोग परेशान हैं . उनकी राजनीतिक ब्लैकमेल की ताक़त कम हो रही है . अलग तेलंगाना राज्य की अवधारणा १९५३ में ही कर ली गयी थी और  भाषा के आधार पर जब राज्यों का गठन हुआ तप १९५६ में ही  तेलंगाना को अलग राज्य बन जाना चाहिए था लेकिन सीमान्ध्र और रायलसीमा में भी वही भाषा बोली जाती थी जो तेलंगाना की है ,इसलिए भाषाई आधार पर राज्य को अलग नहीं किया जा सका .हाँ एक जेंटिलमैन एग्रीमेंट तेलंगाना के लोगो के हाथ आया जो  बार बार तोडा गया .तेलंगाना  के लिए १९६९ और १९७२ में बहुत ही हिंसक आंदोलन भी हुआ.  इस इलाके के लोगों के दिमागों में यह बात घर कर गयी कि उनको बेवकूफ बनाया जाता रहेगा लेकिन राज्य का गठन कभी नहीं होगा.  
कांग्रेस वर्किंग कमेटी के फैसले में ऐसी बातें हैं जिस से तेलंगाना और बाकी आंध्र प्रदेश के लोगों के साथ न्याय होगा . सबसे बड़ी बात तो यह है कि तेलंगाना को भाषाई आधार पर आंध्र प्रदेश के अंदर रखने के प्रस्ताव का जवाहरलाल नेहरू ने उस समय भी विरोध किया था जब १९५६ में आंध्र प्रदेश के ताक़तवर राजनेताओं ने हैदराबाद समेत बाकी तेलंगाना को आंध्र प्रदेश में रखने का  फैसला करवा लिया था . उन्होने कहा था कि यह शादी बेमेल थी और इसमें तलाक की गुंजाइश थी . आज वह तलाक़  हो गया है केवल कागज़ी काम होना बाकी है . जवाहर लाल नेहरू की इच्छा को उनकी पार्टी ने पूरा कर दिया है . इस बात में दो राय नहीं है कि मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी  कांग्रेस की नेहरूवादी परम्परा को आगे बढ़ा रही हैं . निष्पक्ष और पारदर्शी राजनीतिक फैसलों की परम्परा कायम कर रही हैं . अभी दस साल तक बाकी आंध्र प्रदेश की राजधानी भी हैदराबाद में ही रहेगी . प्रस्ताव में लिखा है कि आंध्र प्रदेश को अपनी नई राजधानी बनाने के काम में केन्द्र से सहायता मिलेगी.. कानून व्यवस्था की हालत बिगड न जाए इसकी जिम्मेदारी भी फिलहाल केन्द्र सरकार की होगी . इस फैसले से कांग्रेस ने हैदराबाद की स्थिति के बारे में भी स्थायी हल तलाश लिया है .  हैदराबाद से राजधानी  हटाने के लिए आंध्र प्रदेश को जो रकम मिलेगी ,उससे एक बहुत ही आधुनिक राजधानी का विकास संभव है . पोलावरम सिंचाई परियोजना को केंद्रीय प्रोजेक्ट बनाकर कांग्रेस ने दूरदर्शिता  का परिचय दिया है .अभी प्रस्ताव में दस जिलों वाले तेलंगाना की बात की गयी है . ज़ाहिर है कि कुरनूल और अनंत पुर जिलों के बारे में अभी संसद या सरकारी विचार विमर्श में विधिवत चर्चा की जायेगी .
 तेलंगाना के गठन के कांग्रेस और यू पी ए के राजनीतिक फैसले के बाद टी वी चैनलों ने गोरखालैंड, बोडोलैंड, हरित प्रदेश, बुंदेलखंड आदि राज्यों के गठन की मांग को सूचना के विमर्श का मुख्य विषय बना दिया है . इस से बीजेपी के नेता बहुत नाराज़ हैं . उनका आरोप है कि जिन न्यूज़ चैनलों पर लगातार मोदीपुराण चलता रहता है , वहाँ तेलंगाना और अन्य छोटे राज्यों की चर्चा को लाकर न्यूज़ चैनल और कांग्रेस ने बीजेपी का बहुत नुक्सान किया है . टी वी चैनलों की कृपा से चर्चा में बने रहने की बीजेपी की रणनीति को इस नए राजनीतिक विकासक्रम से भारी घाटा हुआ है .इस तरह से साफ़ समझ में आ रहा है कि कांग्रेस ने यह फैसला लेकर बीजेपी को रक्षात्मक खेल के लिए मजबूर कर दिया है . जानकार बताते हैं कि इस फैसले को एक निश्चित दिशा देने के लिए कांग्रेस के आंध्र प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह ज़िम्मेदार हैं . आमतौर पर बीजेपी की राजनीति की हवा निकालने के लिए विख्यात दिग्विजय सिंह ने इस बार राजनीतिक शतरंज की बिसात पर ऐसी चल चली है कि बीजेपी को बिना शह का मौक़ा दिए मात की तरफ बढ़ना पड़ सकता है .

Wednesday, July 31, 2013

भाई मंसूर की बेटी आयी है .



शेष नारायण सिंह
दिल्ली में राजेन्द्र नाम की दो संस्थाएं हैं जिनके पास कुछ देर बैठने से दिमाग की वैचारिक स्तर की बैटरी चार्ज हो जाती है . राजेन्द्र शर्मा में तानाशाही के लक्षण बहुत ज्यादा हैं . दिल्ली के आस पास रहने वाला कोई भी पढ़ा लिखा आदमी बता देगा कि सत्तर के दशक का तानाशाह कौन है . लेकिन विचारों की स्पष्टता लाजवाब है और अपना मतलब उसी से है  .  राजेन्द्र प्रसाद नाम की दूसरी संस्था के बारे में जानकार बताते हैं कि तानाशाह वह भी है लेकिन बात छुपी हुई रहती है , पाब्लिक डोमेन में नहीं है . बहरहाल अपनी समस्या यह है कि ज़्यादा पढ़े लिखे न होने के कारण अक्सर ही ब्लैंक हो जाते हैं , समझ में नहीं आता कि क्या करें . ऐसी सूरत में इन दो संस्थाओं में से किसी एक  के पास एकाध घंटे बैठ लेते हैं ,इन लोगों को पता भी नहीं चलता और अपन तरोताज़ा हो कर निकल पड़ते हैं .  ऐसी ही एक  सुबह पिछले हफ्ते दिल्ली में राजेन्द्र प्रसाद के पास बैठे थे कि एक झोंका आया और सामने से पाकिस्तानी टेलिविज़न की सबसे ज़्यादा चर्चित और नामवर अदाकारा प्रकट हुईं . मेरे बिलकुल सामने सानिया सईद मौजूद थीं . जिन लोगों को पाकिस्तानी टेलिविज़न के बारे में मामूली सा भी अंदाज़ है उन्हें मालूम है कि सानिया सईद का क्या मतलब है . हिन्दुस्तानी टेलिविज़न में उस टक्कर की कोई स्टार नहीं है . तुलसी का रोल कुछ दिन तक कर चुकी अभिनेत्री स्मृति ईरानी में वह संभावना थी लेकिन वे राजनीति में चली गयीं और अब टी वी की दुनिया से दूर जा चुकी हैं .
सानिया सईद आजकल भारत आयी हुई हैं . जो लोग नहीं जानते उनके लिए यह जानना  ज़रूरी है कि सानिया सईद  कौन हैं . पाकिस्तानी टेलिविज़न में वे अभिनेत्री , निदेशक, प्रोड्यूसर और एंकर के रूप में जानी जाती हैं .  समकालीन टेलिविज़न में उनके टक्कर की भारत और पाकिस्तान में कोई कलाकार नहीं है . बताया जाता है कि दस साल की उम्र में उन्होंने अभिनय शुरू कर दिया था . जब सानिया से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन्हें याद नहीं कि कब उन्होंने अभिनय शुरू किया था . क्योंकि उनके घर में थियेटर का माहौल था ,उनके  माता पिता  दिल्ली की अदब की उस परम्परा से ताल्लुक रखते हैं जिसे दिल्ली की तहजीब कहा जाता है. ऐसे माहौल में सानिया ने अपने बचपन में एक्टिंग कब शुरू की किसी को नहीं मालूम . सानिया ने बताया कि उन्होंने जब औपचारिक रूप से काम करना शुरू किया उसके पहले वे थियेटर को अपने बचपन के किसी खिलौने की तरह जानने लगी थीं .
सानिया का बचपन पाकिस्तान में जिया उल हक की तानाशाही के दौर में बीत रहा था. उनके पिता मंसूर सईद पाकिस्तान में तानाशाही निजाम के राजनीतिक दर्शन को हर मुकाम पर चुनौती दे रहे थे . राजनीतिक बिरादरी बहुत बड़े पैमाने पर  जिया उल हक के सामने घुटने टेक चुकी थी , सांस्कृतिक तरीकों का इस्तेमाल मुल्लापन्थी राजनीति को ललकार रहा था ,भाई मंसूर उस तूफ़ान के हरावल दस्ते में शामिल थे और उसी दौर में उनकी यह बच्ची बड़ी हो रही थी. अपने इंतकाल के पहले उनसे जब दिल्ली में मेरी मुलाकात हुई थी तो उन्होंने गर्व से बताया था कि उन दिनों उनको पाकिस्तान  में  सानिया सईद के वालिद के रूप में पहचाना जाता है .
 दिल्ली में मुलाक़ात के करीब तीन दिन बाद सानिया सईद से मुंबई में  अचानक मुलाक़ात हो गयी.  वर्सोवा के अपनी ममेरी बहन के फ़्लैट में फर्श पर  बैठकर जब उसने मुझसे बात की तो मुझे लगा कि भाई मंसूर और आबिदा हाशमी सईद की यह बेटी उनके मिशन को आगे ले जा रही है . जो बातें सानिया ने मुझे नहीं बताईं और जिनको पाकिस्तान का कोई भी इन्सान जानता है और भारत में जो भी टेलिविज़न और नाटक के जानकार हैं ,उन सबको मालूम है , उसे बताना ज़रूरी है .सानिया ने पाकिस्तान के हर ज्वलंत मुद्दे  पर अपने अभिनय के ज़रिये हस्तक्षेप किया है . परिवार नियोजन जैसे मुद्दे पर पाकिस्तानी टी वी पर  जिस कार्यक्रम ने तूफ़ान मचाया था उसकी मुख्य कलाकार सानिया  सईद  ही थीं . जब कार्यक्रम बानाने वालों ने उनसे कहा कि मामला परिवार नियोजन का है और ऐसी बहुत सारी बातों का उल्लेख होगा जिनको पाकिस्तानी  समाज में बहुत बोल्ड माना जाता है इसलिए उन्हें चाहिए कि वे अपने माता पिता से परमिशन ले लें तो सानिया ने कहा कि उनके पैरेंट्स को उनपर पूरा भरोसा है वे उनसे बात तो ज़रूर करेगीं लेकिन परमिशन जैसी कोई चीज़ उनके पालन पोषण में नहीं डाली गयी है . उनको हर हाल में  सही फैसले लेने की तमीज सिखाई गयी है .बहरहाल उन्होंने इस प्रोग्राम में काम किया और आहट नाम का यह कार्यक्रम पाकिस्तानी टी वी का बहुत महतवपूर्ण कार्यक्रम है .यह कार्यक्रम आज से बीस से भी ज्यादा साल पहले बना था और आज तक इसकी धमक पाकिस्तानी क्रिएटिविटी की गलियारों में महसूस की जाती है .उसके बाद सितारा और मेहरुन्निसा आया जिसकी भी के टी वी प्रोग्रामिंग में संगमील की हैसियत है . सानिया सईद ने  यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की पढाई  की है .शायद इसीलिएय जब वे किसी भी पात्र को परदे पर पेश करती हीं या नाताक में उसका रोल करती हैं तो लगता है कि सानिया नाम की  अभिनेत्री कहीं चली गयी है ,उनके रोम रोम में उसी पात्र का बसेरा हो जाता है . सानिया कम्युनिस्ट  माता पिता की बेटी हैं और यह उनके हर रोल में साफ़ नज़र आता है . कहीं नहीं लगता कि वे उपदेश दे रही हैं . उनका झुमका जान वाला रोल हर पाकिस्तानी को याद है . झुमका जान एक पारंपरिक रक्कासा थीं लेकिन उन्होंने औरत के रूप में अपनी ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जिया . पाकिस्तान के उस समाज में भी जहां कट्टरपंथियों की ही चलती है उस समाज में भी सानिया की झुमका जान एक सशक्त स्टेटमेंट के रूप में देखी गयीं , रोल को इस अभिनेत्री ने जिस तरह से किया उस से कहीं नहीं लगा कि वे झुमका जान की लिए कहीं से सहानुभूति मांग  रही हैं . झुमका जान  की असल ज़िंदगी की मजबूरियों को भी सानिया ने जो बुलंदी दी उसे देख कर किसी को भी औरत होने पर गर्व हो सकता है .
सानिया के बारे में कोई भी पाकिस्तानी आपको बता देगा वे वही करती हैं जिसमें उनको विश्वास होता है . अपने आस पास के कलाकारों से मीलों ऊपर सानिया की मौजूदगी पक्के तौर  पर सुनिश्चित हो चुकी है और आज वे समकालीन  दक्षिण एशियाई टेलिविज़न की सबसे महान कलाकार हैं .उनके कुछ प्रोग्रामों के नाम दे दे रहे हैं ,कहीं हाथ लग जाए तो देख कर ही अंदाज़ लग सकेगा कि सानिया सईद  कितनी बड़ी कलाकार हैं . नाटक—तलाश, चुप दरिया, बिला उनवान . सीरियल----- सितारा और मेहरुन्निसा, जेबुन्निसा ,आहट, आंसू, एक मुहब्बत सौ अफ़साने, कहानियां, शायद के बहार आये, और ज़िंदगी बदलती है ,खामोशियाँ,झुमका जान आदि. साने के तीन टी वी शो ऐसे हैं जिसको  हमेशा याद रखा जाएगा उनके नाम हैं , सहर होने को है  , हवा के नाम और माँ .
सानिया सईद के परिवार के बारे में जब तक ज़िक्र न किया जाए समकालीन भारतीय की समझ में ही नहीं आएगा कि आज  बुड्ढा यह क्या लिखने बैठ गया . उनके पिता मंसूर सईद ने भारत में छात्र राजनीति को दिशा दी थी लेकिन अपनी जिस कजिन से इश्क करते थे उनके माता पिता १९४७ में कराची पाकिस्तान जा बसे थे . आप शादी करने के लिए पाकिस्तान गए थे. भाई मंसूर ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय में नाम लिखाया तो स्टूडेंट फेडरेशन के सदस्य बने और आस पास के लोगों को पक्का यक़ीन हो गया कि बस अब इंक़लाब आने में बहुत कम अरसा रह गया है . यह अलग बात है कि भाई मंसूर को ऐसा कोई मुगालता नहीं था . भाई मंसूर ने कभी किसी को धोखा नहीं दिया . अपनी बचपन की दोस्त और अपनी रिश्ते की चचेरी बहन से जब वे शादी करने कराची गए तो किस को उम्मीद थी कि दोनों मुल्कों के बीच लड़ाई शुरू हो जायेगी . लेकिन लड़ाई शुरू हुई और वे वापस नहीं आ सके . लेकिन दिल्ली में उनके चाहने वालों का आलम यह था कि वे भाई मंसूर का अभी तक इंतज़ार कर रहे हैं लेकिन वे वहाँ चले जा चुके हैं हैं जहां से कोई नहीं आता .

दिल्ली और कराची में बाएं बाजू की राजनीतिक सोच को इज्ज़त दिलाने में भाई मंसूर का बहुत बड़ा योगदान है . उन्होंने बाएं बाजू की राजनीति करने वालों को पाकिस्तान के खूंखार जनरल जिया उल हक से पंगा लेने की तमीज सिखाई थी.
जब मंसूर सईद पाकिस्तान गए तो वहीं के हो गए लेकिन थे वे असली दिल्ली वाले. उनके दादा मौलाना अहमद सईद देहलवी ने1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद क़ाज़ी हुसैन अहमद और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य के बुनियाद हिल गयी थी और अंग्रेजों ने पूरी शिद्दत से भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था. जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया . मौलाना साहेब कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण लीडरों में माने जाते थे मौलाना अहमद सईद के इन्तेकाल पर पंडित नेहरु ने कहा था की आखरी दिल्ली वाला चला गया उनकी शव यात्रा में जवाहरलाल नेहरू बिना जूतों के साथ साथ चले थे.
भाई मंसूर इन्हीं मौलाना अहमद सईद के पोते थे. दिल्ली में अपने कॉलेज के दिनों में वे वामपंथी छात्र आन्दोलन से जुड़े , . उन दिनों दिल्ली में वामपंथी छात्र आन्दोलन में सांस्कृतिक गतिविधियों पर ज्यादा जोर था और इसी दौरान मंसूर सईद ने मशहूर जर्मन नाटककार ब्रेख्त के नाटकों का अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया जो बहुत बार खेला गया .अपनी पूरी ज़िंदगी में मंसूर सईद ने हार नहीं मानी हालांकि बार बार ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं कि लोगों को लगता था कि वे हार गए हैं . लेकिन वे हमेशा जीत की तरफ बढ़ते रहे. जेम्स बांड फिल्मों में शुरुआती दौर में जेम्स बांड का रोल करने वाले ब्रिटिश अभिनेता शान कोनरी और भाई मंसूर की शक्ल मिलती जुलती थी. जब कोई इस बात की तरह संकेत करता तो मंसूर सईद फरमाते थे , Yes, Sean Connery tries to look like me . सानिया सईद उन्हीं मंसूर सईद की बेटी हैं ..

Sunday, July 14, 2013

मेरे गाँव की सबसे बड़ी देवी ,काली माई , का निवास नीम के पेड़ में था




शेष नारायण सिंह

मेरे बचपन  में जब भी कोई ऐसी समस्या आती थी जिसका हल किसी इंसान के पास नहीं होता था तो मेरी माँ काली माई की पूजा करके उसका समाधान निकालती थीं. जब भी कोई बीमारी हुई और एक दिन से ज़्यादा तबियत खराब रह गयी तो मेरी माँ काली माई का आह्वान करती थीं और सब कुछ ठीक हो जाता था. वे हर सोमवार और शुक्रवार को काली माई के स्थान पर जल चढाने  जाती थींवैसे भी अगर कभी कोई परेशानी आती थी तो काली माई से गुहार लगाई जाती थी. मेरे गाँव में पचास के दशक में ईश्वर के जो स्वरूप थे उनमें काली माई सबसे प्रमुख थीं . काली माई की जो छवि मैंने बचपन में देखी थी वह सभी  संकटों का हरण करने वाली तो थीं लेकिन वे किसी मूर्ति में नहीं गाँव के पूरब तरफ एक नीम के पेड़ में विराजती थीं . पेड़ के चारों तरफ पास के तालाब से मिट्टी लाकर चबूतरा बना दिया गया था.  हर खुशी के मौके पर काली माई का दर्शन ज़रूर किया जाता था, लड़के की शादी के लिए जब बारात तैयार होती थी  तो सबसे पहले काली माई का दर्शन होता था. लड़कियों की शादी में गाँव की इज्ज़त की रक्षा वही कालीमाई करती थीं . शादी व्याह के अनिवार्य कार्यक्रमों में  काली माई के स्थान पर जाना प्रमुख  था .यह परम्परा अब तक चली आ  रही है .नीम का यह पेड़ मेरे गाँव के लोगों के लिए एक दैवीय शक्ति है और वही मेरे गांव की सामूहिक आस्था का केन्द्र है . 

जब मारवाड़ी महासभा के महामंत्री महेश राठी ने मुझसे अपने संगठन के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए कहा और बताया कि नीम का प्रचार प्रसार उनेक संगठन के प्रमुख लक्ष्यों में से एक है तो मैं वापस अपने गांव में पंहुचकर खो गया . नीम का स्वरूप मेरे मन में किसी पेड़ का नहीं है ,वह तो मेरी माँ की शक्ति का प्रतिनिधि है जिसने बड़ी से बड़ी समस्याओं को उसी नीम के पास हाजिरी लगाकर हल करवाया है .मारवाड़ी महासभा ने जो बड़े पैमाने पर नीम के वृक्षारोपण का कार्यक्रम चलाया है वह कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है . उनका यह कार्यक्रम वर्षों से चल रहा है .इस संगठन में उन्हीं मारवाड़ियों को शामिल करते हैं जिन्होंने नीम के कम से काम पांच पेड़ लगाए हों .महेश राठी मुंबई में रहते हैं और उनका यह कार्यक्रम मुंबई में आयोजित किया जा रहा है . वे मुंबई और ठाणे महानगर के सभी इलाकों में आवासीय सोसाइटियों मे नीम का पौधा लगाने का अभियान चला रहे हैं .
नीम के प्रचार प्रसार के लिए जो भी अभियान चलाए, उसका सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि नीम को गरीब आदमी के वैद्य के रूप में भारत के ग्रामीण इलाकों में सम्मान मिला हुआ है . यह भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में तो यह बहुत ही अहम वृक्ष है ही , बाकी दुनिया में भी इसे बहुत बुलंद मुकाम हासिल है .इसकी खासियत यह है कि यह कम पानी वाले इलाके में भी हरा भरा रह सकता है . सूखे की हालत में भी नीम का अस्तित्व बचा रहता है . राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों के लिए तो यह वरदान  स्वरूप ही है .नीम का पेड़  यूकेलिप्टस की तरह ज़मीन का पानी खींचकर रेगिस्तान नहीं बनाता है . रेगिस्तान को नीम हराभरा करने के काम आता है क्योंकि  यह ज़मीन का सारा पानी नहीं सोखता . नीम एक जीवनदायी  वनस्पति है . कीड़ों को दूर रखने के लिए इसका खूब इस्तेमाल होता है .यह एंटीसेप्टिक के रूप में भी इस्तेमाल होता है .कुछ इलाकों में तो नीम की पत्तों की सब्जी भी बनायी जाती है. पिछले दो हज़ार वर्षों से नीम का भारतीय जन जीवन में बहुत ही प्रमुख स्थान है .इसका इस्तेमाल डायबिटीज़ , वाइरल बुखार , और  फुंसी आदि के इलाज़ के लिए हमेशा से ही होता रहा है . शायद इसीलिये इसे पवित्र वृक्ष के अलावा ग्रामीण दवाखाना और  प्रकृति की फार्मेसी के रूप में भी जाना जाता है . बहुत सारे चर्म रोगों के इलाज़ के लिए नीम के तेल और पत्तों का इस्तेमाल होता रहा  है . बहुत सारी आयुर्वेदिक , यूनानी और सिद्ध दवाओं में  नीम के तेल का इस्तेमाल किया जाता है .  सौंदर्य प्रसाधन और साबुन में भी नीम का इस्तेमाल होता है
१९९५ में यूरोप के पेटेंट आफिस ने अमरीकी कंपनी डब्लू आर ग्रेस और अमरीका सरकार के कृषि विभाग को नीम के  के किसी प्रासेस का पेटेंट दे दिया था . भारत सरकार ने इस आदेश को चुनौती दी और यह साबित कर दिया कि भारत में बहुत सारी चिकित्सा नीम के उत्पादों के सहयोग से  होती है . इसलिए २००५ एन हमेशा के लिए भारत के पक्ष में नीम के उत्पादों का पेटेंट सुरक्षित हो गया .

मैं महेश राठी का आभारी हूँ जिन्होंने नीम के बारे में ज़िक्र करके मुझे मेरे गाँव में पंहुचा दिया और मेरे उस बचपन को जिंदा कर दिया जिसमें मेरी माँ , मेरी बड़ी बहन और कालीमाई के अलावा मेरा कोई भी रक्षक नहीं था 

जाति के आधार पर राजनीतिक मोबिलाइजेशन और जाति के विनाश का बुनियादी सवाल



शेष नारायण सिंह

इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच का एक फैसला आया है जिसमें जातियों की राजनीतिक सभाएं करने पर रोक लगा दी गयी है . जाति के आधार पर पहचान और उससे चुनावी फायदों की राजनीति करने वालों को इस फैसले से झटका  लगना शुरू ही हुआ था कि सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया  गया कि जिसमें लिखा है कि वे नेता चुनाव नहीं लड़ सकते जिनको कानूनी तौर पर गिरफ्तार किया गया हो . इसके एक दिन पहले एक फैसला आया था कि जिस नेता को किसी भी कोर्ट से दो साल या उस से ज़्यादा की सज़ा हो जाए वह भी चुनाव नहीं लड़ सकता . इन फैसलों को नेता बिरादरी स्वीकार नहीं करेगी . इन फैसलों की मंशा  को नाकाम करने के लिए अगर ज़रूरी हुआ तो वे लोग संसद के अधिकार का प्रयोग करके नियम क़ानून  भी बना सकते हैं . ज़ाहिर है कि अपनी राजनीतिक सुविधा को अमली जामा पहनाने के लिए  राजनीतिक समुदाय के लोग न्यायिक हस्तक्षेप के खिलाफ माहौल बनायेगें . आशंका है कि उसी माहौलगीरी में कहीं इलाहाबाद हाई कोर्ट का जाति आधारित चुनावी रैलियों के बारे में आया महत्वपूर्ण फैसला भी  बेअसर न हो जाए. फैसला आने के बाद शासक वर्गों की सभी राजनीतिक पार्टियां  जाति की राजनीति से बाहर निकलने के लिए तैयार नज़र नहीं आ रहीं हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि आगे क्या होता है .

उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने पिछले दिनों लखनऊ में  ब्राह्मणों की एक चुनावी सभा की थी . उस सभा में आये ब्राह्मणों को देख कर उन राजनीतिक पार्टियों के सामने मुसीबत का पहाड खड़ा नज़र आने लगा  था जो  आगामी चुनावों में उत्तर प्रदेश के ब्राहमणों को अपने साथ लेने की फ़िराक में हैं . ठीक इसी वक़्त हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका आ गयी और माननीय अदालत ने जाति के आधार पर राजनीतिक मोबिलाइजेशन के खिलाफ हुक्म सुना दिया . अगर यह हुक्म असर दिखाता है तो यह भारतीय समाज के लिए बहुत ही उपयोगी होगा . राजनीतिक बिरादरी को जाति के आधार पर लोगों को लामबंद करके वोट लेने की रिवायत से बाज़ आना चाहिए क्योंकि उत्तर प्रदेश में सक्रिय  तीन बड़ी पार्टियों के आदर्श महापुरुषों ने जाति आधारित राजनीति का विरोध किया है . कांग्रेसियों के आराध्य महात्मा गांधी , समाजवादी पार्टी के महापुरुष डॉ राम  मनोहर लोहिया और बहुजन समाज पार्टी के नेताओं के देवता , डॉ बी आर अम्बेडकर ने जाति के विनाश को अपनी राजनीति का बुनियादी आधार बनाया है. महात्मा गांधी ने जाति आधारित छुआछूत के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई के साथ साथ आंदोलन चलाया और उसे आज़ादी की लड़ाई का इथास बताया . डॉ राम मनोहर लोहिया की किताब जाति प्रथा में उनके भाषणों, पत्रों  और कुछ लेखों का संकलन है .उन्होंने जाति के विनाश की बातें बार बार कहीं थीं. उन्होंने कहा कि ,” जातियों ने हिन्दुस्तान को भयंकर नुक्सान पंहुचाया है “ एक नया जगह पर लिखा है कि ,”हिन्दुस्तान बार बार विदेशी फौजों के सामने  घुटने क्यों टेक देता है . इतिहास साक्षी है कि जिस काल में जाति के बंधन ढीले थे ,उसने लगभग हमेशा उसी काल में घुटने नहीं टेके हैं .” डॉ लोहिया कहते हैं कि  जाति का बंधन ऐसा था कि जब भारत पर हमला होता था  तो ९० प्रतिशत लोग युद्ध से बाहर रहते थे और युद्ध का काम केवल १० प्रतिशत लोगों के जिम्मे होता था.  ऐसा जाति प्रथा के कारण होता था क्योंकि युद्धका काम केवल क्षत्रियों के नाम लिख दिया गया था .उन्होंने  सवाल उठाया है कि जब ९० प्रतिशत लोगों को  राष्ट्र की रक्षा के काम से बाहर रखा जाएगा तो राष्ट्र की रक्षा किस तरह से होगी. डॉ लोहिया के पूरे  लेखन में जाति प्रथा को खत्म करने की बात बार बार की गयी है . उन्होंने कहा है कि जब तक जातियों में शादी व्याह के सम्बन्ध नहीं बनते  तब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं किया जा सकता .और जब तक जाति का विनाश नहीं होगा तब तक सामाजिक एकता की स्थापना असंभव है .


पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बी आर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था उनको विश्वास था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। अपनी किताब The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समतान्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन आज कई पार्टियां डॉ अम्बेडकर के दर्शन शास्त्र को आधार बनाकर राजनीतिक लक्ष्य हासिल कर रही  हैं .उत्तर प्रदेश की नेता मायावती और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और आज बहुजन समाज पार्टी एक राजनीतिक ताक़त है . इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली पार्टी और उसकी सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाए है।
मायावती की पिछले पचीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति की भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को  मायावती की पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।


डॉ बी आर अम्बेडकर ने जाति के विनाश के मुद्दे पर कभी कोई समझौता नहीं किया .उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला . लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ताकाफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक 
के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है। इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन है . और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास हैलेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का थालेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही हैलोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे हैयह अलग बात है।

इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रताबराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए। अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हैबराबरी . ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।
अब जाति को एक मामूली ही सही ,लेकिन सार्थक धक्का देने वाला जो  फैसला इलाहबाद हाई कोर्ट ने  किया है ,उसके आधार पर समाज के जागरूक लोगों को सक्रिय हो जाना चाहिए . जाति के विनाश के सबसे बड़े समर्थकों , डॉ राममनोहर  लोहिया  और डॉ बी आर अम्बेडकर के अनुयायियों से यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा क्योंकि उनकी सत्ता की बुनियाद ही जाति की पहचान के आधार पर बनी हुई है .इन पार्टियों में  उन महान चिंतकों की बुनियादी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। समाजशास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक  विकास में सबसें बड़ा रोड़ा है हैऔर उनके विनाश के लिए अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है लेकिन जाति के आधार पर सत्ता हासिल करने वालों से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे जाति के शिकंजे को कमज़ोर पड़ने देगें .

Saturday, July 6, 2013

डॉ अम्बेडकर ने कहा था " बाबू जगजीवन राम भारत के चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा और ऋषि राजनेता हैं ".



शेष नारायण सिंह  

महात्मा गांधी ने जगजीवनराम  बारे में  कहा था कि  " जगजीवन राम  कंचन की भांति खरे और सच्चे हैं . मेरा हृदय इनके प्रति आदरपूर्ण  प्रशंसा से आपूरित है " यह तारीफ़ किसी के लिए भी एक बहुत बड़ी सर्टिफिकेट हो सकती है . जब आज़ादी के लड़ाई  शिखर पर थी तब महात्मा गांधी ने बाबू जगजीवन राम के प्रति यह राय बनायी थी . लेकिन जगजीवन राम ने इसे कभी भी अपने सर पर सवार नहीं होने दिया हमेशा महात्माजी के बताये गए रास्ते पर चलते रहे और कंचन की तरह तप कर भारत राष्ट्र और उसकी संस्थाओं के निर्माण में लगे रहे . जवाहर लाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल के सदस्य रहेजब कामराज योजना आयी तो सरकार से इस्तीफा दिया फिर नेहरू के आवाहन सरकार में आये .  लाल बहादुर शास्त्री की  सरकार में मंत्री रहे ,इंदिरा गांधी के साथ मंत्री रहे .जब  इंदिरा गांधी ने कुछ  क़दम उठाये  तो कांग्रेसी मठाधीशों के वर्ग सिंडिकेट वालों ने इंदिरा गांधी को औकात बताने की योजना पर काम शुरू किया तो वे इंदिरा गांधी एक साथ रहे . उन्होंने कहा कि  पूंजीवादी विचारों से अभिभूत कांग्रेसी अगर इंदिरा गांधी को हटाने में  सफल हो जाते हैं तो कांग्रेस ने जो भी प्रगतिशील काम करना शुरू किया है वह सब ख़त्म हो जाएगा .इसी सोच के तहत उन्होंने चट्टान की तरह इंदिरा गांधी का साथ दिया . कांग्रेस  विभाजन के बाद वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने और कांग्रेस का नाम उनके नाम से जोड़कर देखा गया . इंदिरा गांधी जिस कांग्रेस की नेता के रूप में  प्रधानमंत्री बनी थीं उसका नाम कांग्रेस ( जगजीवन राम ) था.  पिछली सदी के सबसे महान राजनेताओं में उनका नाम शुमार किया जाता है .  दलित अधिकारों के संघर्ष का पर्याय बन चुके डॉ भीम राव आंबेडकर ने उनके बारे में जो कहा वह किसी भी भारतीय के लिए गर्व की बात  हो सकती है . बाबासाहेब ने कहा  कि ," बाबू जगजीवन राम भारत के  चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा  और ऋषि  राजनेता  हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं ".

इतनी सारी खूबियों के बावजूद बाबू जगजीवन राम ने कभी भी सफलता को अंतिम लक्ष्य  नहीं माना .अपने जीवन एक अंतिम क्षण तक उन्होंने लोकतंत्र , समानता  और इंसानी सम्मान के लिए प्रयास किया . ," बाबू जगजीवन राम भारत के  चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा  और ऋषि  राजनेता  हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं” . यह बता ऐतिहासिक रूप से  साबित हो चुकी है कि जब बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से किनारा किया तो कांग्रेस के सबसे पक्के वोट बैंक ने कांग्रेस से अपने आपको अलाग कर लिया था. जानकार बताते हैं कि अगर १९७७ की फरवरी में बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा न दिया होता तो कांग्रेस  को १९७७ न देखना पड़ा होता .इस पहेली को समझने के लिए समकालीन इतिहास पर नज़र डालना ज़रूरी है .
२४ मार्च १९७७ के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था .अजीब इत्तफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था. मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया . उत्तर भारत में कांग्रेस के खिलाफ जनता खड़ी हो गयी थी .जो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया . कांग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरारजी देसाई ने सत्ता संभाली थी चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था. सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से १ मई १९७७ के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया था .
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियां थीं .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . उस लड़के ने इंदिरा गाँधी के शासन काल में सरकार के फैसलों दखल देना शुरू कर दिया था .वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का जो रुख सामने आया ,वह बहुत ही डरावना था . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बेटे ने ऐसे लोगों को कांग्रेस की मुख्यधारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल गया . संजय गांधी के कारण  कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की हितचिन्तक पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई .लेकिन सत्ता में आने के पहले ही कांग्रेस के खिलाफ जीत कर आई पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया . जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व बाबू जगजीवन राम का था . आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधानमंत्री पद पर उनको ही बैठाया जाएगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया हैजो सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी . इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था . आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमंत्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियां और सक्रिय हो जायेगीं . जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता . जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इंदिरा गाँधी ने इसलिए की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था. विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं .जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे ,वे आराम की बात ही कर रहे थे. ,सबकी हिम्मत पस्त थी लेकिन २ फरवरी १९७७ के दिन सब कुछ बदल गया . जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी . सरकार से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थे . उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया . इंदिरा गाँधी के खिलाफ आंधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं . सबको मालूम था कि १९७७ के चुनाव में उत्तर भारत के दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया था लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने की बात आई तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है .मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे . और इस तरह एक बड़ी संभावित सामाजिक क्रान्ति को कुचल दिया गया . जनाकांक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया . उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर अपने हितों की साधना में लग गए . जनता पार्टी में आर एस एस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे . ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामंती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था. जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिंदा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी . जो सरकार पांच साल के लिए बनाई गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी . 
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भांप लिया था. और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गए थे. १९७१ में ही वंचितों के हक के पैरोकारकांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए काम करना शुरू कर दिया था. उन्होंने डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस,६ दिसंबर के दिन १९७८ में नई दिल्ली के बोट क्लब पर दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत बड़ा सम्मलेन किया  बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था . शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डी एस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गई. इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बंधी उसके निराशा में बदल जाने के बाद दलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना. जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिए एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया . बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी. इस तरह हम देखते हैं कि हालांकि मोरारजी देसाई का प्रधानमंत्री बनना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की हैसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक बहुत बड़े रोड़े के के रूप में हमेशा याद किया जाएगा . यह भी सच है कि जगजीवन राम के कांग्रेस से अलग होने के बाद सामाजिक  परिवर्तन की जो संभावना बनी थी वह मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के बाद शून्य में बदल गयी .