Monday, September 5, 2011

मेरे बच्चे मुझसे अच्छे हैं

शेष नारायण सिंह मुझे जीवन में करीब पांच साल शिक्षक के रूप में काम करने का मौक़ा मिला. पहली बार १९७३ में जब मैं एक डिग्री कालेज में इतिहास मास्टर था . दो साल बाद निराश होकर वहां से भाग खड़ा हुआ . वहां बी ए के बच्चों को इतिहास पढ़ाया था मैंने . वे बच्चे मेरी ही उम्र के थे. कुछ उम्र के लिहाज़ से मेरे सीनियर भी रहे होंगें . लेकिन आज तक हर साल ५ सितम्बर के दिन वे बच्चे मुझे याद करते हैं . कुछ तो टेलीफोन भी कर देते हैं . दुबारा २००५ में फिर एक बार शिक्षक बना . इस बार पत्रकारिता पढाता था. तीन बैच के बच्चे मेरे विद्यार्थी हुए . यह दौर मेरे लिए बहुत उपयोगी था. पत्रकारिता का जो सैद्धांतिक पक्ष है उसके बारे में बहुत जानकारी मुझको मिली. अपनें विद्यार्थियों के साथ साथ मैं भी नई बातें सीखता रहा . तीन साल बाद नौकरी से अलग हो गया . शायद वहां मेरा काम पूरा हो चुका था . लेकिन इन वर्षों में मैंने जिन बच्चों को पढ़ाया उन पर मुझे गर्व है . समय की परेशानियों के चलते उन बच्चों को वैसी नौकरी नहीं मिली जैसी मिलनी चाहिए थी . लेकिन मुझे मालूम है कि वे अपने दौर के बेतरीन पत्रकार हैं .अगर उन्हें मौक़ा मिला तो वे अपने संगठन को बुलंदियों पर ले जायेगें. मेरी इच्छा है कि कुछ संगठन आगे आयें और उन बच्चों को मौक़ा दें , जो लोग मुझे अच्छा पत्रकार मानते हैं मैं उनसे अपील करता हूँ कि वे मेरे बच्चों पर नज़र डालें . वे सब मुझसे बेहतर पत्रकार हैं . आज बहुत से बच्चों नें मुझे याद किया है . मैं भी उन सबसे कहना चाहता हूँ मुझेभी तुम्हारी बहुत याद आती है मेरे बच्चो. देर हो रही है लेकिन तुम सब पत्रकारिता की बुलंदियों तक जाओगे. ठोकर खाकर कभी नहीं परेशान होना . मैं जानता हूँ कि तुम लोग हर हाल में बहुत ऊंचाई तक जाओगे.

अब पता चला कि मुंबई के राजपूत लीक से हटकर क्यों हैं

शेष नारायण सिंह मुंबई में इस बार मुझे एक बहुत ही अजीब बात समझ में आई. आमतौर पर अपनी बिरादरी की पक्षधरता से मैं बचता रहा हूँ. उत्तर प्रदेश में ज़मींदारी उन्मूलन के आस पास जन्मे राजपूत बच्चों ने अपने घरों के आस पास ऐसा कुछ नहीं देखा है जिस पर बहुत गर्व किया जा सके. अपने इतिहास में ही गौरव तलाश रही इस पीढी के लिए यह अजूबा ही रहा हाई कि राजपूतों पर शोषक होने का आरोप लगता रहा है . हालांकि शोषण राजपूत तालुकेदारों और राजओंने किया होगा लेकिन शोषक का तमगा सब पर थोप दिया जाता रहा है .. आम राजपूत तो अन्य जातियों के लोगों की तरह गरीब ही है . मैंने अपने बचपन में देखा है कि मेरे अपने गांव में राजपूत बच्चे भूख से तडपते थे.मेरे अपने घर में भी मेरे बचपन में भोजन की बहुत किल्लत रहती थी. इसलिए राजपूतों को एक वर्ग के रूप में शोषक मानना मेरी समझ में कभी नहीं आया. लेकिन सोशलिस्टिक पैटर्न आफ सोसाइटी और बाद में वामपंथी सोच के कारण कभी इस मुद्दे पर गौर नहीं किया . संकोच लगता था . मेरे बचपन में मेरे गाँव में राजपूतों के करीब १६ परिवार रहते थे .अब वही लोग अलग विलग होकर करीब ४० परिवारों में बँट गए हैं . मेरे परिवार के अलावा कोई भी ज़मींदार नहीं था . सब के पास बहुत मामूली ज़मीन थी. कई लोगों एक हिस्से में तो एक एकड़ से भी कम ज़मीन थी. तालाब और कुओं से सिचाई होती थी और किसी भी किसान के घर साल भर का खाना नहीं पूरा पड़ता था . पूस और माघ के महीने आम तौर पर भूख से तड़पने के महीने माने जाते थे. जिसके घर पूरा भी पड़ता था उसके यहाँ चने के साग और भात को मुख्य भोजन के रूप में स्वीकार कर लिया गया था. मेरे गांवमें कुछ लोग सरकारी नौकरी भी करते थे हालांकि अपने अपने महकमों में सबसे छोटे पद पर ही थे. रेलवे में एक स्टेशन मास्टर ,तहसील में एक लेखपाल और ग्राम सेवक और एक गाँव पंचायत के सेक्रेटरी . तीन चार परिवारों के लोग फौज में सिपाही थे . सरकार में बहुत मामूली नौकरी करने वाले इन लोगों के घर से भूखे सो जाने की बातें नहीं सुनी जाती थीं . बाकी लोग जो खेती पर ही निर्भर थे उनकी हालत खस्ता रहती थी . लेकिन जब हम बड़े हुए और डॉ लोहिया की समाजवादी सोच से प्रभावित हुए तो मेरी समझ में आया कि राजपूत तो शोषक होते हैं ,लेकिन जब मैं अपने गाँव के राजपूतों को देखता था तो मुझे लगता था कि मेरे गाँव के लोग भी तो राजपूत हैं लेकिन शोषक होना तो दूर की बात ,वे तो शोषण के शिकार थे. बाद में समझ में आया कि चुनावी राजनीति में कांग्रेस के एकाधिकार को खत्म करने के उद्देश्य से राजनीतिक बिरादरी ने कुछ ऐसी जातियां मार्क कर दी थीं जिनके खिलाफ पिछड़ी और दलित जातियों को संगठित किया जा सके. हालांकि उस काममें वे सफल नहीं हुए .सवर्ण जातियों को गरिया कर पिछड़ी जातियों के वोट तो हाथ आ गए लेकिन बाद में मायावती और कांशी राम के नेतृत्व में उन्हीं पिछड़ी जातियों के खिलाफ दलित जातियों ने मोर्चा खोला और आज उत्तर प्रदेश में सबसे ऊंची ब्राहमण जाति के लोग मायावती के साथ हैं जबकि राजपूत वोट बैंक के रूप में विकसित हो चुका है और उसे अपनी तरफ खींचने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियां कोशिश कर रही हैं .आज राजपूतों के एक बहुत बड़े वर्ग के लोग गरीबी की रेखा के बहुत नीचे रह रहे हैं . हालांकि यह भी सच है कि इसी बिरादरी से आने वाले बहुत सारे लोगों ने उत्तर प्रदेश में राजनीति का सहारा लेकर अच्छी खासी ताक़त अर्जित कर ली है . लेकिन वे माइनारिटी में हैं .उत्तर प्रदेश के अवध इलाके में स्थित अपने गांव के हवाले से हमेशा बात को समझने की कोशिश करने वाले मुझ जैसे इंसान के लिए यह बात हमेशा पहेली बनी रही कि सबसे गरीब लोगों की जमात में खड़ा हुआ मेरे गाँव का राजपूत शोषक क्यों करार दिया जाता रहा है . मेरे गाँव के राजपूत परिवारों में कई ऐसे थे जो पड़ोस के गाँव के कुछ दलित परिवारों से पूस माघ में खाने का अनाज भी उधार लाते थे . लेकिन शोषक वही माने जाते थे. बाद में समझ में आया कि मेरे गाँव के राजपूतों के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण शिक्षा की उपेक्षा रही है . जिन घरों के लोग पढ़ लिख गए वे आराम से रहने लगे थे . वरना पिछड़ेपन का आलम तो यह है कि इस साल राज्य सरकार ने जब सफाईकर्मी भर्ती करने का फैसला किया तो मेरे गाँव के कुछ राजपूत लड़कों ने दरखास्त दिया था. जब गाँव से बाहर निकल कर देखा तो एक और बात नज़र आई कि हमारे इलाके में जिन परिवारों के लोग मुंबई में रहते थे उनके यहाँ सम्पन्नता थी. मेरे गाँव के भी एकाध लोग मुंबई में कमाने गए थे .वे भी काम तो मजूरी का ही करते थे लेकिन मनी आर्डर के सहारे घर के लोग दो जून की रोटी खाते थे . मेरे ननिहाल में लगभग सभी संपन्न राजपूतों के परिवार मुंबई की ही कमाई से आराम का जीवन बिताते थे.ननिहाल जौनपुर जिले में है. २००४ में जब मुझे मुंबई जाकर नौकारी करने का प्रस्ताव आया तो जौनपुर में पैदा हुई मेरी माँ ने खुशी जताई और कहा कि भइया चले जाओ , बम्बई लक्ष्मी का नइहर है . बात समझ में नहीं आई . जब मुंबई में आकर एक अधेड़ पत्रकार के रूप में अपने आपको संगठित करने की कोशिश शुरू की तो देखा कि यहाँ बहुत सारे सम्पन्न राजपूत रहते हैं . देश के सभी अरबपति ठाकुरों की लिस्ट बनायी जाय तो पता लगेगा कि सबसे ज्यादा संख्या मुंबई में ही है . दिलचस्प बात यह है कि इनमें ज्यादातर लोगों के गाँव तत्कालीन बनारस और गोरखपुर कमिश्नरियों में ही हैं .कभी इस मसले पर गौर नहीं किया था. इस बार की मुंबई यात्रा के दौरान कांदिवली के ठाकुर विलेज में एक कालेज के समारोह में जाने का मौक़ा मिला . वहां राष्ट्रीय राजपूत संघ के तत्वावधान में उन बच्चों के सामान में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था जिनको २०११ की परीक्षाओं में बहुत अच्छे नंबर मिले थे. बहुत बड़ी संख्या में ७० प्रतिशत से ज्यादा नंबर पाने वाले बच्चों की लाइन लगी हुई थी और राजपूत समाज के ही सफल,संपन्न और वारिष्ठ लोगों के हाथों बच्चों को सम्मानित किया जा रहा था. वहां जो भाषण दिए गए उसे सुनकर समझ में आया कि मामला क्या है . उस सभा में मुंबई में राजपूतों के सबसे आदरणीय और संपन्न लोग मौजूद थे.उस कार्यक्रम में जो भाषण दिए गए उनसे मेरी समझ में आया कि माजरा क्या है . मुम्बई में आने वाले शुरुआती राजपूतों ने देखा कि मुंबई में काम करने के अवसर खूब हैं . उन्होंने बिना किसी संकोच के हर वह काम शुरू कर दिया जिसमें मेहनत की अधिकतम कीमत मिल सकती थी. और मेहनत की इज्ज़त थी .शुरुआत में तबेले का काम करने वाले यह लोग अपने समाज के अगुवा साबित हुए. उन दिनों माहिम तक सिमटी मुंबई के लोगों को दूध पंहुचाने कम इन लोगों ने हाथ में ले लिया . जो भी गाँव जवार से आया सबको इसी काम में लगाते गए. आज उन्हीं शुरुआती उद्यमियों के वंशज मुंबई की सम्पन्नता में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है . साठ और सत्तर के दशक में जो लोग मुंबई किसी मामूली नौकरी की तलाश में आये ,उन्होंने भी सही वक़्त पर अवसर को पकड़ा और अपनी दिशा में बुलंदियों की तरफ आगे चल पड़े,. आज शिक्षा का ज़माना है . प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने बारम्बार कहा है कि भारत को शिक्षा के एक केंद्र के रूप में विकसित किया जाएगा. मुंबई के राजपूत नेताओं ने इस बयान के आतंरिक तत्व को पहचान लिया और आज उत्तर प्रदेश से आने वाले राजपूतों ने शिक्षा के काम में अपनी उद्यमिता को केन्द्रित कर रखा है .उत्तरी मुंबई में कांदिवली के ठाकुर ग्रुप आफ इंस्टीट्यूशनस की गिनती भारत के शीर्ष समूहों में होती है . इसके अलावा भी बहुत सारे ऐसे राजपूत नेताओं को मैं जानता हूँ जिन्होंने शिक्षा को अपने उद्योग के केंद्र में रखने का फैसला कर लिया है . लगता है कि अब यह लोग शिक्षा के माध्यम से उद्यम के क्षेत्र में भी सफलता हासिल करेगें और आने वाली पीढ़ियों को भी आगे ले जायेगें .बहरहाल मेरे लिए यह यात्रा बहुत शिक्षाप्रद रही क्योंकि भारतीय सामाजिक जीवन के एक अहम पहलू पर बिना किसी अपराधबोध के दौर से गुजरे हुए मैंने एक सच्चाई लिख मारी .

Saturday, September 3, 2011

अन्ना की टीम के किसी बन्दे को भ्रष्ट कहने वाले अच्छे लोग नहीं हैं .

शेष नारायण सिंह नई दिल्ली,२ सितम्बर.अन्ना हजारे की टीम के ख़ास सदस्यों को घेरने की केंद्र सरकार की नीति को आज अरविंद केजरीवाल ने आड़े हाथों लिया .उन्होंने कहा कि अन्ना हजारे के आन्दोलन की धार को कमज़ोर करने के लिए कांग्रेस पार्टी के हुकुम के बाद उनके पुराने विभाग़ ने सक्रियता दिखाई है . उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार अन्ना हजारे की कोर टीम को दौंदियाने की कोशिश कर रही है . उनका दावा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मैदान ले चुकी इस देश की जनता सरकार की इस कोस्शिश को कभी भी बर्दाश्त नहीं करेगी. अरविंद केजरीवाल आज प्रेस से मुखातिब थे . उनके साथ उनके ख़ास साथी प्रशांत भूषण और किरण बेदी भी मौजूद थे. उधर सरकारी सूत्रों के हवाले से बताया गया है कि उनकी टीम के दिल्ली के सदस्यों के दागदार साबित होने के बाद अन्ना हजारे इन लोगों को अपने साथ नहीं रखेगें. सरकार को भरोसा है कि अन्ना की छवि बिलकुल साफ़ है और वे जब भी उनके साथी दागदार पाए जाते हैं , वे उन्हें अपनी टीम से ड्राप कर देते हैं . ऐसा वे महाराष्ट्र में चलाए गए अपने हर आन्दोलन के बाद कर चुके हैं . केंद्र सरकार ने अरविंद केजरीवाल को घेरने की कवायद शुरू कर दी है . जब वे इनकम टैक्स विभाग में अफसर थे ,उस समय की कुछ गड़बड़ियों को कल सरकार की तरफ से मीडिया के फोकस में लाया गया था. केजरीवाल ने आज केंद्र सरकार की मंशा पर सवाल उठाया और कहा कि जिस नोटिस को आज हर अखबार ने प्रमुखता से छापा है वह सरकार की उस योजना का नमूना है जिसके तहत वह अन्ना हजारे की टीम के ख़ास लोगों शक़ के दायरे में लेने की कोशिश कर रही है . उन्होंने कहा कि उनके ऊपर जो ९ लाख रूपये की गड़बड़ी का आरोप लगाया गया है वह बेबुनियाद है . अरविंद केजरीवाल की बात पर कोई भी सरकारी अधिकारी बयान देने को तैयार नहीं है लेकिन खुसुर पुसुर अभियान पूरी तरह से चल रहा है . इसके पहले प्रशांत भूषण के पिता शान्ति भूषण की सी डी के मामले को भी प्रेस को लीक कर दिया गया था . उस सी डी को अमर सिंह ने प्रशांत भूषण और शान्ति भूषण को भ्रष्ट साबित करने के लिए अदालत में पेश किया था . दिल्ली पुलिस अन्ना हजारे के अनशन के ख़त्म होने के बाद उस सी डी के बारे में दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल कर दिया .. यानी पुलिस मानती है कि उस मामले को साबित करने के बारे वह गंभीर नहीं है लेकिन उस सी डी के असली होने की बात को पब्लिक कर दी गयी . सच्चाई यह है कि सी डी को जिसने सुना है उसके मन में शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण के बारे में शक़ होना स्वाभाविक है क्योंकि मुलायम सिंह यादव से जो बातचीत उसमें सुनायी पड़ रही है वह पूरी तरह से स्पष्ट है और शान्ति भूषण प्रशांत की उस क्षमता का ज़िक्र कर रहे हैं जिसके अनुसार वे जजों को मैनेज कर सकते हैं . . इस सी डी का मकसद भी अन्ना की टीम के दो ताक़तवर लोगों को धूमिल करने की कोशिश ही नज़र आती है . आज दिल्ली विकास प्राधिकरण के एक अधिकारी से बात करने पर पता लगा कि सरकार अन्ना की टीम की एक अन्य सदस्य किरण बेदी की एन जी ओ जुडी कुछ बातों को पब्लिक डोमेन में डालने की बात कर रही है . डी डी ए में चर्चा है कि किरण बेदी ने अपने एन जी ओ के लिए कुछ मकान अनाधिकृत तरीके से लेने की कोशिश की थी. इसका मतलब यह हुआ कि किरण बेदी को भी शक़ के दायरे में लाने की कोशिश शुरू हो गयी है . किरण बेदी की ख्याति बहुत ही ईमानदार अफसर की रही है लेकिन सरकार उनको भी घेरने की कोशिश कर रही है . जब सरकार की हताशा के ज़िक्र सत्तापक्ष के एक बड़े नेता से किया गया तो उनका कहना था कि इन आरोपों के बाद अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण की छवि निश्चित रूप से धूमिल होगी और जो लोग अन्ना हजारे को जानते हैं उनका दावा है कि अपने साथ किसी भी दागदार आदमी को कभी न रखने वाले अन्ना हजारे अपनी टीम में फेरबदल भी कर सकते हैं .

अन्ना हजारे को सबसे बड़ा ब्रैंड बनाने वाले पत्रकार थे या कोई और ?



शेष नारायण सिंह


अपना अनशन समाप्त करने के बाद गुडगाँव के एक अस्पताल में २-३ दिन तक स्वास्थ्य लाभ करके अन्ना हजारे वापस अपने गाँव चले गए. यह खबर आज देश के हिन्दी के सबसे बड़े अखबार में पहले पेज पर छपी है .खबर गुडगाँव के संवाददाता की है और ,एक कालम की यह खबर करीब १०० शब्दों में निपटा दी गयी है . देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार में भी यह खबर पहले पेज पर संक्षिप्त छापी गयी है .यानी अब प्रिंट मीडिया को अन्ना हजारे और उनकी राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी नहीं बची है . लेकिन टेलिविज़न मीडिया ने कल शाम को जब अन्ना हजारे अस्पताल से निकले तो उस विदाई को मीडिया इवेंट बनाने की पूरी कोशिश की . कुछ चैनलों पर अन्ना हजारे की अस्पताल से विदाई की खबरों को देखने का मौका मुझे भी मिला. हेडलाइन थी कि अन्ना हजारे को अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी है . एक कार में ड्राइवर के बगल वाली सीट पर बैठ कर अन्ना हजारे को जाते हुए दिखाया गया था. वही सफ़ेद गांधी टोपी, वही सफ़ेद कुरता और वही सौम्य मुस्कान . . करीब ३ सेकण्ड का यह शाट बार बार दिखाया गया . साथ में न्यूज़ रीडर की आवाज़ भी कानों में पंहुच रही थी कि अन्ना हजारे को अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी है . उसी शाट को करीब २५ मिनट तक लगातार दिखाया गया और एक ही वाक्य को न्यूज़रीडर तरह तरह से बोलता रहा. कभी कहता कि अन्ना हजारे को असपताल से छुट्टी दे दी गयी है . और वे कहीं जा रहे हैं . . फिर कहता कि हम आपको इस बारे में पल पल की जानकारी दे रहे हैं . अब हम गुडगाँव से चलते हैं जहां हमारे संवाद दाता मिस्टर अमुक लाइव जुड़ रहे हैं . और अब वे पल पल की जानकारी देंगें . लाइव संवाददाता भी वही वाक्य कुछ फेर बदल करके सुनाते और कहते कि अभी पता नहीं है कि अन्ना को कहाँ ले जाया जा रहा है . यह भी नहीं पता कि उनके साथ कौन कौन हैं . यह भी नहीं पता कि वे कहाँ जा रहे हैं . यानी करीब ७ वाक्य ऐसे होते थे कि लाइव संवाद दाता को पता ही नहीं कि खबर क्या है लेकिन टेलिविज़न पर हैं तो कुछ न कुछ तो बोलते ही रहना है लिहाजा कुछ ऐसे वाक्य बोलते रहे जिन वाक्यों को न्यूज़ रीडर और लाइव संवाददाता ने मिलकर २५ मिनटों में सैकड़ों बार बोला होगा. बार बार लगता था कि बीच में यह न्यूज़ रीडर थोडा समय निकाल कर उन खबरों के बारे में भी बता देगा जिससे देश को पता चलता कि उत्तर भारत के बहुत सारे इलाकों में भारी बाढ़ आई हुई है . कुछ इलाकों में लोग पेड़ों पर रह रहे हैं , कुछ इलाकों में लोग बाढ़ की वजह से पूरी तरह से अलग थलग पड़ गए हैं और भूख से तड़प रहे हैं . लेकिन ऐसा कहीं होता नहीं दिखा . शाम को भी कुछ चैनलों को देखने का मौक़ा मिला . वहां भी कुछ ऐसी बहसें चल रही थीं जिनको देख कर लगता ही नहीं था कि असली भारत किन मुसीबतों से जूझ रहा है. राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी और अफज़ल गुरु की फांसी की राजनीतिक विवेचना भी कुछ चैनलों पर नज़र आई. लेकिन इन खबरों को आज अखबारों ने वह इज्ज़त नहीं दी है जो रुतबा इन का कल के टी वी चैनलों पर देखने को मिला .


ज़ाहिर है कि भारतीय मीडिया की प्राथमिकताएं खबर की औकात से नहीं किसी अन्य कारण से तय होती हैं . कुछ कठोर आलोचक टी वी न्यूज़ की प्राथमिकता को तय करने का पैमाना टी आर पी को बता कर टी वी चैनलों को बहुत ही स्वार्थी संगठन के रूप में पेश करने की कोशिश करते हैं . उस तर्क से तो टी वी चैनल इंसान की कमजोरी का बौद्धिक शोषण करने वाले संगठन के रूप में मान लिए जायेगें . आम तौर पर इंसान की यह कमजोरी होती है कि वह अपने बारे में खबर देख कर बहुत खुश होता है .हालांकि कई ज्ञानी टी वी संपादक इस बात को सेमिनारों आदि में इस बात को खुद स्वीकार करते पाए जाते हैं लेकिन उन्हें शायद मालूम ही नहीं है कि वे क्या स्वीकार कर रहे हैं . टी आर पी के दबाव में खबरों को प्रस्तुत करने की बात को कुछ हद तक तो स्वीकार किया जा सकता है लेकिन यह पूरी तरह से सच नहीं है .भारत में टेलिविज़न की बहुत सारी खबरों ने इतिहास रचा है . उन सबको यहाँ दुहराना समीचीन नहीं होगा लेकिन समकालीन भारत के राजनीतिक इतिहास में कुछ ऐसी खबरें ज़रूर हैं जिनके कारण बहुत बड़े बड़े घोटाले पब्लिक डोमेन में आये. कामनवेल्थ खेलों के घोटाले, २ जी स्पेट्रम के घोटाले आदि ऐसे उदाहरण हैं जिनको फोकस में लाने में टेलिविज़न चैनलों का भारी योगदान है . बंगारू लक्ष्मण नाम के नेता को नोटों के बण्डल संभालते दिखाकर टेलिविज़न ने भ्रष्टाचार की रिपोर्टिंग में एक संगमील स्थापित किया था . लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है इस तरह की खबरें उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं . कामनवेल्थ खेल और २ जी वाला घोटाला तो देश के राजनीतिक विकास में भारी योगदान कर रहा है . कांग्रेस को एक भ्रष्ट पार्टी के रूप में चिन्हित करने में इन खबरों का बहुत बड़ा योगदान है . लेकिन जब टेलिविज़न एक व्यक्ति के अनशन को राष्ट्रीय एजेंडा पर लाने की कोशिश करता है तो बात अजीब लगती है . टेलिविज़न की कृपा से ही ब्रैंड अन्ना अगस्त के दूसरे पखवाड़े के समय काल में १० दिनों का विज्ञापन की दुनिया का सबसे बड़ा भारतीय ब्रैंड बन सका . विज्ञापन की दुनिया से जुड़े लोगों का कहना है किसी एक आदमी को १५ दिन के अंदर देश का टाप ब्रैंड बनाना कोई मामूली सफलता नहीं है . उसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर प्लानिंग की ज़रूरत होती है . देश के आम आदमी को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि किसी को ब्रैंड बनाने के लिए कितनी प्लानिंग की गयी और कितनी नहीं की गयी. लेकिन उसे इस बात से ज़रूर मतलब है कि वह टेलिविज़न पर ऐसी ख़बरों को देखे जिस से उसकी जानकारी बढे. यहाँ कम्युनिकेशन थियरी के महान विद्वानों मार्शल मैक्लुहान और रेमंड विलियम्स के विचारों का हवाला देकर कोई प्वाइंट स्कोर करने की मंशा नहीं है लेकिन आम आदमी की उस जिज्ञासा को ज़रूर रेखांकित किया जाना चाहिए कि वह उन खबरों को ही देखे जो उसकी जानकारी में वृद्धि करें. अगर जानकारी में वृद्धि करने के बाद कोई खबर बार बार श्रोता के सर पर हथौड़े की तरह काम कर रही है तो उसे विज्ञापन कहा जायेगा. यहाँ इस बहस में भी जाने की ज़रुरत नहीं है कि पंद्रह दिनों तक टेलिविज़न पर अन्ना हजारे की जो ब्रैंड बिल्डिंग की गयी उसका उद्देश्य क्या था और उस उद्देश्य को हासिल करने के लिए टेलिविज़न टाइम कौन मुहैया करवा रहा था लेकिन यह बात सच है कि समाचार की जितनी भी परिभाषाएं अब तक जानकारी में आई हैं उनके अनुसार १५ दिन तक टेलिविज़न पर चला अन्ना हजारे का अभियान किसी भी सूरत में खबर की श्रेणी में नहीं आता . हाँ अगर यह मान लिया जाय कि वह ब्रैंड बिल्डिंग का एक आयोजन था तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी. आज के अखबारों में छपी अन्ना हजारे से सम्बंधित ख़बरों को जो मामूली ट्रीटमेंट हुआ है उसे देख कर समझ में आ जाता है कि पत्रकार बिरादरी तो अन्ना हजारे वाली ख़बरों को सही समझ रही थी लेकिन जो नज़र आ रहा था वह पत्रकारों के कारण नहीं नज़र आ रहा था. बार बार सवाल उठता है कि कहीं वह ब्रैंड मैनेजरों का काम तो नहीं था.

Friday, September 2, 2011

ताकि सड़क पर कोई मासूम घायल न हो


शेष नारायण सिंह

नोयडा,१ सितम्बर . शहर में बढ़ रहे वाहनों और बेलगाम ड्राइवरों से घबडा कर शहर में सडक दुर्घटना रोकने का एक नागरिक प्रयास चल रहा है .' राही ' नाम की एक स्वयंसेवी संस्था ने सड़क दुर्घटना रोकने को संस्थागत रूप देने की दिशा में एक अहम क़दम उठाया है . संगठन की कोशिश है कि आने वाले कुछ महीनों में नोयडा में एक ऐसे संस्थान की स्थापना की जाए जहां सड़क दुर्घटना को रोकने के तरीकों पर तरह तरह के आयोजन किये जायेगें. फिलहाल अभी शहर में छठवीं, सातवीं और आठवीं के बच्चों को सड़क दुर्घटना रोकने और उस से बचने के लिए जनजागरण की योजना को बहुत ही मामूली स्तर पर चलाया जा रहा है .

' राही ' की निगरानी में रोड एक्सीडेंट प्रिवेंशन इंस्टीटयूट शुरू करने की योजना क अंतिम रूप दिया जा चुका है , जहां सड़क पर होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने की कोशिश को बहुत ही गंभीर सामाजिक और मेडिकल समस्या के रूप में उठाया जाएगा . शहर के तीन डाक्टरों , श्रीमती ( डॉ) गुंजन धारी ,डॉ वी पी सिंह और डॉ इब्राहीम ने मिलकर शुरुआती योजना २००४ में बनायी थी . आर्थिक उदारीकरण के बाद शहर में वाहनों की संख्या में हो रही बेलगाम वृद्धि और उसकी वजह से हो रही दुर्घटनाओं से यह लोग विचलित थे . वाहनों की संख्या या ड्राइवरों के आचरण पर काबू पाना तो बहुत ही कठिन काम है . इन लोगों ने सोचा कि सड़क को दुर्घटनामुक्त करने की कोशिश की जाए. उसी संकल्प के नतीजे के रूप में इस संगठन ने जन्म लिया .सड़क दुर्घटना के शिकार होने वालों में सबसे ज्यादा संख्या में बच्चों की होती है . इस लिए अभी कम उम्र के बच्चों को की टार्गेट किया गया है . दिल्ली और आस पास के शहरों में बहुत तेज़ कार चलाने वालों में बहुत बड़ी तादाद १८ से २५ साल के नौजवानों की होती है . ' राही ' की कोशिश है कि जब १० से १४ साल के बच्चे कार चलाने की उम्र में पंहुचें तो वे सड़क हादसों की भयावहता से पूरी तरह से परिचित हों. मकसद साफ़ है . वे चाहते हैं कि सड़क पर बच्चे न तो मरें, न ही अपाहिज हों और न ही घायल हों . अगर दुर्घटना हो ही गयी तो हादसे के शिकार लोगों की समुचित चिकत्सा हो सके .


सड़क पर बच्चों की सुरक्षा के बारे में उनके माता पिता को भी जागृत किया जायेगा. इस काम में लीफलेट, पोस्टर आदि के ज़रिये जनजागरण की योजना पर काम हो रहा है. अभी इन डाक्टरों ने किसी से कुछ भी आर्थिक सहायता नहीं ली है . अपने १०० मित्रों और रिश्तेदारों की एक लिस्ट बना रखी है जिनसे हर महीने ११०० रूपये लिया जाता है . उसी धनराशि से शुरुआती काम चल रहा है . एक बातचीत में राही की संस्थापक ,डॉ गुंजन ने बताया कि काम फैला तो समाज के अन्य वर्गों को इस प्रयास में शामिल किया जायेगा.इनकी कोशिश है कि साल के अंत तक इस अभियान के बारे में पूरी तरह से जागरूकता का प्रचार कर दिया जाए. इस काम के लिए इच्छुक नागरिकों की एक फ़ोर्स तैयार करने की भी योजना है . . हर इलाके में ' राही ' के प्रयास से मंडलियाँ बनायी जा रही है जो अपने स्तर पर सड़क से हादसे को दूर रखने के लिए प्रयास कर रही हैं . संगठन की कोशिश है कि आने वाले वर्षों में उन संगठनों का एक सम्मलेन बुलाया जाय जो सड़क दुर्घटना के खतरों को कम करने के लिए प्रयास कर रहे हैं .

Wednesday, August 31, 2011

छोरा गोमती किनारे वाला ,मुंबई में छपाई की दुनिया का दादा है


शेष नारायण सिंह

पिछले हफ्ते एक दिन सुबह जब मैंने अखबार उठाया तो टाइम्स आफ इंडिया देख कर चमत्कृत रह गया . अखबार बहुत ही चमकदार था .लगा कि अलमूनियम की शीट पर छाप कर टाइम्स वालों ने अखबार भेजा है . लेकिन यह कमाल पहले पेज पर ही था.समझ में बात आ गयी कि यह तो विज्ञापन वालों का काम है . पहले और आखरी पेज पर एक कार कंपनी के विज्ञापन भी लगे थे . ज़ाहिर है इस काम के लिए टाइम्स आफ इण्डिया ने कंपनी से भारी रक़म ली होगी. टाइम्स में कुछ लोगों से फ़ोन पर बात हुई तो उन्हें छपाई की दुनिया में यह बुलंदी हासिल करने के लिए बधाई दे डाली. उन्होंने कहा कि यह छपाई उनकी नहीं है. बाहर से छपवाया गया है . लेकिन टाइम्स आफ इण्डिया में कोई भी यह बताने को तैयार था कि कहाँ से छपा है . प्रेस में काम करने वाले एक मेरे जिले के साथी ने बताया कि चीन से छपकर आया था वह विज्ञापन.. बात आई गयी हो गयी लेकिन कल एक दोस्त का मुंबई से फोन आया .इलाहाबाद से पढाई करने के दौरान वह मुंबई भाग गया था .वहां वह किसी बहुत बड़े प्रेस में काम करता था. आजकल अपना कारोबार कर रहा है .बातों बातों में मैंने उसे प्रेरणा दी कि चीन में संपर्क करे और टाइम्स आफ इण्डिया में जिस तरह से अलमूनियम पर छपाई हुई है ,उसे छापने की कोशिश करे . नई टेक्नालोजी है बहुत लाभ होगा. तब उसने बताया कि बेटा वह टाइम्स आफ इण्डिया वाला माल मैंने ही छापा है . कहीं चीन वीन से नहीं छपकर आया है वह . उसे मैंने अपने प्रेस में छाप कर टाइम्स वालों से पैसा लिया है छपाई का . और वह अलमूनियम नहीं है . कागज़ पर छाप कर उसे मैंने एक बहुत ही ख़ास तरीके से लैमिनेट किया है. तब जाकर अलमूनियम का लुक आया है. मैंने उसे हडकाया कि प्रिंट लाइन में अपना नाम क्यों नहीं डाला. उसने कहा कि वह कारोबार की बातें हैं . तुम नहीं समझोगे.
उसकी बात सुनकर मन फिर उसी कादीपुर और सुलतान पुर वापस चला गया. जहां के हम दोनों रहने वाले हैं . गोमती नदी पर स्थित धोपाप महातीर्थ के उत्तर तरफ उसका गाँव है और दक्षिण तरफ मेरा . मेरा यह दोस्त टी पी पांडे बहुत भला आदमी है . पिछले कई वर्षों से मुझे शराब पीना सिखाने की कोशिश कर रहा है . इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पी एच डी कर रहा था . शोध की कुछ सामग्री जुटाने के लिए बम्बई ( मुम्बई ) गया. चमक दमक में रिसर्च तो भूल गया . भाई ने वहां किसी फ़िल्मी पत्रिका में नौकरी कर ली. फ़िल्मी आकाश पर उन दिनों हेमा मालिनी चमक रही थीं . रेखा के जलवे थे .आदरणीय पांडे जी ने उनके दर्शन किये और मेरा दोस्त वहीं मुंबई का होकर रह गया. धीरे धीरे फ़िल्मी दुनिया की रिपोर्टिंग का दादा बन गया . वहा पत्रिका फिल्म लाइन की सबसे बड़ी पत्रिका है . बाद में उस कंपनी ने उसे पूरी छपाई का इंचार्ज बना दिया . लेकिन उसकी तरक्की से कंपनी के कुछ लोग जल गए और उसे बे इज्ज़त करने की कोशिश शुरू कर दी. मेरे इस दोस्त ने जिस बांकपन से उन लोगों से मुकाबला किया ,उस पर कोई भी मोहित हो जाएगा. मामला रफा दफा हो जाने के बाद एक दिन जब मैं मुंबई गया तो उसने मेरा हाल पूछा . मैंने कहा कि यार किस्मत ऐसी है कि ज़िंदगी भर कभी ऐसी नौकरी नहीं मिली जिस से मन संतुष्ट होता . ठोकर खाते बीत गया. अब फिर नौकरी तलाश रहा हूँ .उसने भी नए सिरे से प्रेस लगाने की अपनी कोशिश का ज़िक्र किया और कहा कि गाँव में लोग साठ साल के उम्र में बच्चों के सहारे मौज करते हैं और हम लोग साठ साल की उम्र में फिर से काम तलाश रहे हैं . अपने बचपन की तुलना में अपने आपको रख कर हम दोनों ने देखा तो समझ में आ गया कि पूंजी वादी अर्थ व्यवस्था और उस से पैदा हुई सामाजिक हालत ने हमें ज़िंदगी पर खटने के लिए अभिशप्त कर दिया है .टी पी पाण्डेय के साथ टी डी कालेज जौनपुर के राजपूत हास्टल में बिताये गए दिन याद आये. वे सपने जो अब पता नहीं कहाँ लतमर्द हो गए हैं, बार बार याद आये . लगा कि गरीब आदमी का बेटा कभी चैन से नहीं बैठ सकता लेकिन आज जब टी पी की बुलंदी को सुना-देखा है ,छपाई की टेक्नालोजी में उसके आविष्कार को देखता हूँ तो लगता है कि हम भी किसी से कम नहीं .

अपना टी पी पाण्डेय शिर्डी के फकीर का भक्त है. हर साल वहां के मशहूर कैलेण्डर को छापता है जिसे शिर्डी संस्थान की ओर से पूरी दुनिया में बांटा जाता है . पांडे जो भी करता है उसी फ़कीर के नाम को समर्पित करता है . जो कुछ अपने लिए रखता है उसे साईं बाबा का प्रसाद मानता है . अब वह सफल है . टैको विज़न नाम की अपनी कंपनी का वह प्रबंध निदेशक है . मुंबई के धीरू भाई अम्बानी अस्पताल में एक बहुत बड़ी होर्डिंग भी इसी ने छापी है जिसकी वजह से उसका नाम लिम्का बुक आफ रिकार्ड्स में दर्ज है .उसकी सफलता देख कर लगता है कि अगर मेरे गाँव के लोग भी समर्पण भाव से काम करें तो मुंबई जैसी कम्पटीशन की नगरी में भी सफलता हासिल की जा सकती है .

अरुण जेटली की प्रतिभा के सामने नतमस्तक हुई सरकार



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,३० अगस्त . अन्ना हजारे के अनशन से पैदा हुए संकट को हल करने में जब सरकार पूरी तरह से फेल हो गयी तो राज्य सभा में विपक्ष के नेता , अरुण जेटली ने संसद और देश की राजनीतिक व्यवस्था के सामने मौजूद संकट का हल निकालने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई. पता चला है कि सत्ता पक्ष की ओर से कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने अरुण जेटली की हर सलाह को माना और आखिर में संकट का समाधान निकल सका और अन्ना हजारे के जीवन की रक्षा करने की कोशिश को गति मिली.सूत्र बताते हैं कि अरुण जेटली की प्रतिभा की ही ताक़त थी कि अन्ना हजारे से सीधा संपर्क करने का फैसला किया गया और केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख को प्रधान मंत्री के दूत के रूप में सक्रिय किया गया.

जब सरकार के केस को कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी जैसे लोगों ने बहुत ही कठिन मुकाम पर लाकर छोड़ दिया तो प्रधानमंत्री की सलाह पर सलमान खुर्शीद ने समस्या का हल निकालने की कोशिश शुरू की. मुश्किल वक़्त में उन्होंने अपने सुप्रीम कोर्ट के वकील दोस्त दोस्त अरुण जेटली के मदद माँगी.दोनों सुप्रीम कोर्ट में साथ साथ वकालत कर चुके हैं और अच्छे मित्र के रूप में जाने जाते हैं . अरुण जेटली की सलाह पर ही अन्ना हजारे से डायरेक्ट संवाद स्थापित किया गया. जब अन्ना के टीम के लोग बात चीत से अलग कर दिए गए तो काम बहुत ही आसान हो गया . सूत्र बताते हैं कि उसके बाद अरुण जेटली की प्रतिभा ही हर मोड़ पर सरकार के काम आई. . योजना के अनुसार काम हुआ और प्रधान मंत्री, प्रणब मुखर्जी, विलासराव देशमुख,संदीप दीक्षित और राहुल गांधी के अलावा कांग्रेस में किसी को भे योजना के भनक नहीं थी. बताया गया है कि अरुण जेटली ने अपने नेताओं को सब कुछ बता रखा था. अन्ना हजारे से लोकसभा में पेश किये जाने वाले सरकार के बयान के बारे में चर्चा हो चुकी थी लेकिन उनकी टीम के किसी व्यक्ति को कुछ नहीं मालूम था. संसद में चल रहे बहस के दिन का घटनाक्रम देखने से पता लगता है कि जब अन्ना हजारे की टीम के सदस्य अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण सलमान खुर्शीद से मिलने गए तो उन्होंने लोकसभा में प्रस्तावित चर्चा की रूपरेखा उनको बता दी. सूत्रों का दावा है कि कानूनमंत्री को शायद यह पता नहीं था कि अन्ना हजारे ने सर्वोच्च स्तर पर हुई बातचीत को अपने सहायकों को नहीं बताया था. शायद इसीलिए प्रशांत भूषण और अरविंद केजरीवाल ने मीडिया में बहुत ही गुस्से में बयान दे दिया था. बहरहाल बाद में लोक सभा में सुषमा स्वराज और संदीप दीक्षित और राज्य सभा में अरुण जेटली ने बात को संभाल लिया . अन्ना के अनशन से उत्पन्न संकट का हल निकालने में राजनीतिक बिरादरी ने जो परिपक्वता दिखाई है उसे समकालीन भारतीय राजनीति में समझदारी का एक अहम मुकाम माना जाएगा.

Saturday, August 27, 2011

अन्ना हजारे के आन्दोलन के साथ अब कोई राजनीतिक दल नहीं है.


शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली ,२६ अगस्त आज लोक सभा में औपचारिक और गैर औपचारिक स्तर पर एक दम साफ़ हो गया कि भारतीय जनता पार्टी अन्ना हजारे की टीम की तरफ से पेश किये गए जान लोक पाल बिल का समर्थन नहीं करती है .अन्ना हजारे का आन्दोलन अब राजनीति से धीरे धीरे अलग हो रहा है .कांग्रेस पिछले तीन महीने से अन्ना से जान छुडाने की कोशिश कर रही है , आज बीजेपी की भी अन्ना से किनारा करने की कोशिश सामने आ गयी. बीजेपी के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने साफ़ कहा कि अन्ना हजारे के साथियों ने जो बिल बनाया है उसमें बहुत सारी ऐसी बातें हैं जिनको कानून की शक्ल नहीं दी जा सकती. वहीं पार्टी के पूर्व अध्यक्ष डॉ मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि अन्ना हजारे के साथी राजनीतिक प्रक्रिया को अपमानित करने की कोशिश कर रहे हैं .अन्ना के समर्थन में अब तक सबसे बड़ी राजनीतिक आवाज़ बीजेपी की मानी जा रही थी लेकिन उसके भी किनारा करने से अन्ना का आन्दोलन राजनीतिक समर्थन के रेंज से बाहर होता जा रहा है .आज दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ी जातियों के एक मंच से भी अन्ना के विरोध में ज़बरदस्त आवाज़ सुनने में आई.

कल के राजनीतिक घटनाक्रम से साफ़ हो गया था कि केंद्र सरकार ने अन्ना हजारे से सीधी बात का जरिया निकाल लिया था और साफ़ संकेत दे दिया था कि अन्ना टीम के सदस्यों से अब सरकार बात नहीं करेगी. केंद्रीय मंत्री विलास राव देशमुख और अन्ना हजारे की मुलाकात का उद्देश्य केवल यह साबित करना था. आज दिन भर भी सरकार ने अन्ना हजारे से बातचीत का सीधा रास्ता खुला रखा ,उनकी टीम वालों से कोई संवाद स्थापित नहीं हुआ. ऐसा शायद इसलिए हुआ कि प्रणब मुखर्जी से मिलकर आने के बाद अन्ना टीम एक ख़ास मेंबर अरविंद केजरीवाल ने जो कुछ कहा था उसे कुछ ही मिनटों के अंदर प्रणब मुखर्जी ने गलत बता दिया और नसीहत दे डाली कि अन्ना के साथियों को गंभीर विषयों पर असत्य बात नहीं करना चाहिए. लगता है कि अन्ना टीम वाले यह गलती बार बार कर रहे हैं . कल बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी के साथ मिलकर जब अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी और प्रशांत भूषण बाहर निकले तो जो बातें उन्होंने मीडिया से बतायी वह अरुण जेटली के बयान से बिलकुल उल्टी थी. ज़ाहिर है अन्ना टीम ने बीजेपी नेताओं से हुई बातचीत का सही ब्योरा प्रेस को नहीं बताया था. अन्ना टीम ने कहा था कि उनके जन लोकपाल बिल की ज़्यादातर बातों को आडवानी जी ने सही माना था लेकिन आज यह बात बिलकुल साफ़ हो गयी कि अन्ना हजारे के बिल को उसके मूल रूप में पास कराने एक लिए बीजेपी बिलकुल तैयार नहीं है .बीजेपी की दिन भर किनारा करने की कोशिश के बीच जब डॉ मुरली मनोहर जोशी से यह पूछा गया कि आर एस एस तो पूरी तरह से अन्ना हजारे का समर्थन कर रही है तो उन्होंने कहा कि आर एस एस ने मार्च २०१० में एक प्रस्ताव पास किया था कि जो भी भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करेगा ,उसका समर्थन किया जाएगा . उन्होंने दावा किया कि अन्ना हजारे और रामदेव के आन्दोलन उसके बहुत बाद में शुरू हुए इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि आर एस एस अन्ना के साथ है . वह तो भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने घोषित कार्यक्रम को लागू कर रहा है .

अनुसूचित जातियों और अन्य संगठनों के प्रतिनिधियों ने भी आज दिल्ली में एक प्रेस वार्ता करके दावा किया कि उनका भी एक बहुजन लोकपाल बिल है जिसे सरकार के पास भेज दिया गया है . इस संगठन के नेता, उदित राज, शबनम हाशमी, अज़ीज़ बर्नी आदि ने दावा किया कि उन्हने दर है कि अन्ना हजारे और सरकारी लोक पाल बिल के पास हो जाने के बाद बहुजन अर्थात दलित ,पिछड़े,एवं अल्पसंख्यक वर्गों के अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ बदले की भावना से काम करेगा. उन्होंने सवाल किया कि जब महारष्ट्र में राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों पर लाठियां बरसाई थीं तो अन्ना हजारे ने उसका विरोध क्यों नहीं किया . २००२ में गुजरात में मुसलमानों के क़त्ले आम के बाद भी अन्ना हजारे ने नरेंद्र मोदी की तारीफ क्यों की. आज का दिन अन्ना हजारे के आन्दोलन के बिखराव की शुरुआत का दिन साफ़ नज़र आ रहा था.

Friday, August 26, 2011

संसद की स्टैंडिंग कमेटी के पास अकूत पावर होता है


शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, २५ अगस्त .लोकपाल बिल पर चर्चा के दौरान संसद की स्थायी समिति यानी स्टैंडिंग कमेटी का बार बार उल्लेख हुआ. किसी ने कहा कि स्थायी समिति के पास कोई पावर नहीं होता . इसलिए बिल पर चर्चा लोक सभा में ही होनी चाहिए. अजीब बात है कि सरकार की तरफ से भी इस बात को बहुत ही साफ़ तरीके से लोगों को नहीं बताया गया कि स्थायी समिति के पास किसी भी बिल के बारे में चर्चा करने के असीमित पावर होते हैं . यहाँ तक कि अगर स्थायी समिति चाहे तो सरकार की तरफ से भेजे गए बिल के हर शब्द को बदल सकती है और बिलकुल नया बिल सदन के विचार के लिए पेश कर सकती है . वह बिल को सम्बंधित मंत्रालय के पास यह कह कर लौटा भी सकती है कि बिल में कोई दम नहीं है इसलिए उसे संसद के विचार के लिए नहीं पेश किया जा सकता. सत्ताधारी पार्टी का एक बहुत ही प्रिय बिल सूचना के अधिकार के सम्बन्ध में था. नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल वालों ने बहुत ही मेहनत करके बिल बनाया था . कांग्रेस उस बिल का श्रेय लेते नहीं अघाती लेकिन जो बात बहुत कम लोगों को मालूम है वह यह कि सरकार ने जिस बिल का मसौदा संसद की स्थायी समिति के पास भेजा था उसमें १५० संशोधन किये गए थे और जो बिल संसद में विचार के लिए स्थायी समिति ने भेजा वह मूल मौसदे से बहुत ही अलग और अच्छा था. इसी तरह के और भी बहुत सारे उदाहरण हैं . इसलिए अन्ना की टीम के सदस्यों ने कानून मंत्रालय की स्थायी समिति के बारे में जो पावर न होने की बात कही थी उस बात में कोई दम नहीं है . दुर्भाग्य की बात है कि सरकार और कांग्रेस पार्टी की तरफ से भी सही बात जोर देकर नहीं कही गयी और जनता को इस बारे में कई भ्रांतियों के शिकार होने के लिए मजबूर होना पड़ा.

संसद की स्थायी समितियों का इतिहास बहुत पुराना नहीं है . १९८० के दशक में यह अनुभव किया गया कि संसद के प्रति सरकार की जवाबदेही के बुनियादी सिद्धांत को मुकम्मल तरीके से नहीं लागू किया जा रहा था . संसद के प्रति सरकार की ज्यादा जवाबदेही सुनिश्चित करने के उद्देश्य से संसद में कमेटी सिस्टम की व्यवस्था लागू की गयी. १९८९ में पहली बार तीन कमेटियां बनायी गयीं. मकसद यह था कि किसी भी बिल के संसद में पेश होने से पहले उसकी विधिवत विवेचना की जाये और जब सभी पार्टियों की सदस्यता वाली समिति उसे मंजूरी दे तब संसद के सामने मामले को विचार के लिए प्रस्तुत किया जाए. १९८९ में केवल तीन कमेटियां बनायी गयी थी, एक कृषि के लिए, दूसरी `विज्ञान और टेक्नालोजी के लिए और तीसरी पर्यावरण और वन विभाग के लिए थी. इन कमेटियों की सफलता के बाद ही भारतीय संसद में कमेटी सिस्टम को विधायी कार्य के लिए एक प्रभावी संस्था के रूप में स्वीकार किया गया. १९९३ में १७ मंत्रालयों और विभागों की स्थायी समितियां बनायी गयीं . इन में ६ कमेटियां राज्यसभा के अध्यक्ष की निगरानी में थीं जबकि ११ कमेटियां लोकसभा के अध्यक्ष की निगरानी में काम कर रही थीं .२००४ में कमेटियों की संख्या बढ़ाकर २४ कर दी गयी.
इन कमेटियों का मुख्य काम सरकार के कामकाज की गंभीर विवेचना करना और संसद के प्रति सम्बंधित मंत्रालय कोपूरी तरह से जवाबदेह बनाना है . ,सम्बंधित मंत्रालय या विभाग की बजट मांगों पर पहले स्थायी समिति में चर्चा होती है और वहां पर जानकारों की राय तक ली जा सकती है .उस विभाग से सम्बंधित बिल भी सबसे पहले उस मंत्रालय की स्थायी समिति के पास जाता है . लोक पाल बिल कानून मंत्रालय की स्थायी समिति के पास भेजा गया है .इस कमेटियों में जब चर्चा के लिए को बिल लाया जाता है तो उसकी बाकायदा जांच करके उसे संसद में प्रस्तुत किया जाता hai. कमेटी का लाभ यह है कि सदन में पेश होने के पहले बिल का नीर क्षीर विवेक हो चुका होता है और हर पार्टी उसमें अपना राजनीतिक योगदान कर चुकी होती है . ऐसा नहीं हो सकता कि सरकार वहां मनमानी कर ले क्योंकि कमेटी का गठन ही सरकार को ज्यादा ज़िम्मेदार ठहराने के लिए किया जाता है .सभी पार्टियों के सदस्य इन कमेटियों के सदस्य होते हैं इसलिए सरकार के काम काज की इनकी बैठकों में बाकायदा जांच की जाती है . आम तौर पर यहाँ पर फैसले आम सहमति से होते हैं लेकिन अगर कोई सदस्य चाहे तो नोट आफ डिसेंट लगा सकता है .
इन कमेटियों के गठन के भी संसद ने नियम बना रखे हैं. हर स्थायी समित के पास कई बार एक से ज्यादा मंत्रालय भी हो सकते हैं . हर स्थायी समिति में ३१ सदस्य होते हैं . २१ लोक सभा के सदस्य होते हैं जबकि १० राज्यसभा के . कोई भी मंत्री इन समितियों का सदस्य नहीं बन सकता.क्योंकि सरकार के काम काज की जांच के लिए ही तो कमेटी का गठन होता है . कमेटी की सदस्यता केवल एक साल के लिए होती है . अपने नियंत्रण वाली कमेटियों के अध्यक्षों की नियुक्ति राज्य सभा और लोक सभा के अध्यक्ष खुद करते हैं . जन लोक पाल बिल जिस कमेटी के हवाले किया गया है उसके अध्यक्ष कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी हैं . अलग अलग कमेटियों की अध्यक्षत अलग अलग पार्टी के सदस्यों के पास होती है . इसलिए संसद की स्थायी समिति को कम पावर वाली कहना बिलकुल भ्रामक है

Monday, August 22, 2011

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की टिकटों के संकेत



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, २२ अगस्त . कांग्रेस ने फर्रुखाबाद विधानसभा सीट से सलमान खुर्शीद की पत्नी को टिकट देकर जहां एक बार केंद्रीय कानून मंत्री की ज़मीनी राजनीतिक हैसियत नापने का काम किया है वहीं समाजवादी पार्टी को भी सन्देश दे दिया है कि उनके अपने प्रभाव वाले इलाके में भी कांग्रेस चुनावों को बहुत ही गंभीर तरीके से लड़ने के मूड में है. हालांकि समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को पिछली बार भी यहाँ बसपा ने हरा दिया था लेकिन यह इलाका मुलायम सिंह के व्यक्तिगत प्रभाव वाला माना जाता है . अपनी पहली सूची जारी करके उत्तरप्रदेश में कांग्रेस अपनी राजनीतिक मंशा का ऐलान कर दिया है . पहली सूची के संकेत साफ़ हैं . कांग्रेस अपने सांसदों को सीट की हारजीत के लिए ज़िम्मेदार ठहराना चाहती है.शायद इसीलिये पार्टी के सांसदों के परिवार वालों को विधानसभा का टिकट देकर यह बता दिया है कि अगर अपने परिवार के लोगों को नहीं जितवा सकते तो २०१४ में अपने टिकट की भी बहुत पक्की उम्मीद मत कीजिये. मसलन राहुल गाँधी की सीट के पांच टिकटों में आज उन्हीं लोगों के नाम हैं जिनका जीतना आम तौर पर पक्का माना जाता है . सलमान खुर्शीद की पत्नी और बरेली के प्रवीण ऐरन की पत्नी का टिकट भी इसलिए दिया गया है कि जहां से आप जीत कर आये हैं वहां अपने घर वालों को जिताइये.
हालांकि अगर ध्रुवीकरण हुआ तो लड़ाई में बीजेपी के शामिल होने की भी पूरी संभावना है .इसके लिए मुरादाबाद में कोशिश भी की जा चुकी है . लेकिन अगर मामला हर बार की तरह जातिगत आंकड़ों के इर्द गिर्द ही रहा तो समाजवादी पार्टी की बहुजन समाज पार्टी को हर क्षेत्र में घेरने के चक्कर में है. दिल्ली समाजवादी पार्टी के अंदर तक की हाल जानने वाले एक भरोसेमंद सूत्र का दावा है कि अभी भी अजीत सिंह संपर्क में हैं और पश्चिम में मुलायम सिंह के साथ मिलने की सोच रहे हैं लेकिन राष्ट्रीय लोकदल के कई नेताओं से बात चीत हुई तो पता चला कि ऐसा कुछ नहीं है . समाजवादी पार्टी ने पश्चिमी जिलों से जिन उम्मीदवारों को उतारा है उनमें से कई अजीत सिंह की टिकट के लिए प्रयास कर रहे हैं . उनके एक बहुत ही करीबी सूत्र ने बताया कि मुलायम सिंह को भी पश्चिम से बहुत उम्मीद नहीं है इसलिए वे अपना ध्यान मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश पर लगा रहे हैं . इसके लिए उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों की राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं पर लगाम देने की कोशिश भी की है.रामपुर के आज़म खां को भी लाये हैं लेकिन आज़म खां के आने से कोई राजनीतिक लाभ नहीं हो रहा है. इसका कारण शायद यह है कि पिछले लोक सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने आज़म खां की ताकत को इतना कम कर दिया था कि उनके फिर से किसी काम का होने में वक़्त लगेगा. समाजवादी पार्टी की ताक़त इटावा के आस पास के जिलों में ही सबसे ज्यादा है , वहां भे एहर सीट पर उसे बहुजन समाज पार्टी की चुनौती मिल रही है. . जहां तक पूरब का सवाल है वहां बहुजन समाज पार्टी तो ताक़तवर है ही , पीस पार्टी नाम का एक संगठन भी समाजवादी पार्टी के बुनियादी वोटों को हर क्षेत्र में काट रहा है . इस बीच मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे को उत्तराधिकारी घोषित करने की अपनी योजना को भी थोडा ढील दी है . बताया गया है कि उन्होंने कई लोगों से कहा कि जब उत्तराधिकार में कुछ होगा तभी तो देने का सवाल पैदा होगा . इस बीच खराब स्वास्थ्य के बावजूद वे खुद ही रोज़ की राजनीतिक गतिविधियों पर नज़र रख रहे हैं और इलाके के ताक़तवर लोगों को साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं .साथ ही मुसलमान वोटों के मुख्य दावेदार के रूप में भी उनकी छवि ध्वस्त हो चुकी है . उस वोट पर कांग्रेस ने अपनी मज़बूत पकड़ बना ली है हालांकि पश्चिम का प्रभावशाली मुस्लिम वोट अभी भी बसपा के पास ही है .

Saturday, August 13, 2011

सरकार अन्ना हजारे को अनशन स्थल से उठा भी सकती है .




शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,११ अगस्त. अन्ना हजारे के १६ अगस्त को प्रस्तावित अनशन से केंद्र सरकार में अंदर तक घबडाहट है लेकिन इस बार सरकार उनसे दो दो हाथ करने के मूड में है.हालांकि सरकार में यह भी बातें चर्चा में हैं कि राम देव वाले रामलीला मैदान वाले आन्दोलन के तरह कोई गलती न हो . मीडिया के लिए बनाए गए मंत्रियों के ग्रुप की ब्रीफिंग में आज गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि अगर अनशन के दौरान अन्ना हजारे की तबियत बिगड़ी तो उन्हें अनशन की जगह से उठा कर उनकी जान बचाने की कोशिश की जायेगी. जब गृह मंत्री इस तरह की बात करता है तो उसका मतलब अन्ना के एटीम के हर सदस्य की समझा में ज़रूर आ गया होगा.सरकार ने आज अन्ना हज़ारे के प्रस्ताविर अनशन को बेतुका बताया और कहा कि जब लोकपाल बिल संसद की स्थायी समिति के विचार के लिए पेश किया जा चुका है ,तो उस पर रचनात्मक सुझाव दिए जाने चाहिए , दबाव की राजनीति से बचना चाहिए . गृह मंत्री ने कहा कि लोकतंत्र में सब को अपना विरोध व्यक्त करने की आज़ादी है लेकिन वक़्त ही बताएगा कि विरोध सही था कि नहीं . हालांकि सरकार अब अन्ना को हीरो बनने से रोकने के लिए पूरी तैयारी कर चुकी है . आज दिल्ली के एक अखबार में खबर लीक की गयी है कि अन्ना हजारे की टीम के कुछ सदस्यों के एन जी ओ को कई विदेशी दूतावासों से धन मिलता है . उनेक साथियों के कुछ संगठनों को दुनिया के बहुत बड़े बैंकों से भी पैसा मिलता है .लीमैन ब्रदर्स नाम के बैंक का नाम भी अखबार में छपा है . उनके साथियों के एन जी ओ को दान देने वालों में दुनिया की सबसे बड़ी रिटेल कंपनी वाल मार्ट का नाम भी अखबार में छपा है . सूत्रों ने बताया कि सरकार ने खुसफुस अभियान के ज़रिये यह भी दिल्ली के सत्ता के गलियारों में फैला रखा है कि अन्ना हजारे की टीम के सदस्य जजों को तो लोकपाल के जांच के दायरे में लेने की बात करते हैं लेकिन वे एन जी ओ के भ्रष्टाचार की जांच को लोकपाल से बाहर रखना चाहते हैं . जब यह लोग बुधवार को संसद के एसमिति में हाज़िर हुए थे तो उन्होंने आग्रह किया था कि एन जी ओ को उस जांच से बाहर रखा जाए. गौर करने की बात यह है कि अन्ना हजारे और रामदेव के खिलाफ कांग्रेस की तरफ से शुरुआती मोर्चा संभालने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी मांग की थी कि रामदेव को धन देने वालों की जांच भी की जानी चाहिये .

अन्ना हजारे के खिलाफ तो सरकार के पास कुछ नहीं है लेकिन उनके साथियों की तरकीबों को मजाक का विषय बनाने के एकापिल सिब्बल की कोशिश आज भी जारी रही. जब गृह मंत्री से पूछा गया कि राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र अमेठी में ९५ प्रतिशत लोग अन्ना को सही मानते हैं तो उन्होंने कहा कि चांदनी चौक के सर्वे के बाद जो बात कपिल सिबल ने कही थी मैं भी वही कहता हूँ . मुझे ताज्जुब है कि यह रिज़ल्ट १०० प्रतिशत क्यों नहीं है .गृह मंत्री ने यह भी आभास देने की कोशिश की कि सरकार अन्ना हजारे के प्रस्तावित अनशन से परेशान नहीं है . वह दिल्ली पुलिस के स्तर का मामला है और उसे उसी स्तर पर हल कर लिया जाएगा. सरकार के अंदर के सूत्र बताते हैं कि आन्दोलन को हल्का करके पेश करने का काम पब्लिक के लिए है . वैसे सरकार पूरी तरह से मन बना चुकी है कि इस बार अन्ना हजारे के साथियों की कमजोरियों को पब्लिक करके उनके आन्दोलन की हवा निकालने की पूरी कोशिश की जायेगी . दिल्ली के एक बड़े अखबार में उनके साथियों के एन जी ओ को मिलने वाली रक़म का संकेत देकर सरकार ने अपने इरादों की एक झलक दिखा दी है . ज़ाहिर है जब अखबारों और टी वी चैनलों में विदेशी दान की बातें आयेंगीं तो टीम अन्ना रक्षात्मक मुद्रा में तो हो ही जायेगी.

Friday, August 12, 2011

काश हर मोहल्ले में ऐकू लाल होते



शेष नारायण सिंह

सुप्रीम कोर्ट के विचार के लिए एक अजीब मामला पेश किया गया है .अकबर नाम के एक बच्चे की कस्टडी का केस है . बच्चा मुसलमान माँ बाप का है . करीब सात साल पहले जब अकबर छः साल का था ,अपने पिता के साथ इलाहाबाद के एक शराबखाने पर गया था . बाप ने शराब पी और नशे में धुत्त हो गया . बच्चा भटक गया लेकिन बाप को पता ही नहीं चला कि बच्चा कहाँ गया . गुमशुदगी की कोई रिपोर्ट नहीं लिखाई गयी. लखनऊ के कैसर बाग़ में बच्चा चाय की एक दुकान के सामने गुमसुम हालत में पाया गया. चाय की दुकान के मालिक ऐकू लाल ने बच्चे को देखा और साथ रख लिया . बहुत कोशिश की कि बच्चे के माता पिता मिल जाएँ. मुकामी टी वी चैनलों पर इश्तिहार भी दिया लेकिन कहीं कोई नहीं मिला. जब कोई नहीं मिला जो बच्चे को अपना कह सके तो उसने बच्चे को स्कूल में दाखिल करवा दिया . बच्चे का नाम वही रखा , धर्म नहीं बदला, स्कूल में बच्चे के माता पिता का वही नाम लिखवाया जो बच्चे ने बताया था. लेकिन ऐकू ने इस बच्चे को अपने जीवन का मकसद समझ कर तय किया कि वह शादी नहीं करेगा . उसे शक़ था कि उसकी होने वाली पत्नी कहीं बच्चे का अपमान न करे . तीन साल बाद अकबर के माँ बाप को पता चला कि वह ऐकू लाल के साथ है.उन्होंने बच्चे की कस्टडी की मांग की लेकिन ऐकू लाल ने मना कर दिया क्योंकि बच्चा ही उसे छोड़कर जाने को तैयार नहीं था .बच्चे के माँ बाप ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुक़दमा कर दिया और बच्चे की कस्टडी की फ़रियाद की .उन्होंने ऐकू लाल पर आरोप लगाया कि उसने बच्चे को बंधुआ मजदूर की तरह रखा हुआ था . मामला २००७ में इलाहाबाद हाई कोर्ट में जस्टिस बरकत अली जैदी की अदालत में सुनवाई के लिए आया . माननीय न्यायमूर्ति ने आदेश दिया कि बच्चे की इच्छा और केस की अजीबो गरीब हालत के मद्दे नज़र बच्चे को ऐकू लाल की कस्टडी में रखना ही ठीक होगा. बच्चे की माँ का वह तर्क भी हाई कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया कि ऐकू लाल ने बच्चे को बंधुआ मजदूर की तरह रखा था. . बच्चे के स्कूल की मार्कशीट अच्छी थी और स्कूल में उसकी पढाई अव्वल दर्जे की थी.हालात पर गौर करने के बाद जस्टिस जैदी ने कहा कि अपना देश एक धर्मनिरपेक्ष देश है . जाति बिरादरी की बातों को न्याय के रास्ते में नहीं आने देना चाहिए . जब अंतर जातीय विवाह हो सकते हैं तो अंतर जातीय या अंतर-धर्म के बाप बेटे भी हो सकते हैं . बच्चा ऐकू लाल के पास ही रहेगा ,इसमें बच्चे की इच्छा के मद्दे नज़र उसके जैविक माता पिता की प्रार्थना को नकार कर बच्चे को ऐकू लाल के पास ही रहने दिया गया .
अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है. जहां जस्टिस डी के जैन और एच एल दत्तु की बेंच में बुधवार को इस पर विचार हुआ .अदालत ने सवाल पूछा कि जब अकबर का बाप शराब की दुकान पर बच्चे को भूलकर घर चला आया था तो बच्चे की माँ ने उसके गायब होने की रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवाई थी. बेंच ने कहा कि सबको मालूम् है कि कानून के हिसाब से इतनी कम उम्र के बच्चे की स्वाभाविक गार्जियन उसकी माँ होती है . हम तो तुरंत आदेश देकर मामले को निपटा सकते हैं.लेकिन बच्चे की मर्ज़ी महत्वपूर्ण है . वह उस आदमी को छोड़कर नहीं जाना चाहता जिसने अब तक उसका पालन पोषण किया है . सुप्रीम कोर्ट ने बच्चे की माँ शहनाज़ के वकील से कहा कि उसकी आमदनी के बारे में एक हलफनामा दाखिल करें .लेकिन इसके पहले बेंच ने शहनाज़ के वकील से जानना चाहा कि वे क्यों ऐसा आदेश करें जिससे बच्चा उस आदमी से दूर हो जाए जिसने उसकी सात साल तक अच्छी तरह से देखभाल की है . ऐकू लाल की भावनाओं को बेंच ने नोटिस किया और कहा कि उसने बच्चे का नाम तक नहीं बदला , उसके माँ बाप का नाम वही रखा , बच्चे के माँ बाप को तलाशने के लिए विज्ञापन तक दिया.यह वही मान बाप हैं जिन्होंने अकबर के गायब होने के बाद रिपोर्ट तक नहीं लिखाया था. बहर हाल मामला देश की सर्वोच्च अदालत की नज़र में है और इस पर अगली सुनवाई के वक़्त फैसला हो पायेगा.लेकिन ऐकू लाल की तरह के लोग हे एवाह लोग हैं जिन पर हिंद को नाज़ है