Saturday, June 9, 2012

कन्नौज का उपचुनाव धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक ताक़तों के एकजुट होने का मौक़ा है



शेष नारायण सिंह 

देश में बड़े पैमाने पर राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण हो रहा है. २०१४ के लोक सभा चुनाव के पहले देश के सामने एक नई राजनीतिक बिरादरी तैयार होने वाली है . बीजेपी में एक  बार फिर  संभावित प्रधान मंत्रियों की चर्चा ज़ोरों पर है . पिछली बार लाल कृष्ण आडवाणी  बहुत गंभीरता से प्रधान मंत्री पद के  दावेदार बने थे लेकिन पार्टी को ज़रूरी सीटें ही नहीं मिलीं. इस बार भी आडवाणी ने हिम्मत नहीं हारी है लेकिन बीजेपी में उनके गुट के नेता ही इस बार प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनते नज़र आ रहे हैं . आजकल बीजेपी में वही माहौल है जो  पार्टी की १९८४ की हार के बाद था. उन दिनों हर कीमत पर चुनाव जीतने के लिए पार्टी कमर कसती नज़र आती थी. उसी दौर में बाबरी मस्जिद का मुद्दा पैदा किया गया, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनावी संघर्ष का अगला दस्ता बनाया गया और गाँव गाँव में साम्प्रदायिक दुश्मनी का ज़हर घोलने की कोशिश की गयी. नतीजा यह हुआ कि १९८९ में सीटें बढीं. बाबरी मस्जिद के हवाले से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता  रहा और बीजेपी एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरी . उस दौर में कांग्रेस ने भी अपने धर्मनिरपेक्ष   स्वरूप से बहुत बड़े समझौते किये . नतीजा यह हुआ कि साम्प्रदायिक शक्तियां बहुत आगी बढ़ गयीं.और धर्म निरपेक्ष  राजनीति कमज़ोर पड़ गयी . उन दिनों लाल कृष्ण आडवाणी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बहुत ही महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हुआ करते थे , रथयात्रा के बाद तो उन्होंने देश के कई राज्यों में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित कर दी थी. 
आर एस  एस और बीजेपी के उस विभाजक दौर में उत्तर प्रदेश में उनको पुरानी धर्मनिरपेक्ष  पार्टी ,कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिली लेकिन जब १९८९ के चुनाव के बाद मुलायम सिंह यादव ने सत्ता संभाली तो साम्प्रदायिक ताक़तों को हर मुकाम पर रोकने की राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हो गयी. उसी दौर की राजनीति में गाफिल पाए जाने के कारण ही उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस पूरी तरह से हाशिये  पर  आ गयी . मुलायम सिंह यादव ने अपने आपको एक धर्मनिरपेक्ष विकल्प के रूप में पेश किया और आज तक उसी कमाई के सहारे  राज्य की राजनीति में उनकी पार्टी का दबदबा बना हुआ है . धर्मनिरपेक्ष राजनीति के बारे में मुलायम सिंह यादव की प्रतिबद्धता बहुत ज़्यादा है . १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद उत्तर प्रदेश  में जब मुलायम सिंह यादव ने  देखा कि  आर एस एस की ताक़त रोज़ ही बढ़ रही है तो उन्होंने बीजेपी और  कल्याण सिंह को बेदखल करने के लिए बहुजन समाज पार्टी से हाथ   मिला लिया.  उस दौर में मैंने उनसे बात की थी और कहा था कि कांशीराम और मायावती की टोली का साथ करके उन्होंने अपनी पार्टी को कमज़ोर करने का काम किया है तो उन्होंने  साफ़ कहा कि अगर मैं कांशी राम को साथ न ले लेता तो वह बीजेपी के साथ चले जाते और वह देश के लिए अच्छा न होता . इसलिए कुछ इलाकों में  अपनी ताक़त से उन लोगों को कुछ सीटें देकर मैं साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से बाहर रख सकूंगा . वह काम मुलायम सिंह ने  किया भी. अपने जिले की इटावा सीट से कांशी राम को लोकसभा का सदस्य बनवाया , राज्य में कई जिलों में जहां उनकी पार्टी मज़बूत थी ,वहां से बहुजन समाज  पार्टी को जिताया ,उनकी पार्टी की सबसे  महत्वपूर्ण नेता ,मायावती थीं. उन्हें  फैजाबाद जिले की राजनीति में जमाया लेकिन कांशीराम को बीजेपी की  शरण में जाने से रोक नहीं सके.  बाद में तो मुलायम सिंह यादव कहते रहते थे कि मायावती की राजनीति साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है.

एक बार फिर बीजेपी में वही माहौल बन रहा है कि साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे करके ही सत्ता हासिल करने की कोशिश की  जाए.लाल कृष्ण आडवाणी इस बार भी उम्मीद लगाए हुए हैं लेकिन अब लगता है कि उनके अपने लोग ही उन्हें पीछे कर सकते हैं . साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के  उदाहरण बन चुके , नरेंद्र मोदी भी इस बार प्रधानमंत्री पद के सपने देख रहे हैं . हालांकि गुजरात के बाहर चुनावों को प्रभावित कर सकने की उनकी क्षमता बिलकुल जीरो है लेकिन साम्प्रदायिक राजनीति के वे पोस्टर ब्वाय  हैं . ऐसी हालत में धर्म निरपेक्ष ताक़तों के ध्रुवीकरण  की  ज़रुरत देश के सामने जितना आज है उतनी कभी नहीं रही.

इस पृष्ठभूमि में कन्नौज के उपचुनाव में कांग्रेस की भूमिका महत्त्व हासिल कर लेती है . मुख्य मंत्री अखिलेश यादव की लोकसभा सीट के खाली होने के बाद हो रहे उपचुनाव में कांग्रेस ने कोई उम्मीदवार नहीं उतारा .बहुजन समाज पार्टी अभी विधान सभा चुनावों में हुई हार के बाद सकते में है  और उसने भी निश्चित हार  के डर से कोई उम्मीदवार नहीं  खड़ा किया . बीजेपी ने अपने उम्मीदवार को  टिकट  देकर लखनऊ से दौडाया लेकिन वह ढाई घंटे में कन्नौज पंहुच  नहीं पाया . लिहाजा बीजेपी का उम्मीदवार भी मैदान में नहीं  है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने अभी तीन महीने पहले निर्णायक  जीत हासिल की है. ज़ाहिर है उसकी जीत पक्की थी चाहे जिसका  उम्मीदवार मैदान में होता लेकिन कांग्रेस ने यह घोषणा करके कि वह डिम्पल यादव के खिलाफ उम्मीदवार नहीं  उतारेगी, एक अलग तरह का सन्देश देने की कोशिश की है . जानकार बताते हैं कि राष्ट्रपति पद के  लिए होने वाले चुनावों में कांग्रेस  को समाजवादी पार्टी का सहारा चाहिए ,इसलिए कांग्रेस ने कन्नौज में  समाजवादी पार्टी को वाक् ओवर दिया है  .लेकिन यह सच नहीं है . कन्नौज डॉ राम मनोहर लोहिया की सीट रही है और उस सीट पर जब समाजवादी पार्टी की प्रतिष्ठा  की लड़ाई हो रही होगी तो किसी कांग्रेसी उम्मीदवार की मुलायम सिंह की बहू को  हराने की हैसियत नहीं है . कांग्रेस की इस पहल के विस्तृत राजनीतिक सन्दर्भ  हैं . राष्ट्रपति के चुनाव में तो जो भी होगा ,इस पहल को अगर कांग्रेस आगे बढाने में कामयाब हो गयी तो नरेंद्र मोदी की अगुवाई में देश  में सन १९९२ वाला माहौल बनाने की जो कोशिश शुरू हो गयी है उसे लगाम दी जा सकेगी. 
कन्नौज की  लोक सभा सीट बहुत ही दिलचस्प सीट है . १९६७ में डॉ राम मनोहर लोहिया इसी सीट से उम्मीदवार थे लेकिन वे प्रचार के लिए कन्नौज एकाध  बार ही आये. उनका कहना था कि व्यापक राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने हों तो ज़िम्मेदार राजनीतिक पार्टियों को  चुनावी लालच में नहीं पड़ना चाहिए . १९६७ के चुनाव में वे ज़्यादातर समय फूलपुर संसदीय क्षेत्र में लगा रहे थे क्योंकि वहां उनके प्रिय शिष्य  जनेश्वर मिश्र जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित को चुनौती दे रहे थे . लोक सभा और विधान सभा उस साल एक साथ हुए थे . उसी साल मुलायम सिंह यादव पहली बार  कन्नौज के करीब की ही जसवंत नगर सीट से विधायक  चुने गए थे . डॉ लोहिया ने धर्मनिरपेक्ष  राजनीति का जो महत्व उस वक़्त उनको समझया था वही मुलायम सिंह यादव की राजनीति का स्थायी भाव बना रहा . 
 कन्नौज के मौजूदा उपचुनाव  में कांग्रेस ने जो रुख अपनाया है कि वह आने वाले दिनों में  सेकुलर राजनीति की दिशा में एक ज़रूरी शुरुआत भी हो सकती है . हालांकि यह भी सच है कि कन्नौज में  चुनाव लड़कर भी कांग्रेस के हाथ  हार ही आनी थी लेकिन चुनाव न लड़ कर कांग्रेस ने भविष्य की राजनीति में उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को बड़ा भाई मानने की पहल कर दी है . सबको मालूम है कि नरेंद्र मोदी को आगे करके आर एस एस एक बार फिर देश को साम्प्रदायिकता के तनाव में झोंक देने की फ़िराक़ में है . ऐसी हालत में अगर कांग्रेस के नेता अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को साथ लेने में सफल होते हैं तो देश के भविष्य के लिए यह बहुत ही अच्छा लक्षण होगा. 

Sunday, June 3, 2012

मीडिया की कृपा से राष्ट्रीय नेता बनने वालों से देश को बचाने की ज़रुरत है आडवाणी जी




शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,१ जून . बीजेपी में बड़े नेताओं के बीच हमेशा से ही मौजूद रहा झगडा सामने आ गया है. लाल कृष्ण आडवाणी ने पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष के काम काज के तरीकों पर सवाल उठाया है . कहते हैं कि मीडिया के लोग केंद्र  सरकार  पर हमला कर रहे हैं लेकिन उनका अपना गठबंधन भी 
सही काम नहीं कर रहा है.आडवाणी ने अपने ब्लॉग पर  अपनी  तकलीफों को कलमबंद किया है और ६० साल की अपनी  राजनीतिक यात्रा को याद किया है . उन्होंने लोगों को याद दिलाया है कि वे बीजेपी की पूर्ववर्ती  पार्टी जनसंघ के  संस्थापक सदस्य  हैं .
 उनको याद है कि १९८४ में उनकी पार्टी लोक सभा चुनावों में बुरी तरह से हार गयी थी. २२९ उम्मीदवार खड़े किये गए थे और केवल दो सीटें ही हाथ आई थीं .उत्तर प्रदेश , बिहार , राजस्थान , मध्य  प्रदेश और महाराष्ट्र में पार्टी जीरो पर थी लेकिन  कार्यकर्ता कहीं भी हार  मानने को तैयार नहीं था  ,वह अगली लड़ाई के लिए तैयार था और हमने आगे चल  कर कुशल रणनीति से चुनावी सफलता हासिल की और सरकारें  बनाईं. 
इस के बाद लाल कृष्ण आडवानी ने पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष , नितिन गडकरी के काम की आलोचना शुरू कर दिया . उन्होंने लिखा है कि जिस तरह से उत्तरप्रदेश के एक  भ्रष्ट नेता को साथ लिया गया  उस से पार्टी को बहुत नुकसान हुआ है . झारखण्ड और कर्नाटक में भी पार्टी ने भारी गलती की. यह सारी गलतियाँ नितिन गडकरी ने ही की हैं .तीनों ही मामलों में भ्रष्ट लोगों को साथ लेकर पार्टी ने यू पी ए के भ्रष्टाचार के  खिलाफ खड़े होने का नैतिक अधिकार खो दिया है . इसी लेख में आडवाणी   जी ने अरुण  जेटली और सुषमा स्वराज के काम को एक्सीलेंट बताया  है . ज़ाहिर है कि वे  नितिन गडकरी के काम काज से संतुष्ट नहीं है  और वे उनको दूसरा टर्म देने की बात से खासे नाराज़ हैं .
लाल कृष्ण आडवाणी की नाराज़गी के कारण समझ में आने वाले हैं . लेकिन केवल गडकरी की  आलोचना करके आडवाणी  जी ने अपने आपको एक गुट का नेता सिद्ध कर दिया है .  इस सारे घटनाक्रम से साफ़ नज़र आ रहा है कि वे गडकरी  गुट के खिलाफ अपने लोगों की तारीफ़ कर  रहे हैं . सच्चाई यह है कि उनकी पार्टी जिसमें कभी ज़मीन से जुड़े नेता  राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय होते थे लेकिन अब नहीं हैं . अब बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में है जिनका अपनी ज़मीन पर कोई असर नहीं है . १९७५ में यही काम कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने शुरू किया था  और कांग्रेस जो बहुत बड़ी और मज़बूत पार्टी हुआ करती थी , वह रसातल पंहुंच गयी थी. १९७१ के लोक सभा चुनाव के बाद इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी को अपने बेटे संजय  गांधी के हाथ में थमा दिया था . संजय गांधी भी ज़मीन से जुड़े हुए नेता नहीं थे. उन्होंने दिल्ली में रहने वाले कुछ अपने साथियों के साथ पार्टी को काबू में कर लिया और उसका नतीजा सबने देखा . कांग्रेस १९७७ में कहीं की नहीं रही, इंदिरा गाँधी और संजय गांधी खुद चुनाव हार गए. १९८० में इंदिरा गाँधी की वापसी हुई लेकिन वह जनता पार्टी की हर ज्यादा थी , कांग्रेस को तो नेगेटिव वोट ने सत्ता दिलवा दी थी. उसके बाद केंद्र के किसी भी नेता को बाहैसियत नहीं बनने  दिया गया .  वी पी सिंह ने जब कांग्रेस से बगावत की तो जनता ने उन्हें तख़्त सौंप दिया . लेकिन उनके साथ भी वही लोग जुड़ गए जो राजीव गांधी को  राजनीतिक रूप से तबाह कर  चुके थे. बाद में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का झगड़ा हुआ और बीजेपी को धार्मिक ध्रुवीकरण का  चुनावी लाभ मिला और बीजेपी वाले अपने आप को बड़ा नेता मानने लगे. 
आज देश का दुर्भाग्य है कि दोनों की बड़ी पार्टियों में ऐसे नेताओं का बोलबाला है जो  दिल्ली के लुटेंस बंगलो ज़ोन में ही सक्रिय हैं . कांग्रेस में भी जो लोग पार्टी के भाग्य का फैसला  कर रहे हैं उनमें से सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अलावा किसी की हैसियत नहीं है कि वह लोक सभा का चुनाव जीत जाए. प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक उन्हीं लोगों की भरमार है जो राष्ट्रीय नेता हैं लेकिन राज्य सभा  के सदस्य हैं . यही हाल बीजेपी का है . अपने राज्य से चुनाव जीत कर आने वाला कोई भी नेता राष्ट्रीय नेता नहीं  है .जो लोग खुद ताक़तवर हैं उन्हें दरकिनार कर दिया गया है.  कुछ लोग जो लोक सभा में हैं  भी वे राज्यों के मुख्य मंत्रियों की कृपा से चुनाव जीतकर आये हैं . . दोनों ही पार्टियों में राज्य सभा के सदस्य राष्ट्रीय नेता मीडिया प्रबंधन में बहुत ही प्रवीण हैं और मीडिया के ज़रिये राष्ट्रीय नेता बने हुए हैं . जो लोग ज़मीन से जुड़े हैं .लोक सभा का चुनाव जीतकर आये हैं वे  टाप नेतृव नहीं  हैं . 
अगर अपने ब्लॉग  में आडवाणी जी ने दोनों की पार्टियों के इस मर्ज़  की तरफ संकेत किया होता तो यह माना जाता कि वे देश की राजनीति में कुछ शुचिता लाने की बात कर  रहे हैं . उनकी टिप्पणी से यही लगता है कि वे बीजेपी में अपने गुट के दबदबे के लिए कोशिश कर रहे हैं .मीडिया की कृपा से नेता बने लोगों से जब तक राष्ट्रीय राजनीति को मुक्त नहीं किया जाएगा , आम आदमी राजनीतिक रूप से सक्रिय  नहीं होगा.

संसद की स्थायी समिति ने रेलवे को खान पान व्यवस्था दुरुस्त करने का हुक्म दिया




शेष नारायण सिंह 

नई  दिल्ली ,२८ मई.  जुलाई २०१० में रेलवे बोर्ड ने नई कैटरिंग पालिसी की घोषणा की थी और २००५ की नीति को पलट दिया था . २००५ की नीति में ट्रेनोंमें खान पान की व्यवस्था का सारा ज़िम्मा सरकारी कंपनी आई आर टी सी के हवाले कर दिया था. लेकिन रेल विभाग ने २०१० में दावा किया कि आई आर टी सी ने ट्रेनों में खाने पीने की सही व्यवस्था नहीं की और हालात बहुत बिगड़ गए. नई कैटरिंग पालिसी में रेलवे बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष ने दावा किया था कि अब यह इंतज़ाम रेल विभाग खुद करेगा और सब ठीक हो  जाएगा . लेकिन रेलवे का काम काज देखने के लिए बनायी गयी संसद की स्टैंडिंग कमेटी की ताज़ा रिपोर्ट से पता चलता है कि करीब दो साल पहले बहुत ही ताम झाम के साथ नई नीति की घोषणा करने के बाद भी रेलवे बोर्ड ने अपना काम सही तरीके  से  नहीं किया है और ट्रेनों में खान पान का इंतज़ाम उसी  गैर ज़िम्मेदार आई आर टी सी और उसके ठेकेदारों के  रहमो करम पर चल रहा है.
संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में लिखा हैकि कमेटी को इस बात की बहुत तकलीफ है कि नई कैटरिंग पालिसी जुलाई  २०१० में जारी की गयी थी लेकिन उसको लागू करने का काम बहुत ही ढीला है . बजट सत्र के अंतिम दिन की पूर्व संध्या पर संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखी गयी रिपोर्ट में साफ़ लिखा  है कि रेलवे बोर्ड को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए और अपनी ही घोषित नीति को लागू करने के लिए ईमानदारी से कोशिश करनी चाहिए .कैटरिंग के बारे में जानकारी लेने के लिए जब  कमेटी के सदस्यों ने मई २०११ में अहमदाबाद,बंगलोर,मैसूर और गोवा का दौरा किया तो उन्हें बताया गया कि नई नीति को लागू करने में बहुत दिक्क़तें हैं . आई आर सी टी सी से खान पान की सेवाओं को पूरी तरह से लेने में २२ समस्याएं  हैं . जिसमें स्टाफ की कमी, ठेकेदारों की मुक़दमे बाज़ी की आशंका और रेलवे के मौजूदा स्टाफ में कुशाल खान पान कारीगरों की कमी जैसे मुद्दे शामिल हैं. कमेटी ने   सुझाव दिया कि यह ऐसी समस्याएं नहीं हैं जिनका कोई हल न हो .कमेटी ने यह भी कहा है कि रेलवे को चाहिए आई एस ओ सर्टिफिकेट वाले किचेन की स्थापना ख़ास  रेलवे स्टेशनों के परिसर में ही करे.  जहां भोजन की क्वालिटी पर नज़र रखने वाला स्टाफ भी हो .इसका लाभ यह होगा कि खाना सही वक़्त पर सप्लाई किया जा सके.कमेटी ने सुझाव दिया है कि १६  घंटे से ज्यादा समय तक चलने वाली लम्बी दूरी की सभी ट्रेनों में पैंट्री कार की व्यवस्था की जानी चाहिए .
जुलाई २०१० से नई कैटरिंग पालिसी लागू है लेकिन अभी ज़मीन पर तो कहीं  कुछ नहीं दिख  रहा है . रेलवे के ज़िम्मेदार लोगों को उम्मीद है कि स्थायी समिति की रिपोर्ट के बाद शायद बड़े अधिकारियों को प्रेरणा मिले और ट्रेनोंमें ठेकेदारों और आई आर टी सी वालों की मनमानी का शिकार हो रहे यात्रियों को कुछ राहत मिले .




Tuesday, May 29, 2012

क्या सोनिया गाँधी पूर्वोत्तर क्षेत्र में आतंक का ख़ात्मा चाहती हैं ?




शेष नारायण  सिंह 

 कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने अपने असम के दौरे के दौरान दावा किया है कि केंद्र की यू पी ए और असम की कांग्रेसी सरकार की कोशिश से उस  इलाके में आतंकवाद कमज़ोर पड़ा  है . बातचीत के ज़रिये समस्या को हल करने की नीति की उन्होंने तारीफ़ की और कहा कि यू पी ए और कांग्रेस की इसी नीति के कारण  कई आतंकवादी सगठनों ने आतंकवाद को तिलांजलि देने का फैसला किया है . उन्होंने भरोसा जताया कि आतंकवादी संगठनों के लोगों को विश्वास हो जाएगा कि आतंक का रास्ता सही नहीं है .वे  आगे  आयेगें और  शान्ति की प्रक्रिया में शामिल हो जायेगें.सोनिया गाँधी असम की कांग्रेसी सरकार के एक साल पूरा होने की खुशी में आयोजित एक सभा में भाषण कर रही थीं. दिल्ली में भी कांग्रेसी  मीडिया विभाग अपनी  अध्यक्ष की सफल असम यात्रा की तारीफ़ करते नहीं अघा रहा है . उनके साहस को ख़ास तौर से बताया जा रहा है कि बम विस्फोट के बाद भी उन्होंने अपने कार्यक्रम  में कोई परिवर्तन नहीं किया .
सोनिया गांधी का यह दावा सही नहीं है कि यू पी ए की केंद्र सरकार भी उत्तर पूर्वी भारत में आतंकवाद को ख़त्म करने की कोशिश कर रही है . जब से पूर्वोत्तर भारत में आतंकवादी गतिविधियाँ शुरू हुई हैं , हर मंच पर सरकार और  राजनीतिक पार्टियों ने दावा किया है कि अगर  उस इलाके का सही विकास किया गया होता तो आतंकवादियों को मौक़ा ही न मिलता कि वे उस इलाके के नाराज़ लोगों को साथ ले सकें .  पूर्वोतर भारत  के  विकास के लिए बहुत सारी योजनायें चलायी गयीं लेकिन केंद्र सरकार की गैरजिम्मेदारी का नतीजा है कि कोई भी योजना सही तरीके से लागू नहीं की गयी.  यह भी तर्क बार बार दिया गया है कि  आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए विकास की योजनाओं  को  समयबद्ध तरीके से लागू किया जाना चाहिए .
 सच्चाई यह है कि केंद्र सरकार पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास के लिए गंभीर ही नहीं है. संसद के बजट सत्र में पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास मंत्रालय के काम काज के बारे में संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट आई है जिसमें साफ़ लिखा है कि   क्षेत्र के  विकास के लिए प्रकृति ने बहुत सारी सम्पदा उपलब्ध कराई है लेकिन सरकार उनका सही इस्तेमाल नहीं कर पा रही है .पूर्वोत्तर भारत के इलाकों  पानी से पैदा होने वाली बिजली के सबसे बड़े  स्रोत हैं. उसके  लिए केंद्र सरकार ने बहुत सारी योजनायें भी बनायी हैं लेकिन  केंद्र सरकार के अधिकारी इस इलाके की योजनाओं के  सन्दर्भ में पूरी तरह से लापरवाह हैं. और क्षमता  का सही विकास नहीं किया जा रहा है . जिन योजनाओं को पूरा किया जाना  है ,मार्च २०१२ तक उनकी क्षमता का ९३ प्रतिशत पूरी  तरह से अनछुआ था. यह रिपोर्ट मई में संसद में रखी गयी थी. 
अपने देश में संसद की स्थायी समितियां संसदीय लोकतंत्र की बहुत ही  ताक़तवर संस्थाएं हैं . लेकिन केंद्र सरकार के अफसर गृह मंत्रालय के काम काज के लिए बनी हुई संसद की स्थायी समिति केंद्र सरकार के अफसर गंभीरता से नहीं ले रहे हैं . इसी कमेटी के एक सदस्य ने कहा कि अगर  यू पी ए की अध्यक्ष  पूर्वोत्तर भारत की समस्याओं  को  वास्तव में हल  करने का माहौल  बनाना  चाहती हैं तो उन्हें चाहिए कि अपनी सरकार के मंत्रियों से कहें कि वे केंद्र सरकार के अफसरों को संसदीय समितियों को सम्मान देने का का तरीका सिखाएं . 
कमेटी की  रिपोर्ट में लिखा है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास के लिए २०१२-१३ के लिए अनुदान की मांग को लेकर जब चर्चा हो रही थी केंद्र सरकार के अफसरों ने  सरकार की बात रखने के लिए  उपयुक्त और ज़िम्मेदार अफसर तक नहीं भेजा. ११  अप्रैल  २०१२ की  बैठक को रद्द करना पड़ा क्योंकि कुछ मंत्रालयों और विभागों ने अपने अफसर ही नहीं भेजे जबकि कुछ अन्य विभागों ने बहुत ही जूनियर अफसरों को भेज दिया जो सही जवाब नहीं दे सके.बैठक  में जो अफसर हाज़िर भी हुए वे बिना किसी तैयारी  के आये थे . कमेटी ने इस बात का बहुत बुरा माना और जब रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखी गयी तो इस बात को रिपोर्ट की प्रस्तावना में ही लिख दिया .कमेटी के अध्यक्ष ने कैबिनेट सेक्रेटरी को  चिट्ठी लख कर उनसे कहा कि केंद्र सरकार के इस गैरजिम्मेदार रवैये को ठीक करने के लिए उपाय करें.कमेटी  ने चेतावनी  दी है कि इस तरह की स्थिति दुबारा नहीं पैदा होनी चाहिए .
इस कमेटी के अध्यक्ष  राज्य सभा के सदस्य वेंकैया नायडू हैं जबकि इसके सदस्यों में लाल  कृष्ण आडवानी,बाबू लाल मरांडी,नीरज शेखर ,जनार्दन रेड्डी ,डी राजा और तारिक अनवर  आदि महत्वपूर्ण नेता शामिल हैं . ज़ाहिर है कि पूर्वोत्तर के विकास को अपनी प्राथमिकता बताने वाली यू पी ए को केंद्र सरकार के अफसरों पर भी ध्यान देना चाहिए .

Friday, May 25, 2012

वार्ताकारों का फरमान,"३७० की बहाली के बिना कश्मीर समस्या का हल नामुमकिन है "



 
शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,२४ मई . केंद्र सरकार ने जम्‍मू-कश्‍मीर में सभी वर्गों के लोगों के साथ बातचीत के लिये 13 अक्तूबर 2010 के को  वार्ताकारों का समूह नियुक्‍त किया था । इस समूह में राधा कुमार ,एम एम अंसारी और दिलीप पाडगांवकर को सदस्य बनाया  गया था.इस समूह ने राज्‍य तथा राष्‍ट्रीय स्‍तर पर जम्‍मू-कश्मीर की सरकार, राजनीतिक दलों तथा संबंधित नागरिक वर्ग के साथ व्‍यापक विचार विमर्श किया । उनकी रिपोर्ट 12 अक्तूबर 2011 को सौंप दी गयी थी. सरकार ने अभी रिपोर्ट पर कोई निर्णय नहीं लिया है. आज यह रिपोर्ट जारी कर दी गयी . गृह मंत्रालय ने दावा किया है कि अब इस रिपोर्ट पर पूरे देश में बहस होगी और उसके बाद ही कोई फैसला लिया जाएगा. हालांकि यह अजीब बात है पिछले कई महीनों से यह रिपोर्ट सरकार के पास थी लेकिन इसे संसद के सत्र के दौरान  जारी नहीं किया गया . अगर सरकार ने ऐसा किया होता तो इसपर बेहतर 
बहस  हो सकती थी.

वार्ताकारों के समूह  ने बहुत दिलचस्प सच्चाई को उजागर किया है . उनका कहना है कि कश्मीर में समस्या के हल के लिए एक संवैधानिक कमेटी का गतःन किया जाना चाहिए जिसमें कश्मीर के हवाले से केंद्र राज्य संबंधों पर फिर से नज़र डाला जाना चाहिए .. इस समूह का दावा है कि कुछ ऐसे बिंदु हैं जिनपर पूरी तरह से आम सहमति है . मसलन  जम्मू-कश्मीर का र्राज्नीतिक हल निकाला जाना चाहिए और उसके लिए केवल बात चीत का रास्ता ही अपनाया जाना चाहिए . समूह ने कहा है कि जो लोग मुख्य धारा में नहीं हैं उनसे भी बात चीत की जानी चाहिये . इस बात पर भी सहमति है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिना अंग है और उसको उसी तरह से बने रहना चाहिए लेकिन इस बात पर राज्य में चिंता जताई गयी कि संविधान के अनुच्छेद ३७० को धीरे धीरे ख़त्म कर दिया गया है और उसको अपनी सूरत में बहाल किया जाना चाहिए . इस समूह ने साफ़ कहा है कि जो लोग राज्य में व्याप्त हिंसा के कारण अपना घर बार छोड़ने के लिए मजबूर हो गए तह उनको हर हाल में अपने घरों के एसुरक्षा में  वापस भेजा जाना चाहिए और उनकी शिरकत के बिना कोई भी  हल टिकाऊ नहीं होगा.राज्य के आर्थिक विकास के लिए केंद्र सरकार को विशेष पैकेज देना चाहिए .नियन्त्र रेखा और उ सपार के लिए सामान और लोगों के एआअजाहे एको भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए .
समूह ने अपने सुझावों में कहा  है कि लोग पिछले २० साल से जारी आतंक से ऊब चुके हैं इसलिए प्रशासन और कानून के राज  की लालसा सब के मन में है. हालांकि आम तौर पर लोग मानते हैं कि सरकारें अपना काम ठीक से करने में नाकाम रही हैं. 

सरकारें गैर ज़िम्मेदारी से काम कर रही हैं . भरोसा स्थापित करने के तरीकों ( सी बी एम ) को  खूब लागू किया जा रहा है लेकिन समस्या के टिकाऊ हल के लिए कोई भी कोशिश नहीं की जा रही है.इसके लिए राजनीतिक स्तर पर बात चीत की ज़रुरत है और उसे फ़ौरन शुरू किया जाना चाहिए 

Saturday, May 19, 2012

भोपाल के दर्द को १९८९ में बेच लिया था दिल्ली दरबार के कारिंदों ने




शेष नारायण सिंह 

भारत के इतिहास  में अस्सी के दशक को एक ऐसे कालखंड के रूप में याद किया जाएगा जिसमें आजादी की लड़ाई के मुख्य मूल्यों और मान्यताओं को  तिलांजलि देने का काम शुरू हो गया था. धर्मनिरपेक्ष राजनीति और सामाजिक बराबरी का लक्ष्य हासिल करना  स्वतंत्रता संगाम का स्थायी भाव था .१९२० से १९४७ तक चली आज़ादी की लड़ाई में हर मोड़ पर इस बुनियादी समझदारी को देखा  सकता था. इस दौर में देश के आम आदमी को विदेशी सत्ता के खिलाफ उठ खड़े होने की प्रेरणा महात्मा गाँधी ने दी थी. भारत का आम आदमी महात्मा गांधी के साथ था .इस आन्दोलन की राजनीति के वाहक के रूप में कांग्रेस पार्टी ने इस देश की जनता को नेतृत्व दिया था. आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी तो चले गए थे लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने पूंजी के सामाजिक  नियंत्रण और सोशलिस्टिक पैटर्न आफ सोसाइटी की राजनीति के ज़रिये धर्म निरपेक्षता और सामाजिक समरसता के सिद्धांत को जारी रखने का काम किया था. 
आज़ादी के बाद इस देश में ऐसी बहुत सारी राजनीतिक जमातें खडी हो गयी थीं जिनके नेता आजादी की लड़ाई के दौर में अंग्रेजों के साथ थे.  जवाहर लाल नेहरू के जाने के बाद कुछ चापलूस टाइप कांग्रेसियों ने उनकी बेटी को प्रधानमंत्री बनवा दिया और उसी के बाद देश की  राजनीति में सांप्रदायिक ताक़तों को इज्ज़त मिलनी शुरू हो गयी . १९७५ में जब इंदिरा गांधी ने अपने छोटे  बेटे को सरकार और कांग्रेस की सत्ता सौंपने की कोशिश शुरू की तब तक अपने देश की  राजनीति में राजनीतिक शुचिता को अलविदा कह दिया गया था . इंदिरा गाँधी ने साफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने का  फैसला किया . उनके इस प्रोजेक्ट  का ही नतीजा था कि पंजाब में सिखों को अलग थलग करने की कोशिश  हुई.  उसी दौर में राजनीति में कमीशनखोरी को डंके की चोट पर प्रवेश दे दिया गया . इंदिरा जी के परिवार के ही एक  सदस्य को रायबरेली की उस सीट से सांसद  चुना गया जिसे उन्होंने खुद खाली किया था . इन महानुभाव ने पहले उनके बड़े छोटे  और उसकी अकाल मृत्यु के बाद इंदिरा जी के बड़े  बेटे के ज़रिये  राजनीतिक फैसलों को व्यापार से  जोड़  दिया. हर राजनीतिक फैसले से कमीशन को जोड़ दिया गया. इसी दौर में कुछ निहायत ही गैरराजनीतिक टाइप लोग दिल्ली दरबार के फैसले  लेने लगे.,इसी दौर में ६५ करोड़ की दलाली वाला बोफर्स हुआ  जो कि बाद के सत्ताधीशों के लिए घूसखोरी का व्याकरण बना . इसी दौर में अपने ही देश में दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक  हादसा हुआ .अमरीकी कंपनी यूनियन  कार्बाइड की भोपाल यूनिट में ज़हरीली गैस लीक हुई जिसके कारण भोपाल शहर में हज़ारों  लोग मारे गए और लाखों लोग उसके शिकार हुए . भोपाल गैस काण्ड के बाद अपने  देश में अमरीका की तर्ज़ पर एन जी ओ वालों ने काम करना शुरू  किया  और उन्हीं एन जी ओ वालों के  कारण भोपाल  के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल  सका.
भोपाल के पीड़ितों  की मदद करने  के नाम पर लोगों ने अपने कैरियर बनाए , भोपाल की पीड़ितों  के संघर्ष में भाग लेने के लिए विदेशों से सीधे या परोक्ष रूप से धन की वसूली की,,भोपाल के गैस पीड़ितों की बीमारियों तकलीफों ,उनके अनुभवों , उनकी उम्मीदों ,उनकी निराशाओं  तक को अंतरराष्ट्रीय मंचों और सेमिनारों में बाकायदा  ठेला लगाकर बेचा गया .सरकारी अफसरों ,राजनेताओं ,वकीलों , एन जी ओ  वाले लोगों यहाँ तक  कि अदालतों ने भी भोपाल के लोगों की  मुसीबतों की कीमत पर मालपुआ  उड़ाया . १९८९ में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में ४७ करोड़ डालर वाला सेटिलमेंट आया था. कुछ बहुत ही ईमानदार लोगों ने उस फैसले को चुनौती दी थी. लेकिन उनको पता भी नहीं चला और दिल्ली में आपरेट करने वाले कुछ अंतरराष्ट्रीय धंधेबाजों  ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ चल रहे संघर्ष को को-आप्ट कर लिया.  १९८९ में आये इस फैसले और उसके खिलाफ दिल्ली में चल रहे  संघर्ष में शामिल कुछ ईमानदार और कुछ बेईमान लोगों के काम के इर्द गिर्द लिखी गयी एक किताब बाज़ार में आई है . नामी पत्रकार अंजली देशपांडे ने बहुत ही कुशलता से  उस दौर में दिल्ली में सक्रिय कुछ युवतियों की ज़िंदगी के हवाले से उस वक़्त के राजनीतिक  के सन्दर्भ का इस्तेमाल करते हुए एक कहानी बयान की है . मूल रूप से भोपाल की त्रासदी के  बारे में लिखी गयी यह किताब उपन्यास है लेकिन इसे मैं उपन्यास नहीं कहूँगा . जिन लोगों ने उस दौर में भोपाल और उसके नागरिकों के दर्द को दिल्ली के सेमिनार सर्किट में देखा सुना है उनको इस किताब में लिखी गयी बातें एक रिपोर्ताज जैसी लगेगीं.  इस किताब के कुछ जुमले ऐसे हैं जो उन लोगों को सार्वकालीन सच्चाई लगेगें जिन्होंने दिल्ली  के दरबारों में भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द का सौदा होते देखा  है.इस किताब की ख़ास बात यह है कि हमारे समय की तेज़ तर्रार पत्रकार अंजली देशपांडे ने सच्चाई को बयान करने के लिए कई पात्रों को निमित्त बनाया है . हालांकि किताब का कथानक भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द को पायेदार चुनौती देने की कोशिश के बारे में है लेकिन साथ साथ  सरकार , न्यायपालिका , राजनेता, मौक़ापरस्त बुद्दिजीवियों और व्यापारियों को आइना दिखा रही औरतों की अपनी ज़िंदगी की दुविधाओं के ज़रिये मेरे जैसे कन्फ्यूज़ लोगों को औरत  की इज्ज़त करने की तमीज  सिखाने का प्रोजेक्ट भी इस किताब में मूल कथानक के समानांतर चलता  रहता है . नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों के पुरुष वर्चस्ववादी समाज में मौजूद उन लोगों को भी औकातबोध कराने का काम भी इस किताब में  बखूबी किया गया है जो औरत की शक्ति को कमतर करके देखते हैं . दिल्ली की भोगवादी संस्कृति में सत्तासीन अफसर की कामवासना का शिकार हो रही औरत भी अपनी पहचान के प्रति सजग रह सकती है और अपने फैसले खुद ले सकती है , यह बात अंजली ने बहुत ही साधारण तरीके से समझा दी है . अक्सर देखा गया है कि औरत के अधिकार की बात करते हुए  वैज्ञानिक समझ वाला पुरुष भी  गार्जियन बनने की कोशिश करने लगता है . इस किताब की औरतों को देख कर लगता है कि उन लोगों की सोच पर भी लगाम लगाने का काम अंजली देशपांडे ने बखूबी किया है .

भोपाल के बाद और पी वी नरसिंह राव के पहले भारतीय राजनीति पूंजीवादी  दर्शन की शरण में जाने के लिए जिस तरह की कशमकश  से गुज़र रही थी उसकी भी दस्तक , इम्पीचमेंट नाम की इस अंग्रेज़ी किताब में सुनी जा सकती है . आज एन जी ओ वाले इतने ताक़तवर हो गए हैं कि वे संसद को  भी चुनौती देने लगे हैं .लेकिन अस्सी के दशक  में वे ऐलानियाँ बाज़ार में आने में डरते थे और परदे के पीछे से काम करते थे .इस कथानक में जो आदमी शुरू से ही भोपाल के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए सक्रिय है वह दिल्ली में पाए जाने वाले दलाली संस्कृति का  ख़ास नमूना है . वह कुछ ईमानदार  लोगों को इकठ्ठा करता है , उनको बुनियादी समर्थन देता है लेकिन आखिर में पता लगता है कि बाकी लोग तो न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन वह न्याय की लड़ाई लड़ाने के धंधा कर रहा  था. आज तो ऐलानियाँ फोर्ड फाउंडेशन  से भारी रक़म लेकर एन जी ओ  वाले  संसद  को चुनौती देने के लिए चारों तरफ ताल ठोंकते नज़र आ जायेगें लेकिन  उन दिनों अमरीकी संस्थाओं से पैसा लेना और उसको स्वीकार करना बिलकुल असंभव था . खासकर अगर उस पैसे का इस्तेमाल  भोपाल जैसी त्रासदी के खिलाफ न्याय लेने के लिए किया जा रहा हो. लेकिन पैसा लिया गया और पवित्र अन्तः करण से लड़ाई लड़ रही औरतों को आखिर में साफ़ लग गया कि आन्दोलन वासत्व में शुरू से  ही सरकारी एजेंटों के हाथ में था और  ईमानदारी से न्याय की लड़ाई लड़ रही लडकियां केवल उसी पूंजीवादी लक्ष्य को हासिल करने के लिए औज़ार  बनायी गयी थीं . उनके कारण ही सुप्रीम  कोर्ट और सरकार की मिलीभगत को दी जा रही चुनौती को विश्वसनीय बनाया जा सका. भोपाल के हादसे से भी बड़ा हादसा दिल्ली के दरबारों में हुआ था जब सत्ता में शामिल सभी लोग मिल कर यूनियन कार्बाइड के कारिंदे बन गए थे . पूरी किताब पढ़ जाने के बाद यह बात बहुत ही साफ़  तरीके से सामने आ जाती है .

स्थापित सत्ता किस तरह  ईमानदार लोगों का शोषण  करती  है उसको भी समझा जा सकता है .दिल्ली में कुछ लोग ऐसे हैं जो हर सेमिनार में मिल जाते हैं . वे अपने आप को  सम्मानित व्यक्ति कहलवाते हैं . हर तरह के अन्याय के खिलाफ बयान देते है और  बाद में अन्यायी से मिल जाते हैं . १९८९ में सुप्रीम कोर्ट  की निगरानी में हुए सेटिलमेंट के बाद यह लोग भी सक्रिय हो गए थे और उनके खोखलेपन को भी समझने का मौक़ा यह किताब देती है .किसी भी न्याय की लड़ाई में किस तरह से अवसरवादियों की यह प्रजाति घुस लेती है ,उसका भी अंदाज़ १९८९ की इन  घटनाओं से साफ़ लग जाता है . सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निराश दिल्ली में सक्रिय न्याय की योद्धा औरतों ने जब उन जजों के इम्पीचमेंट यानी महाभियोग की बात की .तो उसको खारिज  करवाने के लिए स्थापित  सत्ता ने जो  तर्क दिए वह भी पूंजीवादी संस्कृति में मौजूद दलाली के जीनोम को रेखांकित कर देती है  उन तर्कों को काट  पाना आसान नहीं है .किताब के एक चरित्र हैं कानून के शिक्षक ,प्रोफ़ेसर थापर . वे सवाल पूछते हैं कि  किस पर महाभियोग चलेगा उन नेताओं और अफसरों पर जिनको कार्बाइड ने भारी रक़म दी ? क्या आपको मालूम है कितने नेताओं की पत्नियां न्यू यार्क में खरीदारी करने गयी थीं और उनका सारा भुगतान कार्बाइड ने किया था ? क्या आप उन सभी अफसरों पर महाभियोग चलायेगें  जो भोपाल की कार्बाइड फैक्टरी में जांच करने गए थे और लौट कर बताया कि सब कुछ ठीक है  या उन डाक्टरों पर जिन्होंने सिद्धांत बघारा कि भोपाल में गैस से कोई  नहीं मरा था , बल्कि मरने वाले वे लोग हैं जो बीमार थे या वैसे भी मरने वाले थे.  या उन अर्थशास्त्रियों पर  अभियोग चलायेगें   जो  कहते हैं कि कार्बाइड जैसे उद्योगों की हमें बहुत ज़रुरत है क्योंकि उसी से तरक्की होती है . 
भोपाल के   हादसे के बाद उस सहारा पर मौत की छाया पड़ गयी  थी लेकिन जिस तरह से दिल्ली के गिद्धों ने  उस हादसे को अपनी आमदनी का साधन बनाया वह  अंजली देशपांडे की किताब में बहुत ही शानदार तरीके से सामने आया  है .

Tuesday, May 15, 2012

आतंकवादियों को निष्क्रिय करने के लिए सुरक्षा व्यवस्था को मज़बूत करना ज़रूरी



शेष  नारायण सिंह 

राष्ट्रीय आतंकरोधी केंद्र  यानी एन सी टी सी की स्थापना की कोशिश ठंडे बस्ते के हवाले हो गयी  है. इस तरह कारगिल पर पाकिस्तानी घुसपैठ के बाद शुरू हुई केंद्र सरकार की वह कोशिश भी अनिश्चय को समर्पित हो गयी है जिसमें दावा किया गया था कि अब आतंकवाद को रोकने के लिए प्रभावी कार्रवाई की जायेगी और इंटेलिजेंस की व्यवस्था इतनी मज़बूत कर दी जायेगी कि आतंकी वारदात के पहले ही उसकी जानकारी मिल जाया करेगी .इसी योजना के हिसाब से गृह मंत्रालय ने  हमले के बाद अमरीकी होमलैंड सेक्योरिटी  विभाग की तरह का आतंकवाद विरोधी संगठन बनाने  की योजना बनायी थी .इस साल की शुरुआत में  केंद्र सरकार ने गृह मंत्रालय के उस प्रस्ताव  को मंजूरी दे दी थी  जिसके  तहत  नैशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर ( एन सी टी सी ) की स्थापना होनी थी. मूल योजना के अनुसार यह संगठन १ मार्च २०१२ से अपना काम करना शुरू कर देता . इस के लिए जारी किये गए सरकारी नोटिफिकेशन में बताया गया था एन सी टी सी एक  बहुत ही शक्तिशाली पुलिस संगठन के रूप में काम करेगा .ऐसे प्रावधान किये गए थे आतंकवाद के मामलों की जांच एन सी टी सी के अफसर किसी भी राज्य  में कर सकेगें.इन अफसरों को संदिग्ध आतंकवादियों को गिरफ्तार करने के अधिकार दिए गए थे. यह  तलाशी भी ले सकेगें और इंटेलिजेंस इकठ्ठा करने के अधिकार भी इस संगठन के पास होगा.  एन सी टी सी  के पास  नैशनल सेक्योरिटी गार्ड को भी तलब करने का अधिकार है.
कारगिल में हुए संघर्ष में इंटेलिजेंस की नाकामी  के बाद केंद्र सरकार ने एक  ग्रुप आफ मिनिस्टर्स का गठन किया था जिसने  तय किया कि एक ऐसे संगठन की स्थापना की जानी चाहिए जो आतंरिक और वाह्य सुरक्षा के मामलों की पूरी तरह से ज़िम्मेदारी ले सके.मंत्रियों के ग्रुप ने कहा था कि एक स्थायी संयुक्त टास्क फ़ोर्स बनायी जानी चाहिए जिसके पास एक ऐसा संगठन भी हो जो अंतरराज्यीय  इंटेलिजेंस इकट्ठा  करने का काम भी करे. इसका काम  राज्यों से स्वतंत्र रखने का प्रस्ताव था .इस सन्दर्भ में ६ दिसंबर २००१ को एक आदेश जारी  कर दिया गया था .मुंबई  में २६ नवम्बर २००८ में हुए आतंकवादी हमलों के बाद इस संगठन की ज़रुरत  बहुत ही शिद्दत से महसूस  की गयी और ३१ दिसम्बर २००८ के दिन केंद्र सरकार ने एक पत्र जारी करके इस मल्टी एजेंसी सेंटर  के काम के बारे में विधिवत  आदेश जारी कर दिया था.इस तरह का एक सेंटर बनाने के बारे में प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी सुझाव दिया था.

देश की आतंरिक सुरक्षा को चाक चौबंद करने के लिए इस तरह के संगठन की ज़रुरत  चारों तरफ से महसूस की जा रही थी.अटल बिहारी वाजपेयी  और डॉ मनमोहन सिंह की सरकारें  इस के बारे में  विचार करती रही थीं .लगता है कि केंद्र सरकार से गलती वहीं हो गयी जब एन सी टी सी को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन रख दिया गया . इसका मुखिया इंटेलिजेंस  ब्यूरो के अतिरिक्त निदेशक रैंक  का एक अधिकारी बनाना तय किया गया था. 
एन सी टी सी के गठन का नोटिफिकेशन ३ फरवरी को जारी किया गया था . उसके बाद से ही विरोध शुरू हो गया. सरकार को इस पर पुनर्विचार के लिए ५ मई को मुख्य मंत्रियों की एक बैठक बुलानी पड़ी. बैठक  के बाद जो बात सबसे ज्यादा बार चर्चा में आई वह एन सी टी सी  को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन रखने को लेकर थी. लगता है कि एन सी टी सी को केंद्र सरकार को इंटेलिजेंस ब्यूरो से अलग करना ही पडेगा .एकाध को छोड़कर सभी मुख्य मंत्रियों ने इस बात पर सहमति जताई  कि आतंकवाद से लड़ना बहुत ज़रूरी है और मौजूदा तैयारी के आगे जाकर उस के बारे में कुछ किया जाना चाहिए .पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री, ममता बनर्जी , तमिल नाडू की मुख्य मानती जयललिता और गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी ने एन सी टी सी के गठन का ही  विरोध किया केंद्र सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि आतंकवाद को रोकने के लिए सामान्य पुलिस की ज़रूरत नहीं होती . उसके लिए बहुत की  कुशल संगठन की ज़रुरत होती है और एन सी टी सी वही संगठन है 
मुख्यमंत्रियों के दबाव के बाद केंद्र सरकार को एन से टी सी के स्वरूप में कुछ परिवर्तन करने पड़ेगें .उसकी  कंट्रोल की व्यवस्था में तो कुछ ढील देने  को तैयार है .गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि आतंकवाद कोई सीमा नहीं मानता इसलिए  उसको किसी एक राज्य की सीमा में बांधने का  कोई मतलब नहीं है .आतंकवाद अब कई रास्तों से आता है . समुद्र , आसमान, ज़मीन और आर्थिक आतंकवाद के बारे में तो सबको मालूम है लेकिन अब साइबर स्पेस में भी आतंकवाद है . उसको रोकना  किसी भी देश की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए . . इसलिए  अब तो हर तरह की  टेक्नालोजी का इस्तेमाल करके हमें अपने सरकारी  दस्तावेजों, और बैंकिंग क्षेत्र की सुरक्षा का  बंदोबस्त करना चाहिये . उन्होंने कहा कि हमारे देश की समुद्री  सीमा साढ़े सात हज़ार  किलोमीटर है जबकि १५ हज़ार  किलोमीटर से भी ज्यादा अन्तर राष्ट्रीय बार्डर  है . आतंक का मुख्य श्रोत वही है .. उसको कंट्रोल करने में केंद्र सरकार की ही सबसे कारगर भूमिका हो सकती है उन्होंने कहा कि  इस बात की चिंता करने के ज़रुरत नहीं  कि केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार छीन लेगी. बल्कि ज्यों ज्यों राज्यों के  आतंक से लड़ने का तंत्र मज़बूत होता  जायेगा . केंद्र सरकार अपने आपको  धीरे धीरे उस से अलग कर लेगी.


ज़ाहिर है कि मौजूदा पुलिस व्यवस्था से   आतंक को कंट्रोल करना नामुमकिन होगा , अब तक ज़्यादातर मामलों में  वारदात के बाद ही कार्रवाई होती रही है . लेकिन यह सच्चाई कि अगर अपनी  पुलिस को वारदात के  पहले इंटेलिजेंस की सही  जानकारी मिल जाए , पुलिस की सही  लीडरशिप  हो और राजनीतिक  सपोर्ट  हो तो आतंकवाद पर हर हाल में काबू पाया जा सकता है. सीधी पुलिस कार्रवाई में कई बार एक्शन में सफलता के बाद पुलिस को पापड़ बेलने पड़ते हैं  और मानवाधिकार आयोग वगैरह  के चक्कर लगाने पड़ते हैं . पंजाब में आतंकवाद के खात्मे में सीधी  पुलिस कार्रवाई का बड़ा योगदान है. लेकिन अब सुनने में आ रहा है कि राजनीतिक कारणों से उस दौर के आतंकवादी लोग  हीरो के  रूप में  समानित किये जा रहे हैं जबकि पुलिस वाले मानवाधिकार के चक्कर काट रहे हैं . इसी तरह की एक  घटना उत्तर प्रदेश की भी है. बिहार में पाँव जमा लेने के बाद  माओवादियों और अन्य नक्सलवादी  संगठनों ने उत्तर प्रदेश को निशाना बनाया तो  मिर्ज़ापुर से काम शुरू किया .. लेकिन वहां उन दिनों एक  ऐसा पुलिस अफसर था जिसने अपने मातहतों को प्रेरित किया और नक्सलवाद को शुरू होने से पहले ही दफ़न करने की योजना बनायी . बताते हैं कि राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री राज नाथ सिंह से जब आतंकवाद की दस्तक के बारे में बताया गया तो उन्होंने वाराणसी के आई जी से कहा कि आप संविधान के अनुसार अपना काम कीजिये , मैं आपको पूरी राजनीतिक बैकिंग दूंगा. नक्सल्वादियों के किसी ठिकाने का जब पुलिस को पता लगा तो उसने  इलाके के लोगों को भरोसे  में लेकर खुले आम हमला बोल दिया . दिन भर इनकाउंटर  चला ,कुछ लोग मारे गए  .इलाके के लोग सब कुछ देखते रहे लेकिन आतंकवादियों को सरकार की मंशा का पता चल गया और उतर प्रदेश में नक्सली आतंकवाद  की शुरुआत ही नहीं हो पायी.  हाँ यह भी सच है कि बाद में मिर्जापुर के मडिहान में हुई इस वारदात की हर तरह से जांच कराई गयी. आठ साल तक चली जांच के बाद एक्शन में  शामिल पुलिस वालों को  जाँच से निजात मिली लेकिन यह भी तय है कि सही  राजनीतिक और पुलिस  लीडरशिप के कारण दिग्भ्रमित नक्सली आतंकवादी  काबू में किये जा सके. 

लेकिनं इस तरह की मिसालें बहुत कम  हैं. कारगिल की  घुसपैठ और संसद पर आतंकवादी हमले के बाद यह तय है कि सामान्य पुलिस की व्यवस्था के  रास्ते आतंकवाद काक मुकाबला नहीं किया जा सकता . अगर राज्यों के मुख्य मंत्रियों को आई बी की दखलंदाजी नहीं मंज़ूर है तो सरकार को कोई और तरीका निकालना ही पडेगा लेकिन यह ज़रूरी है कि एक विशेषज्ञ पुलिस फ़ोर्स के बिना आधुनिकतम  टेक्नालोजी और हथियारों से लैस  आतंकवादियों को निष्क्रिय नहीं किया जा सकता .

Sunday, May 13, 2012

तानाशाही राजनीति वालों को डॉ अंबेडकर और नेहरू के लिबरल राजनीतिक विचारों को रौंदने नहीं दिया जाएगा



शेष नारायण सिंह 
२८ अगस्त १९४९ को शंकर्स वीकली में छपे एक  कार्टून को लेकर डॉ अंबेडकर के नाम पर वोट की भीख मांगने वालों ने हल्ला मचाया और  डॉ  अंबेडकर की राजनीति और दर्शन शास्त्र के जानकारों ने  चुप्पी साध ली. उस कार्टून का सन्दर्भ नहीं जाना और नेताओं की हाँ में हाँ मिलाते नज़र  आये. यह इस देश का दुर्भाग्य है . मैं यह मानने को बिलकुल तैयार नहीं हूँ कि इस देश में डॉ अंबेडकर की राजनीति को समझने वालों की कमी है . हालांकि मैं यह भी अब मुकम्मल तौर पर मानने लगा हूँ कि  डॉ अंबेडकर के नाम पर वोट की भीख माँगने वालों को उनके राजनीतिक दर्शन के बारे में बिलकुल  सही  जानकारी नहीं है .  जिस कार्टून के हवाले से संसद में हंगामा हुआ वह हमारे नेताओं की  बौद्धिक क्षमता का एक अहम नमूना है. सबको मालूम है कि संसद में हमेशा ऐसे लोगों का बहुमत होता है जो इस देश के इतिहास और राजनीति को अच्छी तरह से समझते हैं . हाँ इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संसद में कुछ ऐसे लोग भी  पंहुच गए हैं जिनको भारत के  समकालीन इतिहास की कोई जानकारी नहीं है .  यहाँ यह जान लेना बहुत ज़रूरी है कि डॉ अंबेडकर उदारवादी राजनीतिक दार्शनिक थे. अपनी आलोचना करने वालों को हमेशा ही अपने  मिशन को पूरा करने वालों में शामिल मानते थे . अपने विरोधियों के प्रति कभी भी हिंसा का समर्थन नहीं किया .  जिन लोगों ने संविधान सभा की बहस के दौरान हुए भाषणों को पढ़ा है उन्हें मालूम है कि उसी सभा में मौजूद तरह तरह की मान्यता वाले लोगों को आनरेबल डाक्टर बी आर अंबेडकर ( बाम्बे) किस तरह से  निरुत्तर  कर दिया करते थे. हम जानते हैं कि संविधान सभा में एक बहुत बड़ी संख्या में राजाओं के प्रतिनिधि  थे. बहुत सारे धार्मिक पुरातनपंथी थे, बहुत सारे ऐसे लोग थे जो मानते थे कि शूद्रों को इस देश में बराबरी  का हक नहीं है . यह सारे लोग बहुत सारी कमेटियों के सदस्य भी थे . उन्हीं कमेटियों से  वह सुझाव आये   थे  जो बाद में ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष आनरेबल डॉ बी आर अंबेडकर ( बाम्बे) के  विचार के लिए प्रस्तुत किये गए थे . उन सुझावों को अगर कोई ध्यान से  देखे तो समझ में आ जाएगा कि संविधान सभा में किस तरह  के दकियानूसी विचारों के लोग मौजूद थे . उन सुझावों पर बहुत लम्बी बहस चली . हर बहस के दौरान   ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ बी आर अंबेडकर वहां मौजूद रहते थे और हर उल्टी सीधी बात  का तार्किक जवाब देते थे. 
 १५ अगस्त १९४७ की आज़ादी के  बाद यह उम्मीद की गयी थी कि संविधान दो साल में तैयार हो जाएगा . महात्मा गाँधी की मृत्यु हो चुकी थी . डॉ अंबेडकर को राजनीतिक समर्थन देने  वालों में केवल जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल बचे थे .  बाकी लोग डॉ अंबेडकर को मिल रहे महत्व से बहुत दुखी थी इसलिए वे उनके काम में मीन मेख निकालते रहते थे. इन्हीं महानुभावों की प्रेरणा से संविधान सभा में बेमतलब की बहसें चलती रहती थीं. जब दो साल पूरे होने के बाद भी संविधान तैयार नहीं हो सका तो अगस्त १९४९ में बहुत सारे अखबारों में खबरें छप रही थीं कि संविधान में हो रही बहसों के चलते  संविधान तैयार नहीं हो पा रहा है . सरदार पटेल दिन रात देशी रियासतों को भारतीय गणराज्य में विलय कारवाने की कोशिश  कर रहे थे. संविधान को सही तरीके से  पेश करने का काम शुद्ध रूप से जवाहर लाल नेहरू और डॉ अंबेडकर के जिम्मे आ पड़ा था . दोनों ही नेता  संविधान सभा के ज़रिये संविधान निर्माण की प्रक्रिया में अडंगा डालने वालों से नाराज़ थे .यह कार्टून उसी नाराज़गी की अभिव्यक्ति है . इसमें उन लोगों को आइना दिखाया गया है जो संविधान के निर्माण की प्रक्रिया को कछुआ चाल चलने के  लिए मजबूर कर रहे थे . इसमें न तो डॉ अंबेडकर का कहीं अपमान है और न कहीं नेहरू का . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि डॉ अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरू जैसे लिबरल नेताओं के समर्थक  इन दोनों ही नेताओं के नाम पर वोट की याचना करने वालों के सामने बौने साबित हो रहे हैं . अगर इस देश में तानाशाही राजनीति की ताकतें डॉ अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरू के उदारवादी राजनीतिक विचारों को रौंदने में कामयाब हो गयीं तो देश की आज़ादी की रक्षा कर पाना बहुत मुश्किल होगा . यह कार्टून इस बात का भी संकेत है कि संविधान के निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका डॉ अंबेडकर और जवाहर लाल  नेहरू की  ही  थी.  

Friday, May 11, 2012

कैफ़ी आजमी के बिना दस साल




शेष नारायण सिंह 

कैफ़ी  आज़मी  को गए १०  साल हो गए. अवाम के शायर कैफ़ी इस बीच बहुत याद आये लेकिन मैं किसी से कह भी नहीं सकता कि मुझे कैफ़ी की याद आती है . मैं अपने आपको उस  वर्ग का आदमी मानता हूँ जिसने कैफ़ी को करीब से कभी नहीं देखा . लेकिन हमारी पीढी की एक बड़ी जमात के लिए कैफ़ी  प्रेरणा का स्रोत थे. एक सामंती सोच वाले लेकिन गरीब परिवार से आये व्यक्ति को कैफे एकी जिस नज़्म ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया था वह उनकी मशहूर नज़्म ' औरत '  है . छात्र जीवन में उसे मैंने बार बार पढ़ा .  मैं बयान नहींकर सकता कि औरत  को कुछ भी न समझने वालों के गाँव  का होते हुए मैंने किस तरह से अपनी ही माँ और बहनों को किस तरह से  बिलकुल अलग किस्म के इंसान के रूप में देखना शुरू कर दिया था  . बाद में जब मैं दिल्ली में आकर रहने लगा तो  इस नज़्म को पढ़ते हुए  मुझे अपनी दोनों बेटियाँ  याद आती थीं. मैं गरीबी में बीत रहे उनके बचपन को इस नज़्म  के टुकड़ों से  बुलंदी देने की कोशिश करता था .हालांकि यह नज़्म मैंने  कभी भी पूरी पढ़ कर नहीं सुनायी लेकिन इसके टुकड़ों को हिन्दी या अंग्रेज़ी में अनुवाद करके उनको समझाया करता था .मेरे दोस्त खुर्शीद अनवर ने एक बार लिखा था कि कैफ़ी ने  "उठ मिरी जान  मिरे साथ ही चलना है तुझे " कह कर लगाम अपने  हाथ में ले ली थी.  आज के सन्दर्भ में उनकी बात बिकुल सही है . सवाल उठता है कि भाई आप के साथ क्यों चलना  है . औरत खुद ही चली जायेगी लेकिन जब यह नज़्म चालीस के दशक में लिखी गयी तो उस वक़्त की क्रांतिकारी नज्मों में से एक थी. अगर कोई समाज  औरत को मर्द के बराबर का दर्ज़ा देता  था तो वह भी  बहुत बड़ी बात थी .
जहां तक  शायरी और साहित्य की  बात है मैं कैफ़ी आजमी के बारे में कुछ भी  लिख सकने का हक़दार नहीं हूँ . मुझे साहित्य की समझ नहीं है . लेकिन एक शायर के रूप में बाकी दुनिया में अपनी पहचान  बनाने वाले कैफ़ी आज़मी एक  बेहतरीन इंसान  थे. आज़मगढ़ जिले के मिजवां में जन्मे अतहर हुसैन रिज़वी  ही बाद में कैफ़ी आज़मी बने .कैफ़ी  बहुत ही संवेदनशील इंसान थे , बचपन से ही .. जो आदमी सारी दुनिया की तकलीफों को ख़त्म कर देने वालों की जमात में जाकर शामिल हुआ , सबके दर्द को गीतों के ज़रिये ताक़त दी और इंसाफ़ की लड़ाई में जिसके गीत अगली कतार में हों , वह अपना दर्द कभी बयान नहीं करता था. कैफ़ी बहुत बड़े शायर थे . अपने भाई की ग़ज़ल को पूरा करने के लिए उन्होंने शायद १२ साल की उम्र में जो ग़ज़ल कही वह अमर हो गयी. बाद में उसी ग़ज़ल को बेग़म अख्तर ने आवाज़ दी और " इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े , हंसाने से हो सुकून न रोने से कल पड़े ."  अपने  अब्बा के घर में हुए एक मुशायरे में अपने बड़े भाई की सिफारिश से अतहर हुसैन रिज़वी ने यह ग़ज़ल पढी थी. जब इनके भाई ने लोगों को बताया कि ग़ज़ल अतहर  मियाँ की ही है , तो लोगों  ने सोचा कि छोटे भाई का दिल रखने के लिए बड़े भाई ने अपनी ग़ज़ल छोटे भाई से पढ़वा दी है . 
कैफ़ी आजमी इस मामले में बहुत खुश्किसम्त रहे कि उन्हें दोस्त हमेशा ही बेहतरीन मिले.  मुंबई में इप्टा के दिनों में उनके दोस्तों की फेहरिस्त में जो लोग थे वे बाद में बहुत बड़े  और नामी कलाकार के रूप में जाने गए . इप्टा में ही  होमी भाभा, क्रिशन चंदर ,मजरूह सुल्तानपुरी , साहिर लुधियानवी ,बलराज साहनी ,मोहन सहगल, मुल्क राज आनंद, रोमेश थापर, शैलेन्द्र ,प्रेम धवन ,इस्मत चुगताई .ए के हंगल, हेमंत कुमार , अदी मर्जबान,सलिल चौधरी जैसे कम्युनिस्टों के साथ उन्होंने काम किया . प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन  के संस्थापक , सज्जाद ज़हीर  के ड्राइंग रूम में मुंबई में उनकी शादी हुई थी. उनकी जीवन साथी , शौकत कैफ़ी ने उन्हें इस लिए पसंद किया था कि कैफ़ी आज़मी बहुत बड़े शायर थे . १९४६ में भी उनके तेवर इन्क़लाबी थे और अपनी माँ की मर्जी के खिलाफ अपने प्रगतिशील पिता के साथ औरंगाबाद से मुंबई आकर उन्होंने कैफ़ी से शादी कर ली थी. शादी के बाद  मुझे लगता  कैफ़ी ने बड़े पापड़ बेले . अपने गाँव चले गए जहां एक बेटा पैदा हुआ,शबाना आज़मी के बड़ा भाई . एक साल का भी नहीं  हो पाया था कि चला गया . बाद में वाया लखनऊ मुंबई पंहुचे . शुरुआत में भी लखनऊ रह चुके थे, दीनी तालीम के लिए  गए थे लेकिन इंसाफ़ की लड़ाई शुरू कर दी और निकाल दिए गए थे. जब उनकी बेटी शबाना शौकत आपा के  पेट में आयीं तो कम्युनिस्ट पार्टी ने फरमान सुना दिया कि एबार्शन कराओ  , कैफ़ी अंडरग्राउंड थे  और पार्टी को लगता था कि  बच्चे का खर्च कहाँ से आएगा.  शौअक्त कैफ़ी अपनी माँ के  पास हैदराबाद चली गयीं. वहीं शबाना आज़मी का जन्म हुआ. उस वक़्त की मुफलिसी के दौर में इस्मत चुगताई और उनेक पति शाहिद लतीफ़ ने एक हज़ार रूपये भिजवाये थे . यह खैरात नहीं थी , फिल्म निर्माण के काम में लगे शाहिद  लतीफ़ साहब अपने एफिल्म में कैफ़ी  लिखे दो गीत इस्तेमाल किये थे .लेकिन शौकत आपा अब तक उस बात का ज़िक्र करती रहती हैं .

कैफ़ी आजमी अपने बच्चों  से बेपनाह प्यार करते थे . जब कभी ऐसा होता था कि शौकत आपा पृथ्वी थियेटर के अपने काम के  सिलसिले में शहर से बाहर चली जाती थीं तो शबाना और बाबा आजमी को लेकर वे मुशायरों में भी जाते थे . मंच पर जहां शायर बिताहे होते थे उसी के  पीछे  दोनों बच्चे बैठे रहते थे . जो लोग कभी बच्चे रहे हैं उन्हें मालूम है कि बाप से इज्ज़त मिलने पर बहुत अच्छा लगता है .जीरो आमदनी वाले कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाइमर कैफ़ी आज्मे एको जब पता लगा  कि उनकी बेटी अपने स्स्कूल से खुश नहीं थी और वह किसी दूसरे स्कूल में जाना चाहती थी जिसकी फीस तीस रूपये माहवार थी , तो कैफ़ी आजमी ने उसे उसी स्कूल में भेज दिया . बाद में अतरिक्त काम करके अपनी बेटी के लिए ३० रूपये महीने का इंतज़ाम किया 
एक बार  शबाना आजमी की किसी फिल्म को  प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में दिखाया जाना था .जाने के पहले  शबाना को  पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान का कार्यक्रम रद्द कर दिया और झोपड़ियां बचाने के लिए  भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान हो गए . कैफ़ी आजमी ,शहर से कहीं बाहर गए हुए थे .लोगों ने सोचा कि उनके अब्बा से कहा जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी से बेपनाह मुहब्बत करते थे और शबाना के सबसे अच्छे दोस्त थे. लेकिन कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट भी थे और उनका टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक कॉमरेड." शबाना की बुलंदी में उनके अति प्रगतिशील पिता की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है . हालांकि शबाना का दावा है कि उन्हें बचपन में राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, वे अखबार भी नहीं पढ़ती थी. लेकिन सच्चाई यह है कि वे राजनीति में रहती थी. उनका बचपन मुंबई के रेड फ्लैग हाल में बीता था. रेड फ्लैग हाल किसी एक इमारत का नाम नहीं है . वह गरीब आदमी के लिए लड़ी गयी बाएं बाजू की लड़ाई का एक अहम मरकज़ है . आठ कमरों और एक बाथरूम वाले इस मकान में आठ परिवार रहते थे . हर परिवार के पास एक एक कमरा था . और परिवार भी क्या थे . इतिहास की दिशा को तय किया है इन कमरों में रहने वाले परिवारों ने. शौकत कैफ़ी ने अपनी उस दौर की ज़िन्दगी को अपनी किताब में याद किया है . लिखती हैं ,' रेड फ्लैग हाल एक गुलदस्ते की तरह था जिसमें गुजरात से आये मणिबेन और अम्बू भाई , मराठवाडा से सावंत और शशि ,यू पी से कैफ़ी,सुल्ताना आपा ,सरदार भाई ,उनकी दो बहनें रबाब और सितारा ,मध्य प्रदेश से सुधीर जोशी , शोभा भाभी और हैदराबाद से मैं . रेड फ्लैग हाल में सब एक एक कमरे के घर में रहते थे. सबका बावर्चीखाना बालकनी में होता था . वहां सिर्फ एक बाथरूम था और एक ही लैट्रीन लेकिन मैंने कभी किसी को बाथ रूम के लिए झगड़ते नहीं देखा."
कैफ़ी आजमी ने अपने बच्चों को संघर्ष की तमीज सिखाई .शायाद इसी लिए उनकी बेटी को  संघर्ष करने में मज़ा आता है . हो सकता है इसकी बुनियाद वहीं रेड  फ्लैग हाल में पड़ गयी हो . रेड फ्लैग हाल के उनके बचपन में जब मजदूर संघर्ष करते थे तो शबाना के माता पिता भी जुलूस में शामिल होते थे. बेटी साथ जाती थी. इसलिए बचपन से ही वे नारे लगा रहे मजदूरों के कन्धों पर बैठी होती थी. चारों तरफ लाल झंडे और उसके बीच में एक अबोध बच्ची. यह बच्ची जब बड़ी हुई तो उसे इन्साफ के खिलाफ खड़े होने की ट्रेनिंग नहीं लेनी पड़ी. क्योंकि वह तो उन्हें घुट्टी में ही पिलाया गया था. शबाना आजमी ने एक बार मुझे बताया था कि लाल झंडे देख कर उनको लगता था कि उन्हें उसी के बीच होना चाहिए था क्योंकि वे तो बचपन से ही वहीं होती थीं .उन्हें दूर दूर तक फहर रहे लाल झंडों को देख कर लगता था ,जैसे शबाना पिकनिक पर आई हों .
  बीसवीं सदी की कुछ  बेहतरीन फ़िल्में कैफ़ी के नाम से पहचानी जाती हैं .हीर रांझा में चेतन आनंद ने सारे संवाद  कविता में पेश करना चाहा और कैफ़ी ने उसे लिखा. राजकुमार के यह फिल्म पता नहीं कहाँ तक पंहुचती अगर प्रिया की जगह को और हेरोइन होती. हकीकत भी कैफ़ी की फिल्म है और गरम हवा भी . कागज़  के फूल , मंथन, कोहरा, सात हिन्दुस्तानी, बावर्ची  , पाकीज़ा ,हँसते ज़ख्म ,अर्थ ,रज़िया सुलतान जैसी फिल्मों को भी कैफ़ी ने अमर कर दिया .
आज दस साल हो गए . जब तक ज़िंदगी है  कैफ़ी आजमी बहुत याद आयेगें.

Tuesday, May 8, 2012

संस्कृति मंत्रालय के विभागों में चारों तरफ अराजकता का माहौल है




शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली.7 मई.संस्कृति मंत्रालय के काम काज के बारे में संसद की  स्थायी समिति की 175वीं रिपोर्ट  आज  संसद के दोनों सदनों में पेश कर दी गयी. लोक सभा में यह रिपोर्ट अनुराग सिंह ठाकुर और महेश जोशी  के नाम  से प्रस्तुत की गयी .इस कमेटी के अध्यक्ष राज्य सभा के सदस्य , सीताराम येचुरी हैं .रिपोर्ट का ठीक से अध्ययन करने से साफ़ पता लग जाता है कि संस्कृति मंत्रालय के मामलों को केंद्र सरकार गंभीरता  से नहीं लेती और जो भी धन मंत्रालय के विभागों को चलाने के लिए मिलता है उसे पूरी तरह से इस्तेमाल किये बिना ही वापस कर दिया जाता है . कमेटी की रिपोर्ट में लिखा है कि ग्यारहवीं योजना के लिए  संस्कृति मंत्रालय को 3524.11 करोड़ रूपये मिले थे जिसमें से मंत्रालय ने केवल 3104.00  करोड़ रूपये का ही इस्तेमाल किया . बाकी रक़म वापस हो जायेगी . इसी तरह से मौजूदा वित्त वर्ष के लिए संस्कृति मंत्रालय को 805  करोड़ रूपये मिले थे जिसमें से  इस साल की 29 फरवरी तक 570.72 करोड़ रूपये ही 
 खर्च  किये  जा सके थे . कमेटी को भरोसा है कि मार्च 2012  के महीने में बाकी बचे  234.28 करोड़ रूपये खर्च नहीं किये जा सकते .  कमेटी की राय है कि साल के अंत में इतनी बड़ी रक़म खर्च नहीं की जा सकती . इसी के साथ ही कमेटी ने कहा कि  वित्तीय वर्ष के अंत में बेकार के कामों में धन को खर्च करने की सरकारी आदत की निंदा की जानी चाहिए . 
 संस्कृति मंत्रालय के काम काज देखने  वाली स्थाई समिति के  सदस्य इस बार से बहुत निराश  हैं कि महात्मा  गाँधी से सम्बंधित विरासत के स्थानों के बारे में सरकार ने जो फैसले किये थे उन्हें  भी गंभीरता से नहीं लिया जा  रहा है . कमेटी को पता चला  है कि गाँधी हेरिटेज साईट मिशन की स्थापना के लिए 2010-11  की वार्षिक योजना में 5 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया था . अप्रैल 2006 में भारत सरकार ने गाँधी हेरिटेज साईट पैनल की स्थापना की  जिसने गाँधी हेरिटेज साईट  मिशन पोर्टल  शुरू करने का सुझाव दिया . कमेटी को बताया गया कि 2012-13 में गाँधी हेरिटेज साईट  मिशन पोर्टल  के लिए 20 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया लेकिन केवल 2 करोड़ रूपये वास्तव में दिए गए. . कमेटी को इस बात पर रंज है कि जब 20 करोड़ रूपये का  प्रस्ताव किया गया था तो उसे घटाकर 2 करोड़ रूपये क्यों कर दिया गया . सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं  है .

संस्कृति मंत्रालय के अधीन काम करने  वाले ज़्यादातर महकमों में  निराशा का माहौल है . इस मंत्रालय का एक विभाग है भारतीय  पुरातात्विक सर्वेक्षण ( ए एस आई ).इस संगठन को मौजूदा साल के लिए 161.75  करोड़ रूपये दिए गए थे जिसमें से 29 फरवरी तक केवल 133.90 करोड़ रूपये खर्च किये जा सके .  भारतीय  पुरातात्विक सर्वेक्षण  का सारा काम अजीबो गरीब तरीके से हो रहा है . जब कमेटी ने मौके का मुआइना किया तो पता चला कि भारतीय  पुरातात्विक सर्वेक्षण के पास ऐसी  कोई योजना नहीं है जिसके तहत वह अपने कर्मचारियों और विशेषज्ञों का प्रशिक्षण करवाती हो या कोई रिफ्रेशर कोर्स चलवाती हो . यहाँ के अधिकारी ,ख़ास कर प्रशासन और वित्त विभाग के लोग पता नहीं कब से किसी ट्रेनिंग कार्यक्रम में नहीं  गए हैं. 
कमेटी को  पता चला है कि भारतीय  पुरातात्विक सर्वेक्षण में स्टाफ की भारी कमी  है . जिसके कारण काम का बहुत नुकसान हो रहा है .  पता चला है कि 1985 में एक इंस्टीटयूट आफ आर्कियोलाजी की स्थापना  हुई थी जिसका काम अभी शुरू ही नहीं हो सका है.  सरकारी  तौर पर बताया गया कि इस संस्थान को इस लिए नहीं शुरू किया जा सका क्योंकि  उसके लिए ज़रूरी कर्मचारियों की कमी है . कमेटी ने सरकार को चेताया है कि अगर काम करने के लिए कर्मचारियों की भर्ती  में नौकरशाही  के अड़ंगे लगते रहे तो भारतीय  पुरातात्विक सर्वेक्षण  का काम कैसे चलेगा. कमेटी ने सुझाव दिया है कि भारतीय  पुरातात्विक सर्वेक्षण को एक वैज्ञानिक विभाग माना जाए और उसके  लिए ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएँ  
नेशनल म्यूज़ियम के बारे में भी रिपोर्ट  में निराशा जताई गयी है और कहा गया है कि अपनी  सांस्कृतिक  विरासत के प्रति सरकार बिलकुल  लापरवाह है . और उसे राष्ट्र की धरोहर की  हिफाज़त में लगी संस्थाओं को गंभीरता से लेना चाहिए 

Sunday, May 6, 2012

कैफ़ी आज़मी को गए १० साल होने को आये.





शेष नारायण सिंह 

कैफ़ी को गए धीरे धीरे १० साल हो गए. अवाम के शायर कैफ़ी इस बीच बहुत याद आये लेकिन मैं किसी से कह भी नहीं सकता कि मुझे कैफ़ी की याद आती है . मैं अपने आपको उस  वर्ग का आदमी मानता हूँ जिसने कैफ़ी को करीब से कभी नहीं देखा . लेकिन हमारी पीढी के एक बड़ी जमात के लिए कैफ़ी  प्रेरणा का स्रोत थे. आज उनकी मशहूर नज़्म ' औरत ' के कुछ टुकड़े लिख कर अपने उन दोस्तों तक पंहुचाने की  कोशिश करता हूँ  जो देवनागरी में उर्दू पढ़ते हैं . इस नज़्म को पढ़ते हुए  मुझे अपनी दोनों बेटियाँ  याद आती थीं. मैं गरीबी में बीत रहे उनके बचपन को इस नज़्म  के टुकड़ों से  बुलंदी देने की कोशिश करता था .हालांकि यह नज़्म मैंने  कभी भी पूरी पढ़ कर नहीं सुनायी लेकिन इसके टुकड़ों को हिन्दी या अंग्रेज़ी में अनुवाद करके उनको समझाया करता था  शुक्र  है कि उन्होंने  मेरी भावनाओं की कद्र की और इंसानी बुलंदियों का उनका सफ़र खुशगवार तरीके से गुज़र रहा है .अपने दोस्त खुर्शीद अनवर ने एक बार लिखा था कि कैफ़ी ने  "उठ मिरी जान  मिरे साथ ही चलना है तुझे " कह कर लगाम अपने  हाथ में ले ली थी. लेकिन  यह नज़्म चालीस के दशक की है और उस वक़्त की क्रांतिकारी नज्मों में से एक है . दूसरी जंग के बाद के  दौर में  यह नज़्म बार बार गई गयी है .


 
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए 
फ़र्ज़  का भेस बदलती है फ़ज़ा तेरे लिए 
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए 
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए 
रुत बदल डाल अगर फूलना-फलना है तुझे
उठ मिरी जान  मिरे साथ ही चलना है तुझे 

क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं 
तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं 
तू हक़ीक़त भी  है दिलचस्प  कहानी ही नहीं 
तिरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं 
अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे 
उठ मिरी जान  मिरे साथ ही चलना है तुझे 
   

आतंकवाद रोधी संगठन बनाने की गृह मंत्री की कोशिश को लगा राजनीतिक ब्रेक




शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,५ मई.. केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रिय प्रोजेक्ट, एन सी टी सी पर राजनीतिक ब्रेक लग गया है .सम्मलेन के बाद  गृह मंत्री ने घोषणा के एकी ३ मुख्य मंत्रियों ने एन सी टी सी का विरोध किया जबकि कुछ ने शर्तों के साथ समर्थन किया . उन्होंने यह भी कहा कि  कई मुख्य मंत्रियों ने उसका  समर्थन किया  .एक सवाल के जवाब में उन्होंने साफ़ किया कि एन सी  टी सी को आई बी के अधीन रखने का प्रस्ताव २००१ में गठित ग्रुप आफ मिनिस्टर्स ने  तय किया था. उन दिनों अटल बिहारी  वाजपेयी की सरकार थी.  यह दिलचस्प है कि  आज जिन तीन मुख्यमंत्रियों ने एन सी टी सी का सबसे ज्यादा विरोध किया वे ताल बिहारी वाजपेये एकी सरकार का हिस्सा रह चुके हैं.
 बैठक के बाद पत्रकारों को गृह मंत्री पी चिदंबरम ने जानकारी दी. उन्होंने कहा कि  आज की बैठक में हुई चर्चा के बाद सरकार विचार करेगी और फैसला  लेगी. उन्होंने कहा कि  एन सी टी सी के गठन के लिए उन्हें संसद की मंजूरी मिली हुई है. आज एन सी टी सी के बारे में हुए मुख्यमंत्रियों एक सम्मलेन के बाद यह तय माना जा रहा  है कि ३  फरवरी  को जिस तरह का नोटिफिकेशन गृह मंत्रलय ने एन सी टी सी की स्थापना के लिए जारी किया था उसमें बड़े पैमाने पर परिवर्तन होगा . हालांकि यह भी सच है कि  केंद्र सरकार एन सी टी  सी के अपने एजेंडे  को आगे बढाने में सफल हो जायेगी क्योंकि प्रधान मंत्री ने अपन भाषण में साफ़ कहा कि  यह बैठक एन सी टी सी को आपरेशनलाइज़ करने के लिए ही बुलाई गयी है.जानकार बताते है कि आज की बैठक के बाद जो बात सबसे ज्यादा बार चर्चा में आई वह एन सी टी सी  को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन रखने को लेकर थी. लगता है कि एन सी टी सी को केंद्र सरकार को इंटेलिजेंस ब्यूरो से अलग करना ही पडेगा एकाध को छोड़कर सभी मुख्य मंत्रियों ने इस बात पर सहमति जताई कि आतंकवाद से लड़ना बहुत ज़रूरी है और मौजूदा तैयारी के आगे जाकर उस के बारे में कुछ किया जाना चाहिए .पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री, ममता बनर्जी ने इसका विरोध किया और कहा कि केंद्र सरकार को चाहिए कि वह ३ फरवारी वाला अपने वह नोटिफिकेशन वापस ले ले और एन सी टी सी की स्थापना ही न करे. प्रधान मंत्री को चाहिए कि वे राज्यों के मुख्य मंत्रियों से समय समय पर सलाह लेते  रहें और आतंकवाद से मुकाबला राज्यों को ही करने दें.
सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि आतंकवाद को रोकने के लिए सामान्य पुलिस की ज़रूरत नहीं होती . उसके लिए बहुत की  कुशल संगठन की ज़रुरत होती है और एन सी टी सी वही संगठन है 
आज की बैठक  में केंद्र सरकार के रुख से लगा कि  वह एन से टी सी में कुछ परिवर्तन कर सकती है .उसकी  कंट्रोल की व्यवस्था में तो कुछ ढील देने  को तैयार है लेकिन ममता बनर्जी और नरेंद्र मोदी की योजना  को वह पूरी तरह से रोकने की कोशिश करेगी  .काले रंग के कवर में तैयार किये गए अपने लिखित भाषण में गुजरात के मुख्य मंत्री  नरेंद्र मोदी ने आज की बैठक में केंद्र सरकार को हर तरह से घेरा .उन्होंने सवाल  उठाया कि क्या एक राष्ट्र के रूप में हम संवैधानिक व्यवस्थाओं  और केंद्र राज्य संबंधो की ज़रुरत  पर अब विश्वास नहीं करते . उन्होंने एन सी टी सी   सम्मलेन के बहाने पूरी तरह से राजनीतिक माहौल बनाया  और  मुद्दों को कांग्रेस बनाम बीजेपी  बनाने की कोशिश की. आतंकवाद के शिकार  हुए राज्य छत्तीसगढ़ एक मुख्य मंत्री रमन सिंह ने कहा  कि राष्ट्रीय स्तर पर सूचनाओं के  संकलन, आंकड़ों के रखरखाव ,इनके विश्लेषण सभी राज्यों के बीच इनके आदान प्रदान तथा सभी के सम्मिलित प्रयास से की जाने वाली कार्यवाही और मानिटरिंग के लिए एक  एजेंसी आवश्यक है .लेकिन उन्होंने ३ फरवरी के आदेश का विरोध किया और कहा कि  ऐसी महत्वपूर्ण संस्था संसद के अधिनियम के माध्यम से गठित की जाए तो ज्यादा  प्रभावी और स्थायी होगी तथा उत्तरदायी भी.
 
उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री अखिलेश यादव बैठक में खुद नहीं आये थे .  उन्होंने एक मंत्री को भेज दिया था. राज्य के मुख्य सचिव भी नहीं आये थे . लेकिन उनका भाषण सम्मलेन में बांटा  गया जिसमें उन्होंने  कहा कि केंद्र सरकार द्वारा एन सी टी सी के लिए वर्तमान में जो व्यवस्था प्रस्तावित की गयी है वह सही नहीं है . एन सी टी सी को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन कर दिया गया है और उसकी  राज्यों की इकाइयों को स्वतंत्र काम करने की व्यवस्था है . यह राज्य की पुलिस के काम में अतिक्रमण है . उत्तर प्रदेश सरकार चाहती है कि एन सी टी सी मूलतः इंटेलिजेंस इकठ्ठा  करने और उसके विश्लेषण आदि पर ही ध्यान दे  . कार्रवाई का   काम अधिकार राज्य सरकार  ही करे. जहां ज़रूरी हो राज्य सरकार के अधिकारी  एन सी टी सी से सहयोग हासिल करे.
 
 दिन भर यही माहौल नज़र आया कि सभी मुख्य मंत्री  एन सी टी सी के सवाल पर सहमत हैं . ममता बनर्जी और नरेंद्र मोदी के   विरोध के कारणों की तरह तरह की व्याख्याएं होती रहीं.  . कई सरकारी अफसरों ने यह संकेत दिया कि मुख्य मंत्री लोग अपने तैयारशुदा भाषणों में  जो विरोध कर भी रहे हैं वह मुकामी नौकरशाही की चिंताएं हैं क्योंकि एन सी टी सी के आ जाने के बाद पुलिसिंग की उनकी क्षमता  पर भी सबकी नज़र रहा करेगी जहां अब तक उनका एकछत्र साम्राज्य  बना हुआ है..
प्रधान मंत्री ने अपने  भाषण में कहा कि केंद्र सरकार  राज्यों के साथ मिलकर काम करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है .राज्यों को पुलिस और इंटेलिजेंस व्यवस्था  को दुरुस्त करने  के लिए आर्थिक सहायता भी दी जाती रही है ,उन्होंने  कहा कि  एन सी टी सी की स्थापना ग्रुप आफ मिनिस्टर्स की सिफारिशों के बाद और उसी के आधार  पर की गयी है . हालांकि उन्होंने  आज इस बात का उल्लेख नहीं किया लेकिन यह ग्रुप आफ मिनिस्टर्स संसद पर आतंकवादी  हमलों के बाद वाजपेयी सरकार के दौरान बनाया गया था. कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ के बाद भी इंटेलिजेंस की सफलता के बाद वाजपेयी सरकार ने इस तरह की संस्था की बात शुरू की थी.
गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि आतंकवाद कोई सीमा नहीं मानता इसलिए  उसको किसी एक राज्य की सीमा में बांधने का  कोई मतलब नहीं है .आतंकवाद अब कई रास्तों से आता है . समुद्र , आसमान, ज़मीन और आर्थिक आतंकवाद के बारे में तो सबको मालूम है लेकिन अब साइबर स्पेस में भी आतंकवाद है . उसको रोकना  किसी भी देश की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए . . इसलिए  अब तो हर तरह की  टेक्नालोजी का इस्तेमाल करके हमें अपने सरकारी  दस्तावेजों, और बैंकिंग क्षेत्र की सुरक्षा का  बंदोबस्त करना चाहिये . उन्होंने कहा कि हमारे देश की समुद्री  सीमा साढ़े सात हज़ार  किलोमीटर है जबकि १५ हज़ार किलोमीटर से भी ज्यादा अन्तर राष्ट्रीय बार्डर  है . आतंक का मुख्य श्रोत वही है .. उसको कंट्रोल करने में केंद्र सरकार की ही सबसे कारगर भूमिका हो सकती है उन्होंने कहा कि  इस बात की चिंता करने के ज़रुरत नहीं  कि केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार छीन लेगी. बल्कि ज्यों ज्यों राज्यों के  आतंक से लड़ने का तंत्र मज़बूत होता  जायेगा . केंद्र सरकार अपने आपको  धीरे धीरे उस से अलग कर लेगी.