Sunday, April 14, 2013

नरेंद्र मोदी ने महिलाओं के तरक्की और गरीबी हटाने में गुजरात को पीछे धकेला है .




शेष नारायण सिंह

यह कहना ठीक नहीं होगा कि मीडिया आँख मूदकर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अभियान चला रहा है  और उनकी तारीफ़ के फर्जी पुल बाँध रहा है. ऐसे भी अखबार  हैं जो सच्चाई को बयान करने की अभी तक हिम्मत रखे हुए हैं.कर्नाटक के अंग्रेज़ी अखबार डेकन हेराल्ड में वरिष्ठ पत्रकार नीना व्यास की टिप्पणी को प्रमुखता से छापा गया है जिसमें लिखा है मोदी जी जो हांकते हैं वह करते नहीं हैं.नरेंद्र मोदी के दिल्ली के फिक्की लेडीज़ संगठन में दिए गए भाषण के हवाले से यह साबित कर दिया गया है कि मोदी जी के भाषण  में महिलाओं के सशक्तीकरण के बारे में कही गयी बातें गलत थीं. दिल्ली के बुद्धिजीवियों के  सामने दिए गए उनके  भाषण की भी विवेचना की गयी है उर यह साबित कर दिया गया है कि वहाँ भी मोदी जी सच के अलावा सब कुछ बोल रहे थे. इस सभा में उन्होंने कहा कि कम से कम सरकार और अधिक से अधिक प्रशासन . लेकिन अगर बारीकी से देखा जाये तो समझ में आ जाएगा कि सच्चाई बिलकुल इसके उपते रास्ते पार है. वहाँ सरकार तो हर जगह मौजूद है लेकिन जनहित के काम उसकी प्राथमिकता नहीं है .

लेडीज़ के सामने नरेंद्र मोदी ने कहा कि 18वीं शताब्दी में लोग बच्चियों को दूध में नहलाते थे लेकिन 21वीं शताब्दी में लोग कन्या भ्रूण की ह्त्या कर रहे हैं . उनके इस कथन से यह बात कहने की कोशिश की गयी कि मोदी जी  कन्या भ्रूण की हत्याके बहुत खिलाफ हैं . लेकिन सच्चाई यह  है कि गुजरात में 2001  की जनगणना के हिसाब से लड़कियों और लड़कों के जन्म का अनुपात 921:1000 था जबकि जबकि 2011  में यह अनुपात 918:1000 रिकार्ड किया गया है . जबकि राष्ट्रीय अनुपात 2011 में 940:1000 हो चुका है है असम, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश,कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश ऐसे राज्य हैं जिनके यहाँ 2001  की तुलना में लड़कियों की संख्या बढ़ी है जबकि गुजरात में घटी है . गुजरात के कस्बों में चारों तरफ जन्मपूर्व लिंग पहचान की सुविधा उपलब्ध और अल्ट्रासाउंड के कारोबारी ज़्यादातर मोदी के मतदाता ही हैं . लेडीज़ के सामने मोदी ने माता को शक्ति देने की बात की लेकिन नैशनल सैम्पल सर्वे संगठन के आंकड़े  बताते हैं कि गुजरात में मैटरनल मोर्टलिटी रेट में वृद्धि हुई है यानी बच्चों के जन्म देते समय मरने वाली महिलाओं की  संख्या में वृद्धि हुई है जबकि केरल , तमिलनाडु और महाराष्ट्र में कमी आयी है . जहां  गुजरात में 145 माताओं की मृत्यु होती है वहीं महाराष्ट्र में यह संख्या 100 है .बच्चियां और माताएं की मृत्यु  गुजरात का रिकार्ड अपने आस पास के राज्यों से बहुत ही निराशाजनक है . गुजरात में बहुत सारी महिलायें आत्महत्या करने के लिये भी मजबूर होती हैं .नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2007 गुजरात में 11.5  प्रतिशत महिलाओं ने आत्महत्या की जबकि राष्ट्रीय औसत 202 का है .

दिल्ली की दूसरी सभा में उन्होंने अपने प्रिय सिद्धांत का प्रतिपादन किया . मोदी अक्सर कहते रहते हैंकि वे कम से कम सरकार और अधिक से अधिक प्रशासन में विश्वास करते हैं .यह भी गुजरात के बाहर ही की बात है . गुजरात में रहने वाले भाजपा के नेताओं से अगर बात की जाए तो पता लग जाता है कि वहाँ अधिकतम सरकार मोदी जी के हाथों में ही होती है .यह सारी बातें आंकड़ों के हिसाब से साबित कर दी गयी हैं . नरेंद्र मोदी के हाथ में सत्ता आने के बाद पार्टी व्यक्ति आय ,स्वास्थ्य और गरीबी कम करने की दिशा में भी गुजरात पहले के इस्थिति से पिछडता  गया है लेकिन आंकड़ों की बात को गलत बताने में नरेंद्र मोदी और उनके मीडिया को कोई वक़्त नहीं लगेगा

Wednesday, April 10, 2013

लिज्जत पापड़ मुंबई में शुरू हुआ था और उसमें मोदी का कोई योगदान नहीं है



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली में फिक्की लेडीज़ संगठन के अपने भाषण में नरेन्द्र मोदी ने आज लिज्जत पापड़ पर भी अपनी दावेदारी ठोंक दी और बताया कि गुजरात की आदिवासी महिलायें यह पापड़ बनाती हैं. . लेकिन जो लोग लिज्जत पापड़ के आंदोलन को समझते हैं उनको जो मालूम है वह मोदी जी के दावे से बिलकुल अलग है . इस बात में सच्चाई हो सकती है कि गुजरात में भी लिज्जत पापड़ बनता हो क्योंकि अब उसकी शाखाएं पूरे देश में हैं लेकिन उस आंदोलन की शुरुआत गुजरात से तो बिलकुल  नहीं हुई थी. मुंबई के गिरगांव इलाके की एक बिल्डिंग में रहने वाली सात महिलाओं ने पापड़ बनाना शुरू किया था . वे सब गुजराती थीं .उन्होंने सर्वेंट्स आफ इण्डिया सोसाइटी के सदस्य छगनलाल पारेख से ८० रूपये उधार लेकर १९५९ में पापड़ बनाने का कम शुरू किया था . १५ मार्च को वे अपनी बिल्डिंग की छत पर इकठ्ठा हुईं और पापड बनाया . मुंबई के भुलेश्वर में एक सेठ जी की दूकान पर वे पापड बेच दिया करती थी. इन महिलाओं ने तय कर लिया था कि किसी से दान नहीं लेगीं . वे नुक्सान   के लिए  भी तैयार थीं लेकिन किसी से भी मदद मांगने को तैयार नहीं थीं .
लिज्जत पापड का जो उदाहरण है उससे यह बात तो बहुत ही बुलंदी से साबित हो जाती है कि वह महिलाओं के उद्यम की सफलता का नतीजा है लेकिन यह कहीं नहीं  साबित होता कि  उसमें मोदी के गुजरात माडल का कोई योगदान है या मोदी जी ने कोई बहादुरी करके लिज्जत पापड उद्योग को सफल कराने में कोई काम किया है . लेकिन आज जिस तरीके से नरेंद्र मोदी ने अपनी बात कही उससे उन्होंने यह सन्देश देने की कोशिश की कि उसमें उनके तथाकथित गुजरात माडल का योगदान है .
१९५९ में मुंबई में शुरू होकर लिज्जत पापड़ का काम बहुत वर्षों तक मुंबई केंद्रित ही रहा. बाद  में कई राज्यों में शाखाएं खुलीं और महिला गृह उद्योग पापड़ के नाम से यह संगठन आज पूरी दुनिया में जाना जाता है . इस उद्याम में सीधे सीधे कभी किसी नेता से मदद नहीं ली गई. हाँ यह संभव है कि खादी और  विलेज इंडस्ट्रीज़  कमीशन में जिन लोगों ने शुरुआती दौर में संगठन की मदद की हो वे कांग्रेस  पार्टी के सदस्य भी रहें हों लेकिन उन्होंने जो भी सहयोग किया वह कांग्रेसी होने की वजह से नहीं किया . दिल्ली में लिज्जत पापड की पहली यूनिट लाजपत नगर के पास  सर्वेंट्स आफ इण्डिया के कार्यालय में खुली थी . अब तो पूरे देश में और विदेशों में भी लिज्जत पापड़ की शाखाएं हैं .  
लिज्जत पापड़ की कहानी में संघर्ष चारों तरफ है . अपने आपको राजनीति से दूर रखकर लिज्जत पापड़ चलाने वाली बहनों ने यह तो साबित कर दिया कि महिलायें वास्तव में पुरुषों से सुपीरियर होती हैं लेकिन उसमें मोदी जी या उनकी पार्टी का शामिल होना कहीं से नहीं साबित होता .
लिज्जत पापड के उद्योग को हर क़दम पर संघर्ष करना पड़ा है . १९६१ में मुंबई के ही मलाड में एक दफ्तर खोलने की कोशिश की गयी लेकिन सफलता हाथ  नहीं आयी. . तीसरे साल तक सदस्यों की संख्या ३०० तक पंहुच गयी थी . जगह थी नहीं इसलिए पापड़ का आटा गूंध कर बहनों को दे दिया जाता था और वे अपने घर से पापड बनाकर लाती थीं.
जुलाई १९६६ में लिज्जत का पंजीकरण सोसाइटी एक्ट के तहत हो गया और लिज्जत उद्योग एक कोआपरेटिव सोसाइटी बन गयी. उसी महीने खादी और विलेज इंडस्ट्रीज़ कमीशन के  अध्यक्ष यू एन देवधर ने प्रक्रिया शुरू करवा दी और और उसी साल खादी की ओर से लिज्जत को ८ लाख रूपये की वर्किंग कैपिटल की ग्रांट मिली और सरकार ने टैक्स में राहत की घोषणा की.अब तो लिज्जत में  गृह उपयोग की बहुत सारी सामग्री  बनती है .१५ मार्च २०१३ को लिज्जत की बुलंदी के ५४ साल पूरे हुए और इसमें न तो मोदी का कोई योग्दान है और न ही  बीजेपी का लेकिन आज नरेंद्र मोदी ने एक मंच पर उसकी सफलता को अपने आप से जोड़ दिया

दरअसल नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी ने इस तराह के राजनीतिक प्रयोग भी किये जब उन्होंने महात्मा गांधी और सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए . यह देखना दिलचस्प होगा कि लिज्जत की सफलता को अपनी सफलता बताने में नरेंद्र मोदी सफल होते हैं कि नहीं . हालांकि अब तक का तो लिज्जत का रिकार्ड ऐसा है कि उन्होंने नेताओं को बहुत तवज्जो नही दी है .

Sunday, April 7, 2013

मुलायम सिंह यादव के खिलाफ सख्त बयान देकर बेनी बाबू कांग्रेस का वोटबैंक बना रहे हैं



शेष नारायण सिंह

शुरू में कई दिन तक यह बात समझ में नहीं आई कि जब लोकसभा में मुलायम सिंह यादव के पास जाकर सोनिया गांधी ने बेनी प्रसाद वर्मा के बयान से उपजी  खटास को कम करने के लिए बात कर ली थी ,उसके बाद भी बेनी बाबू मुलायम सिंह के खिलाफ क्यों बयान पर बयान दिए जा रहे हैं .लेकिन जब बात को थोडा अंदर से समझने की कोशिश की गयी तो तस्वीर खुलती चली गयी. पता यह लगा कि कांग्रेस पार्टी यह कोशिश कर रही है कि एक ऐसी जाति की तलाश की जाये जिसका वोट उसे समर्पित भाव से मिल जाए . कांग्रेस के जीत के दौर में उसको दलितों और मुसलमानों के वोट पक्के तौर पर मिलते थे . उम्मीदवार की जाति या कोई और समीकरण बनकर कांग्रेस पार्टी की सीटें हमेशा बहुत बड़ी संख्या में होती थीं . लेकिन अब ज़माना बदल गया है . अब उत्तर प्रदेश में दलित मायावती के पक्ष में वोट करने लगे हैं और मुसलमान किसी ऐसे उम्मीदवार को वोट देने लगे हैं जो बीजेपी को बहुमत हासिल करने से रोक सके. विधान सभा में तो यह काम समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी कर लेती है . जहां तक बहुजन समाज पार्टी का सवाल है उसकी नेता कई बार बीजेपी को रोकने के नाम पर सीटें बटोरकर बीजेपी की मदद से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं लेकिन मुलायम सिंह यादव ने कभी बीजेपी के सहयोग से सत्ता नहीं ली . इसलिए मुसलमान उनके साथ वोट करते हैं . यह अलग बात है कि केन्द्र में सरकार बनवाने के लिए मुसलमानों ने बड़ी संख्या में कांग्रेस को उन सीटों पर वोट दिया था जहां कांग्रेस के उम्मीदवार के जीतने की संभावना थी. इसी चक्कर में कांग्रेस को बाकी पार्टियों के बराबर सीटें मिल गयी थीं . कहा यह जाता है कि बेनी प्रसाद वर्मा के सुझाव पर कुर्मी बहुल क्षेत्रों में कांग्रेस के जीतने की चर्चा शुरू हो गयी थी . उन क्षेत्रों  में मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दिया और कांग्रेस की सीटें भी सम्मानजनक हो गयीं . यह बात राहुल गांधी की समझ में आ गयी थी और उन्होंने बेनी प्रसाद वर्मा को कुर्मियों के सर्वस्वीकार्य नेता के रूप में स्थापित करने के प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था . हालांकि विधानसभा चुनाव में बेनी  प्रसाद वर्मा कोई  असर नहीं दिखा सके लेकिन राहुल गांधी ने उनके ऊपर भरोसा किया और कुर्मी वोटबैंक को अपनी पार्टी की बेसिक जाति बनाने की जिम्मेदारी बेनी प्रसाद वर्मा को सौंप दी . मुलायम सिंह के खिलाफ कुर्मियों को लामबंद करने की कोशिश में ही बेनी प्रसाद वर्मा सारा काम कर रहे  हैं . और अगर कुर्मी जाति के नेता के रूप  में बेनी प्रसाद वर्मा को कांग्रेस सम्मान देती है तो कांग्रेस के पास भी एक जाति का पक्का समर्थन हो जाएगा. यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रूरत है कि अगर बेनी बाबू की बिरादरी वालों को पता लग गया कि कांग्रेस हर हाल में बेनी प्रसाद वर्मा को समर्थन देगी तो कुर्मियों के नेता के रूप में बेनी बाबू  कांग्रेस को एक जाति का एकमुश्त समर्थन थमा देगें .
उत्तर प्रदेश की राजनीति में चुनावी नतीजे अब सिद्धांतों के आधार पर नहीं तय होते. वहाँ जातियों का योगदान सबसे ज्यादा है . जातियों की भूल भुलैया में फंसी उत्तर प्रदेश की राजनीति में केवल तीन जातियों के वोट पक्के माने जाते हैं . समाजवादी पार्टी के साथ राज्य भर के यादव पूरी तरह से लगे गए हैं . उसके अलावा पिछड़ी जातियों के लोग भी समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ते हैं लेकिन बेनी प्रसाद वर्मा के अलग होने के बाद अब कुर्मी कांग्रेस की तरफ बढ़ रहे हैं .दलित वर्ग की एक जाति के लोग पूरी तरह से मायावती के साथ रहते हैं . मायावती की लोकप्रियता अपनी जाति के मतदाताओं में बहुत ज्यादा है और वे अपने उम्मीदवारों के पक्ष में तो वोट  दिलवा सकती हैं , वे वोट ट्रांसफर भी करवा सकती हैं. यानी अगर मायावती ने अपने समर्थकों को आदेश दे दिया कि उनकी पार्टी के अलावा भी किसी को वोट देना है तो वह संभव हो सकता है .इसके अलावा मुसलमानों का वोट भी  लगभग एकमुश्त पड़ता है.  राज्य में मुस्लिम वोट अब केवल बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के उद्देश्य से पड़ता है . उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए ही चुनाव में २०१२ में मुसलमानों ने मुलायम सिंह यादव को एकमुश्त वोट किया था   लेकिन राज्य में जनाधार पूरी तरह से खो चुकी कांग्रेस को समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बराबर  सीटें २००९ में मिल गयी थीं. कांग्रेस की उन सीटों में मुसलमानों के वोट का सबसे  ज्यादा योगदान था क्योंकि उन्हें मालूम था कि केन्द्र की राजनीति में बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने का काम केवल कांग्रेस कर सकती है . लेकिन यह भी दिलचस्प है कि मुसलमानों ने कांग्रेस को उन्हीं सीटों पर वोट दिया जहां उनके उम्मीदवार की जीत  की संभावना बन सकती थी .अपने वोट को खराब नहीं किया . जहां समाजवादी पार्टी मज़बूत थी, वहाँ समाजवादी पार्टी को वोट दिया और जहां बहुजन समाज पार्टी का उम्मीदवार जीतने की स्थिति में था , वहाँ मुसलमान बीजेपी के साथ चला गया . नतीजा यह हुआ कि बीजेपी के अलावा सभी पार्टियां २० के आस पास सीटें पाकर खुश हो गयीं.
जातियों की वफादारी सुनिश्चित करके मुलायम सिंह यादव और मायावती राज्य के हरेक जिले में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित करते हैं . अन्य किसी पार्टी के पास कोई भी समर्पित जाति नहीं है .शायद इसीलिये उत्तर प्रदेश की राजनीति में लड़ाई बसपा और सपा के बीच ही नज़र आती है .लेकिन इस बार कुछ बदलाव के संकेत मिल रहे हैं .बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी के आ जाने के बाद माहौल बदल रहा है .इस बात में तो राय नहीं है कि समाजवादी पार्टी के शासन के एक साल पूरा होने के बाद लोगों ने समाजवादी पार्टी के साल भर के काम का आकलन किया है . २०१२ में समाजवादी पार्टी की जीत में यादवों और मुसलमानों के अलावा उन लोगों की भी बड़ी संख्या थी जो मायावती के पांच साल के राज से परेशान थे और कोई भी परिवर्तन चाहते थे. लेकिन जिन जिलों में कुर्मी प्रभावशाली भूमिका में थे वहाँ कांग्रेस को जीतेने की उम्मीद थी और मुसलमान उनके साथ जुड गए  और कांग्रेस जीत गयी .इसी काम के लिए बेनी प्रसाद वर्मा को खुली छूट दे दी गयी है कि वे मुलायम सिंह यादव के खिलाफ जो चाहें बयान दें , कांग्रेस  उनको महत्व देती रहेगी .
बेनी प्रसाद वर्मा इस कला के पुराने ज्ञाता हैं .जब १९८६ में अजित सिंह राजनीति में शामिल हुए तो उन्होंने अपने आपको स्व चौधरी चरण सिंह  का उत्तारधिकारी घोषित कर दिया . लेकिन यह सच्चाई नहीं थी . वास्तव में उत्तर प्रदेश की सभी पिछड़ी जातियां चरण सिंह को अपना नेता मानती थीं. पश्चिम में जाट उनके साथ थे . मध्य और पूर्वी  उत्तर प्रदेश में यादव और कुर्मी प्रभावशाली  जातियां थीं . यह सभी चरण सिंह के साथ थीं. अपने जीवनकाल में चरण सिंह मुलायम सिंह के ऊपर बहुत भरोसा भी करते थे और आमतौर पर माना जाता था कि उनकी विरासत  मुलायम सिंह ही संभालेगें . मुलायम सिंह को चरण सिंह का मानसपुत्र भी कहा जाता था लेकिन अजीत सिंह ने मुलायम सिंह को हाशिए पर डालने की कोशिश शुरू कर दी . बेनी प्रसाद वर्मा के बारे में मशहूर था कि वे मुलायम सिंह यादव को अपना बड़ा भाई मानते थे.  मुलायम सिंह उनसे करीब डेढ़ साल बड़े हैं . दोनों ही समाजवादी थे और राम सेवक यादव के समर्थक रह चुके थे . बताते हैं कि बेनी प्रसाद वर्मा ने  मुलायम सिंह यादव को समझाया कि चौधरी चरण सिंह पूरे उत्तर प्रदेश के पिछडों के नेता इसलिए बने थे कि इन दोनों ने कुर्मी और यादव जातियों को उनके साथ जोड़ दिया था . अगर कुर्मी और यादव उनसे अलग हो जाएँ तो अजित सिंह केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नेता बन कर रहे जायेगें . यही हुआ . मुलायम सिंह यादव रथ लेकर निकल पड़े और हर जिले में जाकर प्रचार किया और अजीत सिंह का प्रभाव सिमट गया .  पिछड़े वर्ग की दो ताक़तवर जातियां मुलायम सिंह यादव के साथ जुड गयीं  और वे पिछड़े वर्ग के बड़े नेता हो गए. इस काम में हर क़दम पर उनको बेनी प्रसाद वर्मा का सहयोग मिला.
अब बेनी प्रसाद वर्मा यही काम कर रहे हैं . अगर उन्होने समाजवादी पार्टी से कुर्मियों को दूर कर दिया तो और भी जातियां उनके साथ आ सकती हैं . एक जाति का बुनियादी सहारा लेकर कांग्रेस के पास एक ऐसी पूंजी बन सकती है जिसके बाद वह चुनाव में मुसलमानों को भरोसे के साथ समझा सकती है कि अगर उनका समर्थन मिला तो नतीजे बीजेपी के खिलाफ जायेगें. बेनी प्रसाद वर्मा और राहुल गांधी के इस प्रोजेक्ट में समाजवादी पार्टी के कुछ नेता भी मदद कर रहे हैं . जब शिवपाल यादव बेनी बाबू को नशेड़ी और अफीम का तस्कर कहते  हैं तो कुर्मियों को लगता है कि उनके नेता को अपमानित किया जा रहा है . और वे और  मजबूती से उनके साथ जुड़ते हैं . अगर चुनाव तक कांग्रेस ने बेनी बाबू को वही  इज्ज़त दी जो अब तक दे रही है तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के पास  कम से कम एक जाति की पूंजी होगी और नरेंद्र मोदी को रोकने के प्रयास में मुसलमानो के वोट कांग्रेस की झोली में जा सकते हैं.

Friday, April 5, 2013

राहुल बोले 'ग्रामीण भारत को शामिल किये बिना समावेशी विकास नहीं हो सकता '



शेष नारायण सिंह 

कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने आज उद्योगपतियों के संगठन सी आई आई के सम्मलेन में आज भाषण दिया . अपने लगभग एक दशक के राजनीतिक जीवन में उनका यह भाषण  अब तक के उनके भाषणों में सबसे महत्वपूर्ण माना जायेगा. हालांकि केन्द्र में सत्ता में आने की कोशिश कर रही पार्टी के प्रवक्ताओं की  फौज ने उनके भाषण को संकीर्ण करने की कोशिश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आज उन्होंने अपनी  पार्टी के प्रातिनिधि के रूप में कम,  एक विद्वान राजनेता के रूप में ज़्यादा  बात की . बीजेपी लगातार कोशिश कर रही है  कि अपने प्रधानमंत्री के दावेदार नरेंद्र मोदी के मुकाबिल उन्हें खड़े करके उनकी धुनाई की जाए  लेकिन राहुल गांधी ऐसा कोई मौक़ा नहीं दे रहे हैं , आज भी उन्होने ऐसा कोई मौक़ा नहीं  दिया . दर असल आज उन्होने  जो बातें कहीं हैं वे देश के हर राजनेता की बात हो सकती है  और होनी भी चाहिए लेकिन अपने देश में राजनीतिक विमर्श का माहौल इतना नीचे गिर चुका  है .राजनीतिक पार्टियों का स्वरूप  सत्ता हथियाने की मशीन के रूप में विकसित हो चुका है कि राजनीतिक पार्टियां उसके बाहर जाने को तैयार ही नहीं  होतीं. राहुल गांधी के आज के भाषण की जो आलोचना राजनीतिक  पार्टियों की ओर से शुरू हो गयी है वह उसी का उदाहरण है . लेकिन राहुल गांधी की बातों को अगर देश में राजनीतिक विमर्श के स्तर को ऊपर उठाने के लिए किया जाए तो ज्यादा उचित रहेगा.
राहुल गांधी ने समावेशी  विकास के नए व्याकरण को बहस का मुद्दा बनाया और कहा कि अगर एक आदमी को सारी राजनीतिक ताक़त दे दी जाए और उस से सभी समस्याओं का हल निकालने को कह दिया जाए तो वह नहीं कर पाएगा लेकिन अगर देश की पूरी आबादी को उसके हक दे दिए जाएँ और सब को विकास के काम में भागीदार होने का अवसर मिले तो देश की किस्मत बदल सकती  है क्योंकि  हर आदमी अपने विकास के साथ साथ देश का विकास भी अपने एजेंडा में रखेगा 
राहुल गांधी ने कहा कि  हमारी राजनीतिक पार्टियों का डिजाइन ऐसा है कि उसमें  देश के हर व्यक्ति के शामिल होने के अवसर ही नहीं  हैं . उन्होंने कहा कि राजनीतिक पार्टियां एम पी और एम एल ए को जनप्रतिनिधि मानकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा मान लेती हैं लेकिन सही बात यह है कि हर गाँव में एक प्रधान होता है , उसका एक तंत्र  होता है , वह मुकामी  समस्याओं से अच्छी तरह से वाकिफ होता है और वह मुकामी स्तर  पर समस्याओं का समाधान तलाश सकता है  लेकिन किसी भी राजनीतिक पार्टी में उसको महत्व देने का प्रावधान नहीं है . संविधान के ७३ वें और ७४वे संशोधन के ज़रिये पंचायती राज संस्थाओं को राष्ट्र के विकास में प्रमुख भूमिका देने की पहल की गयी थी , महिलाओं के लिए पंचायतों में आरक्षण करके समावेशी विकास के एक नए मानदंड को स्थापित करने की कोशिश की  गयी थी लेकिन ग्रामीण  भारत में स्थानीय नेतृत्व  को मान्यता देने का प्रावधान कुछ  कम्युनिस्ट पार्टियों और तमिल पार्टियों के अलावा  कहीं नहीं है . राहुल गांधी ने जोर देकर कहा कि  एक अरब लोगों को विकास में भागीदार बनाने के लिए देश की राजनीतिक व्यवस्था को अपने आप को दुरुस्त करना होगा और हर इंसान को फैसला लेने की ताक़त देनी होगी .उन्होंने कहा कि यह उम्मीद करना बुल्कुल गलत है कि एक आदमी को सारी  ताक़त दे दो और वह घोड़े पर सवार होकर आएगा और सब ठीक कर देगा . ऐसा नहीं होने वाला है . उन्होने  प्रधान मंत्री पद के लिए मुख्य  विपक्षी पार्टी और मीडिया की तरफ चल रही इस कोशिश को भी खारिज कर दिया कि एक आदमी का नाम लेकर इतने बड़े  देश की समस्याओं का हल निकाला जा सकता है.उन्होंने कहा  कि जब तक ज़मीन से जुड़े आदमी का सशक्तीकरण नहीं होगा तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है .
राहुल गांधी आग्रह  किया कि  इस बात को भी नकार देने की ज़रूरत  है  जहां कुछ राजनीतिक पार्टियां किसी खास जाति को शामिल करने या किसी अन्य धर्म को मानने वालों को विकास प्रक्रिया से बाहर रखने की बात करते  हैं. उन्होने साफ़ कहा  कि जब तक सब को साथ लेकर नहीं चला जायेगा देश का भला नहीं होने वाला है .उन्होंने भारत और  चीन के विकास माडल की तुलना की और कहा  कि चीन का विकास केंद्रीकृत माडल पर आधारित है जबकि भारत का विकास शुद्ध रूप से सब के विकास का एक सामूहिक स्वरूप होगा.यहाँ  हर आदमी अपना विकास करेगा लेकिन अगर सभी लोग  किसी के अधिकार क्षेत्र में दखल दिए बगैर अपना विकास करते रहेगें  तो देश का समग्र आर्थिक विकास होगा. 

Wednesday, April 3, 2013

लोकसभा चुनाव २०१४ के पहले नहीं होगें



शेष नारायण सिंह

मुंबई,१ अप्रैल. ममता बनर्जी और करूणानिधि की पार्टियों की समर्थन वापसी के बाद केन्द्र सरकार कमज़ोर पडी थी. लेकिन उसको गिरने से बचाने में उत्तर प्रदेश की दो  पार्टियों ,समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ,ने भूमिका निभाई और सरकार सही सलामत है . दिल्ली में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषकों ने ऐसा माहौल बना रखा है कि २०१३ में ही हो जायेगें. यह काम कोई नया नहीं है . जब २००४ में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे  , तब से ही लाल कृष्ण आडवानी ने उनको कमज़ोर प्रधानमंत्री कहना शुरू किया था और लाल कृष्ण आडवानी को बहुत ही महान  नेता मानने वाले राजनीतिक विश्लेषकों ने साल भर के अंदर चुनाव की भविष्यवाणी करना शुरू कर दिया था . वे लोग गलत साबित हुए जब मनमोहन सिंह ने अपना पहला कार्यकाल पूरा किया और अब दूसरा कार्यकाल पूरा करने वाले हैं लेकिन लोकसभा का कोई भी चुनाव समय से पहले नहीं हुआ. इस बार भी चुनाव समय से पहले नहीं होगा . यह अलग बात है कि जब से उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार बनी है तब से ही आडवानी समर्थक और आडवानी विरोधी विश्लेषक कहते पाए जाते हैं कि बस अब चुनाव होने ही वाला है . राजनीतिक हालात ऐसे हैं कि ऐसा कुछ नहीं होगा . अब तो लगता है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी ऐसी हालत नहीं पैदा कर सकती कि लोकसभा चुनाव समय से पहले हो . अब कोई भी पार्टी कांग्रेस को चुनाव करवाने के लिए मजबूर नहीं कर सकती है केवल कांग्रेस चाहे तो चुनाव समय से पहले करवा सकती है लेकिन अब तक की राजनीतिक स्थिति ऐसी है जिसमें कांग्रेस किसी भी हाल में समय से पहले चुनाव नहीं करवायेगी क्योंकि टर्की पक्षी कभी भी क्रिसमस के जल्दी आने की दुआ नहीं करता.

ममता बनर्जी तो चाहती हैं कि चुनाव जल्द से जल्द हो जाए लेकिन  उनकी राजनीतिक हैसियत यह नहीं है कि वे चुनाव  करवाने के लिए कांग्रेस को मजबूर कर सकें. हालांकि इसी मुगालते में उन्होने यू पी ए से समर्थन वापस लिया था लेकिन बी एस पी और समाजवादी पार्टी ने सरकार को समर्थन देकर समर्थक सांसदों की संख्या  २८० के पार पंहुचा दी . पिछले दिनों डी एम के ने समर्थन वापसी का नाटक किया है लेकिन वह शुद्ध रूप से नाटक ही लगता है क्योंकि तमिल भावनाओं को  राजनीतिक हित के लिए भुनाने के उद्देश्य से वापस  लिया गया समर्थन सरकार को गिराने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जायेगा . करूणानिधि को मालूम है कि अगर उन्होंने केन्द्र की सरकार को नाराज़ कर दिया तो उनके लिए तमिलनाडु की मुख्य मंत्री जी बहुत सारी परेशानियां पैदा कर देगीं . करूणानिधि ने मीडिया को बता भी दिया कि वे सरकार को गिराने नहीं जा रहे हैं . उसी तरह से उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती किसी भी हालत में यू पी ए को नाराज़  नहीं करने वाली हैं क्योंकि अगर केन्द्र सरकार भी उनके खिलाफ हो गयी तो उत्तर प्रदेश में स्थापित मौजूदा सरकार उनकी मूर्तियों को ज़मींदोज़ कर सकती है  और यह यह उनके लिए बहुत सारी मुश्किलें पैदा कर देगा .मुलायम सिंह यादव ने भी कांग्रेस को धोखेबाज़ और ठग तक कह दिया लेकिन जब समर्थन वापसी की  बात आयी तो उन्होने कह दिया कि अगर वे केन्द्र की सरकार को गिराते हैं तो साम्प्रदायिक ताक़तों को मजबूती मिलेगी और वे साम्प्रदायिकता को कभी मज़बूत नहीं होने देगें. वैसे यह भी सच है  कि अगर मुलायम सिंह यादव आज सरकार को समर्थन देना बंद कर दें तो भी चुनाव समय पर  होंगें क्योंकि उनके हटने के बाद भी यू पी ए के समर्थन में २५९ सांसद रहेगें और बीजेपी की राजनीतिक हैसियत अभी ऐसे नहीं है कि लोकसभा में वह आविशास प्रस्ताव लाकर २६० सदस्यों का समर्थन जुटा ले . इसलिए मुलायम सिंह यादव सरकार के साथ रहें या खिलाफ ,सरकार नहीं गिरेगी और चुनाव समय से ही  होंगें .

किसी अखबार में कहीं  छप गया है कि चुनाव समय से पहले होंगें और कांग्रेस ही चुनाव करवायेगी . किसी विश्लेषक ने यह ज्ञान दे  दिया और इस पर भी चर्चा चल पडी लेकिन इस बात में कोई दम नहीं है . केन्द्र सरकार ने इस साल पहली जनवरी को “ आपका पैसा आपके हाथ “ स्कीम का उदघाटन किया  है . कांग्रेस पार्टी को विश्वास  है कि यह स्कीम ठीक उसी तरह से कांग्रेस को लाभ पंहुचायेगी जिस तरह से किसानों की कर्ज माफी और मनरेगा ने पिछले चुनावों में पंहुचाया था . केन्द्र सरकार योजना है कि इस साल के अंत तक यह स्कीम पूरे भारत में लागू कर दी जायेगी . सारे देश में बैंक की शाखाएं खोली जा रही हैं और स्टेट बैंक के अधिकारी लाभार्थियों के अकाउंट खोल रहे हैं . लाभार्थियों की सूची में अभी छात्रवृत्तियां और वृद्धावस्था पेंशन आदि पाने वालों  का नाम है . बाद में इसका विस्तार होगा जब इस स्कीम की योजना कांग्रेस पार्टी और सरकार के स्तर पर बतायी गयी थी तो राहुल गांधी ने अपने जिला स्तर के पदाधिकारियों को बुलाकर इसका लाभ लेने की हिदायत दी थी और ग्रामीण विकास मंत्री ने इसको गेम चेंजर कहा था . इस योजना का असर धीरे धीरे पडेगा और मार्च अप्रैल में जब चुनाव होंगें  तो देश में ऐसे लाभार्थियों के बड़ी संख्या होगी जो कांग्रेस  के नेतृत्व वाली सरकार की डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर वाली योजना का लाभ उठा चुके होगें . काँग्रेस को उम्मीद है कि  इस योजना का लाभ उठाने वाले लोग  चुनाव नतीजों पर प्रभाव डालेगें और लोकसभा २०१४ में भी उसको २००४ और २००९ की तरह सरकार बनाने लायक संख्या मिल जायेगी .इसलिए यह कहना कि कांग्रेस ही जल्दी चुनाव करवाना चाहती है बिलकुल गैरजिम्मेदार पत्रकारिता है .  

Tuesday, April 2, 2013

उत्तर प्रदेश में चुनाव कांग्रेस और बीजेपी के बीच होने की संभावना बढ़ी



शेष नारायण सिंह

मुंबई,३१ मार्च. बीजेपी की टीम २०१४ की घोषणा के बाद अब साफ़ हो गया है कि बीजेपी अब चुनावी  मैदान में  हिंदुत्व के नाम पर उतरने वाली है .यह भी तय हो गया है कि बीजेपी का चुनाव प्रचार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की थीम पर ही केंद्रित रहेगा. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के राग से मिलाकर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश की जायेगी. बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी ,सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के नाम ऐसे हैं जिनको लिबरल डेमोक्रेटिक के रूप में पेश किया जाता है लेकिन  नरेंद्र मोदी, लाल कृष्ण आडवाणी ,उमा भारती आदि ऐसे नाम हैं जिनका ज़िक्र आते ही, बाबरी मसजिद के विध्वंस की तस्वीरे  सामने आ जाती हैं . राज नाथ सिंह की नई टीम में पीलीभीत के एम पी वरुण गांधी को  भी बहुत बड़ी पोस्ट दे दी गयी है . उत्तर प्रदेश में बीजेपी के बड़े नेता और बाबरी मसजिद के विध्वंस के आन्दोलन के समय बजरंग दल के अध्यक्ष रहे विनय कटियार ने उनकी तैनाती पर टिप्पणी की है और कहा है कि वरुण गांधी  को उनके नाम के साथ गांधी जुड़े होने का फायदा मिला है .लेकिन सच्चाई यह है कि वरुण गांधी ने खासी मेहनत करके मुसलमानों के घोर शत्रु के रूप में अपनी पहचान बना ली है और उत्तर प्रदेश में हर इलाके में वे नौजवान जो मुसलमानों  के खिलाफ हैं वे वरुण गांधी को हीरो मानते हैं . जो भी हो अब बीजेपी के पत्ते खुल चुके हैं और इसका सीधा मतलब है कि इस बार आर एस एस की पार्टी हिंदुओं की एकता की राग के  साथ चुनावी मैदान में जाने का मन बना चुकी है .
बीजेपी की नई टीम और उसमें नरेंद्र मोदी के लोगों को मिली प्राथमिकता के अलग अलग सन्देश हर राज्य में जायेगें. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के राज्य, उत्तर प्रदेश में यह टीम धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति को एक निश्चित दिशा  देगी. बीजेपी को उसका लाभ  मिलेगा. पिछले एक साल में उत्तर प्रदेश में जिस तरह का राज कायम है उसके बाद समाजवादी पार्टी के पक्ष में उतने लोग नहीं हैं जितने मार्च २०१२ में थे. समाजवादी पार्टी की जब सरकार बनी थी तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने बताया था कि २०१२ के विधान सभा चुनाव के अपने घोषणापत्र की प्रमुख बातें लागू करके वे लोकसभा  चुनाव में जाना चाहेगें जिससे अपनी पार्टी की मजबूती और अच्छे काम के बल पर जनता के बीच जाएँ तो अच्छी सीटें मिल जायेगीं  उनकी कोशिश थी कि उतनी सीटें फिर से हासिल की जाएँ जितनी २००४ में मिली थीं . २००४ में समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में करीब ४० सीटें मिली थीं.
लेकिन पार्टी की हालत अब ऐसी है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो समाजवादी पार्टी को उतनी सीटें भी नहीं मिलेगीं जितनी उसके पास अभी हैं .पूरे राज्य में कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है, बिजली पानी की भारी किल्लत है . कुछ खास जातियों के लोगों का आतंक है और कुल मिलाकर ऐसी हालत है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सीटें बहुत कम हो जायेगीं . कांग्रेस नेता और केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा का दावा है कि केवल चार सीटें रह जायेगीं . उनकी इस बात पर विश्वास करने का कोई आधार तो  नहीं है लेकिन यह तय है कि स्थिति  कमज़ोर होगी  और अगर नरेंद्र मोदी , वरुण गांधी, उमा भारती जैसे लोग  जिनको मुसलमान अपना शत्रु मानते हैं वे बीजेपी के अगले दस्ते में नज़र आये तो समाजवादी पार्टी का प्रमुख वोट बैंक किसी ऐसी पार्टी को वोट देगा जो केन्द्र में नरेंद्र मोदी की सरकार को रोकने की क्षमता रखता हो . इस कसौटी पर केवल कांग्रेस  ही खरी पायी जायेगी. मायावती की पार्टी की हैसियत केन्द्र में किसी सरकार की मदद करने भर की है और सबको मालूम है कि वे ज़रूरत पड़ने पर  बीजेपी की मदद भी कर सकती हैं . १९९४ से लेकर २००७ तक वे जब भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं , हमेशा बीजेपी की मदद से ही बनीं. २००२ के  गुजरात के नरसंहार के बाद हुए चुनावों में वे नरेंद्र मोदी का प्रचार करने अहमदाबाद भी जा चुकी हैं . ऐसी हालत में बीजेपी को रोकने के लिए आर एस एस  विरोधी शक्तियां मायावती के पास नहीं जायेगीं . मुलायम सिंह यादव भी पिछले दिनों लाल कृष्ण आडवानी  की तारीफ़ करके मुसलमानों की नाराज़गी का शिकार बन चुके हैं .उनकी पार्टी ने साफ़ संकेत दे दिया है कि वह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को यू पी ए से अच्छी मानती है . लोकसभा के अंदर राजनाथ सिंह ऐलान कर चुके हैं कि अगली बार मुलायम सिंह यादव उनके साथ रहेगें . ऐसी स्थति में सेकुलर और मुस्लिम  वोट मुलायम सिंह यादव के पास नहीं जाने वाला है . और जो ढुलमुल मुस्लिम विरोधी मतदाता है वह तो हर हाल में  बीजेपी के साथ जाएगा.ऐसी हालत में बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति को रोकने के लिए सेकुलर और मुस्लिम वोट कांग्रेस के पास जा सकता है . यही हालत २००९ के चुनाव में भी हुई थी जब बीजेपी ने ऐसा माहौल बना दिया था कि उसकी सरकार बनने वाली है और मुसलमानों ने मुलायम सिंह यादव के प्रति सहानुभूति रखते हुए भी कांग्रेस को जिता दिया था . वरना जो पार्टी उत्तर प्रदेश की विधान सभा में २५ सीट के आसपास ही जीतने की क्षमता रखती है , उसको २१ सीट लोकसभा में जीत पाना एक राजनीतिक अजूबा ही माना जाएगा . यह इसीलिये हुआ कि बीजेपी के खिलाफ जो ताक़तें थी उनकी बड़ी संख्या कांग्रेस की तरफ चली गयी .  मायावती और मुलायम सिंह के साथ भी लोग रहे जिसके कारण  तीनों ही पार्टियों को लगभग बराबर  सीटें मिलीं . इस बार तस्वीर बदल सकती है  क्योंकि मुलायम सिंह यादव ने भी बीजेपी की तरफ दोस्ती के संकेत दे दिए हैं और जब मोदी के पक्ष धार्मिक ध्रुवीकरण होगा तो वोट उसी को मिलेगें जो दिल्ली में बीजेपी को सत्ता पर कब्जा करने से रोक सके. इसलिए उत्तर प्रदेश में तो यही लग रहा है कि लोकसभा चुनाव  बीजेपी और कांग्रेस के बीच होने की बुनियाद पड़ चुकी है 

Monday, April 1, 2013

अमरीकी वीज़ा के लिए नरेन्द्र मोदी की एक और कोशिश नाकाम



शेष नारायण सिंह  

अमरीकी वीज़ा  के लिए  गुजरात के मुख्यमंत्री कुछ भी करने को तैयार हैं .अभी दो दिन पहले न्यूज़ चैनलों पर दिन भर एक खबर चलती रही कि  अमरीकी कांग्रेस के चार सदस्य आये हैं और उन्होंने नरेन्द्र मोदी से मुलाक़ात करके उन्हें अमरीका आने का न्योता दिया और भरोसा दिलाया कि  वे कोशिश करेगें कि  नरेन्द्र मोदी को गुजरात आने का वीजा मिल जायॆ. ख़बरों को इस तरह से प्रचारित किया गया था कि लगता था कि अमरीकी संसद की ओर से आये किसी प्रतिनिधिमंडल का प्रतिनिधित्व कर रहे अमरीकी सांसदों ने अपनी सरकार या संसद की तरफ से मोदी को आमंत्रित किया था. लेकिन अब बात कुछ और ही नज़र आ रही है . बात अजीब शक्ल अख्तियार कर चुकी है . भारत में उन अखबारों को भी सच्चाई छापनी पड़ रही है जो आमतौर पर ऐसी ख़बरें नहीं छापते जिनसे मोदी की छवि को नुक्सान पंहुचे . नरेन्द्र मोदी के एक प्रशंसक अखबार में छपा है कि शिकागो से प्रकाशित होने वाले एक  अमेरिकी अखबार ने दावा किया है कि दल में शामिल लोगों ने गुजरात का दौरा करने के लिए बाकायदा पैसे लिए। 
शिकागो के एक अखबार हाई इंडिया में छपा है कि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के लिए अमेरिकी दल में शामिल हर लोगों को 16 हजार डॉलर यानी आठ लाख रुपये दिए जमा करना पड़ा था और यह एक  टूरिस्ट कार्यक्रम था . वहां पर बाकायदा विज्ञापान देकर लोगों को शामिल किया गया था. और बताया गया था कि सोलह हज़ार डालर जमा करने पर इस यात्रा में शामिल  होने का मौक़ा मिलेगा . विज्ञापन में लिखा था कि अमरीकी संसद के चार सदस्यों के साथ भारत की यात्रा पर जाने का जो मौक़ा मिल रहा है उसमें गुजरात, कर्णाटक और पंजाब की यात्रा शामिल है . गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल से मुलाक़ात के अलावा रणथम्भोर में बाघ दिखाए जायेगें और बालीवुड की सैर का भी मौक़ा मिलेगा. शिकागो में रहने वाले भारतीय मूल के एक व्यापारी ने यह सारा कार्यक्रम बनाया था.  नरेन्द्र मोदी के ऊपर अमरीका में घुसने की मनाही का आदेश लगा हुआ है . गुजरात में २००२ के नरसंहार के बाद अमरीका ने  कई बार नरेन्द्र मोदी की वीजा की अर्जी को ठुकराया है . उसके  बाद से जब भी मौक़ा मिलता है नरेन्द्र मोदी कोशिश करते हैं कि  उन्हें अमरीकी वीजा मिल जाये. देश के सबसे बड़े अखबार( दैनिक जागरण ) में आज खबर है कि यह मौजूदा यात्रा का आयोजन शिकागो के एक व्यापारी शलभ कुमार ने किया है . खबर में लिखा है की वाशिंगटन ने जो एक दशक पूर्व नरेंद्र मोदी की अमेरिका आने पर प्रतिबंध लगा रखा है और इस प्रतिबंध को हटाने के लिए माहौल बनाने के वास्ते शलभ व ओवरसीज भाजपा के बीच एक करार हुआ है। अखबार आगे लिखता है कि इस दौरे को न तो वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास न ही नई दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास ने आयोजित किया था। इस दौरे में रिपब्लिकन सांसद भी आए थे। आयोजकों ने सेवेन स्टार ट्रिप के लिए 16 हजार डॉलर [लगभग आठ लाख रुपये] प्रति व्यक्ति व एक युगल के लिए 29 हजार डॉलर [लगभग 15 लाख रुपये] और फोर स्टार टूर के लिए 10 हजार डॉलर [लगभग पांच लाख रुपये] लिए। इस ट्रिप में दल को गांधी स्मारक का दौरा करना है। इसके बाद उदयपुर में लेक पैलेस में ठहरने की योजना है। कर्नाटक में राज्य सरकार के बतौर मेहमान तिरुपति का दौरा करना है। इस ट्रिप में रणथंभौर टाइगर रिजर्व और जयपुर पैलेस का टूर भी शामिल है। साथ में पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के साथ डिनर भी शामिल है। इस खुलासे के बाद दल के गुजरात दौरे के महत्व धूमिल हो गई। मोदी हों या बादल, खबर के मुताबिक इनसे अमेरिकियों की मुलाकात महज सैर सपाटे का हिस्सा था। अमेरिका से आए उस प्रतिनिधिमंडल के आयोजकों ने इस दौरे में शामिल होने के लिए प्रति व्यक्ति 3,000 डॉलर से लेकर 16,000 डॉलर तक की राशि रखी थी। इस व्यापारिक प्रतिनिधिमंडल में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के चार सदस्य शामिल हैं और सभी रिपब्लिकन पार्टी से हैं।

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि  नरेन्द्र मोदी को अमरीका में स्वीकार्य बनवाने के लिए जुटे  हुए लोग आग एक्य काम करते हैं . मौजूदा योजना तो लगता है की मुंह के बल  गिर चुकी है .

रिटायर होने के बाद भी इन्साफ के लिए लड़ते हैं जस्टिस मार्कंडेय काटजू



शेष नारायण सिंह


  प्रेस काउन्सिल के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने १९९३ के मुंबई धमाकों के आभियुक्त संजय दत्त और जेबुन्निसा की सज़ा को माफ करवाने के लिए राष्ट्रपति और महाराष्ट्र के राज्यपाल से अपील करने का फैसला कर लिया है . आज जब उनको बताया गया कि संजय दत्त ने कहा है कि वे कोई माफी नहीं मांगने जा रहे हैं और वे निर्धारित समय पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार समर्पण कर देगें और देश की सबसे बड़ी अदालत ने उन्हें जो सज़ा दी है उसे भुगत कर ही बाहर आयेगें ,तो जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा कि उनकी योजना पर संजय दत्त के इस बयान से कोई फर्क नहीं पडेगा क्योंकि वे संजय दत्त के प्रतिनिधि के रूप में नहीं जा रहे हैं . वे अपनी तरफ से सज़ा को माफ करवाने के लिए अपील करेगें .उन्होंने कहा कि संजय दत्त और जेबुन्निसा का मामला ऐसा है जिसमें उन दोनों की सज़ा को माफ किया जाना चाहिए . जस्टिस काटजू का विरोध बीजेपी और आर एस एस से जुड़े संगठन और उन  संगठनों से सहानुभूति रखने वाले लोग पूरे जोर शोर से कर रहे हैं . एक टी वी बहस में जनता पार्टी के अध्यक्ष ,डॉ सुब्रमण्यम  स्वामी ने बहुत  ही ज़ोरदार तरीके से कहा कि सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला है जिसमें  लिखा है कि किसी भी व्यक्ति की सजा को माफ करने का एक ही आधार बनता है कि  सजा को माफ करने से कोई सार्वजनिक हित का काम होगा . संजय  दत्त को माफी देने से किसी भी सार्वजनिक हित के काम के होने की कोई संभावना नहीं है  इसलिए उनको माफी नहीं दी जानी चाहिए . लेकिन जस्टिस मार्कंडेय काटजू का तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद ७२ और १६१ में लिखा है कि किसी भी सज़ा पाए हुए व्यक्ति को राष्ट्रपति और राज्यपाल माफी दे  सकते हैं . उन्होंने जोर देकर कहा कि दोनों ही अनुच्छेदों में कहीं नहीं लिखा है कि माफी का आधार क्या होगा . उन्होंने कहा कि माफी देने के हज़ारों आधार हो सकते हैं . यह तो राष्ट्रपति और राज्यपाल के विवेक पर छोड़ दिया गया है .  सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों में यह उल्लेख अवश्य है कि सार्वजनिक हित का कोई मुद्दा होना चाहिए लेकिन ऐसे कई फैसले हैं जिनमें यह भी लिखा है कि सार्वजनिक हित के अलावा और भी मुद्दों पर सज़ा को  माफ किया जा सकता है . कम से कम संविधान तो  इसके लिए कोई भी शर्त नहीं निर्धारित करता . जहां तक सुप्रीम कोर्ट  के  किसी फैसले की बात है ,किसी भी फैसले के बाद राष्ट्रपति और राज्यपाल के क्षमा देने के अधिकारों में कोई भी परिवर्तन नहीं किया गया  है .

जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि संजय दत्त की माफी की अपील करने के पहले उन्होने  संजय दत्त से कोई बात नहीं की है . उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में दो बातें  लिखी हैं . एक तो यह कि संजय दत्त पर आतंक के किसी भी अपराध में शामिल होने के सबूत नहीं  हैं . अदालत ने यह भी कहा है कि उन्होने यह हथियार अपने परिवार की रक्षा के लिए रखे थे .और दूसरा यह कि संजय दत्त ने अपने पास ऐसे हथियार रखे जो उनको नहीं रखना  चाहिए था . उसकी सज़ा उन्हें  मिल चुकी है . वे १८ महीने जेल में रहकर आये हैं और जेल से आने के बाद भी कई साल तक अपने आपको संभलाने में लगे रहे . इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें छोड़ दिया  गया है . जस्टिस काटजू की अपील यह  है कि मानवीय आधार पर संजय दत्त और जेबुन्निसा की सजा को माफ किया जाना चाहिए. . इसलिए उन्होने  यह अपील की  है . जब जस्टिस काटजू को याद दिलाया गया कि ए के ५६ जैसे हथियारों से परिवार की रक्षा की बात समझ में नही आती  तो उन्होंने कहा कि  सुप्रीम कोर्ट के फैसले में लिखी बातों पर वे बहस नहीं करना चाहते , न उनको करना चाहिए .   उन्होंने यह भी साफ़ किया कि वे  किसी न्यायिक प्रक्रिया के तहत माफी की बात  नहीं कर रहे हैं वे तो राष्ट्रपति और राज्यपाल के उस अधिकार की बात कर रहे हैं  जो उन्हें संविधान की ओर से मिला हुआ है .
जेबुन्निसा काजी के केस में भी जस्टिस  मार्कंडेय काटजू को मेरिट नज़र आती है .उन्होंने कहा कि उनके बारे में हुए फैसले को पढ़ने के बाद वे इस नतीजे पर पंहुचे हैं कि  जेबुन्निसा को भी माफी मिलनी चाहिए .उनको सज़ा केवल इस बात पर मिली है कि उनके पास से ऐसे हथियार मिले हैं जिनको रखना गैर कानूनी है .उनकी बेटी का कहना है कि वे लोग अबू सलेम को इलाके के एक प्रापर्टी डीलर के रूप में जानते थे और जब वह कोई सामान रख कर चला गया और बाद में पता चला कि वे हथियार थे तो उनकी माँ का क्या कसूर है . पड़ोसी का सामान कौन  नहीं रखता . उनकी माँ को मालूम ही नहीं था कि  उस बैग में क्या रखा था. जस्टिस काटजू का  कहना है कि जेबुन्निसा ने इस बात का कभी खंडन नहीं किया कि उनके यहाँ सामान नहीं  मिला. उनकी राय  में जेबुन्निसा को शुरुआती स्तर पर ही बेनिफिट आफ डाउट मिलना चाहिए था .लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ है तो अब उनको माफी दी जानी चाहिए. वे बहुत बीमार हैं . उनकी किडनी का आपरेशन हुआ है .उनको हर छः महीने  बाद जांच करवानी पड़ती है . जस्टिस काटजू को डर है कि वे बाकी सज़ा काट ही नहीं पायेगीं. वैसे भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पैरा १२५ में लिखा है कि वे साज़िश के मुख्य आरोप में दोषी नहीं  पायी गयी हैं .

जस्टिस काटजू को इन्साफ की लड़ाई में शामिल होने का शौक़ है . इसके अलावा वे कभी भी सच्चाई को बयान करने में संकोच नहीं करते. पिछले दिनों कुछ टी वी पत्रकारों को कम बौद्धिक स्तर का व्यक्ति बताकर टी वी उन्होंने पत्रकारिता के मठाधीशों को नाराज़ कर दिया था .उनके इस बयान के बाद तूफ़ान मच गया . टी वी न्यूज़ के अपनी ताक़त दिखाना शुरू कर दिया . उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाने लगा . पत्रकार बिरादरी में मार्कंडेय काटजू को घटिया आदमी बताने का फैशन चलाने की कोशिश शुरू हो गयी. अधिकतम लोगों तक अपनी पंहुच की ताक़त के बल पर टी वी चैनलों के कुछ स्वनामधन्य न्यूज़ रीडरों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया . लेकिन मार्कंडेय काटजू ने अपनी बात को सही ठहराने का सिलसिला जारी रखा. हर संभव मंच पर उन्होंने अपनी बात कही. जब एक टी वी चैनल की महिला एंकर ने उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया तो उन्होंने फ़ौरन अपना प्रोटेस्ट दर्ज किया . उन एंकर को टेलीफोन करके बताया कि वे उनके बयान को सही तरीके से उद्धरित नहीं कर रही हैं . टी वी चैनल की नामी एंकर साहिबा कह रही थीं कि मार्कंडेय काटजू ने अधिकतर पत्रकारों को अशिक्षित कहा है . काटजू ने उनको फोन करके बताया कि आप गलत बोल रही हैं . करण थापर के साथ हुए इंटरव्यू में मैंने कुछ पत्रकारों को "पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " वाला कहा है . उन्होंने  आग्रह किया कि मेरी आलोचना अवश्य कीजिये लेकिन कृपया मेरी बात को सही तरीके से कोट तो कीजिये . झूठ के आधार पर कोई डिस्कशन संभव नहीं है .

उसके बाद देश के सबसे सम्मानित अंग्रेज़ी अखबार ने जस्टिस मार्कंडेय काटजू के स्पष्टीकरण को प्रमुखता से छापा  और टी वी पत्रकारों के " पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " के विषय पर सार्थक बहस शुरू कर दी  .लेकिन जस्टिस काटजू अपनी बात पर डटे रहे और बहुत सारे टी वी न्यूज़  वालों सार्वजनिक रूप से तो नहीं लेकिन निजी बातचीत में बार बार स्वीकार किया कि काटजू की बात में दम है . मार्कंडेय काटजू  सफल रहे और बहुत सारे लोगों की कोशिश के बाद भी  मीडिया को उनके खिलाफ नहीं खड़ा किया जा  सका. वे आज भी मीडिया के प्रिय है . देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल के प्रमुख तो उन्हने अक्सर अपने यहाँ सम्मान के साथ  बुलाते हैं और उनकी बात को प्रमुखता  देते हैं .
जस्टिस काटजू का परिवार पिछले सौ साल से भी अधिक समय से इलाहाबाद हाई कोर्ट और  वहाँ की न्याय परंपरा का हिस्सा रहा है . उनके पिता ,जस्टिस एस एन काटजू इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं. मार्कंडेय काटजू के दादा डॉ कैलाश नाथ काटजू आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए थे और केंद्र सरकार  में कानून और रक्षा विभाग के मंत्री भी रह चुके थे. वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी थे. खुद मार्कंडेय काटजू अंग्रेज़ी,
हिन्दीसंस्कृत उर्दूइतिहास ,दर्शनशास्त्र ,समाजशास्त्र जैसे विषयों के अधिकारी विद्वान् हैं . १९६८ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एल एल बी परीक्षा में उन्होंने टाप किया था . इलाहाबाद के हाई कोर्ट में ४५ साल की उम्र में ही जज बन गए थे. मद्रास और दिल्ली हाई कोर्टों में मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं.बहुत सारी किताबों के लेखक हैं और अपनी बात को बिना किसी संकोच के बिना किसी हर्ष विषाद के कह देने की कला में निष्णात हैं . उन्होंने ही इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में वह बयान दिया था जिसमे उस महान संस्था में काम करने वालों की कठोर आलोचना की गई थी.

बहरहाल उन्होंने संजय दत्त और जेबुन्निसा को मिली सज़ा को माफ कराने का अभियान शुरू करके एक विबाद को फिर जन्म दे दिया है . यह देखन दिलचस्प होगा कि  उनका अभियान क्या रंग लाता है .

श्रीलंका में तमिलों की हालत हिटलर कालीन जर्मनी के यहूदियों जैसी है



शेष नारायण सिंह

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका की सेना की तरफ से श्रीलंकाई तमिलों पर हुई ज्यादतियों के बारे में एक और प्रस्ताव पास हो गया  है . २०११ में भी एक प्रस्ताव पास हुआ था. उस वक़्त श्रीलंका की सरकार ने अपने  राजनयिकों को दुनिया भर में भेजा था और कोशिश की थी कि उसके ऊपर मानवाधिकारों के बारे में संयुक्त राष्ट्र की किसी संस्था में कोई प्रस्ताव न पास हो लेकिन प्रस्ताव पास हो गया था. प्रस्ताव पास करके रिकार्ड की फ़ाइल में रख दिया गया था श्रीलंका की सरकार के ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ा. उसके बाद श्रीलंका ने संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार संबंधी चिंताओं को टालना शुरू कर दिया . इस साल जब प्रस्ताव पास होने वाला था तो श्रीलंका ने  जूनियर अफसरों  का एक प्रतिनिधिमंडल जिनेवा भेज दिया था .  प्रस्ताव पास हो गया . मानवाधिकार परिषद  ने बहुत ही चिंता के साथ यह नोट किया है कि मानवाधिकारों की तबाही  के जो आरोप श्रीलंका की सेना पर लगाये  गए हैं उन पर वहाँ की सरकार गौर नहीं कर रही है . तमिल विद्रोहियों के साथ चले २६ साल के युद्ध में तमिल सेना ने बहुत अत्याचार किया था और एक अनुमान के अनुसार करीब ४०  हज़ार तमिल मूल के गैर सैनिक नागरिकों को मार डाला था . लड़ाई २००९ में खत्म हो गयी थी और  बहुत सारे तमिल विद्रोहियों ने समर्पण कर दिया था. यह अलग बात  है कि बाद में वे सभी सरकारी रिकार्ड में 'लापता दिखा दिए गए थे. श्रीलंका में इस ‘लापता ‘ का मतलब ठिकाने लगा दिया जाना माना जाता है .
जब जिनेवा में मानवाधिकार परिषद में वोट पड़ने वाला था तो बहुत सारे श्रीलंकाई मानवाधिकार कार्यकर्ता वहाँ गए थे और कोशिश कर रहे थे कि ऐसा प्रस्ताव पास किया जाए जिससे श्रीलंका की सरकार पर कुछ दबाव पड़ सके . ज़ाहिर है प्रस्ताव तो बहुत ही हल्का है लेकिन जो लोग इस प्रस्ताव के पक्ष में थे उनको श्रीलंका में  देशद्रोही के रूप में पेश किया जा रहा है और उनको डर है कि अगर वे वापस  गए तो उनको भी 'लापता बता दिया जाएगा.  श्रीलंका में उन लोगों की खैर नहीं है जो राजपक्षे सरकार के  खिलाफ कोई भी राय रखते हों . और अगर वे अपनी राय को कहीं व्यक्त कर दें तो खतरा बहुत बढ़  जाता है . शायद इसीलिये उन पत्रकारों को'लापता होना पड़ रहा है जिन्होंने कभी भी राजपक्षे  सरकार के खिलाफ कुछ भी लिखा है. 
संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद का ताज़ा प्रस्ताव भी श्रीलंका की सरकार पर कोई असर नहीं डाल पायेगा . प्रस्ताव की भाषा बहुत हल्की है उसमें लिखा  है कि श्रीलंका की सरकार को " मानवाधिकारों के कथित उन्लंघन " की जांच करनी चाहिए .यानी सारी दुनिया को मालूम है कि किस तरह से श्रीलंका की सेना ने तमिलों के खून से होली खेली थी लेकिन मानवाधिकार  परिषद उसे कथित के मुलम्मे के साथ प्रस्ताव में पेश करती है . इस तरह के प्रस्ताव से  मानवाधिकारों की रक्षा  की कोई बात तो नहीं ही होने वाली है क्योंकि श्रीलंका को मालूम है कि दुनिया की सरकारें श्रीलंका से किसी गंभीर कार्रवाई की उम्मीद  नहीं करतीं. अगर ऐसा होता तो मानवाधिकारों के बड़े अलम्बरदार बने हुए ब्रिटेन ने कम से कम नाराज़गी जताने की गरज से ही सही , कोलम्बो में प्रस्तावित कामनवेल्थ देशों के सम्मेलन को  ही कहीं और टालने की घोषणा कर दी होती .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.

२००९ में श्रीलंका ने तमिल विद्रोहियों के आंदोलन को कुचल दिया था . उसके बाद से अब तक सरकार ने स्वीकार भी नहीं किया है कि तमिलों के साथ कोई अत्याचार हुआ था. आज भी श्रीलंका के उत्तर और पूर्व में रहने वाले  तमिलों को सेना की बन्दूक की दहशत के नीचे जीवन बिताना पड़ रहा है .लोगों को बिला वजह पकड़ लिया जाता है और बाद में खबर आती है कि वे'लापता हो गए  हैं . जब उनके रिश्तेदार थाने जाकर पुलिस से पूछताछ करते हैं तो पता लगता है कि सम्बंधित व्यक्ति लापता ‘  हो गया है और वह वापस नहीं आएगा. लोगों को मालूम है कि पुलिस के इस बयान का मतलब यह है कि वह व्यक्ति मार दिया गया है . मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को हमेशा डराने धमकाने की कोशिश हमेशा होती रहती है. श्रीलंका की सरकार को अब भरोसा हो गया है कि  कहीं भी कोई प्रस्ताव पारित हो जाए उसके ऊपर कोई दबाव नहीं पड़ने वाला है क्योंकि उसको सुरक्षा परिषद में चीन और  रूस का समर्थन हासिल है जिसके सहारे वह अमरीका की कोई परवाह   नहीं करता. श्रीलंका में जापान के व्यापारिक हित हैं इसलिए जापान भी उसके खिलाफ ऐसा कोई काम नहीं करता जिस से राष्ट्रपति राजपक्षे नाराज़ हो जाएँ .जानकार बताते हैं कि अमरीका भी शायद इसीलिये कुछ करता है कि श्रीलंका में उसके कोई  भी राजनीतिक या व्यापारिक हित नहीं हैं .

श्रीलंका के मानवाधिकार के उन्लंघन के मामले में भारत की दुविधा सबसे भारी है .श्रीलंका में जिस तमिल आबादी पर श्रीलंका की फासिस्ट सोच वाली सरकार का आतंक है वह मूल रूप से भारतीय है ,तमिलनाडु से ही श्रीलंकाई तमिलों के पूर्वज वहाँ गए थे. भारत की राजनीति पर तमिलों के साथ होने वाले अत्याचार का सीधा असर पड़ता है. इस बार तो इसी मुद्दे पर केन्द्र सरकार के  गिरने की नौबत आ गयी .शायद इसीलिये भारत सरकार ने जिनेवा में श्रीलंका के खिलाफ वोट के दौरान बहुत ही सख्त बातें कहीं . हालांकि जो बातें वहाँ कही गयीं  उनका पास हुए प्रस्ताव से कोई लेना देना  नहीं है लेकिन भारत सरकार अपने तमिलनाडु वाले समर्थक दल को अपने बयान के हवाले से बता सकती है कि उसने श्रीलंका सरकार के खिलाफ सख्त रुख अपनाया  था .जिनेवा में भारत के स्थायी प्रतिनिधि का बयान तमिलनाडु में २०१४ के चुनावों में बार बार दोहराया जाएगा और सरकार यह दावा करेगी कि कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को इस बात पर बहुत तकलीफ थी कि बड़ी संख्या में श्रीलंकाई तमिल आतंक के साये में  जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हैं और सरकार को उन तमिलों के कल्याण की बहुत चिंता है .भारतीय बयान में कहा गया है कि भारत सरकार मांग करती है कि एल एल आर सी ( लेसंस लर्न्ट एंड रीकांसिलिएशन कमीशन ) की रिपोर्ट को लागू किया जाए. यह कमीशन श्रीलंका की सरकार ने ही बनाया था और उसके राष्ट्रपति इसके संरक्षक थे . भारत सरकार ने कहा है कि उत्तरी प्रांत में  लापता लोगों, बंदियों,और अपहरण का शिकार हुए लोगों के बारे में सरकार  अपनी नीति को स्पष्ट करे,. सिविलियन इलाकों से सेना को हटाया जाये ,तमिलों की वह ज़मीन जिस पर सेना ने कब्जा कर रखा  है उसे तुरंत वापस किया जाए . भारत सरकार ने मांग की है कि मानवाधिकार के हनन के सभी मामलों की निष्पक्ष और  विश्वसनीय जांच की जाए. .श्रीलंका की सरकार को चाहिए कि वह सारे मामलों में लोगों की जिम्मेदारी को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाये.
जिनेवा में दिए गए भारत सरकार के बयान में वह सारी बातें लिखी हुई हैं जिनके सहारे सरकार ,कांग्रेस पार्टी और यू पी ए में कांग्रेस की सहयोगी रही डी एम के अपने आपको तमिलों का शुभचिंतक बता सकती है लेकिन यह बात भी तय है कि  श्रीलंका में रहने वाले तमिलों की मुसीबत अभी खत्म होने वाली नहीं है. उनको अभी उसी फासिस्ट तानाशाही को झेलना पड़ेगा जिसे हिटलर के काल में जर्मनी में रहने वाले यहूदियों को झेलना पड़ा था.  

Tuesday, March 26, 2013

बीजेपी और समाजवादी पार्टी में दूरियां घट रही हैं .




शेष नारायण सिंह
मुंबई, २४ मार्च .सत्ता की राजनीति में बड़े पैमाने पर मंथन चल रहा है .बीजेपी के नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी  राष्ट्रीय राजनीति में धमाकेदार इंट्री ली हैं .आम तौर पर माना जा रहा है की बीजेपी वाले उनको ही आगे  करके कांग्रेस के खिलाफ मोर्चेबंदी करेंगे .हिंदुत्व का  राजनीतिक इस्तेमाल उत्तर  प्रदेश में ही शुरू हुआ था. बाद में नरेंद्र मोदी ने उसका गुजरात में सफलता पूर्वक इस्तेमाल किया . मुसलमानों का खौफ पैदा करके वहाँ के हिंदुओं को एक किया और लगातार चुनाव जीतने  का  रिकार्ड बनाया .आज पूरे देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के उसी माडल को लागू करने की कोशिश की जा रही है . बीजेपी के नेता अभी तो न नुकुर कर रहे हैं लेकिन ईमान है कि आने वाले वक़्त में मोदी की ताक़त भारी पड़ेगी और  धार्मिक ध्रुवीकरण को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की राजनीति आर एस एस की मंजूरी के साथ लोकसभा २०१४ में इस्तेमाल की जायेगी. 
हिंदुत्व  को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने की बीजेपी की कोशिश में उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी अड़चन मुलायम सिंह यादव की पार्टी रही है.अगर कहा जाए कि  लाल कृष्ण आडवानी के हिंदुत्व के अभियान को मुलायम सिंह यादव ने रोक दिया था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. हिंदुत्व के राजनीतिक इस्तेमाल की उनकी मंशा के खिलाफ मुलायाम सिंह यादव चट्टान की तरह खड़े हो गए थे . उसका उनको राजनीतिक लाभ भी मिला. पिछले बीस वर्षों में कई बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनी और केन्द्र में भी रक्षा मंत्री तक की पोजीशन तक पंहुचे .उन्होंने हमेशा कहा है कि लाल कृष्ण आडवानी इतिहास की गलत व्याख्या करते  हैं .खास तौर पर अयोध्या की बाबरी मसजिद के बारे में तो लाल कृष्ण आडवानी की हर बात को मुलायम सिंह यादव ने गलत बताया है लेकिन लखनऊ की एक सभा में उन्होंने ऐलान किया  कि लाल कृष्ण आडवानी कभी झूठ नहीं बोलते . उस सभा में मुलायाम सिंह यादव के प्रशंसक  इकठ्ठा हुए थे लेकिन जब   मुलायम सिंह यादव 
ने आडवाणी की तारीफ़ के पुल बांधना शुरू किया तो उन लोगों को अपने कानों पर 

विश्वास ही नहीं हुआ .मुलायम सिंह यादव ने कहा कि लाल कृष्ण आडवाणी जैसे 


बड़े नेता ने उनसे कहा है कि वह चाहते हैं कि सूबे में सपा की सरकार चले लेकिन 

उप्र में भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है। बकौल मुलायम 'यदि आडवाणी ऐसा कह रहे हैं तो 

हमें निश्चित समीक्षा करनी चाहिए। आडवाणी कभी झूठ नहीं बोलते।' मुलायम सिंह 

यादव के इस बयान को राजनीतिक विश्लेषक भूलवश दिया गया बयान नहीं मानते. 

ऐसा लगता है कि  समाजवादी पार्टी में बीजेपी को लेकर गंभीर विचार मंथन चल 

रहा है .अभी कुछ दिन पहले पार्टी के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण नेता राम गोपाल यादव 

ने बीजेपी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी की तारीफ़ की थी और कहा था 


कि अगर उनकी सरकार के ऊपर २००२ के गोधरा के बाद के नर संहार का दाग न 


लगा होता तो वे डॉ मनमोहन सिंह से बहुत अच्छे प्रधान मंत्री थे. उन्होंने कहा  था 

कि अटल जी और डॉ मनमोहन सिंह में कोई तुलना नहीं की जा सकती .

इसके अलावा भी समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच बढ़ रही नजदीकियां और भी अवसरों पर देखी गयी हैं . राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान लोकसभा में सपा और भाजपा के बीच नए समीकरणों के संकेत दिखे। मुलायम सिंह यादव ने बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के सामने दोनों दलों के बीच दूरी  कम करने का एक  फार्मूला पेश किया .बीजेपी के देशभक्ति, सीमा और भाषाई मुद्दों से शत-प्रतिशत सहमति जताते हुए मुलायम सिंह ने कहा कि यदि मुसलिम और कश्मीर मुद्दे पर वे अपनी नीति बदल लें तो उनके-हमारे बीच की दूरी कम हो जाएगी। जवाब में राजनाथ ने दोनों दलों के बीच दूरियां होने की बात को नकारते हुए भविष्य में साथ आने के संकेत भी दे दिए. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बुधवार को विपक्ष की तरफ से चर्चा की शुरुआत करते हुए राजनाथ ने किसानों, गरीबों की बात की तो वह मुलायम सिंह यादव बहुत प्रभावित हुए . मुलायम सिंह ने राजनाथ की ओर मुखातिब होकर कहा कि देशभक्ति, सीमा मामलों और भाषा पर हमारी व बीजेपी की नीति एक ही है बीच की दूरी कम हो जाएगी .उनकी इस बात पर बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उठकर हमारे और आपके बीच में दूरी कहां है? अगली बार निश्चित तौर पर आप हमारे साथ होंगे। मुलायम ने भी जोर देकर दोबारा कहा, मैं फिर कह रहा हूं और इस सदन में कह रहा हूं कि भाजपा अपनी नीति बदल रही है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में सत्ता की इस करवट का मतलब समझ में आना शुरू तो हो गया है लेकिन आने वाले दिनों में इसके संकेत और साफ़ हो जायेगें .और अगर यह तय हो गया कि समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच दोस्ती बढ़ रही है तो उत्तर प्रदेश में राजनीति का खेल बिलकुल बदल जाएगा 

उत्तर प्रदेश सरकार की नाकामी का खामियाजा २०१४ में भुगतना पड़ सकता है .





शेष नारायण सिंह 

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने  उत्तर प्रदेश सरकार और उसके मंत्रियों को आइना दिखाने की कोशिश की .उन्होंने साफ़ कहा कि राज्य में पिछले एक साल में हालात बहुत बिगड गए हैं .उन्होंने सबसे पहले अपने बेटे और राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को ही नसीहत दी और कहा कि  अखिलेश के बारे में यह बहुत मशहूर हो गया है कि वे बहुत सीधे आदमी हैं  लेकिन सिधाई से राज नहीं चलता . सख्ती बरतनी पड़ेगी क्योंकि सत्ता में आने पर अपराधियों, अफसरों , माफिया आदि से सामना होता है और उनको दुरुस्त रखने के लिए सख्ती से काम लेना पडेगा . उन्होने साफ़ कहा कि राज्य में कानून व्यवस्था की हालत बहुत ही खराब है . कुल मिलाकर मुलायमसिंह यादव ने अपनी पार्टी की ऐसी आलोचना की जैसी कि किसी विपक्षी पार्टी ने भी नहीं की थी .
 
सवाल यह उठता है कि मुलायम सिंह यादव इतने गुस्से में क्यों  हैं . एक साल पहले बहुत ही खुशी खुशी उन्होने अपने बेटे को सत्ता सौंपी थी और उम्मीद जताई थी कि करीब दो साल बाद जब लोक सभा के चुनाव होंगें तो  समाजवादी पार्टी को लोक सभा में करीब ५० सीटें मिल जायेगीं . अगर ५० सीटें मिल जातीं तो उनके बल पर कांग्रेस या बीजेपी , कोई भी उन्हें प्रधान मंत्री बनाने के पेशकश कर सकता था . लेकिन आज साल भर बाद मुलायम सिंह यादव की पारखी नज़र ने भांप लिया है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो उनकी पार्टी को उतनी सीटें भी नहीं मिलेगीं जितनी २००९ में मिली थीं. राज्य सरकार ही समाजवादी पार्टी की जीत या हार को सुनिश्चित करने का सबसे बड़ा जरिया है . और जब राज्य सरकार  की हालत खस्ता है तो उसके हवाले से २०१४ जीतना बिलकुल असंभव है. ऐसी हालत में मंत्रियों को सार्वजनिक रूप से फटकार कर उन्होने हालात को ठीक  करने की कोशिश की है .लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि वे स्थिति को कितना सुधार पाते हैं .

मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव और उनकी सरकार को फटकार कर यह बात तो बहुत साफ़ शब्दों में बता दिया है कि हालात में सुधार लाने की  ज़रूरत है लेकिन एक सच्चाई और है और वह यह कि उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार में अखिलेश यादव केवल मुख्यमंत्री हैं  . बाकी सभी कैबिनेट मंत्री वे हैं जो अखिलेश यादव को बच्चा समझते हैं और मुलायम सिंह यादव के भरोसे के लोग हैं . जब यह सरकार बनी थी तो  लोगों ने उम्मीद जताई थी कि अखिलेश यादव आधुनिक शिक्षा से लैस नौजवान हैं और वे सरकार में नए विचार लायेगें और उन विचारों के बल पर एक नए उत्तर प्रदेश का निर्माण होगा  लेकिन मुलायम सिंह यादव के साथ काम  कर चुके ज़्यादातर मंत्रियों ने आखिलेश की एक न सुनी और सबने अपने मंत्रालय को अपनी ज़मींदारी की तरह चलाना शुरू कर दिया . कानून व्यवस्था पर भी मुलायम सिंह यादव खासे  नाराज़ हैं . लेकिन सच्चाई यह है कि अखिलेश यादव जिस  पुलिस अफसर को राज्य पुलिस का नेतृत्व देना चाहते थे , उसको मौक़ा न देकर नेताजी ने अपने प्रिय अफसर को पुलिस की कमान सौंप दी.अगर आज कानून व्यवस्था की हालत खराब है तो उसके लिए  खराब पुलिस प्रशासन  ज़िम्मेदार  हैं . जहां तक अफ़सरों की तैनाती की बात है  उसमें भी अखिलेश यादव की बहुत नहीं चलती. उनके  अपने सचिवालय में ऐसे कई अफसर तैनात हैं जिनको नेताजी ने सीधे तौर पर नियुक्त किया है . ज़ाहिर है वे लोग भी आखिलेश यादव की नहीं सुनते. नोयडा में कुछ अफसरों की नियुक्ति के मामले में हाई कोर्ट के बार बार दखल देने ले बाद भी उनको वहाँ से तब हटाया गया जब लगा कि सरकार के ऊपर ही मानहानि का मुक़दमा चल जाएगा. बताते  हैं कि राज्य सरकार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण पद पर एक ऐसे अफसर को तैनात कर दिया गया है जिसको कि कोर्ट के आदेश पर बाकायदा जेल की सज़ा हो चुकी है . तो ऐसी हालत में राज्य सरकार की असफलता का सारा ज़िम्मा अखिलेश यादव पर डाल  देना नाइंसाफी होगी. अगर मुलायम सिंह यादव चाहते हैं कि अखिलेश यादव पूरी जिम्मेवारी से अपना काम करें तो उनको मंत्रियों और अफसरों की तैनाती में खुली छूट देनी होगी वर्ना बहुत देर हो जायेगी .

मुलायम सिंह यादव ने जो आज लखनऊ में सार्वजनिक रूप से कहा  है वही बात उन्होंने इस रिपोर्टर को कई दिन पहले संसद भवन के अपने कमरे में बतायी थी जिसे कई अखबारों ने छापा भी था . मुलायम सिंह यादव का कहना है २०१४ का चुनाव बहुत ही गंभीरता से लड़ा जाएगा. उन्होंने बताया कि संसद का बजट सत्र खत्म होने के बाद वे निकल पड़ेगें और पूरे राज्य में  जनसंपर्क शुरू कर देगें . वे संसद का सत्र खत्म होते ही हर मंडल में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायेगें और उनसे व्यक्तिगत संपर्क करेगें . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने उनको आगाह किया था कि अब हर कस्बे में जाने की ज़रूरत नहीं है . उनकी सलाह थी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनको वहीं जाना चाहिए जहां समाजवादी पार्टी की राज्य इकाई वाले जाने को कहें . लेकिन उन्होंने  राज्य स्तर के अपने पार्टी के नेताओं खासी नाराजगी जताई और कहा कि जो विधायक बन गए हैं वे अब अपने क्षेत्रों में नहीं जा रहे हैं .जो लोग मंत्री बन गए हैं .वे भी तो विधायक ही  हैं लेकिन सब लोग लखनऊ में जमे रहते हैं और जनता से संपर्क नहीं रख रहे हैं . इस कारण से पार्टी का बहुत नुक्सान हो रहा है . उन्होने उन संसद सदस्यों के प्रति भी नाराजगी जताई जो कार्यकर्ताओं को दिल्ली बुला लेते हैं और उनको संसद के अंदर आने  का पास बनवा देते हैं . नतीजा यह होता है कि वे लोग संसद भवन के मुलायम सिंह यादव के कार्यालय के  बाहर आकर खड़े हो जाते हैं . यह ठीक नहीं है. वे चाहते हैं  कि पार्टी के कार्यकर्ता उन्हें लखनऊ में ही मिलें .

मुलायम  सिंह यादव की यह चिंता इसलिए भी है कि उत्तर प्रदेश में आगामी लोक सभा चुनाव  धार्मिक ध्रुवीकरण की बीजेपी की कोशिश की छाया में लड़ा जाएगा . अगर बीजेपी ने वरुण गांधी, उमा भर्ती, कल्याण सिंह और नरेंद्र मोदी जैसे लोगों के जयकारे के साथ चुनाव लड़ा तो यह बात लगभग पक्की है कि मुलायम सिंह यादव को मुसलमानों के वोट नहीं मिलेगें. और अगर मुसलमानों के वोट थोक में कांग्रेस के पास  चले गए तो मुलायम सिंह यादव की सीटें लोक सभा में मौजूदा सीटों से भी कम  हो जायेगीं. पिछली बार २००९ में यह सीटें इसलिए मिली थीं कि राज्य की एक बहुत बड़ी आबादी मायावाती को हराना चाहती थी. इस बार ऐसा नहीं है . इस बार तो ऐसे बहुत लोग मिल जायेगें जो मौजूदा सरकार के काम काज से बहुत निराश हैं और  वे इस सरकार के अलावा किसी और को वोर दे सकते हैं . अगर ऐसा हुआ तो मुलायम सिंह यादव और  उनकी पार्टी के लिए बहुत मुश्किल  हो जायेगी . 

Saturday, March 23, 2013

डी एम के की केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी के बाद के सवाल



शेष नारायण सिंह

डी एम के नेताएम करूणानिधि ने यू पी ए सरकार से समर्थन वापस लेकर राजनीतिक सरगर्मियां  बढ़ा दी हैं . तमिलनाडु में श्रीलंका के तमिलों के समर्थन में लोकप्रिय आंदोलन चल रहा है .ऐसी हालात में राज्य की किसी भी पार्टी के लिए ऐसी किसी सरकार के साथ खड़े रहना बहुत नुक्सानदेह साबित होगा जो श्रीलंका सरकार से किसी तरह से भी सहानुभूति रखती देखी जाए. जानकार बताते हैं कि समर्थन वापसी की राजनीति करूणानिधि की एक राजनीतिक चाल है और जैसा कि उनके बारे में सबको मालूम है वे अक्सर राजनीतिक सौदेबाजी कर रहे होते हैं. इस बार ऐसा नहीं लगता . तमिलों के प्रति केन्द्र सरकार के रुख से तमिलनाडु में नाराज़गी है .आमतौर पर माना जा रहा था कि चुनाव करीब आने पर डी एम के वाले केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी का ड्रामा करेगें लेकिन इतनी जल्दी कर देगेंइसकी उम्मीद नहीं थी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि केन्द्र सरकार के साथ बने रहने में डी एम को कोई राजनीतिक लाभ नहीं होगा जबकि उसका साथ छोड़ देने से तमिलनाडु की सडकों पर  श्रीलंका  के तमिलों के साथ सहानुभूति प्रकट कर रही जनता के साथ सम्मिलित होने का मौक़ा मिल जाएगा. वहाँ की जयललिता सरकार भी अलग थलग पडी हुई है और उसकी असुविधा को अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने की रणनीति के तहत एम करुनानिधि ने  यह फैसला लिया है .उनकी समर्थन वापसी से केन्द्र सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है . समर्थन वापसी की बात शुरू होने के साथ साथ यू पी ए को बाहर  से समर्थन दे रही उत्तर प्रदेश की दोनों ही पार्टियों ने ऐलान कर दिया कि उनका समर्थन जारी रहेगा. ज़ाहिर है समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के समर्थन के सुनिश्चित हो जाने के बाद केन्द्र सरकार अपना कार्यकाल बिता लेगी.  हाँ नए घटनाक्रम का एक नतीजा यह हो सकता है कि मुलायम सिंह यादव को खुश रखने के लिए  कांग्रेस पार्टी अपने नेता और केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा को सरकार से निकाल दे. बेनी प्रसाद वर्मा को सरकार से बाहर कर देने में कांग्रेस का कोई राजनीतिक घाटा नहीं होगा क्योंकि सबको मालूम है कि बेनी बाबू की कोई राजनीतिक हैसियत नहीं है . अभी साल भर पहले हुए विधान सभा चुनावों में उन्होने एक सौ से ज्यादा लोगों को चुनकर विधान सभा का टिकट दिया था और किसी को नहीं जितवा पाए. यहाँ तक कि उनके अपने बेटे को भी चुनाव में  हार का सामना करना पड़ा था.बेनी प्रसाद वर्मा की राजनीतिक ताक़त की कोई खास अहमियत नहीं है और अगर उनको हटाकर समाजवादी पार्टी के २२ सदस्यों का समर्थन हासिल किया जा सकता है तो यह सौदा किसी तरह से भी घाटे का नहीं माना जाएगा. 
ऐसी स्थिति में लोक सभा चुनाव २०१४ के पहले  होने की संभावनाओं पर फिर चर्चा शुरू हो गयी है . इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि चुनाव  कब होंगें क्योंकि जब भी चुनाव होंगे राजनीतिक पैरामीटर अब तय हो चुके हैं . बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चुनाव लड़ा जाना लगभग पक्का हो गया है . दिल्ली में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक अक्सर यह कहते पाए जाते  हैं कि बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह  नरेंद्र मोदी के पक्ष में नहीं हैं . यह बात सच नहीं है . राजनाथ सिंह ने खुद कहा है कि बीजेपी का सबसे लोकप्रिय नेता आज की तारीख में नरेंद्र मोदी हैं . उनका कहना  है कि जिन राज्यों में उनकी पार्टी की कोई  महत्वपूर्ण मौजूदगी नहीं है ,वहाँ भी नरेंद्र मोदी को  पसंद करने वालों की बड़ी संख्या है . तमिलनाडु जैसे राज्य में भी मोदी के प्रशंसक हैं . ऐसी हालत में लगता है कि २०१४ के चुनाव में नरेंद्र मोदी  ही प्रमुख होंगें और उनको राजनाथ सिंह का समर्थन रहेगा. बीजेपी के वे बड़े नेता जिनका  कोई ज़मीनी काम नहीं है, उनका कोई महत्व वैसे भी नहीं है . और जब राजनाथ सिंह और नरेंद्र मोदी में सहमति रहेगी तो बीजेपी में किसी भी नेता के लिए मोदी का विरोध कर पाना बहुत मुश्किल होगा. हाँ यह हो सकता है कि नरेंद्र मोदी  को अभी प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में न पेश किया जाए ,अभी उनको प्रचार कमेटी के मुखिया या और इसी तरह के किस किसी फैंसी पद के साथ चुनाव  का संचालन का ज़िम्मा दिया जाए लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि अगले चुनाव में नरेंद्र मोदी ही बीजेपी के कर्णधार होंगे और उनको पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का समर्थन रहेगा. बीजेपी को उम्मीद है कि पूरे देश में नरेंद्र मोदी के नाम पर लहर चल पड़ेगी और कांग्रेस का उसी तरह से सफाया हो जाएगा जैसा १९७७ में हो गया था.

राजनाथ सिंह की इस बात में दम हो सकता है कि नरेंद्र मोदी  के समर्थक पूरे भारत में हैं .लेकिन यह भी उतना ही सच है कि नरेंद्र मोदी के विरोधी भी पूरे भारत में हैं जहां तक मुसलमानों का सवाल है वे तो नरेंद्र मोदी को किसी भी सूरत में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं लेकिन गैर मुस्लिम आबादी में भी बीजेपी और नरेंद्र मोदी के विरोधियों की संख्या कम  नहीं है . नरेंद्र मोदी के विरोधी निश्चित रूप से आगामी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगें. और देश की राजनीति के लिए यह समझ लेना ज़रूरी है कि अपनी धार्मिक पहचान वाली राजनीति के साथ नरेंद्र  मोदी देश की राजनीति को कहाँ तक प्रभावित करते हैं . नरेंद्र मोदी के बीजेपी के मुख्य चुनाव प्रचारक या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होने में सबसे दिलचस्प लड़ाई उत्तर प्रदेश  में ही होगी . कांग्रेस को उम्मीद है कि अगर नरेंद्र मोदी मुख्य नेता के रूप में आगे आये तो उत्तर प्रदेश में उसको फिर अच्छी सीटें मिल जायेगीं . जो कांग्रेस  पार्टी उत्तर प्रदेश के २००७ और २०१२ के विधान सभा चुनावों में सबसे कमज़ोर पार्टी के रूप में सामने आती है , वही पार्टी २००९ के लोक सभा चुनावों में राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से भारी क्यों पड़ती है . यह एक  ऐसी पहेली है जिसमें आगामी लोक सभा चुनावों के नतीजों का भेद छुपा है . उत्तर प्रदेश में कई जिलों में मुसलमानो की बड़ी संख्या है . वे आम तौर पर मुलायम सिंह यादव को वोट देते हैं .उनको भरोसा है कि समाजवादी पार्टी उनके हित का पूरा ध्यान रखेगी.लेकिन उनको यह भी मालूम है कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी की उत्तर प्रदेश के बाहर कोई खास मौजूदगी नहीं है . वे चाहकर भी  केन्द्र में नरेंद्र मोदी या बीजेपी की सरकार बनने से नहीं रोक सकते . केन्द्र में बीजेपी के खिलाफ बड़ी राजनीतिक जमात तैयार करने के लिए ही २००९ में मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दे दिया था.  कांग्रेस को इस बार भी  यही उम्मीद है . मुसलमानों के अलावा देश में  बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो राजनीति से धर्म  को अलग रखना चाहते हैं . वे भी अक्सर बीजेपी के  खिलाफ ही वोट डालते हैं . यह अलग बात है कि लालकृष्ण आडवानी से लेकर छोटे कार्यकर्ताओं तक बीजेपी वाले आजकल अपने आपको सेकुलर कहने लगे हैं . उनकी बातों को बहुत सारे लोग सच भी मानते हैं . और देश के कई हिस्सों में तो मुसलमानों में भी  यह बात मानी जाने  लगी है कि बीजेपी भी मुसलमानों को वह  नुक्सान नहीं पंहुचायेगी जैसा कि आम तौर पर कहा जाता है . इसी सोच के तहत देश के कई इलाकों में मुसलमानों ने भी बीजेपी को वोट दिया है  लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन सकने की संभावना के बाद तस्वीर एकदम  बदल जायेगी.  गोधरा हादसे के बाद हुए मुसलमानों एक नरसंहार के बारे में अब बहुत जयादा बात नहीं  होती लेकिन सब को मालूम है कि नरेंद्र मोदी  की उस कांड में क्या भूमिका थी. उसी का नतीजा है कि सारे देश में सेकुलर जमातें  मोदी के खिलाफ लामबंद हो जायेगीं . यह भी सच है कि जो भी बीजेपी के  साथ देखा जाएगा उसको सेकुलर जमातों  का वोट नहीं मिलेगा और मुसलमान  तो किसी भी सूरत में बीजेपी के किसी साथी को वोट नहीं देगा. डी एम के ने जब केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी की बात की तो बीजेपी के एक प्रवक्ता की बड़ी दिलचस्प टिप्पणी सुनने को मिली. उन्होंने कहा कि यू पी ए के सभी साथी उसका साथ छोड़ रहे हैं और अब यू पी ए बिलकुल अकेला पड़ जाएगा . लेकिन यही बात तो बीजेपी के बारे में भी सच है . करीब २४ पार्टियों के सहयोग से बीजेपी की सरकार १९९९ में बनी थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने थे .  धीरे धीरे वे सभी पार्टियां बीजेपी का साथ छोड़ गयीं . आज उनके साथ केवल शिवसेना और अकाली दल ही मौजूद हैं. नीतीश कुमार की पार्टी टेक्नीकल तौर पर तो उनके साथ है लेकिन कितनी साथ  है ,यह सबको मालूम है . २००४ के चुनावों में एक बहुत ही अजीब सच्चाई से राजनीतिक पार्टियों का सामना हुआ था . जिन लोगों ने सेकुलर वोट की मदद से अपने  राज्यों में सीटें हासिल की थीं  और दिल्ली आकर अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधान मंत्री बनवा दिया था वे सब जीरो हो गए थे . इसलिए अब यह माना जाता है कि सेकुलर वोट  की उम्मीद में जो भी राजनीतिक दल हैं . वे बीजेपी के साथ कभी नहीं जायेगें. चन्द्र बाबू नायडू, ममता बनर्जी , फारूक अब्दुल्ला आदि ऐसे कुछ नाम हैं जिन्होंने दोबारा सेकुलर वोट हासिल करने की क्षमता विकसित कर ली है जिसे वे शायद दुबारा न खोना  चाहें . ऐसी हालत में बीजेपी के राजनीतिक ध्रुवीकरण की  कोशिश का फायदा बीजेपी को तो होगा ही, कांग्रेस को भी होगा . क्योंकि जो लोग देश में धर्म निरपेक्ष राजनीति के समर्थक हैं उनके  सामने बीजेपी के विरोध में खड़ी कांग्रेस के अलावा किसी और के साथ जाने का  रास्ता नही बचेगा  . डी एम के नेता एम करूणानिधि ने सरकार से समर्थन वापसी की बात शुरू करके एक बार से फिर से देश के सामने मौजूद बड़े राजनीतिक सवालों को जिंदा कर दिया है .