Saturday, November 3, 2012

जब तक समाज महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा नहीं देगा तब तक राष्ट्र की तरक्की नामुमकिन है.




शेष नारायण सिंह 

नरेंद्र मोदी ने हिमाचल प्रदेश में एक चुनाव सभा में केंद्रीय मंत्री  शशि थरूर की पत्नी के बारे में एक अभद्र टिप्पणी कर दी. मीडिया में हल्ला मच गया और उनकी इस टिप्पणी के लिए माफी मांगने की मांग उठने लगी.  जो लोग नरेंद्र मोदी को जानते हैं उनको पता है कि गुजरात के मुख्य मंत्री अपने किसी काम को गलत नहीं मानते और किसी भी गलत काम के करने के बाद माफी नहीं मांगते.२००२ में उनकी सरकार के रहते गुजरात में जो नर संहार हुआ था,उसके लिए उन्होंने कभी कोई अफ़सोस नहीं जताया. देश की निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उनके काम पर टीका टिप्पणी हो रही है , कई मामलों में तो उनके खास साथियों के खिलाफ फैसले भी आ चुके हैं लेकिन नरेंद्र मोदी के चेहरे पर कभी शिकन तक नहीं आयी. गुजरात के २००२ के नर संहार में बहुत सी महिलाओं के साथ बलात्कार भी हुआ था, नरेंद्र मोदी के एक समर्थक ने  टेलिविज़न के कैमरे के सामने स्वीकार किया था कि उसने किस तरह से एक गर्भवती महिला के पेट पर तलवार से वार किया था और पेट में पल रहा उसका बच्चा  बाहर आ गया था . गुजरात २००२ में बहुत सी महिलाओं की हत्या हुयी थी, बहुत सी बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ था और बहुत सी लडकियों को अपमानित किया गया था .उस  वाकये  पर भी नरेंद्र मोदी ने कोई माफी नहीं माँगी . उलटे उनकी सरकार के मंत्री और गुजरात बीजेपी के कुछ नेता उस जघन्य कांड की भी सफाई देते फिर रहे थे . इसलिए मोदी जी से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे महिलाओं के प्रति कही गयी ऐसी किसी अपमान जनक बात के  लिए माफी मांग लेगें. मोदी के कई समर्थक हिमाचल प्रदेश की अभद्र टिप्पणी वाली घटना के बाद से ही टेलिविज़न चैनलों पर कहते  पाए जा रहे हैं कि मोदी जी अपने शब्दों को खूब नाप तौल कर  ही बोलते हैं. यानी यह भी नहीं कहा जा सकता कि उनके मुंह से यह बात गलती से निकल गयी. नरेंद्र मोदी उस असहनशील भारतीय समाज की पैदाइश हैं  जिसमें महिलाओं को सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता है .

लेकिन नरेंद्र मोदी की ५० करोड वाली टिप्पणी को अलग थलग राय के रूप में देखने की भी ज़रूरत नहीं है .आज़ादी के ६५ साल बाद भी हम एक राष्ट्र के रूप में भी समाज की तरक्की के बारे में गाफिल हैं . नरेंद्र मोदी से महिलाओं के प्रति सम्मान की उम्मीद करने का  कोई मतलब नहीं है. शायद यह उनकी प्रकृति नहीं है .लेकिन एक समाज के रूप में हम क्या  महिलाओं और पुरुषों की बराबरी के बारे में संविधान में कही  गयी बातों को राजनीतिक बिरादरी में लागू कर पा रहे हैं. कांग्रेस के नेता और  हरियाणा के मुख्य मंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कुछ दिन पहले खाप पंचायतों के  उस हुक्म को सही ठहरा दिया था  जिसमें महिलाओं को पुरुषों  की गुलाम का दर्ज़ा देने की साज़िश की बू आ रही थी. हरियाणा के ही पूर्व मुख्य मंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने लड़कियों की कम उम्र में शादी के कुछ  खापों के सुझाव को सही बताया था.ऐसे ही अनगिनत मामले हैं जहां नेताओं ने महिलाओं के प्रति अभद्र टिप्पणी की  और उसके बाद उसे ठीक करने की ज़रूरत नहीं समझी, कोई माफी नहीं माँगी. इस तरह के  तत्व मीडिया में भी मौजूद हैं . एक बड़े मीडिया ग्रुप के एक बड़े  संपादक की रिकार्ड की गयी एक टेलीफोन वार्ता में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के हवाले से एक बहुत ही अभद्र  टिप्पणी की  गयी थी. बाद में उनके  ग्रुप के मालिक ने बात को संभालने की कोशिश तो की लेकिन कहीं भी कोई माफी नहीं माँगी गयी , कोई अफ़सोस  नहीं जताया गया . शिक्षा संस्थाओं में इस तरह की  घटनाएं रोज ही होती रहती हैं.राजनीति को कैरियर बनाने वाले नेता इस तरह की वारदात रोज ही  करते रहते हैं . इस तरह के कई नेता तो आजकल भी जेलों की हवा खा रहे हैं . उनके नाम लेकर उन्हें महत्व देना ठीक नहीं है.

 नरेंद्र मोदी की अभद्र टिप्पणी को और भी  अन्य नेताओं के साथ जोड़कर नरेंद्र मोदी की अमर्यादित बात को हल्का करना उद्देश्य नहीं  है . ऐसा लगता है कि  इस देश के पुरुषों में माचो कल्चर का अनुसरण करने  का फैशन है . जिसके चलते लड़कियों को अपमानित करने की बातें  होती हैं . इन नेताओं को दुरुस्त करने का तो शायद यही तरीका  है कि इनको संविधान के अनुसार  काम करने के लिए मजबूर कर दिया जाए. संविधान में जहां मौलिक अधिकारों का उल्लेख  किया गया  है ,वहीं अनुच्छेद १४  में लिखा है कि राज्य ,भारत के   किसी भी इलाके में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा. अनुच्छेद १५ में बात को और साफ़ कर दिया गया है जहां लिखा है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म,मूलवंश, जाति , लिंग ,जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा. सवाल उठता है कि क्या इसी संविधान की  शपथ ले चुके किसी मोदी या  किसी हुड्डा को इस संविधान  का पालन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता . हमें एक राष्ट्र के रूप में इन नेताओं के इस आचरण पर चिंतित होना चाहिए और इन्हें सभ्य आचरण करने के लिए मजबूर करने के उपाय करने चाहिए .

जहां तक नेताओं की बात है उनको तो काबू में करने के लिए सरकारी दंड विधान जैसी किसी बात को आगे किया जा सकता है. हो सकता है कि ऐसा संभव हो जाय कि कानून में कोई परिवर्तन कर दिया जाए और महिलाओं के प्रति अभद्रता करने वालों को किसी भी राजनीतिक पद के अयोग्य करार दे दिया जाए. या ऐसी ही कोई और सख्ती कर दी जाए  . सरकारी पद गंवाने  का डर अगर नेताओं के  दिमाग में डाल दिया जाए तो वे तो सुधर  जायगें . लेकिन एक समाज के रूप में देश के बहुत बड़े पुरुष वर्ग में महिलाओं के प्रति अपमान का जो भाव है उसको ठीक करने के लिए क्या क़दम उठाये जाने चाहिए.इस सवाल का जवाब तलाश करना ज़रूरी है . पूरे समाज को जब तक यह अहसास नहीं होगा कि स्त्री और पुरुष के अधिकारों में  समानता है तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है.हम जानते हैं कि इसी देश में सती प्रथा भी थी और जौहर भी होता था  . महिलाओं के प्रति आचरण की जितनी  बातें पब्लिक डोमेन में आ रही हैं  उससे तो लगता है कि अपना देश एक बार फिर उसी सती और जौहर युग की तरफ बढ़ रहा है . अपनी पसंद के जीवन साथी चुनने के बाद दिल्ली के आस पास के  गाँवों में लड़कियों को क़त्ल करने वालों के जघन्य अपराध को कुछ  वर्गों में आनर किलिंग का नाम देने की कोशिश भी की जा रही  है . एक बात और भी समझ में आती है . उत्तर भारत में महिलाओं के प्रति जिस तरह का व्यवहार देखने को मिलता है ,देश के अन्य भागों में वैसा नहीं है. इसकी भी पड़ताल  की जानी चाहिए  .लगता है कि शिक्षा की कमी के  कारण ही महिलाओं के प्रति अपमान का माहौल बन रहा है . जहाँ शिक्षा  है वहाँ महिलाओं की इज्ज़त अपेक्षाकृत ज्यादा है.


महाराष्ट्र  में लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण माना जाता है . १८४८ में ही ज्योतिबा फुले ने दलित लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोलकर इस क्रांति का ऐलान कर दिया था . और आज भी महाराष्ट्र में लड़कियों की इज्ज़त अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक है. बीच में मराठी मानूस के नारे के राजनीतिक इस्तेमाल के बाद लुम्पन लड़कों पर जोर ज्यादा दिया जाने लगा और पिछले ५० साल में महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा पर  उतना ध्यान नहीं दिया गया जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान दिया गया था . लड़कियों की शिक्षा में आयी कमी को पूरा करने के लिए महाराष्ट्र में  सरकारी तौर  पर एक अभियान चलाया जा रहा है जिसके तहत प्रचार किया जा रहा है कि अगर लडकी शिक्षित होगी , तभी प्रगति होगी.इस अभियान का फर्क भी पड़ना शुरू हो गया है. यह मानी हुई बात है कि तरक्की के लिए शिक्षा की ज़रुरत है. और परिवार की तरक्की तभी होगी  जब माँ सही तरीके से शिक्षित होगी.यह बात उत्तर भारत के बड़े राज्यों, बिहार और उत्तर प्रदेश  के  उदाहरण से बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है. यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों की तुलना में बहुत कम है .शायद इसी वजह से यह राज्य देश के सबसे  अधिक पिछडे राज्यों में शुमार किये  जाते हैं . 
इसलिए यह ज़रूरी है कि देश में लड़कियों की शिक्षा और अधिकारिता का एक अभियान चलाया जाए तभी कोई राजनीतिक नेता किसी भी महिला की  शान में अभद्र टिप्पणी करने से डरेगा . सभी धर्मों में शिक्षा को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया  गया है .इसलिए धार्मिक कारणों से भी शिक्षा का विरोध नहीं किया जाना चाहिए .शिक्षा ,खासकर लड़कियों की शिक्षा के ज़रिये ही समाज भी सभ्यता की उन सीमाओं में रहने की क्षमता  हासिल करेगा जिसके कारण  पश्चिमी  देशों  और समाजों  ने  तरक्की की है .क्योंकि इस बात में दो राय नहीं है कि जब तक देश और समाज महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा नहीं देगा  राष्ट्र की तरक्की नामुमकिन है. 

क्या के रहमान खान तालीम के ज़रिये मुसलमानों को तरक्की के रास्ते पर डाल पायेगें?



शेष नारायण सिंह 

अल्पसंख्यक मामलों के नए मंत्री, के रहमान खां कर्नाटक की राजनीति में एक दमदार नाम हैं. कर्नाटक में शिक्षा के क्षेत्र में निजी पहल की जो बुलंदियां हैं, उसमें रहमान खां साहेब का बड़ा योगदान है.वे पिछले ३६  वर्षों से कर्नाटक की राजनीति में सक्रिय हैं और  ३४  साल पहले कर्नाटक विधान परिषद् के सदस्य बन गए थे. राज्य के मुसलमानों की समस्याओं को वे बहुत ही बारीकी से समझते हैं और उसी बारीक समझ का नतीजा है कि जब संसद ने वक्फ की संपत्तियों के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाने का फैसला किया तो उसकी अध्यक्षता का काम रहमान साहेब को ही सौंपा.केरहमान खां देश के मुसलमानों का दर्द समझने वाले नेता के रूप में पहचाने जाते हैं . करीब एक साल पहले उनसे एक इंटरव्यू किया था.और उनसे  धार्मिक लाइन पर हिंदुओं को पोलराइज़ करने  की आर एस एस -बीजेपी की कोशिश की बात की गयी थी. उन्होंने दो टूक कहा कि इस देश में धार्मिक लाइन पर कभी भी पोलराइज़ेशन नहीं हो सकता.इस देश का हिन्दू आम तौर पर साम्प्रदायिक नहीं है और यही  भारत की राजनीतिक ताक़त का सबसे बड़ा सहारा है.सवाल पैदा होता है कि इस देश की कुल आबादी का करीब ८५ प्रतिशत हिन्दू हैं .वे खुद ही बहुसंख्या में हैं . उनको किसी के खिलाफ एकजुट होने की कोई ज़रुरत ही नहीं है . संविधान में बताया गया सेकुलरिज्म देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज की ताकत पर ही लागू हो सका है .हालांकि सावरकरवादी  नेताओं की पूरी कोशिश थी कि देश में  हिन्दू संगठित होकर दूसरे धर्म वालों का हाशिये पर लायें लेकिन सेकुलर मिजाज़ वाले इस देश में यह संभव नहीं है. इस पृष्ठभूमि में अल्पसंख्यकों के कल्याण के इंचार्ज मंत्री पद पर बैठने  वाले रहमान खान से देश को बहुत उम्मीदें हैं वे मुसलामानों की समस्याओं को अच्छी तरह समझते हैं 

मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा ,हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं . इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है . या शायद करना नहीं चाह रहा है .  सब को मालूम हैकि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा . दुर्भाग्य की बात है कि  उत्तर भारत में मुसलमाओं की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में आ जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह न गरीब है , न बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा मह्त्व दिया गया है . रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है  कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना मह्त्व नहीं देते जितना देना चाहिए . दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं .उससे भी ज्यादा  तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं ,उनसे भी मुसलमानों को  वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए . इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है .


 केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पर लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं . हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगें लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है . दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है .जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं . ज़रुरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है . अल्पसंख्यक मामलों के नए मंत्री के रहमान खान ने करीब एक साल पहले इस लेखक को बताया था कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं ,लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी . हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है . उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया . बताने लगे कि १९६४ में  बंगलोर शहर में मुसलमानों का कोई कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थे.  उन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में १९६७ में एक कालेज  शुरू कर दिया . एक टिन शेड में शुरू हुआ  यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है .शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये , मुसलमानों  को ही भरोसा नहीं हुआ . लेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली  गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया . आर्थिक मदद  पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला . आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है . पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है . . बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है . के रहमान खान ने अपने सात  दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया था . कुल सात सौ सात रूपये जमा हुए . गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया . सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया . डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर  विदेश से आया था , उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से  पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे  ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया . उसने खुश होकर एक लाख रूपये का दान देने का वादा किया . उस एक लाख रूपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया . १०० बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर  कौम से अपील की. इन लोगों को अब  तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन  गया . फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे . सरकार से केवल मदद  मिली. कर्नाटक के उस वक़्त के मुख्य मंत्री , राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है . कहने का  तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती. . हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.  

यह बहुत ही संतोष की बात है  कि आज के रहमान खान इस देश के अल्पसंख्यकों के कल्याण के सबसे बड़े मंत्री हैं . उन्होंने बार बार कहा है कि तालीम के बिना मुसलमानों का मुस्तकबिल नहीं सुधरेगा. उम्मीद की जानी चाहिए कि अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के रूप में वे देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को तालीम और तरक्की के अवसर देगें .

Monday, October 29, 2012

हमें एक राष्ट्र के रूप में भ्रष्टाचार के खिलाफ लामबंद होना पड़ेगा




शेष नारायण सिंह 

अपने देश की राजनीतिक  बिरादरी में   भ्रष्टाचार एक ऐसी बीमारी के रूप में स्थापित हो रहा है जो चारों तरफ फैला हुआ है . हर पार्टी में भ्रष्ट लोगों की कमी नहीं है . जिस देश में दस हज़ार रूपये की रिश्वत के शक में जवाहरलाल नेहरू ने अपने पेट्रोलियम मंत्री को सरकार से बाहर कर दिया था, जिस देश में पांडिचेरी लाइसेंस स्कैंडल के नाम पर कुछ लाख रूपयों के चक्कर में फंसे तुलमोहन राम को मधु लिमये और उनके स्तर के संसदविदों ने इदिरा गांधी की सरकार के लिए मुसीबत पैदा कर दी थी.  कुछ ज़मीन के केस में मारुती लिमिटेड के घोटाले में उस वक़्त की प्रधान मंत्री के बेटे,संजय गांधी  और देश के  रक्षा मंत्री बंसी लाल को संसद में घेर लिया गया था .६५ करोड के बोफोर्स घोटाले के चलते निजाम बदल गया था . अब तो सौ,  दो सौ करोड के घोटालों को किसी गिनती में नहीं गिना जा रहा है . एक  केंद्रीय मंत्री ने तो खुले आम कह दिया है कि ७१ लाख का घोटाला किसी मंत्री और उसकी पत्नी के स्तर का  काम नहीं है . उसे तो ७१ करोड रूपये के घोटाले में शामिल होना चाहिए. अब बात बहुत आगे बढ़   गयी है . अब लाखों करोड के घोटाले हो रहे हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि एक राष्ट्र के रूप में यह घोटाले हमको झकझोरते  नहीं . अब भ्रष्टाचार को राजनीतिक जीवन का सहयोगी माना  जाने लगा है और उसे  सामाजिक अपमान की बात नहीं माना जा  रहा है . सबसे अजीब बात यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन चलाने वालों पर भी भ्रष्ट होने के आरोप लग रहे हैं . इसलिए भ्रष्टाचार को कैरियर बनाने वालों के देश में आम आदमी की सुरक्षा की उम्मीद केवल मीडिया से है लेकिन कई बार ऐसा हुआ है कि वहाँ भी हथियारों के दलालों के पक्ष में लेख लिखने वाले मिल जा रहे  हैं  . ज़ाहिर है कि देश की हालत बहुत अच्छे नहीं हैं . हालात को सही ढर्रे  पर लाने के लिए हमें एक राष्ट्र के रूप में  भ्रष्टाचार के खिलाफ लाम बंद होना पड़ेगा . यह काम फ़ौरन करना पडेगा क्योंकि अगर  इन हालात को ठीक करने के लिए  किसी गांधी का इंतज़ार करने का मंसूबा बनाया तो बहुत देर हो जायेगी. हमें अपने सम्मान और पहचान की  हिफाज़त खुद ही करने के लिए तैयार होना पडेगा .
आम तौर पार भ्रष्टाचार विरोधी पार्टी के रूप में अपनी छवि बनाकर चल रही बीजेपी को भी ज़बरदस्त झटका लगा है .भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाकर अगल लोक सभा चुनाव लड़ने की योजना पर काम कर रही बीजेपी को ज़बरदस्त झटका लगा है . उसके वर्तमान अध्यक्ष नितिन गडकरी भी भ्रष्टाचार की बहस  की ज़द में आ गए हैं .अब तक के संकेतों से लगता है कि उनके कथित भ्रष्टाचार के कारनामों के बाद लोग भ्रष्ट अध्यक्ष के रूप में बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण का  उदाहरण देना बंद कर देगें . नितिन गडकरी के  भ्रष्टाचार  के कथित कारनामों के बाद साफ़ लगने लगा है कि अब अपने देश में राजनीतिक बहसें विपक्षी पार्टियों को ज्यादा भ्रष्ट साबित करने वाले विषय को केन्द्र बनाकर नहीं होंगीं. अब लगता है कि भ्रष्टाचार को  मुद्दा बनाने  की हैसियत किसी भी राजनीतिक पार्टी की नहीं है. वामपंथी पार्टियों के अलावा आज कोई भी पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि उसके यहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक आचरण करना ज़रूरी है . नितिन गडकरी का मामला खास तौर पर बहुत चिंताजनक है . जब कांग्रेसियों के भ्रष्टाचार की परतें खुल  रही थीं और कामनवेल्थ और टू जी जैसे घोटालों पर बहस चल रही थी तो गडकरी के बयानों से बहुत उम्मीद बनती थी कि चलो कोई बड़ा नेता तो है  जो भ्रष्टाचार के खिलाफ  मजबूती से आवाज़ उठा रहा है . लेकिन अब जो सच्चाई सामने आयी है वह बहुत ही निराशाजनक है . नितिन गडकरी के  कथित भ्रष्टाचार की जितनी कहानियां अब तक सामने आयी हैं वे किसी को भी  शर्मिंदा करने के लिए काफी हैं लेकिन अभी पता चला है कि गडकरी के भ्रष्ट कार्य का अभी तो केवल ट्रेलर सामने आया है . अभी बहुत सारे ऐसे खुलासे होने बाकी हैं जिनके बाद उनकी छवि बहुत खराब हो जायेगी. इसके पहले कांग्रेस के कई नेताओं के भ्रष्ट आचरण के कारनामे पब्लिक डोमेन में आये थे.कामनवेल्थ, टू जी , वाड्रा - डी  एल एफ केस आदि ऐसे घोटाले हैं जिनके बाद  कांग्रेस शुद्ध रूप से रक्षात्मक मुद्रा  थी. हिमाचल प्रदेश में चल रहे विधान सभा चुनाव के अभियान में बीजेपी को वीरभद्र सिंह से मज़बूत चुनौती मिल रही  है . बीजेपी ने वीरभद्र सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार  का एक केस तैयार किया और उम्मीद की थी कि उनको उसी चक्कर में घेर लिया जाएगा . लेकिन ऐसा कुछ  नहीं हुआ . जिस दिन बीजेपी ने बड़े ताम झाम के साथ वीर भद्र वाला प्रोजेक्ट सार्वजनिक किया उसी दिन देश के एक बहुत बड़े अखबार ने नितिन गडकरी के भ्रष्टाचार के पुराने कारनामों को पहले  पन्ने पर छाप दिया .अब बीजेपी वाले नितिन गडकरी से ही जान छुडाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं . बीजेपी का वीरभद्र अभियान फ्लाप हो चुका है .

आज गडकरी की जो दुर्दशा हो  रही है उसके बाद बहुत सारे लोगों को निराशा होगी. इन पंक्तियों का लेखक भी उसमें शामिल है . १५ नवंबर २००९ को एक सम्पादकीय  में मैंने नितिन  गडकरी के बारे में जो लिखा था उसे अक्षरशः  उद्धृत करके बात को सही पृष्ठभूमि रखने की कोशिश की जायेगी .मैंने लिखा था ," नितिन गडकरी एक कुशाग्रबुद्धि इंसान हैं . पेशे से  इंजीनियर  , नितिन गडकरी ने मुंबई वालों को बहुत ही राहत दी थी जब पी  डब्ल्यू डी मंत्री के रूप में शहर में बहुत सारे काम  किये थे. वे नागपुर के हैं और वर्तमान संघ प्रमुख के ख़ास बन्दे के रूप में उनकी पहचान होती. है.उनके खिलाफ स्थापित सत्ता वालों का जो अभियान चल रहा है उसमें यह कहा जा रहा है कि उन्होंने  राष्ट्रीय स्तर पर कोई काम नहीं किया  है. जो लोग यह कुतर्क चला रहे हैं उनको  भी मालूम है कि  यह बात  चलने वाली नहीं है. मुंबई जैसे नगर में जहां  दुनिया भर की गतिविधियाँ चलती रहती हैं , वहां  नितिन गडकरी की इज्ज़त है, वे  राज्य में  मंत्री रह चुके हैं , उनके पीछे  आर एस एस का पूरा संगठन खडा है  तो उनकी सफलता की संभावनाएं अपने आप बढ़ जाती हैं . और इस बात  को तो हमेशा के लिए दफन कर दिया जाना चाहिए कि दिल्ली में  ही राष्ट्रीय अनुभव होते हैं  . मुंबई, बेंगलुरु , हैदराबाद आदि शहरों  में भी राष्ट्रीय अनुभव  हो सकते हैं .  बहरहाल अब लग रहा  है कि नितिन गडकरी ही बी जे पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जायेंगें और दिल्ली में रहने वाले नेताओं को एक बार फिर एक प्रादेशिक नेता के मातहत काम करने को मजबूर होना पड़ेगा . "  यह लेख उस वक़्त लिखा गया था अजाब दिल्ली वाले उनको राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की  योजना का विरोध कर रहे थे.नितिन गडकारी का विरोध मूल रूप से उनको  क्षेत्रीय नेता बता कर किया जा  रहा था.  बहरहाल जिन  लोगों ने नितिन गडकरी को ठीक नेता  माना था ,वे आज परेशानी में हैं .
जो भी हो नितिन गडकरी का कथित भ्रष्ट लोगों की सूची में काफी ऊंचे मुकाम पर स्थापित हो जाना बीजेपी के लिए बहुत बुरी खबर है . आगे की राजनीतिक गतिविधियां निश्चित रूप से बहुत ही दिलचस्प मोड लेने वाली हैं  .  एक राष्ट्र के रूपमें हमें चौकन्ना रहना पड़ेगा कि कहीं भ्रष्टाचार के चलते हमारा देश एक बार फिर गुलामी की जंजीरों में न जकड दिया जाए. हमें एक राष्ट्र के रूप  में यह संस्कृति  विकसित करने के एज़रूरत है जहां बे ईमानी से की गयी  कमाई को अपराध से की गयी कमाई  माना जाए. देश की एकता और अखंडता के लिए यह  बहुत ही ज़रूरी है. 

गैर कांग्रेस ,गैर बीजेपी विकल्प की तलाश में समाजवादी ताक़तों के एकजुट होने की कोशिश


 

शेष नारायण सिंह 

समाजवादी राजनीति के राष्ट्र की मुख्य धारा में सशक्त हस्तक्षेप का समय आ गया है .हर आइडिया का समय होता है , समय के पहले कोई भी आइडिया परवान नहीं चढती . भारत की राजनीति में कांग्रेस का उदय भी एक आइडिया ही था . महात्मा गांधी ने १९२० में कांग्रेस को जन संगठन बनाने में अहम भूमिका निभाई . उसके पहले कांग्रेस का काम अंग्रेजों के उदारवाद के एजेंट के रूप में काम करना भर था .बाद में कांग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई में देश का नेतृत्व किया. महात्मा गांधी खुद चाहते थे  कि आजादी मिलने के बाद कांग्रेस को चुनावी राजनीति से अलग करके जनान्दोलन  चलाने वाले संगठन के रूप में ही रखा जाए . चुनाव में शामिल होने के इच्छुक राजनेता अपनी अपनी पार्टियां बनाकर चुनाव  लड़ें लेकिन कांग्रेस के उस वक़्त के बड़े नेताओं ने ऐसा नहीं होने दिया .उन्होंने कांग्रेस को जिंदा रखा और आज़ादी के बाद के कई वर्षों तक राज  किया. बाद में जब डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेस वाद की  राजनीति के प्रयोग शुरू किये तो कांग्रेस को बार बार सत्ता से  बेदखल होना पड़ा. १९८९ में  गैर कांग्रेस वाद की भी पोल खुल गयी जब बाबरी मस्जिद के  विध्वंस के लिए चले आंदोलन में कांग्रेस और बीजेपी साथ  साथ खड़े नज़र आये. १९९२ में अशोक सिंहल,कल्याण सिंह और पी वी  नरसिम्हाराव के संयुक्त प्रयास से बाबरी मस्जिद ढहाई गयी लेकिन उसके पहले ही बीजेपी और कांग्रेस  का वर्गचरित्र सामने आ गया था. पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्र शेखर ने लोक सभा के अपने ७ नवंबर १९९० के भाषण में इस बात का विधिवत पर्दाफ़ाश कर दिया था. उस भाषण में चन्द्रशेखर जी ने कहा कि धर्म निरपेक्षता मानव संवेदना की पहली परख है .  जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती.इसी भाषण में चन्द्र शेखर जी ने बीजेपी की राजनीति को आड़े हाथों लिया था .  उन्होंने कहा कि मैं आडवाणी जी से ग्यारह महीनों से एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि   बाबरी मसजिद  के बारे में सुझाव देने  के लिए एक समिति बनायी गयी, उस समिति से भारत के गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री को हटा दिया जाता है . बताते चलें  कि  उस वक़्त गृह मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद थे और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव थे. चन्द्र शेखर जी ने आरोप लगाया कि इन लोगों को इस लिए हटाया गया क्योंकि विश्व हिन्दू परिषद् के कुछ नेता उनकी सूरत नहीं देखना चाहते.क्या इस  तरह से देश को चलाना है . उन्होंने सरकार सहित बीजेपी -आर एस एस की राजनीति को भी घेरे में ले लिया और बुलंद आवाज़ में पूछा कि क्यों हटाये गए मुलायम सिंह , क्यों हटाये गए मुफ्ती मुहम्मद सईद ,उस दिन किसने समझौता किया था ? " 

इसी भाषण के बाद से बीजेपी ,कांग्रेस या कांग्रेस से अलग होकर आये लोगों की अपने आपको आम आदमी का पक्षधर बताने की हिम्मत नहीं पडी .बाद में जब १९९६ में गैर कांग्रेस गैर बीजेपी सरकार की बात चली तो एच डी देवे गौड़ा को प्रधान मंत्री बनाने वाली पार्टियों के गठबंधन को तीसरा मोर्चा नाम दे दिया गया था.लेकिन कोई ऐसी राजनीतिक शक्ति नहीं बनी थी जिसे तीसरे मोर्चे के रूप में पहचाना जा सके. आजकल तो बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के लोग एक राग में तीसरे मोर्चे के खिलाफ बात करते पाए जाते हैं . ज़ाहिर है कि तीसरे मोर्चे की बात करने वाले भी गंभीर बात नहीं करते . इसलिए यह आइडिया भी कोई आकार नहीं ले पा रहा था. बदलते राजनीतिक परिदृश्य में माहौल  बदल रहा है. स्व मधु लिमये के करीबी सहयोगी  रह चुके  राजनीतिक चिन्तक और लोहिया की राजनीति के मर्मज्ञ ,मस्तराम कपूर के प्रयास से  अक्टूबर की २७ तारीख को दिल्ली में  गैर कांग्रेस गैर बीजेपी राजनेताओं और जन आंदोलन के कुछ बड़े नेताओं का जमावड़ा होने वाला है जिसमें समाजवादी राजनीति की लोहिया की समझ को बुनियाद बनाकर एक   कार्यक्रम  पेश किया जाएगा . इस कार्यक्रम में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अतुल कुमार अनजान का बड़ा सहयोग है . जब अतुल कुमार अंजान से लोहियावादियों के सम्मेलन उनके सहयोग की बात की गयी तो उन्होंने कहा कि कांग्रेस और बीजेपी  के पूंजीवादी वर्गचरित्र को बेनकाब  करने के लिए हर तरह के समाजवादियों को एक  रणनीति के  तहत लामबंद  होने की ज़रूरत है  अतुल अनजान ने कहा कि नव उदारवाद की आर्थिक नीतियों ने देश के आमजन के लिए आर्थिक तबाही तो लाई ही,साथ साथ भ्रष्टाचार ,असंवेदनशील राजनीतिक नेता और आवारा पूंजी के साथ साथ आवारा  नौकरशाह और राजनेता  पैदा कर दिए . कांग्रेस और भाजपा में इस बात की टक्कर चल रही है कि कौन बड़ा भ्रष्टाचारी है. ऐसी स्थिति में जनता संघर्ष के मैदान में अपने अपने  स्तर पर उतर रही है .भाजपा और कांग्रेस दोनों से उसका मोहभंग हो चुका है . ऐसी स्थिति में जन पक्षधर समाजवादी  नीतियों के आधार पर राजनीतिक बिरादरी को एकजुट होने की ज़रूरत है. मस्त राम कपूर जी ने जो कार्यक्रम तैयार किया है उसमें वामपंथी पार्टियों के समाजवादी विचारों को समाविष्ट किया गया है . ज़ाहिर है कि जनपक्षधरता के बुनियादी राजनीतिक विचारों के आधार पर आवारा पूंजी और और उसके प्रतिनिधि राजनीतिक  दलों को बेदखल करने की तैयारी शुरू हो चुकी है . २७  अक्टूबर का सम्मलेन उसी दिशा में एक बहुत ही महत्वपूर्ण क़दम होगा. 

मस्त राम कपूर ने बताया कि  ' कांग्रेस और बीजेपी की शासक वर्गों की राजनीति  के विकल्प की ज़रूरत  आज बहुत ही शिद्दत से महसूस की जा रही है.इस विचार को लेकर ही बुद्धिजीवियों, जनांदोलनों तथा गैर कांग्रेस ,गैर भाजपा पार्टियों की एक बैठक वैकल्पिक राजनीति के एजेंडे पर विचार करने के लिए बुलाया है .यह एजेंडा पिछले दो दशकों में विभिन्न जनांदोलनों और सक्रिय बुद्धिजीवियों  में चले विचार-विमर्श के आधार पर तैयार किया गया है .. बैठक महात्मा गांधी ,जयप्रकाश नारायण .राम मनोहर लोहिया  और आचार्य नरेंद्र देव की स्मृतियों से जुड़े अक्टूबर माह में बुलायी गयी है . महान अक्टूबर क्रान्ति की याद भी  इस समेलन में जुडी हुयी है . इसीलिये समाजवादी नेताओं के साथ साथ कम्युनिस्ट नेता भी सम्मलेन में शामिल हो रहे हैं . २७ तारीख की सभा की अध्यक्षता लोहिया की राजनीति के सबसे प्रमुख  उत्तराधिकारी मुलायम सिंह यादव करेगें . मस्त राम कपूर ने बताया कि इस सम्मलेन में ए बी बर्धन, शरद यादव, लालूप्रसाद यादव, रघुवंश प्रसाद सिंह और राम विलास पासवान के शामिल  होने की संभावना है.मेधा पाटकर और उनकी तरह के जनांदोलनों के कुछ  आदरणीय नेताओं को भी बुलाया गया है . मेधा पाटकर को राजी करना बहुत मुश्किल था . उनका तर्क था कि मौजूदा राजनीति  में सक्रिय लोगों की बड़ी संख्या रास्ते से भटक गए लोगों की है . इनके साथ बैठकर कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है ;लेकिन  जब मस्त राम कपूर ने उनको समझाया कि आप लोगों के आन्दोलनों की जो भी उम्मीदें हैं उन्हें आम आदमी के हित में लागू करने के  लिए राजनीतिक संगठन की  ज़रूरत से इनकार नहीं किया जा  सकता . आज जब बीजेपी और कांग्रेस खुल्लम खुल्ला पूंजीवादी साम्राज्यवादी ताक़तों के हित साधन का काम कर रहे हैं तो तीसरे मोर्चे को ही अपनी बातें मनवाने के लिए साथ लेना पडेगा. वे राजी हुईं और अब जनांदोलनों से जुड़े  कुछ अन्य लोग भी सम्मेलन में शामिल होंगें .

इस बैठक में ही तीसरे मोर्चे का एजेंडा भी पेश कर दिया जाएगा और शामिल राजनीतिक नेताओं से अपील की जायेगी कि उस पर विचार करें और अपने चुनाव घोषणा पत्रों में इन मुद्दों को प्राथमिकता दें . . आर्थिक कार्यक्रमों  में एफ डी आई में  विदेशी पूंजी का विरोध, बिजली ,पानी, ईंधन और ज़रूरी खाद्य पदार्थों के निजीकरण का विरोध, खेती की ज़मीन के अधिग्रहण का विरोध , अनिवार्य वस्तुओं की कीमतों  के निर्धारण पर सामाजिक नियंत्रण ,कम से कम और अधिक  से अधिक आमदनी में अनुपात  का निर्धारण  आदि शामिल हैं . राजनीतिक सुधार के कार्यक्रम भी एजेंडे में शामिल किये गए हैं . वर्तमान मुख्य सतर्कता आयुक्त को लोकपाल की शक्तियां देकर भ्रष्टाचार नियंत्रण में सक्षम बनाना,साम्प्रदायिक दंगों और अल्पसंख्यकों के ऊपर होने वाले अपराधों के निपटारे के लिए विशेष अदालतों का  गठन ,सरकारी फिजूलखर्ची पर पाबंदी , विधायक और सांसद निधि का खात्मा,दल बदल विरोधी कानून में परिवर्तन जिस से असहमति के आधिकार की रक्षा की जा सके,ग्राम सभाओं के ज़रिये सविधान के ७३वे और ७४वे संशोधन के रास्ते पंचायती राज को मज़बूत करना ,सरकारी काम में भारतीय भाषाओं के प्रयोग  जैसे अहम मुद्दे शामिल हैं .इसके अलावा चुनाव प्रणाली में सुधार ,शिक्षा और संस्कृति  संबंधी कार्यक्रम और राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को मज़बूत  करने वाले कार्यक्रम शामिल किये गए हैं . 

सम्मलेन की आयोजकों को लगता है कि तीसरे मोर्चे को एक शक्ल देने की ऐतिहासिक ज़रूरत को यह सम्मलेन  एक दिशा अवश्य देगा . लेकिन अगर कोई बहुत ठोस बात नहीं भी निकल कर आती तो इतना तो पक्का  है कि साम्प्रदायिक और पूंजी की चाकर राजनीति की पार्टियों ,बीजेपी और कांग्रेस की राजनीति  के एक ऐसे विकल्प की तलाश शुरू हो जायेगी जो समाजवाद के जनपक्षधर आदर्शों को लागू करने की नीति पर काम करेगी.

Saturday, October 20, 2012

ममता बनर्जी की गलत तर्कपद्धति के कारण बंगाल में बलात्कारी मनबढ़ हो गए हैं





शेष नारायण सिंह 

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ,ममता बनर्जी ने बलात्कार के बारे में अपनी राय एक बार फिर व्यक्त कर दी है . उन्होंने इस बार ऐलान किया है कि युवक युवतियां खुले आम मिल जुल रहे हैं इसलिए बलात्कार की घटनाएं ज्यादा हो रही हैं . उन्होंने अपनी पार्टी के बुद्दिजीवियों और कोलकता के कुछ अभिनेताओं की एक बैठक में यह बात कही. उन्होंने अफ़सोस जताया कि पहले जब लड़के लडकियां हाथ में हाथ लेकर घुमते थे  तो माता पिता उनको  डांटते थे लेकिन अब सब कुछ स्वतन्त्र हो गया है . कहीं किसी बात पर एतराज़ नहीं किया जाता.लगे हाथ ममता जी ने मीडिया से भी नाराज़गी जता दी और कहा कि मीडिया वाले ख़बरों को प्रदूषित कर रहे हैं और उनकी सरकार के खिलाफ प्रचार अभियान चलाने के चक्कर में बंगाल को बलात्कारियों के प्रदेश के रूप में पेश कर रहे हैं .उन्होंने आरोप लगाया कि मीडिया बलात्कार को महिमामंडित कर रहा है . उन्होंने कहा कि नकारात्मक पत्रकारिता तबाही लाती है इसलिए सकारात्मक पत्रकारिता की ज़रूरत है . चेतावनी भी दी कि नकारात्मक पत्रकारिता को जनता बर्दाश्त नहीं करेगी. मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया कि मीडिया का एक वर्ग गलत खबरें दिखा रहा  है और कुछ चैनल तो उनके अपने दृष्टिकोण को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहे हैं .

ममता बनर्जी का यह आरोप गलत है , न तो मीडिया उनके खिलाफ लामबंद है और न ही बलात्कार की घटनाएं  लड़कों -लडकियों के ज्यादा मिलने जुलने से हो रही हैं .बलात्कार पुरुषों की एक बीमारी है जिसे कोई नार्मल इंसान नहीं कर सकता. बलात्कार  वह करता है  जिसका दिमाग  गलीज़ से भरा हुआ हो .इसलिए इस मुद्दे पर भी ममता बनर्जी गलत हैं.दूसरी बात यह है कि  बलात्कार की घटनाओं को मीडिया में महत्व इसलिए दिया जाता है क्योंकि वह अमानुषिक है , और कभी कभी होता है . समाचार वही चीज़  बनती है जो रोज़मर्रा की घटना न हो . मीडिया जब भी  बलात्कार की किसी घटना को रिपोर्ट करता  है तो उसे उम्मीद रहती है कि उसे दुबारा न रिपोर्ट करना पड़े. बलात्कार कभी कभी होता है इसलिए वह खबर के लिहाज़ से अहम होता है और उसके खिलाफ जनमत बनाने की गरज से उसे मीडिया हाईलाईट करता है . अब ममता बनर्जी चाहती हैं कि बलात्कार को रोज़मर्रा की घटना मान कर उसे मीडिया नज़र अंदाज़ कर तो यह संभव नहीं है .उन्हें इतना तो पता होना ही चाहिए कि  उनकी सरकार को बचाए रखने के लिए मीडिया अपने कर्तव्य को नहीं  भूल सकता है . हाँ यह ज़रूर है कि तृणमूल कांग्रेस की मुखिया की मीडिया के बारे में ताज़ा राय जब अखबारों में छपेगी तो मीडिया वालों को अपनी खैरियत के बारे में चिंतित रहना पडेगा क्योंकि तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का हिंसक रूप काफी खूंखार हो सकता है . 

ममता बनर्जी की सरकार को सत्ता में आये एक साल से ज्यादा हो गया और इस एक साल में उन्होंने इंसानी भावनाओं का बार बार अपमान किया है . महिलाओं के प्रति उनका रवैया खास तौर पर बहुत ही गलत रहा है . उन्होंने बलात्कार की पीडिता महिलाओं को ही कई बार अपराधी मानने की गलती की है .इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि ममता बनर्जी बलात्कार के लिए अजीबो गरीब चीज़ों को ज़िम्मेदार ठहराने के पहले  अपनी मानसिक दशा का अध्ययन करें और  यह समझने की कोशिश करें कि हमेशा उनके दिमाग में इस तरह की गैरजिम्मेदाराना बातें ही क्यों आती हैं .ऐसा भी नहीं है कि ऐसा पहली बार हुआ है कि बलात्कार की बात आते ही पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ने पहली बार यह गलती की हो . पिछले एक साल का  रिकार्ड देखा जाए तो समझ में आ जाएगा कि कि सत्ता  मिलने के साथ साथ उनकी सरकार ने यही रुख लगातार अपनाया है. अभी अगस्त में कोलकाता पुलिस ने बलात्कार  से बचने के लिए कुछ दिशा निर्देश जारी किया था जिसमें कहा  गया था कि महिलाओं को चाहिए कि वे अपनी सुरक्षा का ख्याल रखें और शहर में संभल कर चलें . जहां तक हो सके समूह में चलें ,अकेले शहर में से बाहर निकलने  से बचें. कोलकाता पुलिस की इस एडवाइज़री के बाद शहर के बुद्धिजीवियों में गुस्से और दुःख की लहर दौड गयी थी .लोगों को शक हो रहा था अकी कहीं वह मध्यकालीन भारत के किसी राज्य में तो नहीं रह रहे हैं .


ममता बनर्जी और उनकी सरकार में शामिल मंत्रियों की सोच महिलाओं के प्रति अपमान जनक रही है . यह बात पिछले एक साल में बार बार साबित हो चुकी है .उनके कुछ  मंत्रियों ने तो उन महिलओं के बारे में ही अपमानजनक टिप्पणियाँ की हैं जिन्होंने बलात्कार की घटनाओं को पुलिस में रिपोर्ट किया . तृणमूल कांग्रेस के कुछ विधयाकों ने तो यहाँ तक कह दिया कि अगर बलाकार से बचना है तो कपडे ज़रा ढंग के पहना करें . बलाकार की शिकार महिलाओं  को अस्पताल जाने से हतोत्साहित किया जाता है जिस से बलात्कार  के आंकड़ों को कम करके पेश किया जा सके.लेकिन सच्चाई यह  है कि आज पश्चिम बंगाल महिलाओं के प्रति हिंसक व्यवहार के मामले में नंबर एक पर है . पहले ऐसा नहीं था. ममता बनर्जी को यह सवाल उठाना चाहिए कि कि उनकी सरकार और उनके मंत्रियों को गैरजिम्मेदारना  बयानों के कारण बलात्कार करने वालों को प्रोत्साहन मिल रहा है . बंगाल के नामी लेखक अजीजुल हक ने लिखा है कि १९४७ के बाद सबसे अधिक राजनीतिक उथल पुथल का दौर नक्सलवाद के आंदोलन के दौर में आया था. उस दौर में भी महिलायें बहुत ही सुरक्षित थीं.यह सुरक्षा किसी राजनेता की कृपा  से नहीं आयी थी  . सत्ता वाले तो हमेशा से ही महिलाओं को दुसरे दर्जे का नागरिक बनाने के चक्कर में रहते रहे हैं . इन्हीं सत्ताधीशों के खिलाफ १८७० के दशक में आंदोलन चला था .  राम मोहन रॉय के नेतृत्व में बंगाल में महिलाओं के सम्मान और सती प्रथा  के खात्मे के लिए जो आन्दोलन चला था वह बंगाल के इतिहास का एक महत्वपूर्ण मुकाम है . महिलाओं के जीवन और उनके शरीर के ऊपर सामाजिक नियंत्रण के ढोंग को बंगाल में दी गयी चुनौती का नतीजा था जिसके कारण  ब्रिटिश सरकार ने १८७२ में एज आफ कंसेंट बिल पास किया जिसके बाद बाल विवाह पर कानूनी रोक लगाने का रास्ता साफ़ हुआ . यह आंदोलन बंगाल की सरज़मीं पर बहुत वर्षों तक चला था  .और   शताब्दी के अंत में बंगाल के समाज में ऐसा माहौल बन गया कि १८९० के दशक में महिलाओं की आज़ादी का विरोध करना राजनीतिक और सामाजिक रूप से संभव नहीं रह गया  था .

इसलिए बंगाल के किसी नेता के लिए आज १०० साल बाद महिलाओं को ठीक से कपडे पहनने का उपदेश देना एक दुस्साहस का काम  है. व्यंग्यकार राजशेखर बोस ने जब श्रीमती भयंकरी के कैरेक्टर का आविष्कार किया तो उसे  आधुनिक, फैशनबल और आज़ाद महिला के रूप में तो पेश किया लेकिन यह संकेत करने की हिम्मत नहीं  जुटा सके कि वह सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं थी. १९९६ में जब कोलकता के एक कालेज के  प्रिंसिपल शुभंकर चक्रवर्ती ने अपने कालेज में ड्रेस कोड लागू करने की कोशिश की तो उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा और उन्हें अपना फरमान वापस लेना पड़ा.
इस ऐतिहासिक सन्दर्भ में जब पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री के विचारों को रख कर देखते हैं तो भारी विरोधाभास नज़र आता है . चुनाव अभियान के समय उन्होंने परिवर्तन का नारा दिया था और उसी नारे के साथ सत्ता में आयी हैं .लेकिन काम उनका ऐसा है कि वे पिछले एक सौ वर्षों में जीते गए महिलाओं के अधिकारों को खत्म करके बंगाल को १८६० की स्थिति में वापस ले जाना चाहती हैं. उनको भी मालूम है कि जब सौ साल पहले के धर्म और समाज के ठेकेदारों को प्रगति की लालसा रखने वाले बंगाली समाज ने हाशिए पर ला दिया था तो  मामूली राजनीतिक लोकप्रियता के सहारे  
सत्ता में आयी किसी राजनेता को तो बंगाल की संस्कृति की ताक़त किनारे लगाकर ही अपनी अस्मिता की रक्षा करेगी. 

वाम मोर्चे को सत्ता से बेदखल करके ममता बनर्जी के हाथ  सत्ता आयी है . वामपंथी पार्टियों की राजनीति में महिलाओं का बहुत सम्मान होता है. लगता है कि ममता बनर्जी को  लगा कि महिलाओं को अपमानित करके वे अपनी पार्टी के लुम्पन तत्वों को खुश कर  लेगीं. शायद इसी लिए वे  महिला होते हुए भी महिला विरोधी राजनीति की अलम्बरदार बनी हुयी हैं . ममता बनर्जी ने शुरू में ही बलात्कार पीड़ित महिलाओं के बारे में जिस तरह के गैर ज़िम्मेदार बयान दिए हैं उस से साफ़ लगता है कि उन्होंने अपनी पार्टी के अपराधियों को यह संकेत दे दिया है कि महिलाओं के खिलाफ किसी तरह के अपराध को हल्का कर के देखा जाएगा. बलात्कार के अभियुक्तों को आजकल बंगाल में ज़मानत बहुत ही आसानी से मिल जाती है . हालांकि यह ऐसा अपराध है जिसके बारे में आम तौर पर माना जाता है कि यह गैर ज़मानती अपराध है . पिछले एक  वर्ष से बंगाल में महिलायें हर तरह के आतंक का शिकार हो रही हैं . लगता है कि लुम्पन तत्वों को महिलाओं के खिलाफ अपराध करने से जो ३३ साल तक रोका गया था  उसकी भरपाई अपराधी लोग एक साल में ही पूरा कर लेना चाहते हैं .परिवर्तन के नारे के साथ सत्ता में आयी बंगाल की मुख्यमंत्री  पिछले एक सौ वर्षों  की बंगाल की महिलाओं के सम्मान की धरोहर को ही तबाह करने पर आमादा हैं और उसके लिए बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की रिपोर्ट करने वाले मीडिया को भी भला बुरा कह रही हैं .

Tuesday, October 16, 2012

लोकतंत्र बचाना है तो विधायिका और कार्यपालिका को अलग करना होगा



(यानी विधायकों और सांसदों को मंत्री न बनाया जाए) 

शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में एक मंत्री ने  जिले के सबसे बड़े मेडिकल अफसर को इसलिए बंधक बना लिया क्योंकि अफसर ने उस मंत्री  का गैरकानूनी हुक्म मानने से इनकार कर दिया था. सूचना  क्रान्ति के निजाम के चलते मंत्री की कारस्तानी दुनिया के सामने आयी और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तुरंत कार्रवाई की और मंत्री को पद छोडना पड़ा . आम  तौर पर माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जिस तपाक से मंत्री को पद से हटाया ,वह अन्य मंत्रियों के लिया सबक रहेगा . लेकिन सवाल यह  है कि क्या इस  मंत्री की कारगुजारी मीडिया ने उजागर न किया होता तब भी उसको हटाया जाता .सरकारों में मुख्यमंत्रियों को साफ़ सुथरा प्रशासन रखने के लिए अपने मंत्रियों के काम काज पर नज़र रखने के लिए मीडिया के अलावा भी कुछ तरीकों की ईजाद  करना चाहिए जिस से बात के मीडिया में पंहुचने के पहले ही उन पर एक्शन हो जाए.इस से सरकारों की कार्यक्षमता  के बारे में अच्छा माहौल बनेगा .हटाये गए  मंत्री जी के बारे में  जो  जानकारी मिली है उसके आधार पर बहुत आराम से कहा जा सकता है कि वे ऐसे धर्मात्मा नहीं थे  जिसके लिए आंसू बहाए जाएँ . उनका अपना इतिहास ऐसा है कि कोई भी सभ्य समाज उनको अपना साथी नहीं मानना चाहेगा . तो प्रश्न यह  है कि उन महोदय को मंत्री बनाया  ही क्यों गया . बताते हैं कि अपने इलाके में उनकी ऐसी दहशत है कि उनके  खिलाफ कोई भी चुनाव नहीं जीत सकता . जिस पार्टी में भी जाते हैं उसे जिता देते हैं . यानी वे विधायिका की ताकत मज़बूत करते हैं इसलिए  उन्हें कार्यपालिका में मनमानी करने की अनुमति दी जाती है.ऐसा लगता है कि कार्यपालिका और विधायिका के रोल आपस में इतने घुल मिल गए हैं कि देश के राजनीतिक फैसलों को लागू करने की ताकत हासिल कर लेने वाले विधायिका के प्रतिनिधि सरकारी फैसलों में मनमानी करने की खुली छूट पा जाते हैं और इसलिए  अपने आर्थिक लाभ के लिए देश की सम्पदा को अपना समझने लगते हैं . यह गलत है . इसका  हर स्तर पर प्रतिकार किया जाना चाहिए .

हमारे लोकतंत्र के तीन स्तंभ बताए गए हैं . न्याय पालिका ,  विधायिका और कार्यपालिका . न्याय पालिका तो  सर्वोच्च स्तर पर अपना काम बहुत ही खूबसूरती से कर रही  है लेकिन कार्यपालिका और  विधायिका अपने फ़र्ज़ को सही  तरीके से नहीं कर पा रही हैं . हमने पिछले कई  वर्षों से देखा है कि संसद का काम इसलिए नहीं हो  पाता कि  विपक्षी पार्टियां सरकार यानी कार्यपालिका के कुछ फैसलों से खुश नहीं रहती. कार्यपालिका के गलत काम के लिए वह विधायिका को अपना काम  नहीं करने देती. इसलिए इस सारी मुसीबात को खत्म करने का एक बाहुत सही तरीका  यह  है कि विधायिका और कार्यपालिका का काम अलग अलग लोग करें . यानी जो लोग विधायिका में हैं वे कार्यपालिका  से अलग रहें . वे कार्यपालिका के काम की निगरानी  रखें उन पर नज़र रखें और संसद की सर्वोच्चता को स्थापित करने में योगदान दें. अभी यह हो रहा है कि जो लोग संसद के सदस्य है , संसद की सर्वोच्चता के संरक्षक हैं वे ही सरकार में शामिल हो जाते हैं और कार्यपालिका भी बन जाते  हैं . गौर  करने की बात यह है कि पिछले १८ साल में जब भी संसद की  कार्यवाही  को हल्ला गुल्ला करके रोका गया है वह विरोध कार्यपालिका के किसी फैसले के बारे में था . यानी संसद का जो विधायिका के रूप में काम करने का मुख्य काम है  उसकी वजह से संसद में  हल्ला गुल्ला कभी नहीं हुआ. हल्ला गुल्ला इसलिए हुआ कि संसद के सदस्यों का जो अतिरिक्त काम है , कार्यपालिका वाला, उसकी वजह से संसद को काम करने का मौका नहीं मिला. इसलिए अब इस बात पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है कि कार्य पालिका और विधायिका का काम अलग अलग लोगों को दिया जाए. यानी ऐसे नियम बना दिए जाएँ  जिसके बाद कोई भी संसद सदस्य या कोई भी विधायक मंत्री न बन सके. संसद या  विधानमंडलों के सदस्य के रूप में नेता लोग अपना काम करें , यानी कानून बनायें और उन कानून को लागू करने वाली कार्यपालिका के काम की निगरानी करें . मंत्री ऐसे लोग बने जो संसद या विधानमंडलों के सदस्य न हों . यहाँ यह गौर करने की बात है कि  नौकरशाही को काबू में रखना भी ज़रूरी है वर्ना वे तो ब्रिटिश नजराना संस्कृति के वारिस हैं, वे तो सब कुछ लूटकर रख देगें. अगर संसद या विधान सभा का सदस्य बनकर केवल क़ानून बनाने का काम मिलने की बात होगी तो इन सदनों में बाहुबली बिलकुल नहीं आयेगें.उसके दो कारण हैं . एक तो उन्हें मालूम है कि कानून बनाने के लिए संविधान और कानून और राजनीति शास्त्र का ज्ञान होना चाहिए . दूसरी बात यह है कि जब उन्हें मालूम हो जाएगा कि संसद के सदस्य बनकर कार्यपालिका पर उनका डाइरेक्ट नियंत्रण नहीं रहेगा तो उनकी रूचि खत्म हो जायेगी. क्योंकि रिश्वत की मलाई तो कार्यपालिका पर कंट्रोल करने से  ही मिलती है .

इस तरह हम देखते हैं कि अगर विधायिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया जाए तो देश का बहुत भला हो जाएगा. यह कोई  अजूबा आइडिया नहीं है . अमरीका में ऐसी  ही व्यवस्था है . अपने संसदीय लोकतंत्र को जारी रखते हुए यह किया जा सकता है कि बहुमत दल का नेता मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री बन जाए और वह संसद या विधान मंडलों के बाहर से अपना राजनीतिक मंत्रिमंडल बनाये. एक शंका उठ सकती है कि वही  बाहुबली और भ्रष्ट नेता चुनाव नहीं लड़ेगें और मंत्री बनने के  चक्कर में पड़ जायेगें और वही काम शुरू कर देगें जो अभी करते हैं . लेकिन यह शंका निर्मूल है . क्योंकि कोई मनमोहन सिंह , या नीतीश कुमार या अखिलेश  यादव  या नवीन पटनायक किसी बदमाश को अपने मंत्रिमंडल में नहीं लेगा. संसद का काम यह रहे कि  मंत्रिमंडल के काम की निगरानी रखे . यह मंत्रिमंडल राजनीतिक फैसले ले और मौजूदा नौकरशाही को ईमानदारी से काम करने के लिए मजबूर करे. यह संभव है और इसके लिए कोशिश की जानी चाहिए . कार्यपालिका और नौकरशाही पर अभी  भी संसद की स्टैंडिंग कमेटी कंट्रोल रखती है और वह हमारी लोक शाही का एक बहुत ही मज़बूत पक्ष है . स्टैंडिंग कमेटी की मजबूती का  एक कारण यह भी है कि उसमें कोई भी मंत्री सदस्य के रूप में शामिल नहीं हो सकता . स्टैंडिंग कमेटी मंत्रिमंडल के काम पर निगरानी भरी नज़र रखती है . आज जो काम स्टैंडिंग  कमेटी कर रही है वही काम पूरी संसद का हो जाए तो चुनाव सुधार का बहुत पुराना एजेंडा भी लागू हो जाएगा और अमरीका की तरह विधायिका की सर्वोच्चता भी स्थापित हो जायेगी.  

भारत में भ्रष्टाचार के समकालीन इतिहास पर नज़र डालें तो साफ़ समझ में आ जाता है कि इस काम में राजनीतिक बिरादरी नंबर एक पर है. राजनेता, एम पी या एम एल ए का चुनाव जीतता है और केन्द्र या राज्य में मंत्री बन जाता है . मंत्री बनते ही कार्यपालिका के राजनीतिक फैसलों का मालिक बन बैठता है . और उन्हीं फैसलों की कीमत के रूप में घूस स्वीकार करना शुरू कर देता है. जब राजनेता भ्रष्ट हो जाता है तो उसके मातहत काम करने  वाली नौकरशाही को भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस मिल जाता है और वह पूरी मेहनत और बेईमानी के साथ घूस वसूलने  में जुट जाता है. फिर तो नीचे तक भ्रष्टाचार का राज कायम हो जाता है. भ्रष्टाचार के तत्व निरूपण में जाने की ज़रूरत इसलिए नहीं है कि भ्रष्टाचार हमारे सामाजिक राजनीतिक जीवन  का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा बन  चुका है कि उसके बारे में किसी भी भारतीय को कुछ बताना बिकुल बेकार की कवायद होगी. इस देश में जो भी जिंदा इंसान अहै वह भ्रष्टाचार की  चारों तरफ की मौजूदगी को अच्छी तरह जानता है . 

 उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार को अंदर से देख और झेल  रहे मेरे एक अफसर मित्र से चर्चा के दौरान भ्रष्टाचार को खत्म करने के कुछ  दिलचस्प  तर्क सामने आये. उत्तर प्रदेश की नौकरशाही में अफसरों का एक वर्ग ऐसा भी है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है लेकिन जल में रहकर मगर से  वैर नहीं करता और नियम कानून की सीमाओं में रहकर  अपना काम करता रहता है .मेरे अफसर मित्र उसी वर्ग के हैं . उन्होंने भ्रष्टाचार  को खत्म करने के कई गुर बताए लेकिन सिद्धांत के स्तर पर जो कुछ उन्होंने बताया ,वह फील्ड में काम करने वाले उस योद्धा के तर्क हैं जो भ्रष्टाचार की मार का सोते जागते मुकाबला करता रहता है . जब तक एक कलक्टर या एस डी एम जाग रहा होता है उसे को न कोई नेता या मंत्री या उसका बड़ा अफसर भ्रष्टाचार के तहत कोई न कोई काम करने की सिफारिश करने को कहता रहता है . उन्होंने बताया कि जिलों में सबसे ज्यादा भ्रष्ट राजनीतिक नेता होते हैं . जो लोग मंत्री हो जाते हैं वे तो हर काम को अपनी मर्जी से करवाने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार  मानते हैं . उसके बाद मंत्री जी के चमचों का नंबर  आता है. यह चमचा वाली संस्था तो बनी ही भ्रष्टाचार का निजाम कायम रखने के लिए है. उसके बाद वे नेता आते हैं जो विधायक या सांसद हो चुके होते हैं लेकन मंत्री नहीं बन पाते . यह सरकारी पक्ष के ही होते हैं . सरकारी पक्ष के नेताओं के बाद विपक्ष की पार्टियों के विधायकों और सांसदों का नंबर आता है जिनके चमचे भी  सक्रिय रहते हैं .  इस वर्ग के नेता भी कम ताक़त्वर  नहीं होते और उनका भी खर्चा पानी घूस की गिजा पर ही चलता है . उसके बाद उन नेताओं  का नंबर  आता है जो भूतपूर्व हो चुके होते हैं . भूतपूर्व के बाद वे नेता आते हैं जिनको अभी चुनावी सफलता नहीं मिली है  या कि मिलने वाली है .

कुल मिलाकर यह देखा गया है कि सरकारी फैसलों को घूस की चाभी से अपने पक्ष में करने वाले लोगों में सबसे आगे वही लोग  होते हैं जो राजनीति के क्षेत्र से आते हैं .  अगर चुनाव जीतने  वालों को स्पष्ट रूप से विधायिका का काम दे दिया जाए और उनको कार्यपालिका में शामिल होने  से रोक दिया जाए यानी उन्हें मंत्री बनने के लिए अयोग्य करार कर दिया जाए और उन्हें मंत्रियों और अफसरों के काम  पर निगरानी रखने का काम  सौंप दिया जाए और उनकी घूस लेने की क्षमता को खत्म कर दिया जाए तो देश में राजनीतिक सुधार का जो माहौल बनेगा वह बेईमानी और भ्रष्टाचार के निजाम को खत्म करने की दिशा में महत्वपूर्ण होगा .

Saturday, October 13, 2012

अगर ३० जनवरी '४८ को महात्मा गांधी की हत्या न हुयी होती तो लोहिया उनकी विरासत के वारिस होते



शेष नारायण  सिंह 

30 जनवरी के दिन दिल्ली के बिडला  हाउस में महात्मा गांधी की  हत्या करके  नाथूराम  गोडसे ने केवल  महात्मा गाँधी की ही हत्या नहीं की थी .उसने एक आज़ाद देश के सपने के भविष्य को भी मार डाला था.  शासक वर्गो के शोषण के दर्शनशास्त्र के  प्रतिनिधि नाथूराम ने उसी हत्या के साथ अन्य बहुत सी विचारधाराओं की हत्या कर दी थी। महात्मा गाँधी को पढने वाला कोई भी आदमी बता देगा की महात्मा जी ने कांग्रेस के आर्थिक  विकास के उस माडल को नहीं स्वीकार किया था जिसे स्वतन्त्र भारत के लिए जवाहर लाल नेहरू और उनकी सरकार वाले लागू करना  चाहते थे। महात्मा गाँधी ने साफ़ बता दिया था की वे गाँव  को विकास की इकाई बनाने के पक्षधर थे लेकिन  जवाहर लाल नेहरू की अगुवाई को वाली कांग्रेस के नेताओं के दिमाग में औद्योगीकरण के रास्ते देश के आर्थिक विकास करने के सपने पल रहे थे . गांधी जी ने इस विषय पर बहुत विस्तार से लिखा है . उनकी मूल किताब हिंद स्वराज में तो यह बात साफ़ साफ़ लिखी ही है बाद के ग्रंथोंमें भी गाँव को  विकास की यूनिट बनाने की बात बार बार कही गयी है . आज़ादी की  लड़ाई तक यानी 1946 तक महात्मा गांधी की हर बात मानने वाले जवाहर लाल नेहरू ने महात्मा जी की आर्थिक विकास की सोच को नकारना शुरू कर दिया था। भारत के आख़िरी आदमी के विकास की पक्ष धर गांधी की राजनीति से इसी दौर में जवाहर लाल नेहरू की विचारधारा ने दूरी बनानी शुरू कर दी थी। कांग्रेस का प्रभावशाली तबका  भी इस मामले में नेहरू के साथ था . गांधी जी एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस को खत्म करके बाकी राजनीतिक जमातों को चुनावी मैदान में बराबरी देना चाहते थे  . लेकिन उस वक़्त तक कांग्रेस में सबसे अधिक प्रभाव शाली हो चुके सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू ने इस बात को सिरे से खारिज कर दिया था। आर्थिक विकास  की उनकी सोच को भी सही ठहराने  वाला कोई भी आदमी जवाहर लाल की पहली मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं था।  गांधी जी इस बात से संतुष्ट नहीं थे। उधर  मुहम्मद अली जिन्नाह की जिद के चलते   मुसलमानों के  ज़मींदारों ने पूरे देश में दंगे भड़काने की साज़िश पर अमल करना शुरू कर दिया था। . 1946 के बाद से ही हर उस मूल्य को दफ़न किया जा रहा था जिसको  आधार बनाकर आजादी की लड़ाई लड़ी गयी थी। आज़ादी के आन्दोलन के इथोस को कांग्रेस को लोग भूल चुके थे और अगर भूले नहीं थे तो उसे इतिहास के कूड़ेदान के हवाले करने की पूरी तैयारी कर चुके थे। 
इस पृष्ठभूमि में जिन लोगों ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाई थी ,महात्मा गांधी उन लोगों पर बहुत भरोसा कर रहे थे .इनमें से एक डॉ राम मनोहर लोहिया थे  . अगस्त क्रान्ति के दौरान डॉ. लोहिया के काम से महात्मा गांधी अत्यंत प्रभावित हुए थे। उसके पहले  डॉ. लोहिया के कई लेख, महात्मा गांधी के अखबार 'हरिजन' में प्रकाशित भी हो चुके थे। गोवा के मामले पर उनका साथ महात्मा गांधी को छोड़कर और किसी बड़े नेता ने नहीं दिया।
स्वतंत्रता के बाद नेहरू सरकार की नीतियां गांधी के विचारों से प्रतिकूल थीं। डॉ. लोहिया का समाजवाद गांधी की विचारधारा के अत्यन्त निकट था। नेहरू सरकार की दशा-दिशा के कारण महात्मा गांधी का नेहरू से मोहभंग हो रहा था और लोहिया की तरफ रूझान बढ़ रहा था। आज़ादी के बाद देश साम्प्रदायिकता के संकट में फंस गया तो शांति और सद्भाव कायम करने में डॉ. लोहिया ने गांधी का सहयोग किया। इस प्रकार वे  गांधीजी के करीब  क़रीब आ गये थे। इतने क़रीब की गांधी ने जब लोहिया से कहा कि जो चीज़ आम आदमी के लिए उपलब्ध नहीं उसका उपभोग तुम्हें भी नहीं करना चाहिए और सिगरेट त्याग देना चाहिए तो लोहिया ने तुरन्त उनकी बात मान ली।   महात्मा जी से लोहिया के विचार इतने मिल रहे थे कि लगता था कि आज़ादी के बाद लोहिया ही गांधी की राजनीति के वारिस बनेगें .ऐसा सन्दर्भ देखने को मिला लगता है कि आज़ादी के  बाद की भारत की  राजनीति पर  फिर से विचार की ज़रूरत  जितनी आज है उतनी कभी नहीं थी    .भारतीय पक्ष नाम के एक कोष में    लिखा  है  की 28 जनवरी1948 को गांधी ने लोहिया से कहा, मुझे तुमसे कुछ विषयों पर विस्तार में बात करनी है। इसलिये आज तुम मेरे शयनकक्ष में सो जाओ। सुबह तड़के हम लोग बातचीत करेंगे। लोहिया गांधी के बगल में सो गये। उन्होंने सोचा कि जब बापू जागेंगे, तब वे जगा लेंगे और बातचीत हो जाएगी। लेकिन जब लोहिया की आँख खुली तो गाँधी जी बिस्तर पर नहीं थे। बाद में जब डॉ. लोहिया गांधी से मिले तब गांधी ने कहा, "तुम गहरी नींद में थे। मैंने तुम्हें जगाना ठीक नहीं समझा। खैर कोई बात नहीं। कल शाम तुम मुझसे मिलो। कल निश्चित रूप से मैं कांग्रेस और तुम्हारी पार्टी के बारे में बात करूँगा। कल आख़िरी फैसला होगा।" यानी २९  जनवरी के दिन डॉ लोहिया उन्हें वादा करके आये कि 30 तारीख को बात करने के  लिए आ जायेगें  .
लोहिया 30 जनवरी1948 को गांधी से बातचीत करने के लिए टैक्सी से बिड़ला भवन की तरफ बढ़े ही थे कि तभी उन्हें गांधी की शहादत की खबर मिली। एक ठोस योजना की भ्रूण हत्या हो गयी। बापू अपनी शहादत से पहले अपने आख़िरी वसीयतनामे में कांग्रेस को भंग करने की अनिवार्यता सिद्ध कर चुके थे। उस समय उन्होंनें ऐसा स्पष्ट संकेत दिया था कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान अनेकानेक उद्देश्यों के निमित्त गठित विविध रचनात्मक कार्य संस्थाओं को एकसूत्र में पिरोकर शीघ्र ही एक नया राष्ट्रव्यापी लोक संगठन खड़ा किया जायेगा। डॉ. लोहिया की उसमें विशेष भूमिका होगी। इस प्रकार बनने वाले शक्तिपुंज से बापू आज़ादी की अधूरी जंग के निर्णायक बिन्दु तक पहुंचाना चाहते थे।
डॉ लोहिया  के जीवन इस पक्ष  के बारे में जानकारी की  कमी है . ज़ाहिर है की अब इस विषय पर भी सोचविचार  की  जानी चाहिए कि अगर महात्मा जी और लोहिया की वह  मुलाक़ात हो गयी होती तो हमारे देश का इतिहास बिलकुल अलग होता.इस बात की पूरी संभावना है कि महात्मा गांधी की राजनीति और उसमें होने वाले संघर्ष के असली वाहक डॉ राम मनोहर लोहिया  ही होते.लेकिन वह मुलाक़ात नहीं हो सकी और कांग्रेस से अलग होकर डॉ लोहिया और उनके साथियों ने जो राजनीतिक रास्ता चुना वह समाजवाद का था. आज़ादी के बाद  के लोहिया के सारे काम पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि उनकी मान्यताएं भी लगभग  वही थीं जिनके लिए महात्मा गाँधी ने आजीवन संघर्ष किया . जब कांग्रेस के सत्ताधीशों से महात्मा गांधी निराश हो गए थे तो उनको लगा था कि डॉ राम मनोहर लोहिया ही उनकी राजनीतिक सोच के हिसाब से आज़ाद भारत के भविष्य को डिजाइन कर सकते हैं .लेकिन नियति को कुछ और मंज़ूर था.
१९४७ के बाद की जो कांग्रेस है उसमें महात्मा गांधी की राजनीति का कोई पुछत्तर नहीं नज़र आता .महात्मा गांधी ने छुआछूत को खत्म करने के लिए आज़ादी के आंदोलन को एक  हथियार माना था लेकिन १९४७ के बाद हम साफ़ देखते हैं कि  डॉ बी आर आंबेडकर की दलितों के लिए आरक्षण की योजना  को संविधान में डालने के अलावा कुछ नहीं हुआ. हाँ यह भी सच है कि जवाहरलाल नेहरू ने आंबेडकर की संवैधानिक सोच का समर्थन किया .लेकिन इस सीन से कांग्रेसी नदारद थे .  सरकारी तौर पर  जाति आधारित छुआछूत को मिटाने और सामाजिक समरसता की स्थापना का  कोई प्रयास नज़र नहीं आता. गांधी के नाम पर अपना कारोबार चलाने वाली कुछ संस्थाओं ने मंदिर आदि में प्रवेश जैसी कुछ सांकेतिक कार्यवाही की लेकिन कहीं भी गंभीर राजनीतिक क़दम नहीं उठाये गए. 
महात्मा गांधी ने साफ कहा था कि कल कारखानों के मालिक उद्योगपति का रोल एक  ट्रस्टी का होगा लेकिन जिस तरह की औद्योगिक नीति बनी , सार्वजनिक संपत्ति की मिलकियत के जो नियम बने उसमें महात्मा गांधी कहीं दूर दूर तक नज़र नहीं आते.सारा का सारा कंट्रोल पूंजीपति के हाथ में दे दिया गया . मजदूरों के कल्याण के लिए जो नीतियां बनीं उसमें भी उद्योगपति का पलड़ा भारी कर दिया गया.अपने देश की श्रम नीतियां मजदूरों के शोषण का हथियार बनीं .महात्मा जी  का सबसे प्रिय विषय था , ग्रामीण भारत का समुचित विकास लेकिन कृषि नीतियां ऐसी बनायी गयीं जिसमें कहीं भी गाँव में रहने वाले किसान की भलाई का कोई स्थान नहीं था. इस देश में शुरू से  ही खेती को  उस रास्ते पर विकसित किया गया जिसके बाद किसान का रोल राष्ट्रीय विकास में केवल मतदाता का होकर रह गया . इस देश में नेहरू के वारिसों ने जिस तरह की कृषि नीति को महत्व दिया उसमें किसान को केवल उतना ही सुविधा दी जाती है जिक्से बाद वह शहरी आबादी के लिए भोजन का इंतज़ाम करता रहे , और सत्ताधारी पार्टी को वोट देता रहे. 
महात्मा गांधी ने कहा था कि पंचायतों का रोल भारत के ग्रामीण जीवन में सबसे ज्यादा होना चाहिए . लेकिन सरकार ने ऐसी नीतियों बनाईं कि आज देश में वकीलों और उनके दलालों का एक बहुत बड़ा नेटवर्क तैयार हो गया  है . ग्रामीण भारत में ऐसा कोई  परिवार नहीं बचा है जिसने कोर्ट के फेरी न लगायी हो . ज़ाहिर है कि महात्मा गांधी एक हार सपने को सत्ताधारी दलों ने नाकाम किया है .
ऐसा लगता है कि अगर २९ जनवरी १९४८ की सुबह  डॉ लोहिया और महात्मा गांधी की बातचीत  हो गयी होती तो शायद डॉ लोहिया कुजात गांधीवादी न होते। वे ही महात्मा गांधी के असली वारिस होते . बहुत बाद में उन्होंने सरकारी और मठी गांधीवादियों से परेशान होकर अपने आपको और अपने साथियों को कुजात गांधीवादी कह दिया था लेकिन अगर गांधी जी ने उनको कांग्रेस से अपनी निराशा से विधिवत परिचित करा दिया  होता तो इस बात में दो राय नहीं होनी चाहिए कि  डॉ राम मनोहर लोहिया ने  महात्मा जी  की  इच्छा को पूरा किया होता और महात्मा गांधी की विरासत को कांग्रेस और कांग्रेसी सत्ता की फाइलों में गुम होने से बचा लिया होता

Friday, October 5, 2012

किस्सा सब्ज़ बाग़ और अरविंद केजरीवाल की नई पार्टी




शेष नारायण सिंह 

अन्ना हजारे के पूर्व शिष्य अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक पार्टी की शुरुआत कर दी . नई दिल्ली के वी पी हाउस में अपने समर्थकों के साथ आये और राजनीतिक पार्टी लांच करने की घोषणा कर दी. उन्होंने बताया कि २६ नवम्बर को पार्टी का नाम और उसका घोषणापत्र जारी कर दिया जाएगा.अरविंद केजरीवाल के साथ कुछ ऐसे लोग भी आये जिनके बारे में माना जाता है कि वे गंभीर लोग हैं . इसलिए उम्मीद की जा रही है कि २६ नवम्बर को जब उनकी पार्टी का ऐलान होगा तो कुछ नया ज़रूर होगा.
इस वी पी हाउस में बार बार राजनीतिक इतिहास लिखा गया है .यहाँ कई बार राजनीतिक परिवर्तन की इबारत लिखी गयी है . हो सकता है कि गांधी जयन्ती के दिन अरविंद केजरीवाल के जिन मित्रों का जमावड़ा हुआ था वे किसी नई राजनीतिक शक्ति की शुरुआत के कारण बनें.इस सम्मलेन में कुछ कागज़ पत्र भी जारी किये गए जिनके आधार पर करीब डेढ़ महीने तक बहस  होगी और उसके बाद राजनीतिक पार्टी के गठन की विधिवत घोषणा की जायेगी.  किसी भी पार्टी की घोषणा के पहले उसके बारे में कुछ कहना बहुत ही मुश्किल काम होता है . इसलिए आज अरविंद केजरीवाल और  वी पी हाउस में इकठ्ठा हुए उनके साथियों के सपनों के बारे में बात की जायेगी. देश भर के बड़े अखबारों ने केजरीवाल की पार्टी की शुरुआत को बहुत महत्व दिया है और देश के  सबसे बड़े अखबार दैनिक जागरण ने अरविंद केजरीवाल की पार्टी की खबर को प्राथमिकता दी है . ज़ाहिर है  आज से ही हिन्दी क्षेत्रों में इस पार्टी के बारे में बहस शुरू हो चुकी है अखबार ने लिखा है कि अन्ना की जगह महात्मा गांधी और लालबहादुर शास्त्री के पोस्टर लगे मंच से केजरीवाल ने कहा, 'सभी दलों ने मिलकर जन लोकपाल आंदोलन को बार-बार धोखा दिया। हमें चुनौती दी गई कि खुद चुनाव लड़कर बनवा लो। आज हम इस मंच से एलान करते हैं कि हम चुनावी राजनीति में कूद रहे हैं। जनता राजनीति में कूद रही है'. उनके साथ मंच पर राजनीतिक चिन्तक  योगेंद्र यादव भी मौजूद थे .उन्होंने कहा कि आज के ज़माने में राजनीति ज़रूरी है , इससे अलग नहीं रहा जा सकता .

केजरीवाल ने पार्टी के विज़न डाकुमेंट , एजेंडा और उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया का मसौदा पेश किया. अभी कल तक अन्ना हजारे की जयजयकार कर  रहे अरविंद केजरीवाल ने उनके एक अहम सवाल का जवाब  भी दिया और अपने भाषण में ऐलान किया कि  , 'बार-बार सवाल पूछा जा रहा है कि पैसा कहां से आएगा? लेकिन, ईमानदारी से चुनाव लड़ने के लिए पैसे की जरूरत नहीं होती। मौजूदा नेताओं ने ऐसा माहौल बना दिया है कि राजनीति सिर्फ गुंडों का काम बनकर रह गई है। हमें साबित करना है कि यह देशभक्तों का काम है।'
जानकार बताते हैं कि उनकी नई पार्टी में केजरीवाल के अलावा  प्रशांत भूषण ,योगेंद्र यादव ,गोपाल राय, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह को आलाकमान का रुतबा हासिल होगा . जो कागजपत्र पेश किये गए उनपर नज़र डालने से साफ़ समझ में आ जाता है कि अगर यह राजनीतिक पार्टी सत्ता में आ गयी तो बहुत जल्द एक ऐसी व्यवस्था कायम हो जायेगी जो हर तरह से आदर्श होगी.चुनाव में टिकट देने के मामले में इस पार्टी का बहुत ही साफ़ रुख होगा . एक परिवार के एक ही सदस्य चुनाव लड़ने दिया जाएगा.  पार्टी का कोई भी सांसद,विधायक लाल बत्ती का इस्तेमाल नहीं करेगा .सांसद और विधायक  सुरक्षा और सरकारी बंगला नहीं लेंगे . हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त जज पार्टी पदाधिकारियों पर लगने वाले आरोप की जांच किया करेगें .पार्टी को मिलने वाले सभी चन्दों का हिसाब पार्टी की वेबसाइट पर डाला जाएगा. दिल्ली की मुख्य मंत्री से नाराज़ और बिजली के बिल में हो रही अनाप शनाप वृद्धि के खिलाफ दिल्ली में आन्दोलन छेड़ा जाएगा.
अरविंद केजरीवाल की पार्टी के बारे में जो कुछ भी अब तक पता चला है  उसके आधार पर उनकी प्रस्तावित पार्टी से बहुत उम्मीदें नहीं बनतीं. आम आदमी का नाम लेकर शुरू की जा रही पार्टी के शुरुआती कार्यक्रम में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके बल पर बहुत उम्मीद बन सके . लेकिन पार्टी के शुरू करने वालों को बहुत उम्मीदें हैं . केजरीवाल के साथी और गंभीर राजनीतिक कार्यकर्ता गोपाल राय से बात चीत करने का मौक़ा मिला.उनका कहना है कि इस देश में जब तक गाँवसभा में बैठे हुए आम आदमी को अपने आस पास का विकास करने का अधिकार नहीं मिलेगा, तब तक इस देश में सही मायने में लोकशाही की स्थापना नहीं की जा सकती. . उन्होंने कहा कि  अंग्रेजों की नौकरशाही को जवाहरलाल नेहरू ने अपना लिया था. वहीं बहुत बड़ी गलती हो गयी थी. नौकरशाही के  बारे में उनकी पार्टी नए सिरे से विचार करेगी. लेकिन अभी यह साफ़ नहीं   है कि नई नौकरशाही का स्वरुप क्या होगा. इस पर विचार चल रहा है . गोपाल राय से बात करके ऐसा लगता है कि केजरीवाल की पार्टी वही सब करना चाहती है जो महात्मा गाँधी के हिंद स्वराज और ग्राम स्वराज में राजनीतिक कार्य का मकसद बताया गया  है . यह अलग बात है  कि पूरी बातचीत में उन्होंने महात्मा गांधी का नाम एक बार भी नहीं लिया . .
टीम केजरीवाल का आरोप  है  कि अभी जो व्यवस्था है उसमें सरकारें शुद्ध रूप से वी आई पी का काम करती हैं . लेकिन यह ज़रूरी है  कि उनको इस तरह से ढाला जाए कि वे आम आदमी का काम के लिए अपने आपको तैयार करें .पार्टी की तैयारी के  बारे में भी अरविंद की टीम में काफी हद तक सहमति बन चुकी है . हरावल दस्ता तो वही होगा जो जनलोकपाल  के लिए अन्ना हजारे के  आन्दोलन में उनके साथ था. लेकिन इसमें उन लोगों को नहीं लिया जाएगा जो अब अलग हो चुके हैं . इस वर्ग में किरण बेदी जैसे लोगों का नाम है . रामदेव से भी अब इन लोगों का कोई लेना देना नहीं है . यह बात तो तीन दिन पहले ही साफ़ हो चुकी है जब टाइम्स नाउ चैनल  पर रामदेव के ख़ास साथी वेद प्रताप वैदिक ने अरविंद  और उनके  साथियों का मजाक उड़ाया था. दूसरा  वर्ग उन लोगों का होगा अ किसी भी तरह के जनांदोलनों  में काम कर रहे हैं वे भी पार्टी में कार्यकर्ता के रूप में शामिल किये जायेगें . तीसरा वर्ग उन लोगों का होगा जो भ्रष्टाचार से ऊब चुके हैं और जो  नई पार्टी एके साथ रहेगें लेकिन बहुत सक्रिय नहीं रहेगें. वास्तव में यही वर्ग पार्टी का जनाधार होगा.
अभी तक के अरविंद केजरीवाल की जो सोच  है उसके लागू होने पर देश में एक बहुत बड़ा आन्दोलन शुरू हो सकता है . लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि  भारत का मध्यवर्ग इस पार्टी को कितनी गंभीरता से लेता है . भ्रष्टाचार के खिलाफ जो आन्दोलन चला था  उसमें तो यह लोग सफल नहीं रहे थे. इनके ऊपर आरोप लगते रहे हैं कि इन्होने जनता के भ्रष्टाचार विरोधी  गुस्से को शासक वर्गों के हित के लिए तबाह कर दिया था .और  आम आदमी  में निराशा भर दी थी. अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना और अरविंद केजरीवाल के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं
यह भी शक़ हुआ था कि कहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे और उनकी टीम के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि ऐसा बार बार हुआ है . आम आदमी को अरविंद केजरीवाल की टीम से बहुत उम्मीदें हैं . भविष्य ही बताएगा कि उनकी उम्मीदों का क्या नतीजा निकलता है .

Thursday, October 4, 2012

दक्षिण एशिया का सबसे परेशान राजनेता----आसिफ अली ज़रदारी



शेष नारायण सिंह 

दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा परेशान राजनेताओं की अगर लिस्ट बनायी जाए तो उसमें सबसे ऊपर पाकिस्तान के राष्ट्रपति ,आसिफ अली ज़रदारी का नाम आयेगा. पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने उनके जीवन के पुराने किस्सों की पोल खोलने का  फैसला कर लिया है . यह वह किस्से  हैं जिसमें सदर-ए-पाकिस्तान एक अलग तरह की शख्सियत के मालिक के रूप में पहचाने जाते हैं . उस दौर में वे खुद हुकूमत में नहीं थे और देश की सबसे ताक़तवर राजनेता के पति के रूप में रहते थे. उनके ऊपर सत्ता का गैर वाजिब इस्तेमाल के आरोप लगते रहे हैं .पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट को भरोसा है कि उन्होंने बहुत बड़ी रक़म स्विस बैंकों में जमा कर रखी है और सरकार को चाहिए कि स्विटज़रलैंड की सरकार से बात करके वह सारी रक़म वापस लायें . सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह का एक आदेश भी जारी कर रखा है . पूर्व प्रधान मंत्री यूसुफ़ रज़ा गीलानी को सुप्रीम कोर्ट ने हुक्म दिया था कि  एक चिट्ठी स्विटज़रलैंड की सरकार के पास लिख भेजें जिसके बाद सारा पैसा वापस आ जाएगा. लेकिन प्रधान मंत्री गीलानी ने चिट्ठी वैसी नहीं  लिखी जैसी सुप्रीम कोर्ट चाहता था . इसी चक्कर में उनको गद्दी गंवानी पड़ी. अब नए प्रधान मंत्री आये हैं उन्होंने भी शुरू में तो बहुत जोर शोर से चिट्ठी लिखने की बात की थी लेकिन लगता है कि अब ढीले पड़ गए हैं . क्योंकि २६ सितम्बर  को जिस चिट्ठी का ड्राफ्ट लेकर उनकी सरकार सुप्रीम कोर्ट गयी थी वह नाकाफी पाया गया और सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आसिफ सईद खोसा ने सरकार की तरफ से पेश हुए कानून मंत्री फारूक नायक को चेताया कि आप इस चिट्ठी में ज़रूरी बदलाव करके ५ अक्टूबर तक लेकर आइये वरना सरकार के खिलाफ अदालत की अवमानना का मुक़दमा चलाया जाएगा .सरकार का तर्क है कि आसिफ अली ज़रदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति हैं इसलिए उन्हें इस तरह के मुक़दमों में नहीं घसीटा कजा सकता . इसी तर्क के चलते पूर्व  प्रधान मंत्री यूसुफ़ रज़ा  गीलानी पर तौहीने अदालत का मुक़दमा चला था और उन्हें हटना पडा था. मौजूदा सरकार भी यही  तर्क दे रही थी लेकिन पिछले हफ्ते नए प्रधान मंत्री की समझ में मामले की गंभीरता आ गयी . लेकिन जो चिट्ठी लेकर उनके मंत्री महोदय पंहुचे थे  सुप्रीम कोट ने उसे बेकार की चिट्ठी बताया और कहा  कि अगर  यही रवैया रहा तो मौजूदा प्रधान मंत्री पर भी तौहीने अदालत का मुक़दमा चलेगा . जिस केस में  आसिफ अली ज़रदारी को घेरा गया है वह नब्बे के दशक का है जब उनकी  पत्नी स्व बेनजीर भुट्टो प्रधान मंत्री थीं और ज़रदारी साहब मिस्टर टेन परसेंट के रूप में जाने जाते थे. . उनके ऊपर आरोप है कि उन्होंने कस्टम ड्यूटी के निरीक्षण का ठेका किसी कारोबारी को दिलवाने के लिए सवा करोड़ डालर की रिश्वत ली थी. पाकिस्तान की सरकार के लिए ज़रदारी को बचाने का प्रोजेक्ट बहुत भारी पड़ रहा है . सुप्रीम कोर्ट की तरफ से किसी मुरव्वत की उम्मीद किसी भी हालत में  नहीं है . २६ सितम्बर की सुनवाई में भी मौजूदा प्रधान मंत्री राजा परवेज़ अशरफ की ओर से पेश हुए कानून मंत्री ने जब गुजारिश की कि सुनवाई बंद कमरे में की जाय तो अदालत ने  कानून मंत्री की अर्जी को मंज़ूर तो कर लिया लेकिन उन्हें सख्त हिदायत दी कि ५ अक्टूबर  को जब वे तशरीफ़ लाईं तो टालने की गरज से नहीं अदालत की इच्छा का सम्मान करने के लिए आयें.
उधर अंतर राष्ट्रीय दुनिया का दबाव भी पाकिस्तान पर लगातार बढ़  रहा है . पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बहुत ही खस्ता हालत में है .. उसे अमरीकी और सउदी अरब की मदद की ज़रुरत हर दम ही रहती है . लेकिन अमरीकी मदद  के बंद होने के खतरे हमेशा ही सर पर मंडराते रहते हैं . अमरीका सहित बाकी  दुनिया को लगता है कि पाकिस्तान की हुकूमत फौज और आई एस आई के दबाव में आकर काम करती है और आतंकवाद को बढ़ावा देती है . इस बात में सच्चाई भी हो सकती है  लेकिन पाकिस्तान की सिविलियन हुकूमत की यह औकात नहीं है कि वह फौज  या आई एस आई के काम में दखल दे सके. पाकिस्तान में आतंक के निजाम को नकारने का ज़िम्मा भी  ज़रदारी के काम में शामिल कर दिया गया है . २५ सितम्बर को उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा में भाषण देने का मौक़ा मिला जहां वे पाकिस्तान की समस्याओं का ज़िक्र तक नहीं कर पाए. लगभग पूरे  वक़्त उन्होंने अंतर राष्ट्रीय बिरादरी से  यही अपील की कि उनके देश को आतंकवाद का स्पांसर न माना जाए . उन्होंने कहा कि हकीकत यह है  कि पाकिस्तान आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार है .अब वहां सवाल जवाब तो होता नहीं वरना कोई पत्रकार पूछ सकता था कि आतंकवाद के ज़रिये अपने पड़ोसी देशों , भारत और अफगानिस्तान में अपनी ताक़त बढाने का फैसला करते वक़्त इस बारे में विचार कर लेना चाहिए था .  आसिफ ज़रदारी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के सामने लगभग गिडगिडाते हुए कहा कि उनके देश ने आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए बहुत काम कर लिया है और अब उनकी हिम्मत  नहीं है कि वे एक देश के रूप में और भी कुछ कर सकें . उन्होंने कहा कि उनका देश आतंकवाद से परेशान है और बाकी दुनिया उनके ऊपर ही दबाव  बना रही है कि  आतंकवाद  ख़त्म करो.उन्होंने  अपने भाषण में कहा कि जितना पाकिस्तान ने झेला है उतना दुनिया के किसी देश ने आतंकवाद के मार को नहीं झेला है . उन्होंने  अपील किया कि  उनके देश के उन लोगों की याद को अपमानित न किया जाए इन्होने आतंकवाद के खिलाफ  लड़ते हुए अपनी जिंदगियां तबाह की हैं . उन्होंने अपने आपको भी आतंकवाद का पीड़ित बताया और कहा कि उनकी पत्नी जो  पाकिस्तान की  बहुत बड़ी नेता थीं, आतंकवादियों के कायराना हमले का शिकार हो गयी थीं . उन्होंने कहा कि उनके देश पर लगातार अमरीकी ड्रोन हमले होते रहते हैं इसलिए उन्हें अमरीकी नेतृत्व में भरोसा करने के लिए पाकिस्तानी अवाम को तैयार करने में बहुत परेशानी  का सामना करना पड़ता है . वे पाकिस्तान के बारे में किसी भी सवाल का जवाब नहीं देगें . उन्होंने बुलंद आवाज़ में कहा कि उनके देश के ७ हज़ार सैनिक और ३७ हज़ार लोग आतंकवाद के  शिकार हो चुके हैं . उन्होंने अपने आपको भी बेनजीर भुट्टो का शौहर होने के नाते आतंकवाद का शिकार बताया . . अब कोई इन ज़रदारी साहेब से पूछे के भाई आपके देश से आने वाले आतंक के चलते  पिछले ३० वर्षों में भारत के पंजाब , कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में  जो तबाही हुई है उसको भी जोड़ लीजिये तो तस्वीर बिलकुल अलग नज़र आयेगी.संयुक्त राष्ट्र की अपनी तक़रीर में आसिफ ज़रदारी अपने देश के उन तानाशाहों पर भी खासे नाराज़ नज़र आये जिनके लिए संयुक्त राष्ट्र में पलकें  बिछा दी जाती थीं . उन्हीं तानाशाहों ओर फौजी हुक्मरानों की वजह से उनके देश में आतंक भी बढ़ा है और आर्थिक हालात भी बिगड़े हैं . उन्होंने अन्तर राष्ट्रीय बिरादरी से अपील की कि पाकिस्तान की सिविलियन हुकूमत को इज्ज़त देगें  तो पाकिस्तानी अवाम का भला होगा.. उन्होंने शिकायत की  जिन फौजी तानाशाहों के कारण उनके देश का सब कुछ तबाह  हो गया है आप लोगों ने उन्हें तो सम्मान दिया और एक सिविलियन राष्ट्रपति से तरह तरह के सवाल पूछ रहे  हैं 
घरेलू मोर्चे पर भी  आसिफ अली ज़रदारी परेशान हैं . उनके बेटे बिलावल ज़रदारी भुट्टो के बारे में खबर है कि वे पाकिस्तान की मौजूदा विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार  से प्रेम करते हैं और उनसे शादी करना चाहते हैं . राष्ट्रपति ज़रदारी की परेशानी यह है कि वे अपने बेटे को उसकी उम्र से  ग्यारह साल बड़ी किसी महिला से शादी  नहीं करने देना चाहते ,खासकर अगर वह महिला शादीशुदा हो और दो बच्चियों की माँ हो. इसके अलावा वह महिला पाकिस्तान में बहुत ही प्रभावशाली परिवार की हैं और आसिफ  अली ज़रदारी को  डर है कि कहीं उनके बेटे के इस मुहब्बत भरे फैसले से उसका राजनीतिक भविष्य न चौपट हो जाए. बहर हाल जो भी हो , हालात ऐसे हैं कि आसिफ ज़रदारी को चैन से रहने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं .

Saturday, September 22, 2012

उत्तरप्रदेश में साम्प्रदायिक तनाव फैलाने वालों की नज़र कहीं चुनाव पर तो नहीं



 शेष नारायण सिंह 

ममता बनर्जी ने  यू पी ए की सरकार से समर्थन वापस लेकर लोकसभा चुनाव की तारीख को निश्चित रूप से २०१३ में डाल दिया है .आम तौर पर  जनता जल्दी चुनावों के पक्ष में नहीं रहती. राजनीतिक पार्टियों में भी चुनाव के लिए बहुत उतावलापन नहीं देखा जाता  लेकिन जब से कामनवेल्थ ,२ जी और कोयला घोटाला में कांग्रेस सरकार बुरी तरह से घिरी है ,लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल को सत्ता करीब नज़र आने लगी है . लोकतंत्र में यह सभी पार्टियों का अधिकार है कि वे चुनाव के ज़रिये सत्ता में आने की कोशिश करें.लेकिन इस कोशिश में यह ध्यान रखना चाहिए कि राजनीतिक नियमों का विधिवत पालन हो और लोकतंत्र की संस्थाओं का सम्मान हो .उत्तर प्रदेश के सत्ताधारी दल को भी चुनावों के समय से पहले होने में बहुत लाभ की उम्मीद है . समाजवादी पार्टी ने अभी ६ महीने पहले स्पष्ट  बहुमत हासिल करके सरकार बनायी है . जिसके बाद लोक सभा क्षेत्रों के चुनावी आकलन के बाद साफ़ हो गया है कि लोकसभा की कम से कम ५० सीटों पर उनको बहुमत मिल सकता है . पिछले चुनाव के बाद एक और राजनीतिक घटना हुई है  जिसके बाद समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव की स्वीकार्यता राज्य की अगड़ी जातियों में भी बढ़ी है . सरकारी नौकरियों में आरक्षण के सवाल पर समाजवादी पार्टी के रुख से राज्य की राजनीति के संतुलन में भारी बदलाव के संकेत नज़र आ रहे हैं. मुलायम सिंह यादव राज्य की गैर दलित जातियों के सबसे बड़े शुभचिंतक के रूप में देखे जा रहे हैं . ज़ाहिर है कि अगर जल्दी चुनाव हुआ तो उनको चुनावी फायदा निश्चित रूप से होगा .

इसके साथ साथ ही एक और कोशिश चल रही है . राज्य की एक राजनीतिक पार्टी की कोशिश है कि वह मुलायम सिंह यादव के खिलाफ ऐसा माहौल  बनाए कि वे शुद्ध रूप से मुसलमानों के शुभचिंतक के रूप में  देखे जाएँ और धार्मिक आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण हो जाए . पिछले ६ महीनों में उत्तर प्रदेश में एक अजीब ट्रेंड नज़र आ रहा है .  राज्य में साम्प्रदायिक तनाव की कई घटनाएं हो चुकी हैं . मथुरा, बरेली और अब गाज़ियाबाद जिले की घटनाओं में अजीब तरह की समानता है . इन घटनाओं के साथ साथ ही यह प्रचार भी चलता रहता है कि मायावती के राज में इस तरह की कोई घटना नहीं हुई .  यानी यह साबित करने की कोशिश होती है कि मायावती के कार्यकाल में कानून  व्यवस्था की हालत  बेहतर थी . उसके साथ की एक नया राजनीतिक सोच के अलंबरदार कहने लगते हैं कि मुलायम सिंह की पार्टी की सत्ता आने के बाद मुसलमान बहुत ही मनबढ़ हो जाते हैं और वे  मौक़ा पाते ही तोड़फोड़ शुरू कर देते हैं . बीजेपी के राज्य स्तर के नेता मुस्लिम तुष्टीकरण की बात करना शुरू कर चुके हैं . उनका कहना है कि समाजवादी पार्टी की सत्ता आने के बाद मुसलमानों में अराजकता बढ़ गयी है .यह बातें आंशिक रूप से सच हो सकती हैं .लेकिन पूरी सच्चाई कुछ और है . गाज़ियाबाद  जिले के मसूरी -डासना इलाके में पिछले दिनों हुई साम्प्रदायिक तनाव की घटना के बाद कुछ नौजवानों की जान  गयी जिसको कि बचाया जा सकता था. कहीं से अफवाह फैलाई गयी कि मुसलमानों के पवित्र ग्रन्थ ,कलामे-पाक का अपमान हुआ है . ज़ाहिर है इस तरह की घटना के बाद लोगों में नाराज़गी होगी . जिन लोगों ने गाज़ियाबाद जिले के इस इलाके का दौरा वारदात के बाद किया है  उनको पता है कि इस घटना में कई तरह की  गड़बड़ियां हुई हैं सबसे बड़ी गलती तो  उस इलाके के थानेदार की है जिसने घटना की जानकारी मिलने के कई घंटे बाद कोई कार्रवाई की. इस बीच शरारती तत्व और राजनीतिक लाभ के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को बदनाम करने वाली राजनीतिक पार्टियों के लोग सक्रिय रहे . कुछ लड़कों को ललकार कर निहित स्वार्थ के लोगों ने पुलिस पर हमले करवाए . आत्म रक्षा  के नाम पर पुलिस ने भी जवाबी कार्रवाई की लेकिन सबको मालूम है कि पुलिस ने जवाबी कार्रवाई के नाम पर मुसलमानों को घेरकर मारा और इलाके में आतंक फैलाने की कोशिश की. इस बीच राजनीतिक लाभ लेने वाले भी सक्रिय हो गए. मौजूदा सरकार को सत्ता दिलवाने का दावा करने वाले एक नेता ने तो  यहाँ तक कह दिया कि  समाजवादियों को देना होगा मुसलमानों के खून का हिसाब . इसी शीर्षक से यह खबर उर्दू अख्बारों में भी छपवाई गयी. उधर बीजेपी ने भी मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाते हुए समाजवादी पार्टी को घेरना शुरू कर दिया . लेकिन गाज़ियाबाद और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सम्मानित  रिपोर्टर,अशोक निर्वाण ने जब इलाके का दौरा किया तो बिलकुल अलग तस्वीर सामने आई  . वहां से लौटकर उन्होंने जो रिपोर्ट दी उसके मुताबिक मसूरी -डासना  की वारदात में इस इलाके में चल रहे कमेलों के मालिकों का हाथ है . मेरठ में इस तरह के कमेले  बहुत हैं लेकिन वहां इनका विरोध हो रहा है जिसके बाद अन्य इलाकों भी इस तरह का काम शुरू हो गया है . मसूरी-डासना के आस पास इस तरह के कमेले बहुत बड़े संख्या में बन गए हैं . गैर कानूनी तरीके से बूचडखाना चलाया जाता  है तो उसे यहाँ की स्थानीय भाषा में कमेला कहते हैं . पता चला है कि बहुजन समाज पार्टी के एक पुराने नेता और उनके  रिश्तेदारों  के बहुत सारे कमेले मेरठ में हैं .  

सवाल यह  है कि मसूरी थाने के इलाके में हुई घटना जिसमें पुलिस की गोली लगभग आधा दर्जन लोगों की मौत हो गयी ,उसके पीछे किसका हाथ है . वहां जो सवाल सबकी ज़बान पर है  वह यह कि क्या इसमें अवैध रूप से मीट व मांस का व्यापार करने वाले वधशाला माफिया का हाथ है। इस सवाल का जबाब ढूंढने के लिए प्रशासन तथा खुफिया विभाग के आला अधिकारी लगे हुए हैं। मसूरी में इस समय जानवरों के  मीट व मांस का अवैध कारोबार करने वाले मीट माफिया ने बड़े पैमाने पर कमेले खोले हुए हैं। इस इलाके से रोजाना करोड़ों का डिब्बाबंद मीट सप्लाई होता है. इस इलाके के लोग यहां होने वाले प्रदूषण का विरोध करने के लिए आन्दोलन की राह पर चल चुके हैं . लोगों ने गाज़ियाबाद के कलेक्टर के दफ्तर के सामने  धरना भी दिया था। पता चला है कि जिला प्रशासन ने मीट का अवैध कारोबार करने वालों पर  कार्रवाई करने की योजना बना ली थी जिसकी भनक  मीट माफिया को लग गई थी। प्रशासन का ध्यान अपनी तरफ से हटाने के लिए मीट माफिया ने सुनियोजित तरीके से साज़िश  करके  मसूरी में धर्म के नाम पर दंगे का रूप दे दिया। उधर प्रशासन ने इस मामले में लगभग पांच हजार अज्ञात लोगों के खिलाफ  रिर्पोट दर्ज कराई है। पुलिस ने बड़ी संख्या में  संदिग्ध लोगों को पूछताछ के लिए हिरासत में लिया है।  आरोप यह भी है कि पुलिस लगातार मुसलमानों के घरों पर छापे मार रही है और लोगों को उठा कर अज्ञात स्थान पर ले जा रही है.हिंसा भड़कने के कारणों की व्यापक छानबीन के बाद पता चला है कि वारदात के दिन  दोपहर 12 बजे थाना मसूरी के  थानेदार पी के सिंह को कुछ लोगों ने बताया था कि रेलवे लाइन के पास पवित्र कुरान के कुछ पन्ने पड़े हुए है। इस पर थानेदार ने कुछ ध्यान नहीं दिया और देखते ही देखते इलाके में शाम 7 बजे हिंसा शुरू हो गयी .अगर मसूरी का यह थानेदार सजग हो जाता तो यह हादसा न होता। मसूरी के नागरिकों का कहना है मसूरी में जो भी थानेदार आता है उसे कमेले चलाने वाले रिश्वत देते  हैं. और इसी रिश्वत की लालच में वहां का थानेदार इस तरह के काम में शामिल हो जाता है 

इस इलाके में चल रहे कमेलों के प्रदूषण से बहुत परेशानियां पैदा हो गयी हैं .अवैध वधशाला से निकलने वाले खून को बोरिंग के ज़रिये सीधे जमीन में डाला जा रहा है जिसके चलते पानी बदबूदार तथा लाल हो गया है। यह मामला बहुत दिनों से उठाया जा रहा था लेकिन जिले के अधिकारी कुछ नहीं कर रहे थे . मामला जब मीडिया में आया तो प्रशासन ने कार्रवाई करने के मन बना लिया और कमेला माफिया की उल्टी गिनती शुरू हो गई .सरकारी  कार्रवाई की भनक लगते ही माफिया ने साज़िश के तहत धार्मिक भावनाएं भड़काकर हिंसा करा दी ताकि उसके खिलाफ  कार्रवाई न हो सके तथा प्रशासन अपना ध्यान उसकी तरफ  से हटा ले।  इस इलाके में कभी भी हिंदू - मुस्लिम फसाद नहीं हुआ। मसूरी के गांव देहरा में मंदिर-मस्जिद की दीवारे मिली हुई है।  हिंदू-मुस्लिम मिलकर एक साथ इबादत करते है। मीडिया के कैमरों में जिन असामाजिक तत्वों के चेहरे सामने आए हैं वे बाहरी लोग हैं । जाहिर है कि कुछ लोगों की मंशा इस इलाके की  फिजा को खराब करना था, जिसमें वो एक हद तक कामयाब भी हो गए.

बहर हाल अब यह राज्य सरकार की ड्यूटी है कि वह साम्प्रदायिक आधार पर समाज में बंटवारा करने वालों की शिनाख्त करे और उनके साथ सख्ती से पेश आये. इस तरह के लोग हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी . सरकार को इस तरह  के लोगों को इतनी सज़ा देनी चाहिए कि  भविष्य में किसी की हिम्मत भी न पड़े कि वह साम्प्रदायिक माहौल को खराब करने के बारे में सोचे. इस बात की संभावना भी है कि मौजूदा मुख्यमंत्री की पार्टी के कुछ शुभचिंतक या उनकी पार्टी के सदस्य भी इस घिनौने खेल में शामिल हों . यह हुकूमत का फ़र्ज़ है कि इस तरह के लोगों को कानून की ताक़त से वाकिफ कराये और इलाके में शान्ति का निजाम कायम करे . 

Tuesday, September 18, 2012

दिल्ली के छात्रों ने साम्प्रदायिक ताक़तों को ठुकराया


शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली। 16 सितंबर .दिल्ली के दो केंद्रीय विश्वविद्यालयों के छात्रसंघ चुनावों से जो संकेत आ रहे हैं उन्हें नज़र अंदाज़ कर पाना लगभग असंभव है .दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में  हुए छात्र संघ चुनावों के नतीजों से साफ़ है कि दोनों ही विश्वविद्यालयों के छात्रों ने साम्प्रदायिक ताक़तों को नकार दिया है . दिल्ली में छात्र संघों के चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं होते . पूरे शहर में बाकायदा प्रचार होता है और इन विश्वविद्यालयों में पूरे देश से छात्र आते हैं . 
यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं है कि चुनाव में जीत किसकी हुई है . दिल्ली विश्वविद्यालय में कांग्रेस का छात्र संगठन एन एस यू आई बीजेपी के छात्र संगठन के मुक़ाबिल था  तो छात्रों ने उसे जिता दिया जबकि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में वामपंथी छात्र संगठन मज़बूत था तो उन्हें जिता दिया.गौर तलब यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय तो ए बी वी पी का गढ़ माना जाता है जबकि  जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी एकाधिक बार ए बी वी पी काफी मजबूती के साथ चुनाव लड़ चुकी है .और अध्यक्ष की सीट पर भी क़ब्ज़ा कर चुकी है . 
अक्सर ऐसा होता रहा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनावों  को बीजेपी अपनी पार्टी के बढ़ते क़दम के रूप में पेश करती रही है . आज बातचीत में एक बड़े कांग्रेसी नेता ने बताया कि अगर दिल्ली विश्वविद्यालय यूनियन के चुनाव में बीजेपी समर्थित विश्‍वविद्यालय जीत गए होते तो बीजेपी एक प्रवक्ता गण प्रधान मंत्री सहित पूरी सरकार का इस्तीफ़ा और ज्यादा जोर से मांग रहे होते . लेकिन अब सारे लोग सन्न हैं . चुनाव हारने के  बाद बीजेपी समर्थित छात्रों ने जो हंगामा किया उस पर भी बीजेपी के किसी बड़े नेता की  कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है .दूसरी तरफ छात्रसंघ के चुनाव में अपने छात्र संगठन के उम्मीदवारों की भारी जीत से कांग्रेस के नेता  बहुत उत्साहित हैं .वैसे तो छात्रसंघ चुनावों और उनके नतीजों की राष्ट्रीय राजनीति में खास अहमियत नहीं होती लेकिन भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे-केजरीवाल और बाबा रामदेव के आंदोलनों का केंद्र दिल्ली ही थी. कोयला खंडों के आवंटन पर संसद को जाम करने, डीज़ल की मूल्यवृद्धि और खुदरा क्षेत्र में  विदेशी निवेश के विरोध में भी हमलावर रही  बीजेपी कैम्प में चिंता की  लकीरें  साफ़ नज़र आ रही हैं .. 
भाजपा सर्मथित, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इस चुनाव में भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाया था. लेकिन उसके उम्मीदवार हार गए. कांग्रेस के छात्र नेताओं की इस जीत को कांग्रेस के नेता भावी राजनीति का संकेत बता रहे हैं. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार यह बताता है कि मध्यमवर्ग के लोग और खासतौर से युवा किस दिशा में सोच रहे हैं. दिल्ली विश्‍वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरु विश्‍वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव विशुद्ध रूप से राजनीतिक आधार पर लडे. जाते हैं.
बीजेपी के नेता अरुण जेटली, विजय गोयल,  और विजेंद्र गुप्ता  और कांग्रेस के  कपिल सिब्ब्ल, अजय माकन, अलका लांबा आदि दिल्ली विश्वविद्यालय के एचात्र राजनीति से आये हैं जबकि प्रकाश करात , सीताराम येचुरी, और डी पी त्रिपाठी 
 जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं .ज़ाहिर है  कि यह चुनाव कुछ न कुछ बड़े संकेत तो दे  ई रहा है . दिल्ली में मौजूद के एपार्टियों के नेताओं ने इन चुनावों को देश में साम्प्रदायिक शक्तियों के  खिलाफ बन रहे माहौल का संकेत बताया.

हंगामा कर रहे विपक्ष ने संसदीय समितियां भी नहीं बनाने दीं

शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,१७ सितम्बर . संसद में मानसून सत्र के हंगामे  के कारण लोक सभा और राज्य सभा में  कोई बहस नहीं हो सकी है लेकिन वे काम भी नहीं  हुए जिनपर कोई विवाद नहीं था. पता चला है कि मंत्रालयों से सम्बंधित संसद की कमेटियों का गठन भी नहीं हो सका है .संसद में काम बहुत होता है और ज़ाहिर है कि सारा काम सदनों में बहस के ज़रिये ही नहीं निपटाया जा सकता .संसद के पास इस कार्य को नि‍पटाने के लि‍ए सीमित समय होता है। इसलिए संसद उन सभी विधायी तथा अन्‍य मामलों पर, जो उसके समक्ष आते हैं, गहराई के साथ विचार नहीं कर सकती। अत: संसद का बहुत सा काम सभा की समितियों द्वारा निपटाया जाता है, जिन्‍हें संसदीय समितियां कहते हैं। संसदीय समिति से तात्‍पर्य उस समिति से है, जो सभा द्वारा नियुक्‍त या निर्वाचित की जाती है अथवा अध्‍यक्ष द्वारा नाम-निर्देशित की जाती है और अध्‍यक्ष के निदेशानुसार कार्य करती है तथा अपना प्रतिवेदन सभा को या अध्‍यक्ष को प्रस्‍तुत करती है और समिति का सचिवालय लोक सभा सचिवालय द्वारा उपलब्‍घ कराया जाता है।    अपनी प्रकृति के अनुसार संसदीय समितियां दो प्रकार की होती हैं: स्‍थायी समितियां और तदर्थ समितियां। स्‍थायी समितियां स्‍थायी एवं नियमित समितियां हैं जिनका गठन समय-समय पर संसद के अधिनियम के उपबंधों अथवा लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन नियम के अनुसरण में किया जाता है। 

 मंत्रालयों की सलाहकार समितियों का कार्य काल  २१ अगस्त को पूरा हो गया है . हालांकि पीठासीन अधिकारी ही समितियों  का गठन करती हैं लेकिन सभी पार्टियों को अपने सदस्यों का नाम भेजना ज़रूरी होता है . इस बार कोयले की हलचल में सबंधित  कमेटियों का गठन इसलिए नहीं हो सका क्योंकि राजनीतिक पार्टियों ने नाम ही नहीं भेजा. परम्परा यह है कि मानसून सत्र के दौरान ही नई कमेटियों का गठन हो जाता है  लेकिन अभी तक इन कमेटियों का गठन नहीं हो सका है . कमेटियों का कार्यकाल २१ अगस्त को पूरा हो चुका है . आम तौर पर १ सितम्बर तक कमेटियों का गठन हो जाता है लेकिन इस  बार अभी तक यह काम नहीं हो सका है.