Monday, May 6, 2013

तालिबान का फरमान---महिलायें वोट नहीं देगीं,पाकिस्तानी लड़कियों ने कहा--देखें कौन रोकता है


    

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान में ११ मई को होने वाले आम चुनाव पर पूरी दुनिया की निगाहें लगी हुई हैं . दुनिया भर के , खासकर पश्चिमी देशों के अखबारों में उसके बारे में ख़बरें छप रही हैं .लोकशाही की पक्षधर जमातों को लग रहा है कि शायद पाकिस्तान में मजबूती के साथ सिविलियन और लोकतांत्रिक हुकूमत कायम हो सके . लेकिन लगता है कि पिछले पचास साल से साम्प्रदायिक ताक़तों ने जो विचारधारा का शून्य पैदा किया है उसके चलते अभी पाकिस्तान में  लोकतंत्र की स्थापना में बहुत वक़्त लगेगा . पाकिस्तान के मौजूदा चुनाव के लिए सबसे बड़ा ख़तरा पुरातनपंथियों और तालिबानी सोच के लोगों से है . पाकिस्तान के सूबा सरहद में तालिबानियों की ओर से पर्चे बांटे जा रहे हैं जिसमें अपील की जा रही है कि चुनाव के दिन कोई भी महिला घर से बाहर न निकले और वोट न डाले . सूबा सरहद को अब खैबर पख्तूनख्वां नाम दे दिया गया है . सूबे के मर्दों को हिदायत दी जा रही है कि अपने घर की औरतों को वोट डालने के लिए घर से बाहर न निकलने दें . जो पर्चे बांटे जा रहे हैं उनमें लिखा है कि औरतों के लिए डमोक्रेसी में शरीक होना गैर इस्लामी है .

पाकिस्तानी तालिबान की इस गैर ज़िम्मेदार जिद के आगे पाकिस्तानी लड़कियों का एक ग्रुप खड़ा हो गया है . अवेयर गिल्स नाम का  युवतियों का यह संगठन तालिबानियों को हर मुकाम पर चुनौती दे रहा है. मलाला युसुफजई नाम की जिस लडकी को स्कूल जाने से रोकने के लिए तालिबानियों ने  हमला किया था, वह इसी  संगठन की सदस्य है और आजकल लन्दन में शिक्षा पा रही है . अवेयर गर्ल्स  नाम के संगठन की संस्थापक सबा इस्माइल ने अपने संगठन की स्थापना करीब आठ साल पहले की थी जब वह केवल १६ साल की थी . आज वह २४ साल की हैं इसकी निदेशक हैं . वे तालिबानियों की मर्दवादी सोच को नाकाम करने के लिए  धमकियों की परवाह किये बिना अपना काम कर रही है . अवेयर गर्ल्स का मकसद बिलकुल साफ़ है . वह औरतों के अधिकारों के लिए उनको जागरूक करने का अभियान चला रहे है.’इस संगठन की शुरुआत इसलिए हुई  कि सबा इस्माइल ने देखा कि उसके अपने घर में लड़कों को ज्यादा अहमियत दी जा रही  थी जबकि उन्हीं लड़कों की सगी बहनों को दूसरे दर्जे का इंसान माना जा रहा था. यही हाल बाकी घरों का भी था . उनकीछोटी  चचेरी बहन कुल १५ साल की थी और उसकी शादी उस से दुगुनी उम्र के आदमी के साथ तय कर दी गयी थी. वह पढाई नहीं पूरी कर सकी जबकि उससे बड़े उसके भाई पढ़ रहे .उनके मोहल्ले में ऐसा माहौल था कि जो लडकियां चुपचाप फटकार और मारपीट को क़ुबूल कर लेती थीं उनकी बहुत इज्ज़त  होती थी . जो औरत अपने बाप या पति की हर उल्टी सीधी बात को मान लेती थी उसे  बहुत सम्माननीय माना जाता था . अवेयर गर्ल्स ने इसका विरोध  किया और आज जब तालिबानी सोच के लोग लड़कयों को वोट नहीं देने की हिदायत दे रहे हैं तो खैबर पख्तूनख्वां  में यह लडकियां इन्साफ के हरावल दस्ते में शामिल हैं .पाकिस्तानी समाज की मर्दवादी सोच को उनके घर में ही इन बहादुर लडकियों से चुनौती मिल रही है .
 पाकिस्तान के ११ मई को होने वाले चुनाव को नौजवानों का चुनाव कहा जा रहा है . कुल मतदाताओं का करीब ३५ प्रतिशत १८ से २९ साल की आयु वर्ग में शामिल है . ऐसे माहौल में पूरे देश में लडकियां मैदान ले चुकी हैं और सरकार, सेना और तालिबानी सोच के नेताओं को लगातार चुनौती दे रही हैं .२००८ के चुनावों में बहुत सारे पोलिंग बूथों को जला दिया गया था और कहा गया था कि वोट देना ऐसा काम है  जिसमें महिलाओं को शामिल नहीं होना चाहिए क्योंकि वह बहुत ही गन्दा काम है . सबा इस्माइल का कहना है कि पाकिस्तान में जहां औरतों को वोट देने का मौक़ा भी नसीब होता है वहाँ उनके पति या पिता या और कोई पुरुष रिश्तेदार तय करता है कि वोट किसको दिया जाना है .यह लड़कियां इस व्यवस्था को खत्म करना चाहती हैं . उनका आरोप है कि कोटा पूरा करने के लिए जिन कुछ महिलाओं को राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होने दिया जाता है उन्हें भी अपनी मर्ज़ी से कोई फैसला लेने का हक नहीं होता . उनको भी उनके परिवार के मालिक अपने हुक्म से हांकते हैं .
सेना ने ऐलान कर रखा है कि ७० हज़ार सैनिकों को चुनावी ड्यूटी पर लगाया जायेगा .बलूचिस्तान और खैबर पक्तूनख्वां में लड़कियों को वोट देने से रोकने के लिए आतंकवादियों ने बहुत जोर लगा रखा है . इसके बावजूद भी उम्मीद की जा रही है कि इस बार २००८ के ४४ प्रतिशत से ज़्यादा वोट पडेगा और लड़कियों के आन्दोलन का नतीजा होगा कि तालिबान के गढ़ में भी महिलायें पहले से ज्यादा वोट डालने में सफल होगीं .

Saturday, May 4, 2013

चीनी घुसपैठ के पीछे कहीं उस इलाके का यूरेनियम तो नहीं है ?



शेष नारायण सिंह
लद्दाख में चीनी सेना भारतीय नियंत्रण वाले कुछ क्षेत्रों में घुस आयी है और भारत में इस मुद्दे पर राजनीतिक तूफ़ान मचा हुआ है . मीडिया में हायतोबा मची हई है जैसे दोनों देशों के बीच युद्ध शुरू हो गया हो . भारत में चीन के सन्दर्भ में बहुत भावनात्मक स्तर पर प्रतिक्रिया होती है क्योंकि पचास साल बीत जाने के बाद भी यहाँ १९६२ का चीन का हमला कोई भी नहीं भूल पाया है . चीन के इस काम को कूटनीतिक हलकों में समझ पाना बहुत मुश्किल हो रहा है क्योंकि चीन के मौजूदा रुख से उसका बहुत नुक्सान होने वाला है . आजकल भारत और चीन के बीच व्यापार बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है . २००१ में दोनों देशों के बीच करीब 150 अरब रूपये का कारोबार होता था आज वह बहुत बड़ा हो गया है .बीते साल भारत और चीन के बीच करीब 3300  अरब रूपये का कारोबार हुआ  . इस कारोबार में चीन मुख्य लाभार्थी हैं क्योंकि चीन भारत को जो कुछ निर्यात करता है उसका एक बहुत ही मामूली हिस्सा वह भारत से आयात करता है यानी भारत-चीन व्यापार का पलड़ा चीन के पक्ष में झुका हुआ है और  चीन के तेज़ी से हो रहे आर्थिक विकास में चीन से होने वाले निर्यात का भी योगदान है . अगर दोनों देशों के बीच रिश्ते खराब होते हैं तो जाहिर है यह व्यापार भी प्रभावित होगा और उसका आर्थिक नुक्सान चीन को ही उठाना होगा. भारत से अच्छे संबंधों का कूटनीतिक लाभ चीन को बाकी दुनिया में भी मिल रहा है . ब्रिक्स देशों की जो राजनीति है उसमें चीन को रूस,ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका की तरह ही भारत के साथ होने का लाभ मिल रहा है भारत की हैसियत अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हमेशा से ही एक प्रभावशाली देश की रही है .यहाँ तक कि जब भारत एक गरीब देश माना जाता था तब भी गुटनिरपेक्ष देशों के नेता के रूप में भारत की पहचान एक ऐसे देश की थी जो अमरीका और रूस की मर्जी के खिलाफ कोल्ड वार में सीधे शामिल होने को तैयार नहीं था. चीन को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि १९६२ में जब उसने भारत पर हमला किया था तो उसकी छवि एक आक्रांता देश के रूप में बन गयी थी . पूरी दुनिया में चीन को एक शान्तिविरोधी देश के रूप में देखा जाता था . वह तो जब अपनी आन्तारिक राजनीतिक मजबूरियों को ठीक करने के लिए अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और विदेशमंत्री हेनरी किसिंजर ने चीन के साथ सम्बन्ध ठीक करने की योजना पर काम करना शुरू किया तब जाकर अंतरराष्ट्रीय जगत में चीन को स्वीकार करने का रिवाज़ शुरू हुआ . इसलिए यह पहेली समझ में नहीं आती कि चीन भारत से रिश्ते खराब करने के लिए क्यों कोशिश करता नज़र आ रहा है जबकि उसमें उसका कोई फायदा नहीं होने वाला है बल्कि नुक्सान ही ज्यादा होगा . बाकी दुनिया की तरह चीन को भी मालूम है कि भारत को आसानी से धमकाया नहीं जा सकता क्योंकि चीन की तरह ही भारत भी परमाणु हथियार संपन्न देश है और उसकी सैनिक क्षमता १९६२ की तुलना में बहुत ही अच्छी है.
चीन की आतंरिक और पड़ोसी राजनीति भी उसे किसी और मोर्चे पर दुश्मनी का राग शुरू करने की अनुमति नहीं देती . अपने दो महत्वपूर्ण पड़ोसियों जापान और फिलीपीन से उसके कूटनीतिक सम्बन्ध बहुत खराब हो चुके हैं और  रोज ही बिगड रहे हैं . चीन के अंदर भी कुछ राज्यों में तनाव का माहौल है .कुछ राज्यों में अलग अलग समूहों के बीच हिंसक वारदात हो रही हैं .लद्दाख  के देस्पांग इलाके में चीन के सैनिकों की तरफ से पांच टेंट लगा लेने का जो सन्देश भारत की अवाम के बीच पंहुचा है वह १९६२ में खराब हुए रिश्तों को और खराब कर देने की क्षमता रखता है . भारत में एक ताक़तवर विपक्ष है और उस विपक्ष की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी है जिसको चीन के खिलाफ जनमत बनाने से राजनीतिक फायदा होता है क्योंकि वह  देश में एक सन्देश देने की कोशिश करती है कि वामपंथी राजनीतिक विचारधारा वाला चीन हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है और उसका विरोध किया जाना चाहिए. उसके साथ साथ ही बीजेपी राजनीतिक रूप से ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करती है कि भारत में उन राजनीतिक पार्टियों का विरोध किया जाना चाहिए जो कम्युनिस्ट विचारधारा से किसी तरह का वास्ता रखती हों .

इस पृष्ठभूमि भारत से किसी तरह की दुश्मनी चीन के लिए भी घातक हो सकती है इसलिए लद्दाख में उसकी कारस्तानी को समझने के लिए और कुछ और पक्षों पर नज़र डालना होगा .आज की सच्चाई यह है कि लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना भारत के इलाक में घुस गयी है और करीब बीस किलोमीटर अंदर आकर अपने टेंट लगा दिए हैं . गाफिल पड़े भारतीय मिलिटरी इंटेलिजेंस वालों की तरफ से तरह तरह की व्याख्याएं सुनने को मिल रही है लेकिन सच्चाई यह है कि भारतीय सीमा में चीनी सैनिक जम गए हैं और ताज़ा जानकारी के मुताबिक वे वहाँ से हटने को तैयार नहीं हैं .जम्मू-कश्मीर में लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी सेक्टर में घुसे चीनी सैनिकों ने  तंबू लगाकर अस्थायी चौकी बना ली है.चीन के टेंट को हटाने की कूटनीतिक कोशिशें जारी हैं लेकिन चीनी सेना फिलहाल पीछे हटने को तैयार नहीं है। दोनों पक्षों के बीच कई बार फ्लैग मीटिंग होने के बावजूद चीन अपने रुख पर अड़ा हुआ है। इस मसले को बातचीत से सुलझाने की बजाय चीनी सैनिक भारतीय क्षेत्र में और भीतर तक बढ़ने की कोशिश में हैं। सूत्र बताते हैं कि घुसपैठ कर रहे चीनी  सैनिकों के पास आधुनिक हथियार  हैं और वे वापस जाने के लिए नहीं आये हैं .
चीनी सेना ने जिस इलाके में घुसपैठ की है वहाँ कोई आबादी तो नहीं है लेकिन इस बात की भी चर्चा है कि उस क्षेत्र में भूगर्भ वैज्ञानिकों ने यूरेनियम होने के संकेत दिए हैं .अगर ऐसा है तो दोनों ही देशों के  लिए इस क्षेत्र का महत्व बहुत बढ़ जाता है कि क्योंकि परमाणु ऊर्जा और परमाणु हथियारों के  लिए  यूरेनियम की ज़रूरत पड़ती ही रहती है . यह बात अभी पक्के तौर पर नहीं मालूम है लेकिन अगर चर्चा है तो धीरे धीरे सब कुछ साफ़ हो जाएगा. भारत में चीन की इस कारस्तानी की तरह तरह से व्याख्या की जा रही है .जानकार बता रहे हैं कि चीन लदाख में भारतीय इलाके में  घुसकर ऐसा माहौल बनाने के चक्कर में है जिससे वह भारत पर दबाव बढ़ा  सके जिस से भारत अपनी सीमा के अंदर जो सड़कें आदि बना रहा है उसे रोका जा सके .चीन ने अपनी तरफ तो बहुत सारी कांक्रीट वाली सड़कें बना ली हैं रेलवे लाइनें बिछा दी हैं  यहाँ तक कि कश्मीर के उन इलाकों में भी चीनी कब्जा हो चुका है जिसे पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर कहा जाता है .दुनिया जानती है कि पाकिस्तान की हिम्मत चीन के हितों की अनदेखी करने की नहीं है .लेकिन चीन ने भारत में उन लोगों के सामने मुश्किल खड़ी कर दिया है जो दोनों देशों के बीच में  रिश्ते सुधारने के पक्ष में हैं . लद्दाख में चीनी सेना के तम्बुओं ने भारत के उदारमना लोगों की मुश्किल बढ़ा दी है . लेकिन चीन की अपनी रणनीति है .उसने कूटनीतिक चैनलों के ज़रिये यह बात भारत तक पंहुचा दिया है कि दोनों देशों की विवादित सीमा में भारत के कब्जे वाले इलाके में भी अगर भारत कोई स्थायी निर्माण करता है तो वह चीन को स्वीकार नहीं होगा . यह भारत के हित में है कि चीन की इस बात को वह गंभीरता से न ले और तेज़ी से अपना काम करता रहे . अपनी सीमा के अंदर भारत भी चीन की तरह मज़बूत सड़कें वगैरह बनवाता रहे और सीमा पर ऐसी तैयारियां रखे कि अगर चीन किसी तरह के सैनिक एडवेंचर की कोशिश करे तो उसको माकूल जवाब दिया जा सके. कूटनीतिक मोर्चे पर चीन की स्थिति बहुत साफ़ है . वह यह मानने को तैयार नहीं है कि कहीं कोई गडबड है . चीनी नेता तो यह भी मानने को तैयार नहीं है कि उनके हेलीकाप्टरों ने भारतीय  इलाके में कोई घुसपैठ की थी. इस बीच दोनों देशों के बीच बातचीत का सिलसिला भी जारी है . अगले हफ्ते भारत के विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद चीन की यात्रा पर जा रहे हैं .हालांकि भारत की कुछ विरोधी पार्टियां इस दौरे का विरोध कर रही हैं. बीजेपी का विरोध तो शुद्ध रूप से राजनीतिक है लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार को समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव भी चीन से अच्छे संबंधों की कीमत पर सीमा पर चीन की गतिविधियों के घोर विरोधी हैं . उन्होंने पिछले दिनों संसद में बहुत ही ज़ोरदार शब्दों में भारत की चीन नीति का विरोध किया और मांग की कि जब तक चीन अपनी सेना को भारत के क्षेत्र से वापस नहीं बुला लेता तब  तक विदेशमंत्री को चीन जाने की ज़रूरत नहीं है .
 अमरीका भी भारत और चीन के अच्छे संबंधों का  पक्षधर हो गया है .अमरीकी विदेश विभाग के प्रवक्ता पैट्रिक वेंट्रल ने अपनी नियमित प्रेस वार्ता में बताया कि अमरीका चाहता है कि भारत और चीन अपने सीमा विवाद को आपसी बातचीत से बिना किसी अन्य देश के सहयोग  के खुद  हल कर लें .यह अलग बात है कि भारत और चीन को अब अमरीकी राय की कुछ भी परवाह नहीं है लेकिन हर देश के मामलों में दखल देने की आदत बना चुके अमरीका को कुछ न कुछ कहना होता है सो उसने भी अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया है .
इस बीच संतोष की बात यह है कि चीनी घुसपैठ के बावजूद दोनों देशों के बीच सामान्य संवाद की स्थिति बनी हुई है . चीन की यात्रा पर जा रहे विदेशमंत्री की यात्रा का विरोध बीजेपी वाले कर ही रहे हैं . लेकिन वे जायेगें . समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने अपने लोकसभा वाले भाषण में कह दिया था कि सेना के मुखिया ने सरकार से लद्दाख क्षेत्र में घुस आये चीनियों को खदेड़ने की अनुमति माँगी है . यह गंभीर मामला है क्योंकि सेनाध्यक्ष  को सरकार के हुक्म का पालन करना  होता है उनके पास किसी तरह का कूटनीतिक दखल देने का अधिकार नहीं होता . बहरहाल सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति के सामने बुधवार को सेनाध्यक्ष की पेशी हुई और उनसे स्थिति की सही जानकारी ली गयी . उन्होने  साफ़ किया कि उन्होंने ऐसी कोई बात कहीं नहीं की थी और सेना की तैयारी के बारे में भी सरकार को जानकारी दी. सेना का चीनी सेना के साथ प्रस्तावित अभ्यास भी अभी रद्द नहीं किया गया है . दो देशों की सेनाएं समय समय पर  अभ्यास करती रहती हैं .इसके अलावा मई दिवस के दिन भारतीय सेना का एक प्रतिनधिमंडल चीन की सीमा में जाकर उनके समारोह में शामिल हुआ . दोनों देशों के बीच साल में चार बार इस तरह की औपचारिक मुलाकातें होने की परम्परा है . चीनी सेना के अफसर भारत की सीमा में १५ अगस्त और २६ जनवरी को आते हैं और भारतीय सेना का प्रतिनिधिमंडल चीन की तरफ  मई दिवस  के लिए १ मई को और चीन के राष्ट्रीय दिवस के जश्न के लिए १ अक्टूबर को जाता है . दुनिया के शांतिप्रिय लोगों की नज़र चीनी घुसपैठ पर  लगी हुई है क्योंकि अगर दो बड़े देशों के बीच तनाव बढ़ेगा तो शान्ति को बहुत बड़ा नुक्सान होगा.

Thursday, May 2, 2013

जंग मगरिब में या कि मशरिक में ,उसका विरोध किया जाना चाहिए



 
 
शेष नारायण सिंह
 
 
लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना भारत के इलाक में घुस गयी है और करीब बीस किलोमीटर अंदर आकर अपने टेंट लगा दिए हैं . गाफिल पड़े भारतीय मिलिटरी इंटेलिजेंस वालों की तरफ से तरह तरह की व्याख्याएं सुनने को मिल रही है लेकिन सच्चाई यह है कि भारतीय सीमा में चीनी सैनिक जम गए हैं और ताज़ा जानकारी के मुताबिक वे वहाँ से हटने को तैयार नहीं हैं .जम्मू-कश्मीर में लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी सेक्टर में घुसे चीनी सैनिकों ने यहां अपना एक और तंबू गाड़ कर अस्थायी चौकी बना ली है.चीन के टेंट को हटाने की कूटनीतिक कोशिशें जारी हैं लेकिन  चीनी सेना फिलहाल पीछे हटने को तैयार नहीं है। दोनों पक्षों के बीच तीन बार फ्लैग मीटिंग होने के बावजूद चीन अपने रुख पर अड़ा हुआ है। इस मसले को बातचीत से सुलझाने की बजाय चीनी सैनिक भारतीय क्षेत्र में और भीतर तक बढ़ने की कोशिश में हैं। सूत्र बताते हैं कि घुसपैठ कर रहे चीनी  सैनिकों के पास आधुनिक हथियार  हैं और वे वापस जाने के लिए नहीं आये हैं . यू पी ए के मुख्य सहयोगी समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने लोक सभा में लद्दाख क्षेत्र में  चीनी  घुसपैठ के मुद्दे को बहुत जोर शोर से उठाया .उन्होंने कहा कि  डॉ राम मनोहर लोहिया ने आज़ादी के बाद ही जवाहर लाल नेहरू को चेतावनी  दे दी थी कि चीन के इरादों से चौकन्ना रहें लेकिन नेहरू ने उनकी बात को तवज्जो नहीं दी . और चीन से दोस्ती का राग जारी रखा . जब तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाइ भारत आये थे तब भी डॉ लोहिया ने उनकी मंशा पर नज़र रखने को कहा था लेकिन जवाहरलाल नेहरू उन दिनों पंचशील की बात पर अड़े हुए थे . जब १९६२ में चीन ने  हमला कर दिया तब नेहरू की आँखें खुलीं लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और चीन ने भारत को पीछे हटने को मजबूर कर दिया था . मौजूदा चीनी कार्रवाई के बारे में मुलायम सिंह यादव ने कहा कि सरकार इस मामले में हाथ में हाथ धरे बैठी है.उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार घुसपैठ की समस्या से निपटने में कायरों की तरह काम कर रही है.उन्होंने चीन को भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बताया और कहा कि पाकिस्तान हमारा दुश्मन नहीं है .उन्होंने कहा कि हम कई वर्षों से  चेतावनी दे रहे हैं कि चीन ने हमारे क्षेत्र पर कब्जा करना शुरू कर दिया है. लेकिन सरकार है कि सुनने को तैयार नहीं है.”मुलायम सिंह यादव ने कहा सेना चीन को खदेड़ने के लिए तैयार है लेकिन सरकार की तरफ से इस मामले में भी ढिलाई बरती  जा रही है . मुलायम सिंह ने दावा किया  कि “ये सरकार कायर, अक्षम और बेकार है.” साथ ही उन्होंने खुर्शीद के चीन की यात्रा पर जाने के माले में भी सवाल उठाए. चीन के प्रधानमंत्री की अगले महीने होने वाली भारत यात्रा की तैयारियों के सिलसिले में खुर्शीद नौ मई को चीन जा रहे हैं.उन्होंने कहा कि जब चीन हमारे क्षेत्र में घुस रहा है क्या विदेश मंत्री चीन के दौरे पर भीख मांगने जा रहे हैं .मुलायम सिंह यादव ने सरकार से यह भी कहा कि जब सेना प्रमुख कह रहे हैं कि वे चीनियों को वापस खदेड़ने के लिए तैयार हैं तो  सरकार क्यों नहीं क़दम उठाती . मुलायम सिंह को यह पता होना चाहिए कि अगर सरकार फौज के ज़रिये सीमा की समस्या का हल निकालने की कोशिश करेगी तो युद्ध होगा और डॉ राम मनोहर लोहिया कभी भी युद्ध के पक्ष में नहीं थे. वे हमेशा शान्ति पूर्ण तरीके से ही समस्या का हल निकालने के पक्ष धर रहे . क्योंकि जंग मगरिब में या कि मशरिक में ,खून गरीब इंसान का ही बहता है . सत्ताधीश तो खून बहाने के बाद शान्ति समझौते करते नज़र आते हैं . १९६२ की लड़ाई के बाद भारत और चीन के सम्बन्ध बहुत बिगड गए थे . दोनों देशों के बीच में कूटनीतिक सम्बन्ध भी खत्म हो गए तह लेकिन जब अमरीका ने हेनरी कीसिंजर के दौर में चीन से  दोस्ती बढानी शुरू की तो  बाकी दुनिया में भी माहौल बदला और भारत ने चीन के साथ दोबारा १९७६ में कूटनीतिक सम्बन्ध कायम कर लिया लेकिन दोनों देशों के बीच जो चार हज़ार किलोमीटर की सीमा है उसमें जगह जगह पर विवाद के मौके पैदा होते रहते हैं . चीन के १९६२ के हमले के पचास साल बाद भी आज दोनों देशों के बीच सीमा का विवाद  कहीं से भी हल होता नज़र नहीं आता .सीमा के  इलाकों में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां दोनों ही देश अपनी दावेदारी की बात करते  हैं. लद्दाख में  बहुत बड़े भारतीय भूभाग पर चीन का कब्जा है . वह उसको अपना बताता है और उसका दावा है कि बाकी लद्दाख भी उसी के पास होना चाहिए . अरुणाचल प्रदेश को भी चीन अपना बताता है और सारी दुनिया में कहता फिरता है कि भारत ने उसके इलाके पर कब्जा कर रखा है . अरुणाचल के विवाद की जड़ में पूर्वी भाग की करीब नौ सौ  किलोमीटर की सीमा पर झगडा है . करीब सौ साल पहले १९१४ में सर हेनरी मैकमोहन ने तिब्बत और ब्रिटेन के बीच इस विवाद को सुलझा देने का दावा किया था .तिब्बत  तब एक स्वतन्त्र देश हुआ करता था .आजकल तो चीन का कब्जे में है .जो सीमा रेखा तय हुई थी उसको ही आज मैकमोहन लाइन कहते हैं .जब ब्रिटेन और तिब्बत के बीच सीमा की बातचीत चल रही थी तो भारत तो पूरी तरह से ब्रिटेन के अधीन था .ज़ाहिर है कि उसका हित ब्रिटेन ही देख रहा था . और ब्रिटेन एक ताक़तवर साम्राज्य था इसलिए उस विवाद को सुलझाने में सर हेनरी मैकमोहन ने चीन को भी केवल आब्ज़र्वर की हैसियत ही दी थी ,उसको विचारविमर्श में शामिल नहीं किया था. मैकमोहन लाइन की एक खास बात यह भी है कि वह बहुत मोटी निब वाले कलम से मार्क की गयी थी जिसकी वजह से  गलती का मार्जिन १० किलोमीटर तक का है . ८९० किलोमीटर की सीमा में अगर १० किलोमीटर का गलती का मार्जिन है तो वह करीब ८९०० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को विवाद की ज़द में तुरंत ही स्थापित कर देता है .उत्तराखंड के इलाके में भी भारत और चीन का सीमा विवाद होता ही रहता है क्योंकि बहुत सारे इलाके ऐसे हैं जहां भारतीय और चीनी सैनिक पंहुच ही नहीं सकते . नतीजा यह होता है कि सेना के साथ काम करने वाले कुत्तों का इस्तेमाल ही अपनी सीमाओं को रेखांकित करने के लिए किया जाता है .भारत और चीन के बीच में कई बार ऐसे माहौल को देखा गया है जैसा कि आजकल बना हुआ है . एक बार तो १९८६ में ऐसा लगने लगा था कि उत्तरी तवांग जिले में फौजें भिड जायेगीं . भारत ने भी अपने करीब दो लाख सैनिक वहाँ भेज दिया था लेकिन बात संभल गयी . सच्चाई यह है कि दोनों देशों के बीच में १९६२ की लड़ाई के बाद बहुत ही तल्ख़ रिश्ते बन गए थे और १९६७ तक कभी कभार सीमा पर तैनात दोनों देशों के सैनिकों के बीच गोली भी चल जाया करती थी लेकिन १९६७ के बाद दोनों देशों के बीच एक भी गोली नहीं चली है . १९६२ की अपमानजनक हार के बाद भारत में चीन को लेकर बहुत चिंताएं हैं . चीन के साथ किसी तरह की  दोस्ती की बात को आगे बढ़ा पाना भारतीय राजनेताओं के लिए लगभग असंभव होता है .लेकिन दोनों देशों के बीच के झगडे को खत्म करने का एक ही तरीका है कि भारत और चीन यह बात स्वीकार कर लें कि जो जहां है वहीं ठीक है . भारत के बहुत बड़े भूभाग पर चीन का कब्जा है . कश्मीर और लद्दाख में कई जगहों पर चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर भारतीय ज़मीन पर कब्जा कर रखा है . चीन दावा करता है कि अरुणाचल प्रदेश समेत एक बड़ा हिस्सा उसका है जिसपर भारत का  कब्जा है .ज़ाहिर है  कि दोनों ही  देश सैनिक ताक़त में बहुत मज़बूत हैं . दोनों ही परमाणु हथियार संपन्न देश हैं और आर्थिक ताक़त भी बन रहे हैं . न चीन भारत को हडका सकता है और न ही चीन भारत से डरने वाला है . ज़ाहिर है दोनों देशों के विवाद को हल करने में सेना का  कोई योगदान नहीं होगा . जो भी हल निकलेगा वह बातचीत से ही निकलेगा . और बातचीत में सहमति का सबसे मज़बूत आधार स्टेट्स को यानी यथास्थिति को बनाए रख कर समझौता करना ही हो सकता है . इस तरह का प्रस्ताव अस्सी के दशक में चीन के प्रधानमंत्री डेंग शाओपिंग दे भी  चुके हैं लेकिन भारत में यथास्थिति को बरकरार रख कर कोई समझौता करने वाली पार्टी और उसका नेता राजनीतिक रूप से समाप्त हो जाएगा . इन खतरों के बावजूद  2003 में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार ने पहल की और वाजपेयी सरकार ने यथास्थिति के सिद्धांत का पालन करते हुए शान्ति स्थापित करने की कोशिश शुरू की . चीन ने भी जो ज़मीन भारत के पास  है उसको भारत का मानने की  नीति पर काम करना शुरू कर दिया. दोनों देशों ने  इस काम के लिए विशेष दूतों की तैनाती की और बातचीत का सिलसिला चल पड़ा .अब तक इस सन्दर्भ में दो दर्ज़न से ज्यादा बैठकें हो चुकी हैं .२००५ में एक समझौता भी हुआ जिसमें संभावित अंतिम समझौते के दिशा निर्देश और राजनीतिक आयाम को शामिल किया गया है .इस समझौते में यह भी लिखा है कि आबादी का विस्थापन  नहीं होगा. इसका मतलब यह हुआ कि चीन तवांग जिले पर अपनी दावेदारी को भूलने को तैयार था. लेकिन बाद में सब कुछ बिगड गया . चीन ने मीडिया और अपने नेताओं के ज़रिये अजीबोगरीब बातें करना शुरू कर दिया और कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों के लिए अलग तरह  का वीजा देना शुरू कर दिया . जिसके कारण रिश्ते खराब होते गए . चीन ने सीमा के पास बहुत  ही अच्छी सड़कें बना ली हैं और भारत ने भी असम के आसपास अपनी सैनिक मौजूदगी को और पुख्ता किया है . दोनों देशों के बीच जो अविश्वास का माहौल बना है उसके चलते सब कुछ गडबड होने की दिशा में पिछले कई वर्षों से चल रहा है और लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी सेकटर में चीनी सैनिकों का आगे बढ़ कर अपने  टेंट लगा देना उन्हीं  बिगड़ते रिश्तों का एक नमूना है . लेकिन बिगड़ते रिश्तों को ठीक करने की कोशिश की जानी चाहिए ,उसके लिए हर तरह के प्रयास किये जाने चाहिए क्योंकि दोनों देशों के बीच अगर युद्ध की  स्थिति बनी तो खून तो गरीब आदमी का ही बहेगा .

Tuesday, April 30, 2013

उत्तरी इराक की भारी तेलसम्पदा स्वतन्त्र कुर्दिस्तान को जन्म दे सकती है



शेष नारायण सिंह
अमरीका या इराक कभी नहीं चाहेगा कि  उत्तरी इराक का इलाका एक अलग देश बन जाय लेकिन आज जो हालात हैं उन पर अगर एक नज़र डालें तो कुछ वर्षों के अंदर ही एक स्वतन्त्र कुर्दिस्तान की संभावना नज़र आने लगती है . इराक के उत्तरी हिस्से में तीन राज्य ऐसे हैं जिनको कुर्द राज्य कहा जाता है . इन्हीं तीन राज्यों की जो प्रांतीय सरकार है वह के आर जी यानी कुर्दिश रीजनल गवर्नमेंट के नाम से जानी जाती है . इस मुकाम तक पंहुचने में इराकी कुर्दों को बहुत धीरज और बहुत परेशानियों से गुजरना पड़ा है .१९८० के दशक में जब इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने  कुर्दों को दबाना शुरू किया तो एक दौर तो ऐसा भी आया कि साफ़ लगने लगा था कि कुर्द कौम के सामने अस्तित्व का संकट आने वाला था लेकिन जिस अमरीकी हमले ने सद्दाम हुसैन और उनके साथियों को तबाह कर दिया उसी हमले के बाद कुर्दों को आत्मनिर्भर बनने का बहुत बड़ा मौक़ा मिला. बताते हैं कि जब सद्दाम हुसैन ने कुर्दों को औकात बताने का अभियान शुरू किया था तो एक लाख कुर्दों की जान गयी थी ,चार हज़ार गाँव तबाह हो गए थे और दस लाख लोगों को घरबार छोड़ने के लिए मजबूर होना  पड़ा था . आज सीरिया से भाग कर आये हुए मोहजिरों को देख कर इराकी कुर्द इलाकों में सहानुभूति के लहर दौड जाती है क्योंकि अभी बीस साल से कम वक़्त हुआ जब अपनी ही ज़मीन पर उत्तरी इराक के यह कुर्द शरणार्थी के रूप में रहने के लिए अभिशप्त थे . हालांकि उस दौर में भी कुर्द स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं हुआ था.कुर्दों की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाला जंगजू संगठन पेश्मरगा पूरी तरह से भूमिगत तरीके से अपणा काम करता रहा था. यह कुर्दों की अस्मिता की रक्षा करने वाला संगठन है और  १९२० से ही सक्रिय रूप से कुर्द सम्मान के लिए लड़ाई लड़ता रहा है .जब इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने कुर्दों के खिलाफ दमन का सिलसिला शुरू किया तो सबसे बड़ा झटका पेश्मर्गा को ही लगा था लेकिन १९९१ में जब संयुक्त राष्ट्र ने अमरीकी दबाव के चलते ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन पर शिकंजा कसना शुरू किया तो कुर्दों को थोड़ा राहत मिली थी. लेकिन चारों तरफ से ज़मीन से घिरा इलाका परेशानियों से घिरा ही रहा .
लेकिन अब सब कुछ बदल रहा है .कुर्दिस्तान के कुर्द राज्यों में अब  दक्षिणी इराक से ज़्यादा शान्ति है . ताज़ा खोज से पता लगा है कि इस इलाके में मुख्य इराक की तुलना में तेल के भण्डार भी ज़्यादा हैं . कुल पचास लाख की कुर्द आबादी है लिहाजा इलाके पर आबादी का दबाव भी नहीं है . शायद इसीलिये सीरिया के संघर्ष से शान्ति की तलाश में भागे हुए करीब डेढ़ लाख सीरियाई कुर्दों को  यहाँ इस तरह से बसाया जा रहा है जैसे वे यहाँ के कुर्दों के बिछुडे हुए रिश्तेदार हों . अनुमान है कि इस साल के अंत तक सीरिया से भागकर आने वाले कुर्दों की संख्या साढ़े तीन लाख तक पंहुच सकती है लेकिन कुर्दिस्तान में शरणार्थियों के बोझ को कहीं भी महसूस नहीं किया जा रहा है .पूर्वी इलाकों से भी कुर्द जाति के लोग यहाँ रोज़गार की तलाश में आ रहे है . क्योंकि पूर्व से आने वाले कुर्द इरानी नागरिक हैं और इरान में भी राजनीतिक उत्पीडन की कमी नहीं है और  संयुक्त राष्ट्र की तरफ से लागू की गयी पाबंदियों के चलते हालात बहुत ही खराब हैं . इरानी कुर्दों का भी यहाँ स्वागत किया जा रहा है . उत्तरी इराक के कुर्द इलाके में आजकल काम की कमी नहीं है .उत्तर के पड़ोसी देश तुर्की के उद्योगपति बहुत बड़े पैमाने पर इराक में काम कर रहे हैं और उनका मुख्य ध्यान उत्तरी इराक के कुर्द इलाके में ही केंद्रित है .
ऐसे माहौल में कुर्दिस्तान रीज़नल  गवर्नमेंट की दबी हुई इच्छा अक्सर सामने आ जाती है और वे अपनी आजादी को मुकम्मल रूप दे देने के लिए तड़प उठते हैं  . उनकी इच्छा है कि कुर्द राज्यों के रूप में जिन तीन राज्यों को स्वीकार कर लिया गया है उनको इराक की अधीनता से छुट्टी मिले लेकिन वे यह भी चाहते हैं कि किरकुक सहित उसके आसपास के वे इलाके भी उनके हिस्से में आ जाएँ जहां कच्चे तेल के भारी भण्डार बताए जाते हैं .कुर्दिश रीज़नल गवर्नमेंट  में शामिल दोनों ही शासक और विपक्षी पार्टियां आपस में तो  लड़ती रही हैं लेकिन जब स्वतन्त्र कुर्दिस्तान की बात आती है तो दोनों एक हो जाती हैं .२००३ के अमरीकी हमले के बाद से कुर्दों ने अपने उन गाँवों को फिर से बसा लिया है जो इराकी दमन के चलते तबाह कर दिए गए थे .आजकल हालात ठीक हैं . मुख्य इराक में बिजली की भारी कटौती रहती है लेकिन कुर्दिस्तान में बिजली की कोई कमी नहीं है .
कुर्दिस्तान के नेता लोग अभी खुले आम आज़ादी की बात नहीं करते लेकिन माहौल में चारों तरफ आज़ादी ही आज़ादी है . इराक के बहुसंख्यक शिया लोग भी अब चाहते हैं कि रोज रोज की झंझट से बचने का एक ही तरीका है कि कुर्द आबादी अलग ही हो जाए क्योंकि जातीय विभिन्नता अब पूरी तरह से राजनीतिक शक्ल अख्तियार कर चुकी है .वैसे भी  दक्षिणी इराक पर लगातार अल कायदा के हमले होते  रहते हैं और पड़ोसी देश सीरिया की शिया हुकूमत की स्थिरता पर स्थायी रूप से सवालिया निशान लग चुका है . इराकी हुक्मरान भी दबी जुबान से कहते पाए जाते हैं कि कुर्दो के बढते राष्ट्रवाद से बचने का तरीका यह है कि उनको काबू में करने की बात भूलकर उनको अलग होने दिया जाए और जो भी बचा हुआ इलाका है ,उसमें शान्ति के साथ हुकूमत की जाय लेकिन इराक के प्रधानमंत्री अभी भी कुर्दों को उसी तरह का सबक सिखाने के लिए व्याकुल नज़र आ रहे हैं जिस तरह का सबक कभी तत्कालीन राष्ट्रपति  सद्दाम हुसैन ने सिखाया था.
 इराक के मौजूदा प्रधानमंत्री नूरी अल मलीकी कुर्दों के हमेशा ही दमन की नीति का पालन करने में विश्वास करते हैं . अभी दिसंबर में उन्होंने किरकुक में सेना भेज दिया था .कुर्द क्षेत्रीय सरकार के अधिकारियों और नेताओं में घबडाहट फ़ैल गयी थी और वहाँ भी उनके लड़ाकू संगठन पेश्मर्गा को  चौकन्ना कर दिया गया था. बात बिगड़ने से बच गयी लेकिन तल्खी बढ़ गयी क्योंकि झगडा खत्म नहीं हुआ बस टल गया .कुर्दों को अपमानित करने के उद्देश्य से ही मार्च में जब बजट पेश किया गया तो भी कुर्दों के  साथ उसी तरह की नाइंसाफी हुई जैसाकि किसी विदेशी और कमज़ोर ताक़त के साथ किया जाता है . इराक की संसद ने ११८ अरब डालर का केंद्रीय बजट पास किया तो उसमें से केवल साढ़े छः करोड डालर का प्रावधान विदेशी तेल कंपनियों को उस कर्ज  को अदा करने के लिए कुर्द क्षेत्रीय सरकार को दिया गया . कुर्द नेताओं में भारी नाराज़गी व्याप्त हो गयी क्योंकि उनका कहना है कि उनके ऊपर विदेशी तेल कंपनियों का साढ़े तीन अरब डालर का क़र्ज़ है और बजट में उसके दो प्रतिशत का ही इंतज़ाम किया  गया है. इस फैसले का ही नतीजा है कि कुर्द संसद सदस्यों और मंत्रियों ने इराक की केंद्रीय सरकार से इस्तीफा दे दिया . अब इराक की केंद्रीय सरकार में कोई भी कुर्द प्रतिनिधित्व नहीं है
यह सारा घटनाक्रम स्वतन्त्र कुर्दिस्तान की तरफ ही जाता है . वैसे भी लगता है कि नेताओं खासकर इराकी ,अमरीकी और इरानी नेताओं की मर्जी के खिलाफ वक़्त एक अलग कुर्दिस्तान की बात कह रहा है .कुर्द क्षेत्रों में रहने वाले यह तर्क देते हैं कि इराक के संविधान में यह व्यवस्था है कि आटोनामस इलाके अपने तेल की संपदा का केंद्रीय हुकूमत से अपने को अलग करके  विकास कर सकते हैं इसी नियम के तहत बहुत सारी विदेशी कंपनियों ने कुर्दिस्तान में भारी तेल सम्पदा की तलाश के बाद कुर्दिश रीज़नल गवर्नमेंट के साथ उत्पादन शेयर करने का समझौता किया और अब वहाँ बड़ी संख्या में विदेशी कंपनियां मौजूद हैं और बहुत बड़ा विदेशी धन लगा हुआ है . वे कभी नहीं चाहेगें कि कुर्द क्षेत्र में किसी तरह की अशान्ति हो . अब कुर्द क्षेत्रीय सरकार ऐलानियाँ इराक की केंद्रीय सरकार को धमकाती रहती है और इराक वाले उस पाइपलाइन को बंद कर देते हैं जिसके ज़रिए कुर्दिस्तान का कच्चा तेल तुर्की जाता है. इस से तुर्की को भी परेशानी होती है .जिसके कारण यह सारा माल ट्रक से जाता है . इसका एक नतीजा यह हो रहा है कि तुर्की और कुर्द राज्य में  दोस्ती बहुत प्रगाढ़ हो  रही है  और अब इराक से स्वतंत्र रूप से एक पाइपलाइन पर काम चल रहा है और उम्मीद है कि कि सितम्बर तक यह पाइपलाइन तैयार हो जायेगी .
इन सारी बातों से इराकी सरकार की चिंता बहुत बढ़ चुकी है . प्रधानमंत्री मलीकी को चिंता  है कि अगर  कुर्दिस्तान तेल की ताक़त के बल पर उनको धमका सकता है तो अन्य जातियों के प्रभाव वाले क्षेत्र भी उसकी नकल करने लगेगें . कुर्दिस्तान की घटनाओं की अमरीकी मीडिया में विस्तार से चर्चा होने लगी है. प्रतिष्ठित इक्नामिस्ट ने भी इस बात को गंभीरता से उठा दिया है .बताया गया है कि अमरीका और इरान भी इस बात से चिंतित हैं क्योंकि अमरीका इस क्षेत्र में किसी तरह का झगडा नहीं चाहता और इरान को डर है कि अगर अलग कुर्दिस्तान  देश बन गया  तो इराक की कुर्द आबादी को काबू में कर पाना बहुत  मुश्किल होगा . बहरहाल जो भी होगा भविष्य में होगा लेकिन इस इलाके की ताज़ा राजनीतिक हालात ऐसे हैं जिसके बाद एक स्वतन्त्र सार्वभौम कुर्द देश की स्थापना की संभावना साफ़ नज़र आने लगी है .

Friday, April 26, 2013

जे पी सी पर नूरा कुश्ती करके दोनों बड़ी पार्टियां किसको बेवकूफ बना रही हैं


शेष नारायण सिंह 



नयी  दिल्ली .२५ मार्च। २ जी घोटाले की जांच कर रही संयुक्त संसदीय समिति के अध्यक्ष पी सी चाको के खिलाफ बीजेपी की अगुवाई में कुछ विपक्षी दलों ने अविश्वास जताया है और उनको हटाने की मांग की है .हटाने की मांग करने वालों में लेफ्ट  फ्रंट के सीताराम येचुरी और गुरुदास दासगुप्ता भी हैं तो तृणमूल कांग्रेस के कल्याण बनर्जी  भी . डी  एम के के टी आर बालू भी हैं और ऐ आई डी एम के के थम्बी दुराई भी . बीजेपी का दावा है की यह एक अहम् राजनीतिक संकेत है जब आपस में एक दुसरे के विरोध में खड़ी  राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस के खिलाफ हो गयी हैं . लेकिन कांग्रेस का कहना है की आगामी चनावों  में यह सभी पार्टियां कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ने वाली हैं और उसी चुनाव की तैयारियों के कारण यह सभी  कांग्रेस विरोध की राजनीति में शामिल हो रही हैं . जहां तक जे पी सी के अध्यक्ष  पी सी चाको को हटाने की बात है जे पी सी के गठन में ऐसे प्रावधान नहीं हैं कि जे पी सी के अध्यक्ष को किसी अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिये हटाया  जा सके .

आज बीजेपी ने कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक जमातों को लामबंद करने की अपनी कोशिश में एक अहम सफलता हासिल की जब  जे पी सी के पंद्रह सदस्यों का विरोध पात्र लोक सभा की अध्यक्ष मीरा कुमार के सामने पेश किया और मांग की कि  २ जी घोटाले की जांच कर रही जे पी सी के मौजूदा अध्यक्ष पी सी चाको हटाकर  जे पी सी के किसी अन्य सदस्य को अध्यक्ष का काम सौंप दें . बीजेपी की नियमित प्रेस ब्रीफिंग के दौरान  रवि शंकर  प्रसाद ने बताया कि जे पी  सी के कुल सदस्यों के संख्या तीस है  जिसमें से पंद्रह  सदस्य अध्यक्ष  पी सी चाको के खिलाफ हैं इसलिए उनको हटा दिया जाना चाहिए . रविशंकर प्रसाद भारत के संविधान के अनुच्छेद १०० और अनुच्छेद ९० और ९ १ के हवाले से मीडिया को यह समझाने की  कोशिश करते रहे कि जे पी सी के अध्यक्षपी सी चाको को हटाया जाना कितना आसान है . जब उनको याद दिलाया गया कि  जे पे सी के गठन में उसके अध्यक्ष की वैधता उनको  नियुक्तिकर्ता अधिकारी के तरफ से आती है  इसलिए उसको हटाने का अधिकार भी उसी के पास है जिसने उसको नियुक्त  किया है . जबकि लोक सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को सदन के सदस्य नियुक्त करते हैं इसलिए उनको हटाने  का अधिकार  भी उनके पास ही होता है तो वे बात को टालने की कोशिश करते नज़र आये . बीजेपी के  प्रवक्ता की कोशिश यह भी थी कि  यह बता सके कि जे पी  सी के आधे सदस्यों के  खिलाफ होने के कारण  जे पी सी की रिपोर्ट को पास नहीं कराया जा सकता .
इस मामले में जे  पी सी के अध्यक्ष पी सी चाको ने मीडिया को दो दिन पहले ही  बता दिया था कि  जे पी सी की रिपोर्ट को पास नहीं किया जाता उसे संयुक्त संसदीय समिति अडाप्ट करती है . अगर किसी सदस्य को रिपोर्ट को स्वीकार करने में कोई परेशानी होती है तो उसे डिसेंट नोट लगाने का अधिकार है . उस सदस्य का डिसेंट नोट  भी रिपोर्ट का हिस्सा बन जाता है लेकिन रिपोर्ट को अडाप्ट  करने के लिए वोटिंग का कोई प्रावधान नहीं है . . कांग्रेस की ब्रीफिंग में जब आज की प्रवक्ता रेणुका चौधरी से सवाल पूछा गया कि  क्या कांग्रेस मौजूदा मुश्किल हालात को संभालने की कोशिश कर रही है तो उन्होंने मामले को बहुत ही अगंभीर बताया और कहा कि जे पी सी के गठन के लिए जिस बीजेपी ने एडी  चोटी का जोर लगा दिया था और  करीब एक साल तक उसकी बैठकों में शामिल होते रहे वे आज राजनीतिक लाभ के लिए अध्यक्ष की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं . उन्होने  बीजेपी से आग्रह किया कि उनको बहस से भागना नहीं  चाहिए और संसद की संस्थाओं का  सम्मान करना चाहिए 

Wednesday, April 24, 2013

कोयले की लूट में दोनों ही बड़ी पार्टियां शामिल



शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली, २३ अप्रैल .कोल ब्लाक के आवंटन में १९९३ से लेकर अब तक की सभी सरकारों ने खुलकर लूट मचाई है . आज संसद में कोयल मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति की चार रिपोर्टें पेश की गयीं . इन रिपोर्टों में पी वी नरसिम्हा राव, एच डी देवेगौडा ,आई के गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह सरकारों के कार्यकाल में कोयले की खुदाई के लिए ब्लाकों के  आवंटन के मामले में बहुत सारी अनियमितताओं का ज़िक्र है और सभी सरकारों पर गंभीर आरोप लगाए गए हैं . आज संसद भवन में स्थायी समिति के अध्यक्ष कल्याण बनर्जी ने मीडिया के सामने सभी सरकारों की गलतियों को बेनकाब किया और पारदर्शिता के कमी के कारण हुए सरकारी घाटे के बारे में जागरूकता का आवाहन किया .

रिपोर्ट में लिखा है की १९९३  से २००४  तक के समय में कोल ब्लाक  के आवंटन में जो तरीके अपनाए गए वे बिलकुल पारदर्शी नहीं थे. सरकारों ने अधिकार का बेजा  इस्तेमाल किया और अपने ख़ास लोगों को राष्ट्र की प्राकृतिक  सम्पदा का मनमाने तरीके से बन्दरबाँट की . कमेटी को इस बात पर भारी  आश्चर्य हुआ कि  १९ ९ ३  और २ ० ० ३ के बीच कोयला  मंत्रालय  ने किसी तरह का डाटा नहीं रखा हुआ है . केवल स्क्रीनिंग कमेटी के मिनट उपलब्ध हैं जिसके आधार पर मनमाने तरीके से कोल ब्लाक का आवंटन किया गया था. २० ०  ५  और २० ० ६  में अख़बारों में विज्ञापन देकर  कंपनियों से कोल ब्लाक के लिए दरखास्त आमंत्रित की गयी . मंत्रालय की वेबसाईट पर उसके नियम क़ानून भी डाल दिए गए लेकिन जब कोल ब्लाक के आवन्टन का समय आया तो इन नियमों की पूरी तरह से अनदेखी की  गयी . कमेटी का सुझाव है की सारी प्रक्रिया की जांच की जानी चाहिए और  जिनको भी ज़िम्मेदार पाया जाए उनके खिलाफ आपराधिक मुक़दमा चलाया जाना चाहिए . 

कमेटी की रिपोर्ट में  लिखा है कि  सप्लाई और डिमांड में भारी अंतर के नाम पर सरकार ने प्राइवेट कंपनियों को कोयले के खनन का काम देने का फैसला किया था. तर्क यह दिया गया था कि  इस से विद्युत की कमी में आने वाली स्थिति को सुधारा जाएगा और बिजली की आपूर्ति बढ़ेगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और सरकारी खजाने को भारी नुक्सान भी हुआ. यह भी देखा  गया कि निजी कंपनियों ने कोल ब्लाक का आवंटन तो करा लिया लेकिन उसको दबा कर बैठ गयीं और कोयले की कमी का माहौल देश में बना  रहा . यह भी देखा गया कि निजी कंपनियों को कोयल कौड़ियों के मोल दे देने से  प्राकृति सम्पदा का  तो भारी नुक्सान हुआ ही, बिजली के उत्पादन की दिशा में भी कोई फायदा नहीं हुआ. २१ ८ कोल ब्लाक का आवंटन  इस कालखंड में  हुआ था जबकि कोयले का उत्पादन केवल ३  ब्लाकों में ही शुरू किया जा सका ...बाकी कम्पनियां कोल ब्लाकों की ज़खीरेबाज़ी कर के बैठी हुयी हैं . 

कोयल और इस्पात मंत्रालय की जो चार  रिपोर्टें  आज जारी की गयी हैं  वे कोयला  मंत्रालय में लूट के साम्राज्य की पूरी तरह से शिनाख्त कर लेती हैं . लेकिन दोनों ही बड़ी राजनीतिक  पार्टियां एक दूसरे  पर कीचड उछालने के  काम में लगी हुयी हैं और राष्ट्र की प्राकृतिक  सम्पदा में  हुयी लूट से अपने आपको बचाने में सारी ताक़त लगा दे रही हैं जबकि संसद की  इस महत्वपूर्ण कमेटी ने  सबको कटघरे में खड़ा कर दिया है .

Sunday, April 21, 2013

जयपुर चिंतन की राहुल गांधी की बातों को बेकार मानते हैं बड़े कांग्रेसी नेता



शेष नारायण सिंह

कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जयपुर  चिंतन शिविर में जितनी बातें की थीं,लगता  है कि कांग्रेस के नेता हर उस बात को बेमतलब साबित कर देगें .उन्होंने जयपुर में अपने भाषण में बहुत जो देकर कहा था कि  “ हम टिकट की बात करते हैंजमीन पे हमारा कार्यकर्ता काम करता है यहां हमारे डिस्ट्रिक्ट प्रेसिडेंट बैठे हैंब्लॉक प्रेसिडेंट्स हैं ब्लॉक कमेटीज हैं डिस्ट्रिक्ट कमेटीज हैं उनसे पूछा नहीं जाता  हैं .टिकट के समय उनसे नहीं पूछा जातासंगठन से नहीं पूछा जाताऊपर से डिसीजन लिया जाता है .भईया इसको टिकट मिलना चाहिएहोता क्या है दूसरे दलों के लोग आ जाते हैं चुनाव के पहले आ जाते हैं,  चुनाव हार जाते हैं और फिर चले जाते हैं और हमारा कार्यकर्ता कहता है भईयावो ऊपर देखता है चुनाव से पहले ऊपर देखता हैऊपर से पैराशूट गिरता है धड़ाक! नेता आता हैदूसरी पार्टी से आता है चुनाव लड़ता है फिर हवाई जहाज में उड़ के चला जाता है।“ कर्नाटक विधान सभा के ५ मई वाले चुनाव के लिए पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल ( सेकुलर ) को छोड़कर आये लोगों को टिकट दे दिया गया है . कर्नाटक में यह माहौल है कि कांग्रेस की टिकट पाने वालों के लिए विधानसभा पंहुचना आसान हो जाएगा . शायद इसीलिये अन्य पार्टियों से लोग दौड पड़े हैं और कांग्रेस में भी अपने उपाध्यक्ष की राय को ठंडे बस्ते में डालकर एन केन प्रकारेण सरकार बनाने की आतुरता के चलते ऐसे लोगों को टिकट देने की मजबूरी है . जयपुर में राहुल  गांधी ने कहा था कि उनकी पार्टी के ज़मीनी नेताओं में भी चुनाव जीतने  योग्यता होती है लेकिन पार्टी के पुराने नेता लोग उनकी बात को उतना महत्त्व नहीं दे रहे हैं जितना देना चाहिए था. बीजेपी छोड़कर आने वाले लोगों को भी कांग्रेस ने टिकट देने में संकोच नहीं किया है . अभी कल तक बीजेपी की कर्नाटक सरकार में कृषि और सहकारिता मंत्री रहे शिवराज तंगाडगी को भी टिकट दे दिया गया है.  वे कनकगिरि सीट से पार्टी के उम्मीदवार होंगें
राहुल गांधी ने जो और भी बातें कहीं थीं उनको भी नज़रंदाज़ किया जा  रहा है . मसलन उन्होने बहुत ही सख्त भाषा में कहा था कि कुछ नेताओं को मुगालता होता है कि वे जिस पार्टी में जाते हैं वह जीत जाती है . कांग्रेस भी उनको इज्ज़त देती है . उनके भाषण में शब्दशः कहा गया था कि , “जो हमारे ही लोग हमारे खिलाफ खड़े हो जाते हैं चुनाव के समय इंडिपेंडेंट खड़े हो जाते हैं जो इंडिपेंडेंट को खड़ा कर देते हैं उनके खिलाफ एक्शन लेने की जरुरत है।“  कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी ने ऐसे बहुत सारे लोगों को टिकट दे दिया है जो पिछले वर्षों में बार बार कांग्रेसी उमीदवारों के खिलाफ चुनाव लड़ चुके हैं , खिलाफ जाकर पार्टी बना चुके हैं लेकिन मौजूदा कांग्रेसी नेताओं को लगता है कि वे चुनाव जीत सकते हैं और उनको भी टिकट दे दिया गया है .
राहुल गांधी ने यह भी  कहा है कि पार्टी को चाहिए कि उन लोगों को टिकट न दे जिनकी आपराधिक छवि है . कर्नाटक में टिकटों के बँटवारे को लेकर इस सलाह की भी धज्जियां उड़ाई गयी हैं . और आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों ,डी के शिवकुमार,एम कृष्णप्पा,और सतीश जरकीहोली को टिकट दे दिया  गया है .जयपुर में राहुल गांधी ने  कांग्रेस कार्यकर्ता को इज्ज़त देने की बात पर भी बहुत जोर दिया था . उन्होंने कहा था , “ सबसे पहले कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता की इज्जत होनी चाहिए और सिर्फ कार्यकर्ता की इज्जत नहींनेताओं की इज्जतनेताओं की इज्जत का मतलब क्या हैकि अगर नेता ने अच्छा काम किया हैअगर नेता जनता के लिये काम कर रहा है चाहे वह जूनियर नेता हो या सीनियर नेता होजितना भी छोटा होजितना भी बड़ा हो अगर वो काम कर रहा है तो उसे आगे बढ़ाना चाहिएअगर वो काम नहीं कर रहा है तो उसको कहना चाहिए भईया आप काम नहीं कर रहे हो और अगर 2-3 बार कहने के बाद काम नहीं किया तो फिर दूसरे को चांस देना चाहिए” लेकिन नौजवानों को कोई महत्व नहीं दिया  गया है . अन्य राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में यूथ कांग्रेस के कार्यकाल के राहुल गांधी के पुराने साथियों को महत्व दिया गया था .कर्नाटक में यूथ कांग्रेस वालों ने बीस लोगों को टिकट देने की सिफारिश की थी लेकिन एकाध को छोड़कर किसी को टिकट नहीं दिया  गया है .कर्नाटक राज्य के यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष रिजवान अरशद भी उम्मीदवार थे लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने उनको टिकट नहीं दिया . खबर है कि वे बहुत नाराज़ हैं और पार्टी से इस्तीफे की  धमकी दे रहे हैं . उनके शुभचिंतक उनको समझा रहे हैं कि इस्तीफ़ा देना ठीक नहीं  होगा क्योंकि राज्य में जैसा माहौल है कि  उसमें कांग्रेस की सरकार बन सकती है और अगर पार्टी में बने रहे तो सत्ताधारी पार्टी की युवा शाखा के मुखिया के रूप में तो रुतबा रहेगा ,बेशक विधायक बनने का मौक़ा हाथ से निकल चुका है
कार्यकर्ताओं की इज्ज़त के बारे में राहुल गांधी के बयान की और भी दुर्दशा की गयी है. देश में कांग्रेस समेत सभी सरकारी पार्टियों की सबसे बड़े कमजोरी यह है कि पार्टियों के  बड़े नेताओं के रिश्तेदार पार्टी से मिलने वाले फायदे के सबसे बड़े लाभार्थी बन जाते हैं . ज़ाहिर है मंत्रियों और पार्टी के बड़े नेताओं के रिश्तेदार होने के कारण वे हमेशा आम कार्यकर्ता से ज़्यादा मज़े ले रहे होते हैं . लेकिन जब टिकट का मौक़ा आता है तो उनको टिकट दे दिया जाता है और आम कार्यकर्ता फिर मुंह ताकता रह जाता है .कर्नाटक में भी इस बार यह हुआ है .कई बड़े नेताओं के बच्चों या कुनबे वालों को टिकट दे दिया गया है . पूर्व मुख्यमंत्री धरम सिंह के बेटे अजय सिंह . केंद्रीय मंत्री मल्लिकार्जुन खार्गे के पुत्र प्रियांक खार्गे  , पूर्व रेलमंत्री सी के जाफर शरीफ के पौत्र रहमान शरीफ और दामाद सैयद यासीन , एस शिवाशंकरप्पा और उनके बेटे एस एस मल्लिकार्जुन ,  एम कृष्णप्पा और उनके प्रिय कृष्णा आदि को पक्षपातपूर्ण तरीके से टिकट दे दिया गया है .
कांग्रेस ने राहुल  गांधी की एक और इच्छा का विधिवत अनादर किया है . राहुल गांधी की बड़ी  इच्छा है कि जो लोग बार बार भारी वोटों से चुनाव हार जाते हैं उनको टिकट न दिया जाए और उनकी जगह पर नए लोगों  को महत्व दिया जाए. कांग्रेस पार्टी ने इसके लिए तो यह दिशानिर्देश भी तय किया था . नियम बनाया गया था कि जो लोग  पिछले दों चुनावो में  १५ हज़ार से ज्यादा वोटों से हारे होंगें उनको इस बार टिकट नहीं दिया जाएगा लेकिन ऐसे लोगों को टिकट दिया गया है . बासवराज रायारादी, कुमार बंगारप्पा  और एस नयमगौड़ा इस श्रेणी में प्रमुख हैं .  
इस तरह से साफ़ देखा जा सकता है कि कांग्रेस ने जयपुर चिंतन में कही गयी बातों को पहले ही अवसर पर दरकिनार  करना शुरू कर दिया है .जयपुर में राहुल गांधी की बातों से कांग्रेस  की राजनीति को एक नई दिशा  मिलने की उम्मीद जताई गयी थी. हालांकि यह भी सच है कि बीजेपी के उम्मीदवार को प्रधानमंत्री पद पर स्थापित कर देने के लिए व्याकुल पत्रकारों ने उस भाषण का खूब मजाक उडाया था और उन लोगों का भी मजाक उडाया था जो राहुल गांधी को गंभीरता से ले रहे थे लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि उस भाषण से उम्मीदें बंधी थीं .उन्होंने कहा था कि  सत्ता के बहुत सारे केन्द्र बने हुए हैं .बड़े पदों पर जो लोग बैठे हैं उन्हें समझ नहीं है और जिनको समझ और अक्ल है वे लोग बड़े पदों पर पंहुच नहीं पाते .ऐसा सिस्टम  बन गया है कि बुद्दिमान व्यक्ति महत्वपूर्ण मुकाम तक पंहुच ही  नहीं पाता.आम आदमी की आवाज़ सुनने वाला कहीं कोई नहीं है .उन्होंने कहा कि  अभी ज्ञान की इज्ज़त नहीं होती बल्कि  पद की इज्ज़त होती है . इस व्यवस्था को बदलना पडेगा.  ज्ञान  पूरे देश में जहां भी होगा उसे आगे लाना पडेगा. ऐसे लोगों को  आगे लाने का  एक मौक़ा चुनाव का  टिकट होता है . कर्नाटक  विधानसभा चुनाव के टिकटों के बँटवारे के मामले में कांग्रेस यह मौक़ा गँवा चुकी है 

Tuesday, April 16, 2013

महाराष्ट्र और गुजरात में सूखे के आतंक से ज़िंदगी परेशान है .




शेष नारायण सिंह

पश्चिमी भारत में सूखे से त्राहि त्राहि  मची हुई है . महाराष्ट्र और गुजरात के बड़े इलाके में पानी की भारी किल्लत है , कपास का किसान सबसे ज्यादा परेशान है .महाराष्ट्र और गुजरात में कैश क्राप वाले किसान बहुत भारी मुसीबत में हैं . अजीब बात है कि इन दोनों राज्यों के आला राजनीतिक नेता कुछ और ही राग अलाप रहे हैं . गुजरात के मुख्यमंत्री  दिल्ली और कोलकता में धन्नासेठों के सामने गुजरात माडल के विकास को  मुक्तिदाता के रूप में पेश कर रहे हैं जबकि  महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री  बांधों में पानी की कमी को पेशाब करके पूरा करने की धमकी दे रहे हैं . इस बीच इन दो राज्यों में आम आदमी की समझ में नहीं आ रहा है  कि वह ज़िंदगी कैसे बिताए
  उपभोक्तावाद के चक्कर में इन राज्यों में बड़ी संख्या में किसान कैश क्राप की तरफ मुड चुके हैं .कैश क्राप में आर्थिक फायदा तो होता है लेकिन लागत भी लगती है . अच्छे फायदे के चक्कर में किसानों ने सपने देखे थे और कर्ज लेकर लागत लगा दी . जब सब कुछ तबाह हो गया और कर्ज वापस न कर पाने की स्थिति आ गयी तो मुश्किल आ गयी. ख़बरें हैं कि किसानों की आत्महत्या करना शुरू कर दिया है .महाराष्ट्र का सूखा तो तीसरे सीज़न में पंहुच गया है . योजना बनाने वालों ने ऐसी बहुत सारी योजनाएं बनाईं जिनको अगर लागू कर दिया गया होता तो आज हालत इतनी खराब न होती लेकिन जिन लोगों के ऊपर उन योजनाओं को लागू करने की जिम्मेदारी थी वे भ्रष्टाचार के रास्ते सब कुछ डकार गए . आज हालत यह है कि किसान असहाय खड़ा है . महाराष्ट्र में सरकार ने पिछले १२ वर्षों में ७०० अरब रूपये पानी की व्यवस्था पर खर्च किया है लेकिन राज्य के दो तिहाई हिस्से में लोग आज भी बारिश के पानी के सहारे जिंदा रहने और खेती करने को मजबूर हैं . महारष्ट्र सरकार के बड़े अफसरों ने खुद स्वीकार किया है कि हालात बहुत ही खराब हैं. मराठवाडा क्षेत्र में स्थिति बहुत चिंताजनक है .बाकी राज्य में भी पानी के टैंकरों की मदद से हालात संभालने की कोशिश की जा रही है .लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कहीं कोई भी चैन से रह रहा है .केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार इसी क्षेत्र के रहने वाले हैं .उनका कहना है कि बहुत सारे बांध और जलाशय सूख गए हैं . कुछ गाँव तो ऐसे हैं जहां हफ्ते में एक बार ही पानी का टैंकर पंहुचता है .सरकारी अफसर अपनी स्टाइल में आंकड़ों के आधार पर बात करते पाए जा रहे हैं . जहां पूरे ग्रामीण महाराष्ट्र इलाके में चारों तरफ पानी के लिये हर तरह की मुसीबतें पैदा हो चुकी हैं ,वहीं सरकारी अमले की मानें  तो राज्य के ३५ जिलों में से केवल १३ जिलों में सूखे का स्थिति है. ४० साल पहले महाराष्ट्र में इस तरह का सूखा आया था और इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का नारा उसी सूखे की भेंट चढ गया था. कहीं कोई गरीबी नहीं हटी थी और ग्रामीण भारत से भाग कर लोग शहरों में मजदूरी करने के लिए मजबूर हो गए थे.  नतीजा यह हुआ था कि गाँवों में तो लगभग सब कुछ उजड गया था और शहरों में बहुत सारे लोग फुटपाथों और झोपडियों में रहने को मजबूर हो गए थे . देश के बड़े शहरों में १९७२ के बाद से गरीब आदमी का जो रेला आना शुरू हुआ वह रुकने का नाम  नहीं ले रहा है.

जो लोग भी हालात से वाकिफ हैं उनका कहना है कि  सिचाई की जो परियोजनाएं शुरू की गयी थें अगर वे समय पर पूरी कर ली गयी होतीं तो सूखे के आतंक को झेल रहे इलाको की संख्या आधे से भी कम हो गयी होती. पिछले साल कुछ गैर सरकारी संगठनों ने राज्य सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार का भंडाफोड किया था और बताया था कि राज्य के मंत्री अजीत पवार ने भारी हेराफेरी की थी. उनको उसी चक्कर में सरकार से इस्तीफ़ा भी देना पड़ा था लेकिन जब बात चर्चा में नहीं रही तो फिर सरकार में वापस शामिल हो गए थे . अभी पिछले दिनों उनका एक बयान आया है  जो कि  सूखापीड़ित लोगों का अपमान करता है और किसी भी राजनेता के लिए बहुत ही घटिया बयान माना जाएगा .खबर है कि केन्द्र सरकार ने इस साल महारष्ट्र सरकार को १२ अरब रूपये की रकम सूखे की हालत को काबू करने के लिए दी है .केन्द्र सरकार ने यह भी कहा है कि जिन किसानों की फसलें बर्बाद हो गयी हैं उनको उसका मुआवजा दिया जाएगा . इसके लिए कोई रकम  या सीमा तय नहीं  की गयी है . सरकार का कहना है कि जो भी खर्च होगा वह दिया जाएगा. देश में चारों तरफ सूखे और किसानों की आत्महत्या के विषय पर  गंभीर  काम कर रहे पत्रकार पी साईनाथ ने कहा है कि जब भी भयानक सूखा पड़ता है तो सरकारी अफसरों , ठेकेदारों और राजनीतिक नेताओं की आमदनी का एक और ज़रिया बढ़ जाता है . साईनाथ ने तो इसी विषय पर बहुत पहले एक किताब भी लिख दी थी और दावा किया था कि सभी लोग एक अच्छे सूखे से  खुश हो जाते हैं .महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों से लौट कर आने वाले सभी पत्रकारों ने बताया कि अगर भ्रष्टाचार इस स्तर पर न होता तो इस साल के सूखे से आसानी से लड़ा जा सकता था .सरकार ने अपने ही आर्थिक सर्वे में यह बात स्वीकार किया है कि १९९९ और २०११ के बीच राज्य में सिंचित क्षेत्र में शून्य दशमलव एक ( ०.१ ) प्रतिशत की वृद्धि हुई है .इस बात को समझने के लिए इसी  कालखंड में हुए ७०० अरब रूपये के खर्च पर भी नज़र डालना ज़रूरी है . इसका भावार्थ यह हुआ कि ७०० अरब रूपये खर्च करके  सिंचाई की स्थिति में कोई भी बढोतरी नहीं हुई .पूरे देश में सिंचित क्षेत्र का राष्ट्रीय औसत ४५ प्रतिशत है जब कि महाराष्ट्र में यह केवल १८ प्रतिशत है . यानी अगर पिछले १२ साल में जो ७०० अरब रूपये पानी के मद में राज्य सरकार को मिले थे उसका अगर सही इस्तेमाल किया गया होता, भ्रष्टाचार का आतंक न फैलाया गया होता तो हालात आज जैसे तो बिलकुल न होते. आज तो हालत यह हैं कि पिछली फसल तो तबाह हो ही चुकी है इस बार भी गन्ने की  खेती  शुरू नहीं हो पा रही है क्योंकि उसको लगाने के लिये पानी की  ज़रूरत होती  है .
गुजरात के सूखे की हालत भी महाराष्ट्र जैसी ही है .वहाँ पीने के पाने के लिये मीलों जाना पड़ता है तब जाकर कहीं पानी मिलता है .सौराष्ट्र और कच्छ में करीब २५० बाँध ऐसे हैं जो पूरी तरह से सूख चुके हैं .करीब ४००० गाँव और करीब १०० छोटे बड़े शहर  सूखे की चपेट में हैं  सौराष्ट्र ,कच्छ और उत्तर गुजरात में पानी के  लिए त्राहि त्राहि मची हुई है .राज्य की ताक़तवर मंत्री आनंदीबेन पटेल ने स्वीकार किया है कि राज्य के २६ जिलों में से १० जिले भयानक सूखे के शिकार हैं . राज्य के ३९१८ गाँव पानी की किल्लत झेल रहे हैं . इस सबके बावजूद गुजरात सरकार के लिए कोई फर्क नहीं पड़ रहा था .जब यह सारी जानकारी मीडिया में आ गयी तो सरकार ने दावा किया है कि वन विभाग को कह दिया गया है कि वह लोगों को सस्ते दाम पर जानवरों के लिये चारा देगा और टैंकरों से लोगों को पानी दिया जायेगा . गुजरात  सरकार की बात को सूखे से प्रभावित  लोग मानने को तैयार नहीं हैं. उनका आरोप है कि गुजरात सरकार के मुख्यमंत्री महोदय जिस गुजरात माडल के विकास की तारीफ़ करते घूम रहे हैं , वह और भी तकलीफ देता  है क्योंकि गुजरात में किसानों के हित की अनदेखी करके या उनके अधिकार को छीनकर मुख्यमंत्री  के उद्योगपति मित्रों को मनमानी  करने का  मौक़ा दिया  गया है और किसान आज सूखे को झेलने के लिए अभिशप्त है .गुजरात में सूखे से लड़ रहे लोगों के बीच काम करने वाले कार्यकर्ताओं को कांग्रेस से भी बहुत शिकायत है . उनका कहना है कि अगर उन्होंने अपने मंचों से गुजरात के सूखा पीड़ित लोगों की तकलीफों का उल्लेख किया होता तो आज हालत ऐसी न होती . महाराष्ट्र की तरह गुजरात के सूखा पीड़ित  इलाकों में कुछ क्षेत्रों में हफ्ते में एक दिन पानी का टैंकर आता है .सौराष्ट्र के अमरेली कस्बे में १५ दिन के बाद एक घंटे के लिए पानी की सप्लाई आती है जबकि भावनगर जिले के कुछ कस्बे ऐसे हैं जहां २० दिन बाद पानी आता है . सौराष्ट्र और उत्तर गुजरात से ग्रामीण लोगों में भगदड़ शुरू हो चुकी है किसान सबकुछ छोड़कर शहरों की तरफ भाग रहे हैं .
महाराष्ट्र और गुजरात की हालत देखने से साफ़ लगता है कि प्रकृति की आपदा से लड़ने के लिए अपना देश बिलकुल तैयार नहीं है और मीडिया का इस्तेमाल करके वे नेता अभी देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं . यह अलग बात है कि इन दोनों ही राज्यों में सूखे से दिनरात जूझ रहे लोगों में मीडिया की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं .

Sunday, April 14, 2013

नरेंद्र मोदी ने महिलाओं के तरक्की और गरीबी हटाने में गुजरात को पीछे धकेला है .




शेष नारायण सिंह

यह कहना ठीक नहीं होगा कि मीडिया आँख मूदकर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अभियान चला रहा है  और उनकी तारीफ़ के फर्जी पुल बाँध रहा है. ऐसे भी अखबार  हैं जो सच्चाई को बयान करने की अभी तक हिम्मत रखे हुए हैं.कर्नाटक के अंग्रेज़ी अखबार डेकन हेराल्ड में वरिष्ठ पत्रकार नीना व्यास की टिप्पणी को प्रमुखता से छापा गया है जिसमें लिखा है मोदी जी जो हांकते हैं वह करते नहीं हैं.नरेंद्र मोदी के दिल्ली के फिक्की लेडीज़ संगठन में दिए गए भाषण के हवाले से यह साबित कर दिया गया है कि मोदी जी के भाषण  में महिलाओं के सशक्तीकरण के बारे में कही गयी बातें गलत थीं. दिल्ली के बुद्धिजीवियों के  सामने दिए गए उनके  भाषण की भी विवेचना की गयी है उर यह साबित कर दिया गया है कि वहाँ भी मोदी जी सच के अलावा सब कुछ बोल रहे थे. इस सभा में उन्होंने कहा कि कम से कम सरकार और अधिक से अधिक प्रशासन . लेकिन अगर बारीकी से देखा जाये तो समझ में आ जाएगा कि सच्चाई बिलकुल इसके उपते रास्ते पार है. वहाँ सरकार तो हर जगह मौजूद है लेकिन जनहित के काम उसकी प्राथमिकता नहीं है .

लेडीज़ के सामने नरेंद्र मोदी ने कहा कि 18वीं शताब्दी में लोग बच्चियों को दूध में नहलाते थे लेकिन 21वीं शताब्दी में लोग कन्या भ्रूण की ह्त्या कर रहे हैं . उनके इस कथन से यह बात कहने की कोशिश की गयी कि मोदी जी  कन्या भ्रूण की हत्याके बहुत खिलाफ हैं . लेकिन सच्चाई यह  है कि गुजरात में 2001  की जनगणना के हिसाब से लड़कियों और लड़कों के जन्म का अनुपात 921:1000 था जबकि जबकि 2011  में यह अनुपात 918:1000 रिकार्ड किया गया है . जबकि राष्ट्रीय अनुपात 2011 में 940:1000 हो चुका है है असम, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश,कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश ऐसे राज्य हैं जिनके यहाँ 2001  की तुलना में लड़कियों की संख्या बढ़ी है जबकि गुजरात में घटी है . गुजरात के कस्बों में चारों तरफ जन्मपूर्व लिंग पहचान की सुविधा उपलब्ध और अल्ट्रासाउंड के कारोबारी ज़्यादातर मोदी के मतदाता ही हैं . लेडीज़ के सामने मोदी ने माता को शक्ति देने की बात की लेकिन नैशनल सैम्पल सर्वे संगठन के आंकड़े  बताते हैं कि गुजरात में मैटरनल मोर्टलिटी रेट में वृद्धि हुई है यानी बच्चों के जन्म देते समय मरने वाली महिलाओं की  संख्या में वृद्धि हुई है जबकि केरल , तमिलनाडु और महाराष्ट्र में कमी आयी है . जहां  गुजरात में 145 माताओं की मृत्यु होती है वहीं महाराष्ट्र में यह संख्या 100 है .बच्चियां और माताएं की मृत्यु  गुजरात का रिकार्ड अपने आस पास के राज्यों से बहुत ही निराशाजनक है . गुजरात में बहुत सारी महिलायें आत्महत्या करने के लिये भी मजबूर होती हैं .नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2007 गुजरात में 11.5  प्रतिशत महिलाओं ने आत्महत्या की जबकि राष्ट्रीय औसत 202 का है .

दिल्ली की दूसरी सभा में उन्होंने अपने प्रिय सिद्धांत का प्रतिपादन किया . मोदी अक्सर कहते रहते हैंकि वे कम से कम सरकार और अधिक से अधिक प्रशासन में विश्वास करते हैं .यह भी गुजरात के बाहर ही की बात है . गुजरात में रहने वाले भाजपा के नेताओं से अगर बात की जाए तो पता लग जाता है कि वहाँ अधिकतम सरकार मोदी जी के हाथों में ही होती है .यह सारी बातें आंकड़ों के हिसाब से साबित कर दी गयी हैं . नरेंद्र मोदी के हाथ में सत्ता आने के बाद पार्टी व्यक्ति आय ,स्वास्थ्य और गरीबी कम करने की दिशा में भी गुजरात पहले के इस्थिति से पिछडता  गया है लेकिन आंकड़ों की बात को गलत बताने में नरेंद्र मोदी और उनके मीडिया को कोई वक़्त नहीं लगेगा

Wednesday, April 10, 2013

लिज्जत पापड़ मुंबई में शुरू हुआ था और उसमें मोदी का कोई योगदान नहीं है



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली में फिक्की लेडीज़ संगठन के अपने भाषण में नरेन्द्र मोदी ने आज लिज्जत पापड़ पर भी अपनी दावेदारी ठोंक दी और बताया कि गुजरात की आदिवासी महिलायें यह पापड़ बनाती हैं. . लेकिन जो लोग लिज्जत पापड़ के आंदोलन को समझते हैं उनको जो मालूम है वह मोदी जी के दावे से बिलकुल अलग है . इस बात में सच्चाई हो सकती है कि गुजरात में भी लिज्जत पापड़ बनता हो क्योंकि अब उसकी शाखाएं पूरे देश में हैं लेकिन उस आंदोलन की शुरुआत गुजरात से तो बिलकुल  नहीं हुई थी. मुंबई के गिरगांव इलाके की एक बिल्डिंग में रहने वाली सात महिलाओं ने पापड़ बनाना शुरू किया था . वे सब गुजराती थीं .उन्होंने सर्वेंट्स आफ इण्डिया सोसाइटी के सदस्य छगनलाल पारेख से ८० रूपये उधार लेकर १९५९ में पापड़ बनाने का कम शुरू किया था . १५ मार्च को वे अपनी बिल्डिंग की छत पर इकठ्ठा हुईं और पापड बनाया . मुंबई के भुलेश्वर में एक सेठ जी की दूकान पर वे पापड बेच दिया करती थी. इन महिलाओं ने तय कर लिया था कि किसी से दान नहीं लेगीं . वे नुक्सान   के लिए  भी तैयार थीं लेकिन किसी से भी मदद मांगने को तैयार नहीं थीं .
लिज्जत पापड का जो उदाहरण है उससे यह बात तो बहुत ही बुलंदी से साबित हो जाती है कि वह महिलाओं के उद्यम की सफलता का नतीजा है लेकिन यह कहीं नहीं  साबित होता कि  उसमें मोदी के गुजरात माडल का कोई योगदान है या मोदी जी ने कोई बहादुरी करके लिज्जत पापड उद्योग को सफल कराने में कोई काम किया है . लेकिन आज जिस तरीके से नरेंद्र मोदी ने अपनी बात कही उससे उन्होंने यह सन्देश देने की कोशिश की कि उसमें उनके तथाकथित गुजरात माडल का योगदान है .
१९५९ में मुंबई में शुरू होकर लिज्जत पापड़ का काम बहुत वर्षों तक मुंबई केंद्रित ही रहा. बाद  में कई राज्यों में शाखाएं खुलीं और महिला गृह उद्योग पापड़ के नाम से यह संगठन आज पूरी दुनिया में जाना जाता है . इस उद्याम में सीधे सीधे कभी किसी नेता से मदद नहीं ली गई. हाँ यह संभव है कि खादी और  विलेज इंडस्ट्रीज़  कमीशन में जिन लोगों ने शुरुआती दौर में संगठन की मदद की हो वे कांग्रेस  पार्टी के सदस्य भी रहें हों लेकिन उन्होंने जो भी सहयोग किया वह कांग्रेसी होने की वजह से नहीं किया . दिल्ली में लिज्जत पापड की पहली यूनिट लाजपत नगर के पास  सर्वेंट्स आफ इण्डिया के कार्यालय में खुली थी . अब तो पूरे देश में और विदेशों में भी लिज्जत पापड़ की शाखाएं हैं .  
लिज्जत पापड़ की कहानी में संघर्ष चारों तरफ है . अपने आपको राजनीति से दूर रखकर लिज्जत पापड़ चलाने वाली बहनों ने यह तो साबित कर दिया कि महिलायें वास्तव में पुरुषों से सुपीरियर होती हैं लेकिन उसमें मोदी जी या उनकी पार्टी का शामिल होना कहीं से नहीं साबित होता .
लिज्जत पापड के उद्योग को हर क़दम पर संघर्ष करना पड़ा है . १९६१ में मुंबई के ही मलाड में एक दफ्तर खोलने की कोशिश की गयी लेकिन सफलता हाथ  नहीं आयी. . तीसरे साल तक सदस्यों की संख्या ३०० तक पंहुच गयी थी . जगह थी नहीं इसलिए पापड़ का आटा गूंध कर बहनों को दे दिया जाता था और वे अपने घर से पापड बनाकर लाती थीं.
जुलाई १९६६ में लिज्जत का पंजीकरण सोसाइटी एक्ट के तहत हो गया और लिज्जत उद्योग एक कोआपरेटिव सोसाइटी बन गयी. उसी महीने खादी और विलेज इंडस्ट्रीज़ कमीशन के  अध्यक्ष यू एन देवधर ने प्रक्रिया शुरू करवा दी और और उसी साल खादी की ओर से लिज्जत को ८ लाख रूपये की वर्किंग कैपिटल की ग्रांट मिली और सरकार ने टैक्स में राहत की घोषणा की.अब तो लिज्जत में  गृह उपयोग की बहुत सारी सामग्री  बनती है .१५ मार्च २०१३ को लिज्जत की बुलंदी के ५४ साल पूरे हुए और इसमें न तो मोदी का कोई योग्दान है और न ही  बीजेपी का लेकिन आज नरेंद्र मोदी ने एक मंच पर उसकी सफलता को अपने आप से जोड़ दिया

दरअसल नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी ने इस तराह के राजनीतिक प्रयोग भी किये जब उन्होंने महात्मा गांधी और सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए . यह देखना दिलचस्प होगा कि लिज्जत की सफलता को अपनी सफलता बताने में नरेंद्र मोदी सफल होते हैं कि नहीं . हालांकि अब तक का तो लिज्जत का रिकार्ड ऐसा है कि उन्होंने नेताओं को बहुत तवज्जो नही दी है .

Sunday, April 7, 2013

मुलायम सिंह यादव के खिलाफ सख्त बयान देकर बेनी बाबू कांग्रेस का वोटबैंक बना रहे हैं



शेष नारायण सिंह

शुरू में कई दिन तक यह बात समझ में नहीं आई कि जब लोकसभा में मुलायम सिंह यादव के पास जाकर सोनिया गांधी ने बेनी प्रसाद वर्मा के बयान से उपजी  खटास को कम करने के लिए बात कर ली थी ,उसके बाद भी बेनी बाबू मुलायम सिंह के खिलाफ क्यों बयान पर बयान दिए जा रहे हैं .लेकिन जब बात को थोडा अंदर से समझने की कोशिश की गयी तो तस्वीर खुलती चली गयी. पता यह लगा कि कांग्रेस पार्टी यह कोशिश कर रही है कि एक ऐसी जाति की तलाश की जाये जिसका वोट उसे समर्पित भाव से मिल जाए . कांग्रेस के जीत के दौर में उसको दलितों और मुसलमानों के वोट पक्के तौर पर मिलते थे . उम्मीदवार की जाति या कोई और समीकरण बनकर कांग्रेस पार्टी की सीटें हमेशा बहुत बड़ी संख्या में होती थीं . लेकिन अब ज़माना बदल गया है . अब उत्तर प्रदेश में दलित मायावती के पक्ष में वोट करने लगे हैं और मुसलमान किसी ऐसे उम्मीदवार को वोट देने लगे हैं जो बीजेपी को बहुमत हासिल करने से रोक सके. विधान सभा में तो यह काम समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी कर लेती है . जहां तक बहुजन समाज पार्टी का सवाल है उसकी नेता कई बार बीजेपी को रोकने के नाम पर सीटें बटोरकर बीजेपी की मदद से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं लेकिन मुलायम सिंह यादव ने कभी बीजेपी के सहयोग से सत्ता नहीं ली . इसलिए मुसलमान उनके साथ वोट करते हैं . यह अलग बात है कि केन्द्र में सरकार बनवाने के लिए मुसलमानों ने बड़ी संख्या में कांग्रेस को उन सीटों पर वोट दिया था जहां कांग्रेस के उम्मीदवार के जीतने की संभावना थी. इसी चक्कर में कांग्रेस को बाकी पार्टियों के बराबर सीटें मिल गयी थीं . कहा यह जाता है कि बेनी प्रसाद वर्मा के सुझाव पर कुर्मी बहुल क्षेत्रों में कांग्रेस के जीतने की चर्चा शुरू हो गयी थी . उन क्षेत्रों  में मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दिया और कांग्रेस की सीटें भी सम्मानजनक हो गयीं . यह बात राहुल गांधी की समझ में आ गयी थी और उन्होंने बेनी प्रसाद वर्मा को कुर्मियों के सर्वस्वीकार्य नेता के रूप में स्थापित करने के प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था . हालांकि विधानसभा चुनाव में बेनी  प्रसाद वर्मा कोई  असर नहीं दिखा सके लेकिन राहुल गांधी ने उनके ऊपर भरोसा किया और कुर्मी वोटबैंक को अपनी पार्टी की बेसिक जाति बनाने की जिम्मेदारी बेनी प्रसाद वर्मा को सौंप दी . मुलायम सिंह के खिलाफ कुर्मियों को लामबंद करने की कोशिश में ही बेनी प्रसाद वर्मा सारा काम कर रहे  हैं . और अगर कुर्मी जाति के नेता के रूप  में बेनी प्रसाद वर्मा को कांग्रेस सम्मान देती है तो कांग्रेस के पास भी एक जाति का पक्का समर्थन हो जाएगा. यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रूरत है कि अगर बेनी बाबू की बिरादरी वालों को पता लग गया कि कांग्रेस हर हाल में बेनी प्रसाद वर्मा को समर्थन देगी तो कुर्मियों के नेता के रूप में बेनी बाबू  कांग्रेस को एक जाति का एकमुश्त समर्थन थमा देगें .
उत्तर प्रदेश की राजनीति में चुनावी नतीजे अब सिद्धांतों के आधार पर नहीं तय होते. वहाँ जातियों का योगदान सबसे ज्यादा है . जातियों की भूल भुलैया में फंसी उत्तर प्रदेश की राजनीति में केवल तीन जातियों के वोट पक्के माने जाते हैं . समाजवादी पार्टी के साथ राज्य भर के यादव पूरी तरह से लगे गए हैं . उसके अलावा पिछड़ी जातियों के लोग भी समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ते हैं लेकिन बेनी प्रसाद वर्मा के अलग होने के बाद अब कुर्मी कांग्रेस की तरफ बढ़ रहे हैं .दलित वर्ग की एक जाति के लोग पूरी तरह से मायावती के साथ रहते हैं . मायावती की लोकप्रियता अपनी जाति के मतदाताओं में बहुत ज्यादा है और वे अपने उम्मीदवारों के पक्ष में तो वोट  दिलवा सकती हैं , वे वोट ट्रांसफर भी करवा सकती हैं. यानी अगर मायावती ने अपने समर्थकों को आदेश दे दिया कि उनकी पार्टी के अलावा भी किसी को वोट देना है तो वह संभव हो सकता है .इसके अलावा मुसलमानों का वोट भी  लगभग एकमुश्त पड़ता है.  राज्य में मुस्लिम वोट अब केवल बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के उद्देश्य से पड़ता है . उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए ही चुनाव में २०१२ में मुसलमानों ने मुलायम सिंह यादव को एकमुश्त वोट किया था   लेकिन राज्य में जनाधार पूरी तरह से खो चुकी कांग्रेस को समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बराबर  सीटें २००९ में मिल गयी थीं. कांग्रेस की उन सीटों में मुसलमानों के वोट का सबसे  ज्यादा योगदान था क्योंकि उन्हें मालूम था कि केन्द्र की राजनीति में बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने का काम केवल कांग्रेस कर सकती है . लेकिन यह भी दिलचस्प है कि मुसलमानों ने कांग्रेस को उन्हीं सीटों पर वोट दिया जहां उनके उम्मीदवार की जीत  की संभावना बन सकती थी .अपने वोट को खराब नहीं किया . जहां समाजवादी पार्टी मज़बूत थी, वहाँ समाजवादी पार्टी को वोट दिया और जहां बहुजन समाज पार्टी का उम्मीदवार जीतने की स्थिति में था , वहाँ मुसलमान बीजेपी के साथ चला गया . नतीजा यह हुआ कि बीजेपी के अलावा सभी पार्टियां २० के आस पास सीटें पाकर खुश हो गयीं.
जातियों की वफादारी सुनिश्चित करके मुलायम सिंह यादव और मायावती राज्य के हरेक जिले में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित करते हैं . अन्य किसी पार्टी के पास कोई भी समर्पित जाति नहीं है .शायद इसीलिये उत्तर प्रदेश की राजनीति में लड़ाई बसपा और सपा के बीच ही नज़र आती है .लेकिन इस बार कुछ बदलाव के संकेत मिल रहे हैं .बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी के आ जाने के बाद माहौल बदल रहा है .इस बात में तो राय नहीं है कि समाजवादी पार्टी के शासन के एक साल पूरा होने के बाद लोगों ने समाजवादी पार्टी के साल भर के काम का आकलन किया है . २०१२ में समाजवादी पार्टी की जीत में यादवों और मुसलमानों के अलावा उन लोगों की भी बड़ी संख्या थी जो मायावती के पांच साल के राज से परेशान थे और कोई भी परिवर्तन चाहते थे. लेकिन जिन जिलों में कुर्मी प्रभावशाली भूमिका में थे वहाँ कांग्रेस को जीतेने की उम्मीद थी और मुसलमान उनके साथ जुड गए  और कांग्रेस जीत गयी .इसी काम के लिए बेनी प्रसाद वर्मा को खुली छूट दे दी गयी है कि वे मुलायम सिंह यादव के खिलाफ जो चाहें बयान दें , कांग्रेस  उनको महत्व देती रहेगी .
बेनी प्रसाद वर्मा इस कला के पुराने ज्ञाता हैं .जब १९८६ में अजित सिंह राजनीति में शामिल हुए तो उन्होंने अपने आपको स्व चौधरी चरण सिंह  का उत्तारधिकारी घोषित कर दिया . लेकिन यह सच्चाई नहीं थी . वास्तव में उत्तर प्रदेश की सभी पिछड़ी जातियां चरण सिंह को अपना नेता मानती थीं. पश्चिम में जाट उनके साथ थे . मध्य और पूर्वी  उत्तर प्रदेश में यादव और कुर्मी प्रभावशाली  जातियां थीं . यह सभी चरण सिंह के साथ थीं. अपने जीवनकाल में चरण सिंह मुलायम सिंह के ऊपर बहुत भरोसा भी करते थे और आमतौर पर माना जाता था कि उनकी विरासत  मुलायम सिंह ही संभालेगें . मुलायम सिंह को चरण सिंह का मानसपुत्र भी कहा जाता था लेकिन अजीत सिंह ने मुलायम सिंह को हाशिए पर डालने की कोशिश शुरू कर दी . बेनी प्रसाद वर्मा के बारे में मशहूर था कि वे मुलायम सिंह यादव को अपना बड़ा भाई मानते थे.  मुलायम सिंह उनसे करीब डेढ़ साल बड़े हैं . दोनों ही समाजवादी थे और राम सेवक यादव के समर्थक रह चुके थे . बताते हैं कि बेनी प्रसाद वर्मा ने  मुलायम सिंह यादव को समझाया कि चौधरी चरण सिंह पूरे उत्तर प्रदेश के पिछडों के नेता इसलिए बने थे कि इन दोनों ने कुर्मी और यादव जातियों को उनके साथ जोड़ दिया था . अगर कुर्मी और यादव उनसे अलग हो जाएँ तो अजित सिंह केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नेता बन कर रहे जायेगें . यही हुआ . मुलायम सिंह यादव रथ लेकर निकल पड़े और हर जिले में जाकर प्रचार किया और अजीत सिंह का प्रभाव सिमट गया .  पिछड़े वर्ग की दो ताक़तवर जातियां मुलायम सिंह यादव के साथ जुड गयीं  और वे पिछड़े वर्ग के बड़े नेता हो गए. इस काम में हर क़दम पर उनको बेनी प्रसाद वर्मा का सहयोग मिला.
अब बेनी प्रसाद वर्मा यही काम कर रहे हैं . अगर उन्होने समाजवादी पार्टी से कुर्मियों को दूर कर दिया तो और भी जातियां उनके साथ आ सकती हैं . एक जाति का बुनियादी सहारा लेकर कांग्रेस के पास एक ऐसी पूंजी बन सकती है जिसके बाद वह चुनाव में मुसलमानों को भरोसे के साथ समझा सकती है कि अगर उनका समर्थन मिला तो नतीजे बीजेपी के खिलाफ जायेगें. बेनी प्रसाद वर्मा और राहुल गांधी के इस प्रोजेक्ट में समाजवादी पार्टी के कुछ नेता भी मदद कर रहे हैं . जब शिवपाल यादव बेनी बाबू को नशेड़ी और अफीम का तस्कर कहते  हैं तो कुर्मियों को लगता है कि उनके नेता को अपमानित किया जा रहा है . और वे और  मजबूती से उनके साथ जुड़ते हैं . अगर चुनाव तक कांग्रेस ने बेनी बाबू को वही  इज्ज़त दी जो अब तक दे रही है तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के पास  कम से कम एक जाति की पूंजी होगी और नरेंद्र मोदी को रोकने के प्रयास में मुसलमानो के वोट कांग्रेस की झोली में जा सकते हैं.

Friday, April 5, 2013

राहुल बोले 'ग्रामीण भारत को शामिल किये बिना समावेशी विकास नहीं हो सकता '



शेष नारायण सिंह 

कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने आज उद्योगपतियों के संगठन सी आई आई के सम्मलेन में आज भाषण दिया . अपने लगभग एक दशक के राजनीतिक जीवन में उनका यह भाषण  अब तक के उनके भाषणों में सबसे महत्वपूर्ण माना जायेगा. हालांकि केन्द्र में सत्ता में आने की कोशिश कर रही पार्टी के प्रवक्ताओं की  फौज ने उनके भाषण को संकीर्ण करने की कोशिश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आज उन्होंने अपनी  पार्टी के प्रातिनिधि के रूप में कम,  एक विद्वान राजनेता के रूप में ज़्यादा  बात की . बीजेपी लगातार कोशिश कर रही है  कि अपने प्रधानमंत्री के दावेदार नरेंद्र मोदी के मुकाबिल उन्हें खड़े करके उनकी धुनाई की जाए  लेकिन राहुल गांधी ऐसा कोई मौक़ा नहीं दे रहे हैं , आज भी उन्होने ऐसा कोई मौक़ा नहीं  दिया . दर असल आज उन्होने  जो बातें कहीं हैं वे देश के हर राजनेता की बात हो सकती है  और होनी भी चाहिए लेकिन अपने देश में राजनीतिक विमर्श का माहौल इतना नीचे गिर चुका  है .राजनीतिक पार्टियों का स्वरूप  सत्ता हथियाने की मशीन के रूप में विकसित हो चुका है कि राजनीतिक पार्टियां उसके बाहर जाने को तैयार ही नहीं  होतीं. राहुल गांधी के आज के भाषण की जो आलोचना राजनीतिक  पार्टियों की ओर से शुरू हो गयी है वह उसी का उदाहरण है . लेकिन राहुल गांधी की बातों को अगर देश में राजनीतिक विमर्श के स्तर को ऊपर उठाने के लिए किया जाए तो ज्यादा उचित रहेगा.
राहुल गांधी ने समावेशी  विकास के नए व्याकरण को बहस का मुद्दा बनाया और कहा कि अगर एक आदमी को सारी राजनीतिक ताक़त दे दी जाए और उस से सभी समस्याओं का हल निकालने को कह दिया जाए तो वह नहीं कर पाएगा लेकिन अगर देश की पूरी आबादी को उसके हक दे दिए जाएँ और सब को विकास के काम में भागीदार होने का अवसर मिले तो देश की किस्मत बदल सकती  है क्योंकि  हर आदमी अपने विकास के साथ साथ देश का विकास भी अपने एजेंडा में रखेगा 
राहुल गांधी ने कहा कि  हमारी राजनीतिक पार्टियों का डिजाइन ऐसा है कि उसमें  देश के हर व्यक्ति के शामिल होने के अवसर ही नहीं  हैं . उन्होंने कहा कि राजनीतिक पार्टियां एम पी और एम एल ए को जनप्रतिनिधि मानकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा मान लेती हैं लेकिन सही बात यह है कि हर गाँव में एक प्रधान होता है , उसका एक तंत्र  होता है , वह मुकामी  समस्याओं से अच्छी तरह से वाकिफ होता है और वह मुकामी स्तर  पर समस्याओं का समाधान तलाश सकता है  लेकिन किसी भी राजनीतिक पार्टी में उसको महत्व देने का प्रावधान नहीं है . संविधान के ७३ वें और ७४वे संशोधन के ज़रिये पंचायती राज संस्थाओं को राष्ट्र के विकास में प्रमुख भूमिका देने की पहल की गयी थी , महिलाओं के लिए पंचायतों में आरक्षण करके समावेशी विकास के एक नए मानदंड को स्थापित करने की कोशिश की  गयी थी लेकिन ग्रामीण  भारत में स्थानीय नेतृत्व  को मान्यता देने का प्रावधान कुछ  कम्युनिस्ट पार्टियों और तमिल पार्टियों के अलावा  कहीं नहीं है . राहुल गांधी ने जोर देकर कहा कि  एक अरब लोगों को विकास में भागीदार बनाने के लिए देश की राजनीतिक व्यवस्था को अपने आप को दुरुस्त करना होगा और हर इंसान को फैसला लेने की ताक़त देनी होगी .उन्होंने कहा कि यह उम्मीद करना बुल्कुल गलत है कि एक आदमी को सारी  ताक़त दे दो और वह घोड़े पर सवार होकर आएगा और सब ठीक कर देगा . ऐसा नहीं होने वाला है . उन्होने  प्रधान मंत्री पद के लिए मुख्य  विपक्षी पार्टी और मीडिया की तरफ चल रही इस कोशिश को भी खारिज कर दिया कि एक आदमी का नाम लेकर इतने बड़े  देश की समस्याओं का हल निकाला जा सकता है.उन्होंने कहा  कि जब तक ज़मीन से जुड़े आदमी का सशक्तीकरण नहीं होगा तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है .
राहुल गांधी आग्रह  किया कि  इस बात को भी नकार देने की ज़रूरत  है  जहां कुछ राजनीतिक पार्टियां किसी खास जाति को शामिल करने या किसी अन्य धर्म को मानने वालों को विकास प्रक्रिया से बाहर रखने की बात करते  हैं. उन्होने साफ़ कहा  कि जब तक सब को साथ लेकर नहीं चला जायेगा देश का भला नहीं होने वाला है .उन्होंने भारत और  चीन के विकास माडल की तुलना की और कहा  कि चीन का विकास केंद्रीकृत माडल पर आधारित है जबकि भारत का विकास शुद्ध रूप से सब के विकास का एक सामूहिक स्वरूप होगा.यहाँ  हर आदमी अपना विकास करेगा लेकिन अगर सभी लोग  किसी के अधिकार क्षेत्र में दखल दिए बगैर अपना विकास करते रहेगें  तो देश का समग्र आर्थिक विकास होगा.